द्विवेदी-युगीन गद्य

द्विवेदी-युगीन गद्य


सन् 1900 तक भारतेन्दु युग की समाप्ति मानी जाती है। सन् 1900 से 1922 तक अर्थात् शताब्दी के प्रथम चरण को हिन्दी साहित्य में द्विवेदी-युग माना जाता है। इस युग को जागरण-सुधार काल भी कहा गया है। हिन्दी गद्य साहित्य के इतिहास में पं0 महावीरप्रसाद द्विवेदी (सन् 1864-1938) का आविर्भाव एक महत्त्वपूर्ण घटना है। द्विवेदीजी रेलवे के एक साधारण कर्मचारी थे। उन्होंने स्वेच्छा से हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी और बंगला भाषाओं का अध्ययन किया था। सन् 1903 में आपने रेलवे की नौकरी छोड़कर सरस्वती पत्रिका का संपादन आरम्भ किया। सरस्वती के माध्यम से आपने हिन्दी साहित्य की अभूतपूर्व सेवा की। द्विवेदीजी ने व्याकरणनिष्ठ, संयमित, सरल, स्पष्ट और विचारपूर्ण गद्य के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की, भाषा के प्रयोगों में एकरूपता लाने और उसे व्याकरण के अनुशासन में लाकर व्यवस्थित करने में द्विवेदीजी ने स्तुत्य प्रयास किया। इसी समय बाबू बालमुकुन्द गुप्त उर्दू से हिन्दी में आये। उन्होंने हिन्दी गद्य को मुहावरेदार सजीव और परिष्कृत करने में पूरा-पूरा ध्यान दिया। अनस्थिरता शब्द के प्रयोग को लेकर द्विवेदीजी से उनका विवाद प्रसिद्ध है। इस युग में द्विवेदीजी के अतिरिक्त माधव मिश्र, गोविन्द नारायण मिश्र, पद्मसिंह शर्मा, सरदार पूर्णसिंह, बाबू श्यामसुन्दर दास, मिश्रबन्धु, लाला भगवानदीन, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि लेखकों ने हिन्दी गद्य के विकास में योग दिया। इस युग में गद्य साहित्य के विभिन्न रूपों का विकास हुआ और गंभीर निबंध, विवेचनापूर्ण आलोचनाएँ तथा मौलिक कहानियाँ, उपन्यास और नाटक लिखे गये। इसी युग में काशी में बाबू श्यामसुन्दर दास ने नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की और हिन्दी के उपयोगी एवं गंभीर साहित्य के निर्माण की दिशा में स्तुत्य प्रयास किया। सरस्वती के अतिरिक्त ‘इन्दु, सुदर्शन, समालोचक, प्रभा, मर्यादा, माधुरी आदि पत्रिकाएँ इसी युग में प्रकाशित हुईं। द्विवेदी युग के उत्तरार्द्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बाबू गुलाब राय ने चिन्तन-प्रधान गद्य के विकास में उल्लेखनीय कार्य किया। द्विवेदी युग में गद्य शैली के अनेक रूप सामने आये। पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी की साफ-सुथरी, संयमित, परिमार्जित प्रसन्न-शैली; बाबू श्यामसुन्दर दास की औदात्यपूर्ण व्यास शैली, गोविन्द नारायण मिश्र की तत्सम प्रधान, समास बहुल, पांडित्यपूर्ण शैली; बालमुकुन्द गुप्त की ओजस्वी, प्रवाहपूर्ण, तीखी, व्यंग्य शैली; मिश्र बन्धुओं की सूचना-प्रधान, तथ्यान्वेषिणी शैली; पद्मसिंह शर्मा की प्रशंसात्मक शैली; सरदार पूर्णसिंह की लाक्षणिक एवं आवेगशील शैली; चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की पांडित्यपूर्ण, व्यंग्यमयी शैली, गणेश शंकर विद्यार्थी की मर्मस्पर्शी, ओजस्विता, मूर्तविधायिनी शैली; पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की सुबोध और रमणीय गद्य-शैली; आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की चिन्तन-प्रधान, आत्मविश्वासमंडित, तत्त्वान्वेषिणी, समास शैली और बाबू गुलाब राय की सहज हास्यपूर्ण तथा विषयानुसार विचार-प्रधान एवं संयमित शैली के वैविध्य-पूर्ण विधान से द्विवेदी-युगीन गद्य-साहित्य अद्भुत गरिमा से मंडित हो गया है।  

छायावाद-युगीन गद्य 

    सन् 1919 में पंजाब के जलियाँवाला बाग में आयोजित सभा में निहत्थी तथा असहाय जनता को गोलियों से भून दिया गया। 1920 ई0 में गाँधीजी ने व्यापक असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया, किन्तु लगभग दो वर्ष बाद ही यह आन्दोलन स्थगित कर दिया गया। कुछ वर्ष बाद सन् 1931 में सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी भगतसिंह को फाँसी दी गयी। इन घटनाओं ने राष्ट्रीय चेतना को और दृढ़ किया। युवकों का कल्पनाशील मानस कुछ कर गुजरने के लिए तड़पने लगा। इस युग में पराधीनता और विवशता की अनुभूति से आकुल होकर यदि कभी वेदना और पीड़ा के गीत गाये गये, तो दूसरे ही क्षण स्वाधीनता के लिए सतत संघर्ष की बलवती प्रेरणा से उत्साहित होकर स्फूर्ति और आत्म-विश्वास की भावना को मुखरित किया गया। द्विवेदी युग सब मिलाकर नैतिक मूल्यों के आग्रह का युग था। इसलिए नवीन भावनाओं से प्रेरित युग-लेखक इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप भाव-तरल, कल्पना-प्रधान एवं स्वच्छन्द चेतना से युक्त साहित्य रचना में प्रवृत्त हुए। यह प्रवृत्ति कविता और गद्य दोनों ही क्षेत्रों में लक्षित होती है।सन् 1919  से 1938 तक के काल- खण्ड को हिन्दी साहित्य के इतिहास में छायावाद-युग नाम दिया गया है। इस युग की सीमा में रचित गद्य अधिक कलात्मक हो गया है। उसकी अभिव्यंजना-शक्ति विकसित हुई है। वह चित्रण-प्रधान, लाक्षणिक, अलंकृत और कवित्वपूर्ण हो गया है। उसमें अनुभूति की सघनता और भावों की तरलता है। उसकी प्रकृति अन्तर्मुखी हो गयी है। रायकृष्णदास, वियोगी हरि, महाराजकुमार डॉ० रघुवीर सिंह, पं0 माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, 'पंत', 'निराला', नन्ददुलारे वाजपेयी, बेचन शर्मा 'उग्र', शिवपूजन सहाय आदि गद्य-लेखकों ने छायावाद-युगीन गद्य-साहित्य को समृद्ध किया है। द्विवेदी युग के उत्तरार्द्ध में जो लेखक सामने आये थे वे छायावाद-युग में भी लिखते रहे और उनकी पौड़तम रचनाएँ इसी युग में पुस्तकाकार प्रकाशित हुईं। इनमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बाबू गुलाब राय तथा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी प्रमुख हैं। इनकी साहित्य चेतना का मूल स्वर द्विवेदी-युगीन ही है, किन्तु छायावाद युग के अतीत प्रेम, सहज रहस्यमयता और लाक्षणिकता के महत्त्व को इन लेखकों ने भी स्वीकार किया है। उपर्युक्त लेखकों में राय कृष्णदास और वियोगी हरि अपने भावपूर्ण प्रतीकात्मक गद्यगीतों के लिए, महाराजकुमार डॉ० रघुवीर सिंह अपनी अतीतोन्मुखी भावतरल रहस्यात्मक कल्पना के लिए, माखनलाल चतुर्वेदी अपनी प्रखर राष्ट्रीयता एवं स्वच्छन्द आलंकारिक शैली के लिए, जयशंकर प्रसाद अपने मर्मस्पर्शी कल्पनाचित्र के लिए, पंत' अपनी सुकुमार कल्पना और नाद-सौन्दर्य-प्रधान गद्य के लिए, 'निराला' अपनी अद्भुत व्यंग्यात्मकता और सहानुभूतिप्रवण रेखांकन क्षमता के लिए, महादेवी वर्मा अपनी करुण, संवेदना एवं मर्मस्पर्शी चित्र-विधान के लिए, नन्ददुलारे वाजपेयी अपने गंभीर अध्ययन और स्वतंत्र चिन्तन के लिए, बेचन शर्मा 'उग्र' अपनी तीखी प्रतिक्रिया और आवेगपूर्ण नाटकीय शैली के लिए तथा शिवपूजन सहाय अपनी ग्रामीण सरलता के लिए स्मरणीय हैं।  


छायावादोत्तर-युगीन गद्य 

सन् 1936 के बाद देश की स्थिति में तेजी से परिवर्तन आरम्भ हुआ। सन् 1937 में कांग्रेस ने पूरे देश में अपने व्यापक प्रभाव का परिचय देते हुए छह प्रान्तों में अपना मंत्रिमंडल बना लिया। एक बार ऐसा लगा कि हम स्वतंत्रता के द्वार पर खड़े हैं। किन्तु शीघ्र  ही निराश होना पड़ा। सन् 1939 में द्वितीय महायुद्ध आरम्भ हो गया। कांग्रेस ने इंग्लैण्ड को युद्ध में सहायता देना इस शर्त पर स्वीकार किया कि वह शीघ्र भारत में एक स्वतंत्र जनतंत्रवादी सरकार की स्थापना करे। ब्रिटिश सरकार की ओर से कोई संतोषजनक प्रतिक्रिया न होने पर सन 1939 में कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिया। सन् 1940 में आचार्य विनोबा भावे के नेतृत्व में व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ किया गया। सन् 1942 में 'क्रिप्स-मिशन' भारत आया और अपने उद्देश्य में असफल रहा। इसी वर्ष कांग्रेस ने 'भारत छोड़ो' का ऐतिहासिक प्रस्ताव पास किया। देश में उग्र आन्दोलन हुआ और ब्रिटिश सरकार ने उसका पूरी शक्ति से दमन किया। सन् 1945 में महायुद्ध समाप्त हुआ। सन् 1947 में भारत में विदेशी सत्ता का अन्त हुआ किन्तु इसके साथ ही देश का विभाजन भी हो गया। विभाजन के परिणामस्वरूप भीषण साम्प्रदायिक दंगे हुए और देश की जनता तबाह हुई। इन घटनाओं ने हिन्दी साहित्य को बहुत दूर तक प्रभावित किया। सन् 1936 के बाद से ही हम कल्पना के लोक से उतर कर ठोस जमीन पर आने की चेष्टा करने लगे थे। मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित लेखकों ने प्रगतिवादी साहित्य-सृजन के प्रति प्रतिबद्धता दिखायी थी। 

    राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना से प्रेरित लेखकों ने भी क्रमशः यथार्थवादी जीवन-दर्शन को महत्त्व देना आरम्भ किया। छायावादी युग के कई लेखक नयी भूमि पर पदार्पण कर नवीन युग-चेतना के अनुसार साहित्य रचना में प्रवृत्त हुए। फलस्वरूप सन् 1938 के बाद 'छायावाद' का अन्त हुआ। उसके बाद के साहित्य को छायावादोत्तर साहित्य कहा गया है। छायावादोत्तर-युग के साहित्यकार स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व से लिखते आ रहे थे और उसके बाद भी सक्रिय रहे हैं। इनमें आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, शान्तिप्रिय द्विवेदी, रामधारीसिंह 'दिनकर', यशपाल, उपेन्द्रनाथ अश्क', भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, जैनेन्द्र, 'अज्ञेय', नगेन्द्र, रामवृक्ष बेनीपुरी, बनारसीदास चतुर्वेदी, वासुदेवशरण अग्रवाल, कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर', भगवतशरण उपाध्याय आदि गद्य-लेखक हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के गद्य में पांडित्य और चिन्तन के साथ ही सहजता एवं सरसता का अद्भुत समन्वय है। भाषा पर द्विवेदीजी का असाधारण अधिकार है। उन्होंने हिन्दी गद्य में बाणभट्ट की समास-गुंफित ललित पदावली अवतरित कर उसे अद्भुत गरिमा प्रदान की है। शान्तिप्रिय द्विवेदी अपनी प्रभावग्राहिणी प्रज्ञा और भावोच्छ्वसित शैली के लिए प्रसिद्ध हैं। दिनकर के गद्य में विचारशीलता, विषयवैविध्य एवं व्यक्तित्त्व-व्यंजना तीनों का समन्वय है। यशपाल और 'अश्क' का गद्य सामाजिक यथार्थ के विविध स्तरों को व्यक्त करने से समर्थ है। भगवतीचरण वर्मा का गद्य सामाजिक, सहज, व्यावहारिक, प्रवाहपूर्ण एवं व्यंग्यगर्भित है। अमृतलाल नागर के गद्य में लखनवी तर्ज की एक विशेष प्रकार की रवानी है। मूलतः कथाकार होने के नाते इन लेखकों में वर्णनात्मक शैली का विशेष आकर्षण है। जैनेन्द्र का गद्य उनकी दार्शनिक मुद्रा और मनोवैज्ञानिक निगूढ़ता के लिए विख्यात है। 'अज्ञेय' अपनी बौद्धिकता के लिए प्रसिद्ध हैं। उनका गद्य चिन्तन-प्रधान एवं परिष्कृत होने के साथ ही व्यक्तित्व-व्यंजक और व्यंग्यगर्भित भी है। उन्होंने हिन्दी गद्य को आधुनिक परिवेश से जोड़ने का सफल प्रयास किया है। डॉ० नगेन्द्र का गद्य सामान्यतः तर्क-प्रधान, विश्लेषण- परक और आत्मविश्वास की गरिमा से पूर्ण होता है किन्तु उसमें सन्दर्भ के अनुकूल नाटकीयता, व्यंग्य तथा बिम्ब-विधान भी लक्षित किया जा सकता है। रामवृक्ष बेनीपुरी अपने शब्द चित्रों के लिए प्रसिद्ध हैं। ग्रामीण जीवन की निश्छल अभिव्यक्ति उनके गद्य को प्राणवान् बना देती है। बनारसीदास चतुर्वेदी की ख्याति उनके संस्मरणों, जीवनियों और रेखाचित्रों के लिए है। उनकी शैली रोचक  और भाषा प्रवाहपूर्ण है। उनके छोटे-छोटे वाक्य अनुभव खण्डों को चित्रवत् प्रस्तुत करते चलते हैं। वासुदेवशरण अग्रवाल का गद्य सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक गरिमा से मंडित है। उसमें विद्वत्ता, विचारशीलता और सरसता का अद्भुत समन्वय है। कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' अपने राजनीतिक संस्मरणों और रिपो i के लिए प्रसिद्ध हैं। करुणा, व्यंग्य और भावुकता के समावेश से उनका गद्य अत्यन्त आकर्षक हो गया है। भगवतशरण उपाध्याय इतिहास के चिरस्मरणीय घटनाओं को भावपूर्ण नाटकीय शैली में ! प्रस्तुत करने में समर्थ हैं। उनका गद्य उनके इतिहास-ज्ञान एवं संस्कृति-बोध का परिचायक है।  

स्वातन्त्र्योत्तर-युगीन गद्य 

इस युग के लेखकों में विद्यानिवास मिश्र, हरिशंकर परसाई, फणीश्वरनाथ 'रेणु', कुबेरनाथ राय, धर्मवीर भारती, शिवप्रसाद सिंह आदि उल्लेखनीय हैं। विद्यानिवास मिश्र अपनी मांगलिक दृष्टि, सांस्कृतिक चेतना, लोक-सम्पृक्ति एवं आधुनिक जीवन-बोध के लिए प्रसिद्ध हैं। उनका गद्य उनके व्यक्तित्त्व को साकार कर देता है। हरिशंकर परसाई ने सामाजिक और राजनीतिक जीवन की विसंगतियों पर तीखा व्यंग्य किया है। उन्होंने हिन्दी गद्य की व्यंग्य क्षमता को निखारा है। 'रेणु' का गद्य ध्वनि-बिम्बों के माध्यम से वातावरण को सजीव बनाने में सक्षम है। कुबेरनाथ राय ने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की गद्य-परम्परा को आगे बढ़ाया है। प्राचीन सांस्कृतिक एवं साहित्यिक सन्दर्भो को नयी अर्थवत्ता प्रदान करके श्री राय ने हिन्दी गद्य को नयी भाव-भूमि प्रदान की है। धर्मवीर भारती गंभीर एवं विचारपूर्ण गद्य लिखते रहे हैं। यात्रावृत्त, रिपोर्ताज तथा व्यंग्य-विद्रूप लिखकर उन्होंने अपने गद्य को अपेक्षाकृत हल्की मनःस्थितियों से जोड़ने की चेष्टा की है। शिवप्रसाद सिंह लोक-चेतना से सम्पृक्त होते हुए भी व्यापक दृष्टि सम्पन्न लेखक हैं। उनका गद्य मानव सम्बन्धी चेतना का वाहक है। इन लेखकों ने हिन्दी गद्य को सशक्त बनाया है, उसकी शब्द-सम्पदा में वृद्धि की है। उसे जीवन की बाह्य परिस्थितियों, सामाजिक सम्बन्धों, विसंगतियों, आधुनिक मानव के आंतरिक द्वन्द्वों एवं तनावों को व्यक्त करने में सक्षम बनाया है, अनेक नवीन कलात्मक गद्य-विधाओं का विकास किया है और सब मिला कर उसे राष्ट्रीय गरिमा प्रदान की है। अब हिन्दीतर प्रदेशों के लेखक भी हिन्दी में रुचि लेने लगे हैं। विदेशों में भी हिन्दी का प्रचार बढ़ रहा है। हिन्दी का भविष्य अब उज्ज्वल है और उसके विश्व-स्तर पर प्रतिष्ठित होने की संभावना बढ़ गयी है।  

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