भारतेन्दु-युगीन गद्य
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हिन्दी साहित्य का आकाश भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (सन् 1850-1885) के पूर्ण प्रकाश से जगमगा उठा। उससे कुछ वर्ष पूर्व हिन्दी खड़ीबोली गद्य के क्षेत्र में दो महत्त्वपूर्ण व्यक्ति गद्य की दो भिन्न-भिन्न शैलियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। एक थे राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द (सन् 1823-1895), दूसरे थे राजा लक्ष्मणसिंह (सन् 1826-1896)। राजा शिवप्रसाद ने हिन्दी को पाठशालाओं के पाठ्यक्रम में स्थान दिलाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया था। वे हिन्दी का प्रचार तो चाहते थे किन्तु उसे अधिक नफ़ीस बनाकर उर्दू जैसा रूप प्रदान करने के पक्ष में थे। दूसरी ओर राजा लक्ष्मणसिंह संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के पक्षपाती थे। भारतेन्दु ने इन दोनों सीमान्तों के बीच का मार्ग ग्रहण किया। उन्होंने हिन्दी गद्य को वह रूप प्रदान किया जो हिन्दी-प्रदेश की जनता की मनोभावना के अनुकूल था। उनका गद्य व्यावहारिक, सजीव और प्रवाहपूर्ण है। उन्होंने यथासंभव लोक-प्रचलित शब्दावली का प्रयोग किया है। उनके वाक्य छोटे-छोटे और व्यंजक हैं। कहावतों, लोकोक्तियों और मुहावरों के यथोचित प्रयोग से उनकी भाषा प्राणवान् और स्वाभाविक बन गयी है। इतना होने पर भी भारतेन्दु का गद्य पूर्ण परिमार्जित नहीं है। उनका गद्य भी ब्रजभाषा के प्रयोगों से प्रभावित है और कहीं-कहीं व्याकरण की त्रुटियाँ खटकती हैं।
भारतेन्दु के सहयोगी
भारतेन्दुजी का व्यक्तित्त्व अत्यन्त प्रभावशाली था। वे सुलझे हुए व्यक्ति थे। लोक की गति को पहचानते थे। जनता की भावनाओं को समझते थे और देश एवं जाति की उन्नति के लिए सर्वस्व अर्पित करने के लिए तत्पर रहते थे। उनके समकालीन लेखक उन्हें अपना आदर्श मानते थे। बालकृष्ण भट्ट (सन् 1844-1914), पं0 प्रतापनारायण मिश्र (सन् 1856-1894), राधाचरण गोस्वामी (सन् 1859-1925), बदरी नारायण चौधरी प्रेमघन (सन् 1855-1923), ठाकुर जगमोहन सिंह (सन् 1857-1899), राधाकृष्णदास (सन् 1865-1907), किशोरीलाल गोस्वामी (सन् 1865-1932) आदि गद्य लेखक उनसे प्रेरित और प्रभावित थे। इन सभी लेखकों ने हिन्दी गद्य के विकास में पूरा सहयोग दिया। ये सभी गद्य लेखक पत्रकार भी थे। इनका उद्देश्य उद्बोधन, आह्वान, व्याख्या, टिप्पणी आदि के द्वारा जनता को शिक्षित और प्रबुद्ध करना था। पं0 बालकृष्ण भट्ट इलाहाबाद से हिन्दी प्रदीप नामक मासिक पत्र निकालते थे। इस पत्र में उनके निबंध प्रकाशित होते थे। भट्टजी संस्कृत के पंडित और अंग्रेजी के जानकार थे। उनकी भाषा-नीति उदार थी।
आवश्यकतानुसार उन्होंने अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत एवं लोकभाषा सभी से शब्द लिये हैं। उनका व्यक्तित्त्व खरा था। इसलिए उनकी शैली में भी मृदुता के स्थान पर खरापन है। प्रतापनारायण मिश्र कानपुर से ब्राह्मण पत्र निकालते थे। वे मनमौजी व्यक्ति थे। उनकी शैली में उनका फक्कड़पन स्पष्ट है। उनकी भाषा पर बैसवाड़ी बोली का विशेष प्रभाव है। उनकी भाषा में ठेठ ग्रामीण प्रयोग अधिक मिलते हैं। बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन ‘आनन्दकादम्बिनी का सम्पादन करते थे। उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ और शैली काव्यात्मक एवं अलंकृत है। उनके वाक्य लम्बे और समास-बहुल हैं। भारतेन्दु के अन्य सहयोगियों ने भाषा एवं शैली के सम्बन्ध में इन्हीं लेखकों का आदर्श सामने रखा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि हिन्दी गद्य के विकास की दृष्टि से भारतेन्दु युग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
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