सुरेन्द्र वर्मा व उनकी रचनाए

सुरेन्द्र वर्मा व उनकी  रचनाए


  • सुरेन्द्र वर्मा का जन्म (1941 ई.) को हुआ झाँसी मे हुआ:-

   सुरेन्द्र वर्मा की  रचनाए:-

  • उपन्यास : अँधेरे से परे, मुझे चाँद चाहिए (1993, साहित्य अकादमी पुरस्कार 1996), दो मुर्दों के लिए
  • गुलदस्ता (2000), काटना शामी का वृक्ष पद्मपंखुरी की धार से (2010, व्यास सम्मान 2016)
  • कहानी-संग्रह : प्यार की बातें, कितना सुन्दर जोड़ा।
  • व्यंग्य-संग्रह : जहाँ बारिश नहीं।
  • नाटक : तीन नाटक ( 1972 ई., सेतुबन्ध, और द्रौपदी), नायक खलनायक विदूषक (1972 ई.), सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक (1975 ई.), आठवाँ सर्ग (1976 ई.), छोटे सैयद बड़े सैयद (1982 ई.), एक दूनी एक (1987 ई.), शकुन्तला की अँगूठी (1990 ई.), क़ैद-ए-हयात (1993 ई., मिर्ज़ा ग़ालिब पर) तथा रति का कंगन’ (2010 ई.)।
  • एकांकी संग्रह : नींद क्यों रात भर नहीं आती (1976 ई.)।
  • सम्मान : केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1993 ई.), साहित्य अकादमी पुरस्कार (1996 ई.), भारतीय भाषा परिषद द्वारा तथा व्यास सम्मान (2016 ई.)।


नाटकों का वर्ण्य विषय:- 

सेतुबंध’ (1972 ई.)

इस नाटक में प्रभावती जब अपनी मां से यह कहती है, “भावना के बिना शारीरिक संभोग बलात्कार होता है और मैं उसी का परिणाम हूं।पद और प्रतिष्ठा पाने के लिए वह दर्शन विभाग के अध्यक्ष तुंगभद्र के समक्ष स्वयं को समर्पित करती है, उसकी दमित वासना का शिकार होती है लेकिन अपना अभीष्ट पाने के बाद वह इस बूढ़े प्रेमी से मुक्ति चाहती है क्योंकि इस संबंध में अब उसे अतृप्ति, अकेलेपन व घुटन का अनुभव होने लगा है। वह अपने शिष्य मल्लिनाग की ओर आकर्षित होती है। तुंगभद्र, लवंगलता व मल्लिनाग शोध कर्म से जुड़ी तीन पीढ़ियों के प्रतिनिधि हैं जिनके बीच परस्पर स्वार्थपूर्ण यौन संबंध रहा है। यह नाटक सेक्स के विकृत मूल्यों के विरुद्ध खड़ा है।   ‘सेतुबंध’ (1972 ई.) नाटक नायक चन्द्रगुप्त की महत्त्वाकांक्षाओं का बिम्ब है। नाटक में कालिदास और प्रभावती के गुरु-शिष्या सम्बंध होने के बावजूद प्रेम सम्बन्धों की बात की गई है। कालिदास का अपनी शिष्या के प्रति प्रेम भाव भारतीय मूल्यों का विखंडन है।

द्रोपदी’ (1972 ई.)

इस नाटक में विवाहेतर जीवन की विसंगतियों से उत्पन्न त्रासदी है। सुरेखा के पति मनमोहन का व्यक्तित्व खंडित है। सके कुत्सित रूपों का प्रतिबिम्ब उसके दोनों बच्चों (अलका, अनिल) के जीवन में पूर्णत: लक्षित होता है। अलका, राजेश,अनिल और वर्मा यौन कुंठाओं से ग्रस्त हैं।  ‘द्रौपदीनाटक आधुनिक जीवन की आपाधापी, तनाव, संघर्ष, मन की टूटन, पारिवारिक विघटन, कुंठा आदि का वर्णन करता ही है। साथ ही इसमें उत्तर आधुनिक जीवन की बहुलता, आंतरिक संघर्ष से विक्षिप्त व्यक्तित्व, परिवर्तित रिश्ते और सम्बंध, नवीन प्रेम सम्बंध, यौनाचार, पैसे और पावर के प्रभाव आदि का वर्णन है। भाई-बहिन, माता-पुत्री, पिता-पुत्री सम्बंधों का नया रूप है। मनमोहन, सुरेखा। पैसा, सत्ता, पावर, जिस्मानी सम्बंध यही रिश्ते हैं, जो उत्तर आधुनिक युग की देन हैं। इसी के लिए इस नाटक के पात्र भागते हैं।

सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक' (1975 ई.)

सुरेन्द्र वर्मा अपने नाटक सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक    में शीलवती के माध्यम से कहते हैं, “मर्यादा !... धर्म !... वैवाहिक संबंध । ...सब मिथ्या । ...सब पुस्तकीय... लेकिन मुझे पुस्तक नहीं जीना अब। ...मुझे जीवन जीना है।” ‘सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तकस्त्री-पुरुष सम्बंधों की उत्तर-आधुनिक व्यंजना है। यौन को उत्तर आधुनिक युग में एक वस्तुमाना गया है। शीलवती जो पहले पराये पुरुष से शारीरिक सम्बंध बनाने में हिचकती है, वही बाद में प्रगल्भ होकर यौन सुख को महिमा मंडित करती है, "कितने मूर्ख हैं आप! महामूर्ख! मूर्खों के सम्राट शयन कक्ष की यह समझ है आपको? नारीत्व की सार्थकता मातृत्व में नहीं है, महामात्य! है केवल पुरुष के संयोग के इस सुख में।"


आठवां सर्ग’ (1976 ई.)

इसका नायक कालिदास अनेक प्रकार की धार्मिक रूढ़िग्रस्तता और राजनैतिक दबावों से ग्रस्त है। नाटककार ने कालिदास के काव्य कुमारसंभव के आठवें सर्ग में शिव और पार्वती की प्रेम क्रीड़ाओं को साधारण पति-पत्नी के प्रेम-प्रसंगों के रूप में देखा और उसका वर्णन किया है। लेकिन धर्माध्यक्षों के द्वारा उसकी अश्लीलता पर आपत्ति की गई । यथा, “जगतपिता महादेव और जगतजननी पार्वती के भोग विलास का ऐसा उद्याम, ऐसा स्वच्छन्द, ऐसा नग्न चित्रण . . .इसका रचयिता पापी है। इसके श्रोता पापी हैं।. . .ऐसे अधर्मी और अनाचारी कवि के सम्मान में समारोह में जो भाग ले, वह पापी है।...यह सर्ग अत्यन्त मर्यादाहीन है।...यह सर्ग बहुत अश्लील है। कुमारसंभवपर प्रतिबंध लगाया जाए, क्योंकि कच्चे मस्तिष्तकों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा।कीर्ति भट्ट कहता है, "इस सर्ग में वह है प्रियम्वदे, कि युवक सुने तो उत्तेजित हो जाएँ और युवतियाँ सुने तो उन्मत्त। यह काव्य नहीं, मदिरा का चषक है, सुन्दरी।"  इस नाटक में यश प्राप्ति के लिए भाग-दौड़ और पदलिप्सा तत्त्व उद्घाटित हुए हैं। चन्द्रगुप्त ने अपनी सत्ता के प्रभाव से कला को खरीदा है। उत्तर आधुनिक युग में साहित्य और कला भी पण्य है, बिकाऊ है। "

छोटे सैयद बड़े सैयद’ (1982 ई.)

इसमें तत्कालीन राजनीति, राजकीय कुचक्र, दावपेंच, हिंसा, घृणा, गठबंधन, रक्तपात, कुटिल चालों का वर्णन है। इस नाटक की भाषा में यौन संदर्भ और अश्लीलता परोसी गई है। यथा, "रत्नचंदः (डपटकर)... किसी ने ज्यादा चूँ चपड़ की तो चूतड़ों पर दस-दस डँडे लगाऊँगा। ...जो उल्लू का पट्ठा ज्यादा तेहा दिखाये न, उसे फौरन उसकी माँ की...।"  इस नाटक में वर्णित राजनीति उत्तर आधुनिक कालीन है जो मूल्यों, नैतिकता, आदर्शों का विखंडन करती है। हर रिश्ते को गौण बनाती है।

एक-दूनी-एक’ (1987 ई.)

इसमें अकेले रहने वाले स्त्री-पुरुषों की स्थिति वर्णित की गई है। इसमें यह उद्घाटित है कि उत्तर आधुनिकता के दौर में नारी-पुरुष में एक ही सम्बंध सच्चा हो सकता है, वह यौन सम्बंध। इसमें आदमी और औरत के वार्तालाप से काम सम्बंधों, यौन बिम्बों और यौन शब्दावली वाली भाषा के दर्शन होते हैं। उत्तर आधुनिकता ने सभी पुरानी मान्यताओं का खंडन कर दिया है। प्रेम केवल एडजस्टमेंटहै। इस नाटक में प्रेम के नाम पर दैहिक सम्बंधों को ही तरजीह दी गई है।

शकुंतला की अंगूठी’ (1990  ई.) 

इस नाटक में स्पष्ट हुआ है कि व्यवसाय कला से अधिक महत्त्वपूर्ण है। उत्तर आधुनिक युग में कला पैसे की सामने बौनी है। मैनेजर का कथन है , "माना कि आप बड़े आर्टिस्ट हैं। अखबार में आपका फोटो छपता है, लेकिन कम्पनी ने आपको यह नट, बोल्ट और स्क्रू की बिक्री के हिसाब से रखा है। शकुंतला की खोयी अंगूठी ढूँढने के लिए नहीं।"  नाटक में नील कनक से प्रेम नहीं करता, पर शारीरिक सम्बंध बनाने में नहीं हिचकता। शादी नहीं करना चाहता। ये विखंडन, यौन सन्दर्भ, अन्तर्पाठीयता उत्तर आधुनिक संदर्भ हैं।
वर्तमान समय में पैसा हर कला, हर हुनर, हर आदर्श से बड़ा है। भौतिकता के इसी प्रभाव के कारण परवेज कला को त्याग देता है, "जी हाँ, अब मैं शेर नहीं कहता। परवेज की परवाज खत्म हो गई।"कैद-ए-हयात
"विकेन्द्रीयता की प्रवृत्ति उभर रही है। दमित, दलित, नारी, अल्पसंख्यक जो कभी हाशिए पर थे, केन्द्र में आ रहे हैं। उत्तर आधुनिकता में आधुनिकतावाद के पूरे चिंतन को चुनौती दी जा रही है।" कृष्णदत्त पालीवाल
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