काव्य ? | काव्य साहित्य का विकास | हिंदी साहित्य का विकास-आदिकाल

आदिकाल 


नामकरण 

हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक और इतिहासकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आदिकाल का समय सन् 993 ई० (संवत् 1050 वि0) से 1318 ई० (संवत् 1375  वि0) तक माना था और उसे वीरगाथा काल की संज्ञा दी थी, क्योंकि वे इस अवधि में वीरगाथाओं की रचना-प्रवृत्ति को प्रधान मान कर चले थे। किन्तु, परवर्ती विद्वान् 769 ई0 से 14वीं शताब्दी के मध्य तक की अवधि को हिन्दी साहित्य का आदिकाल ही कहते हैं। आदिकाल ऐसा नाम है, जिसे किसी-न-किसी रूप में सभी  इतिहासकारों ने स्वीकार किया है। भाषा की दृष्टि से हम इस काल के साहित्य में हिन्दी के आदि रूप का बोध पा सकते हैं, तो भाव की दृष्टि से हम इसमें भक्तिकाल से आधुनिक काल तक की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों के प्रारम्भिक बीज खोज सकते हैं। इस काल की आध्यात्मिक, शृङ्गारिक तथा वीरता की प्रवृत्तियों का ही विकसित रूप परवर्ती साहित्य में मिलता है।

प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ
• चन्दबरदायी—पृथ्वीराज रासो।
• नरपति नाल्ह—बीसलदेव रासो।
• अब्दुल रहमान-सन्देशरासक।
• जगनिक आल्हखण्ड।
• दलपति विजय–खुमाण रासो।
• नल्ल सिंह-विजयपाल रासो।

अधिकांश विद्वान् हिन्दी का प्रथम कवि सरहपा को मानते हैं जिनका रचनाकाल 769 ई० से प्रारम्भ होता है। अतः हिन्दी साहित्य के आरम्भ की सीमा 8वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध मानी जाती है। दूसरी ओर विद्यापति को भी आदिकाल के अन्तर्गत माना जाता है, इनका रचना-काल 1375 ई0 से 1418 ई0 तक है। इस दृष्टि से आदिकाल की अन्तिम सीमा 1418 ई० निर्धारित की जा सकती है, किन्तु इसमें भी सन्देह नहीं है कि भक्तिकाल में जिन प्रवृत्तियों का विकास हुआ, उनकी भूमिका विद्यापति के पूर्व ही पूर्ण हो चुकी थी, अतः विद्यापति को भक्तिकाल में रखकर 14वीं शताब्दी के मध्य को आदिकाल की अन्तिम सीमा मानना ही समीचीन होगा।

साहित्य मानव-समाज की भावनात्मक स्थिति और गतिशील चेतना की अभिव्यक्ति है। इसलिए आदिकालीन साहित्य के इतिहास को समझने के लिए तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों को जानना अपेक्षित है।

राजनीतिक परिस्थिति

हिन्दी साहित्य का आदिकाल वर्धन-साम्राज्य की समाप्ति के समय से प्रारम्भ होता है। अन्तिम वर्धन-सम्राट हर्षवर्धन के समय से ही सिन्ध प्रान्त पर अरबों के आक्रमण आरम्भ हो गये थे। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत की संगठित सत्ता खण्ड-खण्ड हो गयी। तदनन्तर राजपूत राजा निरन्तर युद्धों की आग में जल गये और अन्ततः एक विशाल इस्लाम साम्राज्य की स्थापना हो गयी। ईसा की 8वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी तक के भारतीय इतिहास की राजनीतिक परिस्थिति हिन्दू-सत्ता के धीरे-धीरे क्षय होने तथा इस्लाम सत्ता के धीरे-धीरे उदय होने की कहानी है। आदिकाल के इस युद्ध-प्रभावित जीवन में कहीं भी सन्तुलन नहीं था। जनता पर विदेशी आक्रान्ताओं के अत्याचारों के साथ-साथ युद्धकामी देशी राजाओं के अत्याचारों का क्रम भी बढ़ता चला गया। वे परस्पर लड़ने लगे और प्रजा पीड़ित होने लगी। पृथ्वीराज चौहान, जयचन्द आदि की पारस्परिक लड़ाइयाँ अन्तहीन कथा बनती गयीं। विदेशी शक्तियों के आक्रमण का प्रभाव मुख्यतः पश्चिमी भारत और मध्यप्रदेश पर ही पड़ा था। यही वह क्षेत्र था, जहाँ हिन्दी भाषा का विकास हो रहा था। अतः इस काल का समस्त हिन्दी साहित्य आक्रमण और युद्ध के प्रभावों की मनःस्थितियों का प्रतिफलन है।

धार्मिक परिस्थिति

ईसा की छठी शताब्दी तक देश का धार्मिक वातावरण शान्त था किन्तु 7वीं शताब्दी के साथ देश की धार्मिक परिस्थितियों में परिवर्तन आरम्भ हुआ। इस समय आलम्बार और नायम्बार सन्त दक्षिण भारत से उत्तर भारत की ओर धार्मिक आन्दोलन लाये। बौद्ध धर्म का पतन प्रारम्भ हो गया था। शैव और जैन मत आगे बढ़ने की होड़ में परस्पर टकराने लगे थे। देशव्यापी धार्मिक अशान्ति के इस काल में बाहरी धर्म इस्लाम का भी प्रवेश हो रहा था। अशिक्षित जनता के सामने अनेक धार्मिक राहें बनती जा रही थीं। बौद्ध संन्यासी यौगिक चमत्कारों का प्रभाव दिखा रहे थे। वैदिक एवं पौराणिक मतों के समर्थक खण्डन-मण्डन की भूल-भुलैयों में पड़े थे। उधर जैन धर्म पौराणिक आख्यानों को नये ढंग से गढ़कर जनता की आस्थाओं पर नया प्रभाव जमा रहा था। आदिकाल की धार्मिक परिस्थितियाँ अत्यन्त विषम तथा असन्तुलित थीं। कवियों ने इसी स्थिति के अनुरूप खण्डन-मण्डन, हठयोग, वीरता एवं शृङ्गार का साहित्य लिखा।

सामाजिक परिस्थिति

तत्कालीन राजनीतिक तथा धार्मिक परिस्थितियों का देश की सामाजिक परिस्थितियों पर भी गहरा प्रभाव पड़ा था। जनता शासन तथा धर्म दोनों ओर से निराश होती जा रही थी। युद्धों के समय उसे बुरी तरह पीसा जाता था। समाज के उच्च वर्ग में विलासिता बढ़ गयी थी। निर्धन वर्ग श्रमिक था। अन्धविश्वास जोरों पर था। साम्प्रदायिक तनाव बढ़ रहा था। योगियों का गृहस्थों पर आतंक छाया हुआ था। जनता दुर्भिक्ष, युद्ध और महामारियों का निरन्तर शिकार हो रही थी। सामाजिक परिस्थिति की इस विषमता में हिन्दी के कवियों को जनता की स्थिति के अनुसार काव्य-रचना की सामग्री जुटानी पड़ी।

सांस्कृतिक परिस्थिति

आदिकाल भारतीय और इस्लाम इन दो संस्कृतियों के संक्रमण एवं ह्रास-विकास की गाथा है। इस काल में भारतीय संस्कृति का जो स्वरूप मिलता है वह परम्परागत गौरव से विच्छिन्न तथा मुस्लिम संस्कृति के गहरे प्रभाव से निर्मित है। तत्कालीन जन-जीवन के स्वरूप में इस संस्कृति की व्यापक छाप मिलती है। उत्सव, मेले, वेश-भूषा, आहार, विवाह, मनोरंजन आदि सब में मुस्लिम रंग मिल गया था। संगीत, चित्र, वास्तु एवं मूर्ति-कलाओं की मूल भारतीय परम्परा धीरे-धीरे क्षय होती गयी।

साहित्यिक परिस्थिति

इस काल में साहित्य-रचना की तीन धाराएँ थीं। प्रथम धारा संस्कृत साहित्य की थी जिसका विकास परम्पराबद्ध था। दूसरी धारा का साहित्य प्राकृत एवं अपभ्रंश में लिखा जा रहा था। तीसरी धारा हिन्दी भाषा में लिखे जानेवाले साहित्य की थी, जिसमें तत्कालीन परिस्थितियों की प्रतिक्रिया प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में प्रतिबिम्बित हो रही थी। 

आदिकाल के साहित्य को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) सिद्ध साहित्य (2) जैन साहित्य (3) नाथ साहित्य (4) रासो साहित्य (5) लौकिक साहित्य। इस युग में काव्य-रचनाएँ प्रबन्ध तथा मुक्तक दोनों रूपों में प्राप्त होती हैं।

(1) सिद्ध साहित्य

बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्त्व का प्रचार करने के लिए सिद्धों ने जो साहित्य लोक-भाषा में लिखा, वह हिन्दी का सिद्ध साहित्य है। इन सिद्धों में सरहपा, शबरपा, लुइपा, डोम्मिपा, कण्हपा एवं कुक्कुरिपा हिन्दी के मुख्य सिद्ध कवि हैं। सरहपा को हिन्दी का प्रथम कवि माना जाता है। इनकी कविता का एक उदाहरण प्रस्तुत है-

नाद न बिन्दु न रवि न शशि मण्डल,
चिअराअ सहाबे मूकल।
अजुरे उजु छाड़ि मा लेहु रे बंक,
निअहि बोहिया जाहुरे लॉक।
हाथ रे कांकाण मा लोउ दापण,
अपणे अपा बुझतु निअ-मण।

सरहपा की इस कविता से स्पष्ट है कि उस समय अपभ्रंश से हिन्दी का विकास होना प्रारम्भ हो गया था।

(2) जैन साहित्य

जिस प्रकार हिन्दी के पूर्वी क्षेत्र में, हिन्दी कविता के माध्यम से सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान मत का प्रचार किया, उसी प्रकार पश्चिमी क्षेत्र में जैन साधुओं ने भी अपने मत का प्रचार हिन्दी कविता के माध्यम से किया। जैन साहित्य का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप ‘रास ग्रन्थ है। संस्कृत के रस शब्द को जैन साधुओं ने रास रूप देकर रचना की प्रभावशाली शैली बनाया। देवसेन रचित श्रावकाचार, मुनिजिनविजय कृत भरतेश्वर-बाहुबली रास, जिनधर्मसूरि कृत स्थूल भद्र रास, विजयसेन सूरि का रेवंत गिरि रास आदि जैन साहित्य की निधि हैं।

(3) नाथ साहित्य

सिद्धों की वाममार्गी योगसाधना की प्रतिक्रिया में नाथपन्थियों की हठयोग-साधना प्रारम्भ हुई। गोरखनाथ, नाथ साहित्य के व्यवस्थापक माने जाते हैं। उन्होंने ईसा की 13वीं शताब्दी के आरम्भ में अपना साहित्य लिखा था। गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, उन सबका नाथ पन्थ में विलय हो गया था। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं में गुरु-महिमा, इन्द्रिय-निग्रह, प्राण-साधना, वैराग्य, कुण्डलिनी जागरण, शून्य-समाधि आदि का वर्णन किया है। गोरखनाथ ने लिखा है कि धीर वह है जिसका चित्त विकार-साधन होने पर भी विकृत नहीं होता-

नौ लख पातरि आगे नाचें, पीछे सहज अखाड़ा। 
ऐसे मन लै जोगी खेलें, तब अंतरि बसै भंडारा॥

(4) रासो साहित्य

हिन्दी साहित्य के आदिकाल में रचित जैन रास काव्य वीरगाथाओं के रूप में लिखित रासो-कव्यों से मित्र है। दोनों की रचना-शैलियों का अलग-अलग भूमियों पर विकास हुआ है। जैन रास काव्यों में धार्मिक दृष्टि प्रधान है, जबकि रासो परम्परा में रचित काव्य मुख्यतः वीरगाथापरक हैं। दलपति विजय कृत खुमाण रासो, नरपति नाल्ह रचित बीसलदेव रासो, चन्दबरदायी कृत पृथ्वीराज रासो तथा जगनिक रचित परमाल रासो (आल्हखण्ड), शारंगधर कृत हम्मीर रासो आदि प्रसिद्ध रासो ग्रन्थ हैं। पृथ्वीराज रासो आदिकाल का इस परम्परा का श्रेष्ठ महाकाव्य है। इसके रचयिता दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान के सामन्त तथा राजकवि चन्दबरदायी हैं। इसमें पृथ्वीराज चौहान के चरित्र का वर्णन है। यह महाभारत की तरह विशाल महाकाव्य है। इस काव्य में दो प्रमुख रस हैं-शृङ्गार और वीर। इसकी भाषा में ब्रज और राजस्थानी का मिश्रण है। शब्द-चयन रसानुकूल है। वीर रस के चित्रणों में प्राकृत और अपभ्रंश के शब्द भी यत्र-तत्र मिलते हैं। अलङ्कारों का सहज प्रयोग हुआ है। लगभग 68 प्रकार के छन्द इसमें प्रयुक्त हुए हैं। एक उदाहरण देखिए

बज्जिय घोर निसांन रान चौहान चहूँ दिशि।
सफल सूर सामन्त समर बल जंत्र मंत्र तिसि।
उढि राज प्रथिराज बाग लग्ग मनहु वीर नट।
कढ़त तेग मन वेग लगत मनहु बीजुझट्ट घट्ट॥

वीर छन्द में विरचित परमाल रासो (आल्हखण्ड) भी बड़ा लोकप्रिय काव्य है।

(5) लौकिक साहित्य

आदिकाल में कुछ ऐसे ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, जो पूर्वोक्त प्रमुख प्रवृत्तियों से भिन्न हैं। ऐसे सभी उपलब्ध काव्यों को लौकिक साहित्य की सीमा में गिना जाता है। ऐसे काव्यों में कुशल रायवाचक कृत ढोला-मारू-रा-दूहा और खुसरो की पहेलियाँ प्रसिद्ध हैं। कुछ मुक्तक छन्द भी मिलते हैं जो हेमचन्द्र के प्रबन्ध चिन्तामणि में संकलित हैं।

आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

1. बौद्ध-सिद्धों की रचनाओं में एक ओर गुह्य साधनाओं की चर्चा है, दूसरी ओर वर्णाश्रम व्यवस्था का तीव्र विरोध है।
2 जैनाचार्यों की रचनाओं में जीवन की विभिन्न परिस्थितियों के बड़े ही सरस वर्णन हैं, नैतिक आदर्शों का प्रचार-प्रसार है।
3. नाथ सम्प्रदाय के साधकों की रचनाओं में हठयोग की साधना-पद्धति का दर्शन है, तीव्र वैराग्य की भावना जगायी गयी है और वर्ण-जाति के बन्धन से ऊपर उठने का आग्रह है।
4. रासो साहित्य में आश्रयदाताओं के युद्धोत्साह, केलि-क्रीड़ा आदि के बड़े सरस वर्णन हैं। इतिहास के साथ कल्पना का प्रचुर उपयोग किया गया है। वीर और शृङ्गार रस का प्राधान्य है और प्रसंगानुसार कहीं परुष और कहीं कोमलकान्त शब्दावली का प्रयोग है।
5. लौकिक साहित्य में शृङ्गार, , वीर और नीतिपरक भावनाओं को अभिव्यक्ति मिली है। खुसरो की पहेलियों में व्यंग-विनोद की अभिव्यञ्जना है।

आदिकाल में हिन्दी भाषा जन-जीवन से रस लेकर आगे बढ़ी है। उसने अपनी अनेक बोलियों को एकरूपता की ओर बढ़ा कर एक-सूत्र में बाँधा है। जीवन के विविध पक्षों का उसके काव्य में चित्रण हुआ है। परवर्ती कालों के लिए उसने अनेक परम्पराएँ डाली हैं, अनेक काव्य-रूप और शैली-शिल्प आदिकालीन साहित्य में प्रकट और पुष्ट हुए हैं, अतः आदिकाल को हिन्दी साहित्य का समृद्ध काल कहा जा सकता है।

Post Navi

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ