हिन्दी गद्य की विधाएँ

 हिन्दी गद्य की विधाएँ 


    हिन्दी गद्य की विधाओं को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है। एक वर्ग प्रमुख विधाओं का है। इसमें नाटक, एकांकी, उपन्यास, कहानी, निबंध और आलोचना को रखा जा सकता है। दूसरा वर्ग गौण या प्रकीर्ण गद्य-विधाओं का है। इसके अन्तर्गत जीवनी, आत्मकथा, यात्रावृत्त, गद्य-काव्य, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, डायरी, भेटवार्ता, पत्र-साहित्य आदि का उल्लेख किया जा सकता है। प्रमुख विधाओं में 'नाटक', 'उपन्यास', 'कहानी' तथा 'निबंध' और 'आलोचना' का आरम्भ तो भारतेन्दु युग (सन् 1870-1900) में ही हो गया था। किन्तु गौण या प्रकीर्ण गद्य विधाओं में कुछ का विकास द्विवेदी-युग और शेष का छायावाद और छायावादोत्तर- युग में हुआ है। द्विवेदी युग में 'जीवनी', 'यात्रावृत्त', 'संस्मरण' और 'पत्र साहित्य' का आरम्भ हो गया था। छायावाद-युग में 'गद्य- काव्य', 'संस्मरण' और 'रेखाचित्र' की विधाएँ विशेष समृद्ध हुईं। छायावादोत्तर-युग में प्रकीर्ण गद्य-विधाओं का अभूतपूर्व विकास हुआ है। 'आत्मकथा', 'रिपोर्ताज', 'भेंटवार्ता', 'व्यंग्य-विद्रूप-लेखन', 'डायरी', 'एकालाप' आदि अनेक विधाएँ छायावादोत्तर-युग में विकसित और समृद्ध हुई हैं। यहाँ यह स्मरणीय है कि प्रमुख गद्य विधाएं अपनी रूप-रचना में एक दूसरे से सर्वथा स्वतंत्र हैं, किन्तु प्रकीर्ण गद्य-विधाओं में से अनेक निबंध विधा से पारिवारिक सम्बन्ध रखती हैं। एक ही परिवार से सम्बद्ध होने के कारण यह एक- दूसरे के पर्याप्त निकट प्रतीत होती हैं।  

(क) प्रमुख विधाएँ 

नाटक  

रंगमंच पर अभिनय द्वारा प्रस्तुत करने की दृष्टि से लिखी गयी तथा पात्रों एवं संवादों पर आधारित एक से अधिक अंकोंबाली दृश्यात्मक साहित्यिक रचना को नाटक कहते हैं। नाटक वस्तुतः रूपक का एक भेद है। रूप का आरोप होने के कारण नाटक को रूपक कहा गया है। अभिनय के समय नट पर दुष्यन्त या राम जैसे ऐतिहासिक पात्र का आरोप किया जाता है, इसीलिए इसे रूपक कहते हैं। नट (अभिनेता) से सम्बद्ध होने के कारण इसे नाटक कहते हैं। नाटक में ऐतिहासिक पात्र-विशेष की शारीरिक एवं मानसिक अवस्था का अनुकरण किया जाता है। आज नाटक शब्द अंग्रेजी ‘ड्रामा' या 'प्ले' का पर्याय बन गया है। हिन्दी में 'मौलिक नाटकों का आरम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। द्विवेदी युग में इसका अधिक विकास नहीं हुआ। छायावाद-युग में जयशंकर प्रसाद ने ऐतिहासिक नाटकों के विकास में महत्त्वपूर्ण योग दिया। छायावादोत्तर-युग में लक्ष्मी नारायण मिश्र, उदयशंकर भट्ट, उपेन्द्रनाथ अश्क, सेठ गोविन्ददास, डॉ० रामकुमार वर्मा, जगदीशचन्द्र माथुर, मोहन राकेश आदि ने इस विधा को विकसित किया है। नाटकों का एक महत्त्वपूर्ण रूप एकांकी है। 'एकांकी' किसी एक महत्त्वपूर्ण घटना, परिस्थिति या समस्या को आधार बनाकर लिखा जाता है और उसकी समाप्ति एक ही अंक में उस घटना के चरम क्षणों को मूर्त करते हुए कर दी जाती है। हिन्दी में एकांकी नाटकों का विकास छायावाद युग से माना जाता है। सामान्यतः श्रेष्ठ नाटककारों ने ही श्रेष्ठ एकांकियों की भी रचना की है। 

उपन्यास  

    हिन्दी में 'उपन्यास' शब्द का आविर्भाव संस्कृत के 'उपन्यस्त' शब्द से हुआ है। उपन्यास शब्द का शाब्दिक अर्थ है- सामने रखना। उपन्यास में 'प्रसादन' अर्थात् प्रसन्न करने का भाव भी निहित है। किसी घटना को इस प्रकार सामने रखना कि उससे दूसरों को प्रसन्नता हो, उपन्यस्त करना कहा जायेगा। किन्तु इस अर्थ में 'उपन्यास' का प्रयोग आजकल नहीं होता। हिन्दी में 'उपन्यास' अंग्रेजी 'नावेल' का पर्याय बन गया है। हिन्दी का पहला मौलिक उपन्यास लाला श्रीनिवासदास कृत परीक्षा गुरु' माना जाता है। प्रेमचन्दजी ने हिन्दी उपन्यास को सामयिक-सामाजिक-जीवन से सम्बद्ध करके एक नया मोड़ दिया था। वे 'उपन्यास' को मानव-  चरित्र का चित्र समझते थे। उनकी दृष्टि में 'मानव-चरित्र' पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है। वस्तुतः उपन्यास गद्य साहित्य की वह महत्त्वपूर्ण कलात्मक विधा है जो मनुष्य को उसकी समग्रता में व्यक्त करने में समर्थ है। प्रेमचन्द के बाद जैनेन्द्र, इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय, यशपाल, उपेन्द्रनाथ 'अश्क', भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, नरेश मेहता, फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, राजेन्द्र यादव आदि लेखकों ने हिन्दी उपन्यास साहित्य को समृद्ध किया है। 

कहानी  

जीवन के किसी मार्मिक तथ्य को नाटकीय प्रभाव के साथ व्यक्त करनेवाली, अपने में पूर्ण कलात्मक गद्य-विधा को कहानी कहा जाता है। हिन्दी में मौलिक कहानियों का आरम्भ 'सरस्वती' पत्रिका के प्रकाशन के बाद हुआ। कहानी या आख्यायिका हमारे देश के लिए नयी चीज नहीं है। पुराणों में शिक्षा, नीति एवं हास्य-प्रधान अनेक आख्यायिकाएँ उपलब्ध होती हैं, किन्तु आधुनिक साहित्यिक कहानियाँ उद्देश्य और शिल्प में उनसे भिन्न हैं। आधुनिक कहानी जीवन के किसी मार्मिक तथ्य को नाटकीय प्रभाव के साथ व्यक्त करनेवाली अपने में पूर्ण एक कलात्मक गद्य-विधा है जो पाठक को अपनी यथार्थपरता और मनोवैज्ञानिकता के कारण निश्चित रूप से प्रभावित करती है। हिन्दी कहानी के विकास में प्रेमचन्द का महत्त्वपूर्ण योगदान है। प्रेमचन्दोत्तर या छायावादोत्तर युग में जैनेन्द्र, 'अज्ञेय', इलाचन्द्र जोशी, यशपाल, उपेन्द्रनाथ अश्क', कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, अमरकान्त, मोहन राकेश, फणीश्वरनाथ 'रेणु', द्विजेन्द्रनाथ मिश्र 'निर्गुण', शिवप्रसाद सिंह, धर्मवीर भारती, मन्नू भण्डारी, शिवानी, निर्मल वर्मा आदि लेखकों । इस दिशा को अधिक कलात्मक और समृद्ध बनाया है। 

आलोचना  

आलोचना का शाब्दिक अर्थ है-किसी वस्तु को भली प्रकार देखना। भली प्रकार देखने से किसी वस्तु के गुण-दोष प्रकट होते हैं। इसलिए किसी साहित्यिक रचना को भली प्रकार देखकर उसके गुण-दोषों को प्रकट करना उसकी आलोचना करना है। आलोचना के लिए 'समीक्षा' शब्द भी प्रचलित है। इसका भी लगभग यही अर्थ है। हिन्दी में आलोचना अंग्रेजी के 'क्रिटिसिज्म' शब्द का पर्याय बन गया है। भारतीय काव्य-चिन्तन के क्षेत्र में समान्तिक या शास्त्रीय आलोचना का विशेष महत्त्व रहा है। हमारा यह पक्ष अत्यन्त समृद्ध और पुष्ट है। हिन्दी में आधुनिक पद्धति की आलोचना का आरम्भ भारतेन्दु युग में बालकृष्ण भट्ट और बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमघन' द्वारा लाला श्रीनिवासदास कृत 'संयोगिता स्वयंवर' नाटक की आलोचना से माना जाता है। आगे चलकर द्विवेदी  युग 1 में पं0 महावीरप्रसाद द्विवेदी, मिश्र बन्ध, बाबू श्यामसुन्दर दास, पद्मसिंह शर्मा, लाला भगवानदीन आदि ने इस क्षेत्र में विशेष कार्य किया। हिन्दी आलोचना का उत्कर्ष आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना कृतियों के प्रकाशन से मान्य है। आचार्य  शुक्ल के बाद बाबू गुलाब राय, पं० नन्ददुलारे वाजपेयी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ0 नगेन्द्र और डॉ० रामविलास शर्मा की हिन्दी आलोचना के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। 

निबंध  

हिन्दी में निबंध शब्द अंग्रेजी के 'एसे' शब्द के पर्याय के रूप में व्यवहत होता है। 'एसे' शब्द का अर्थ है—प्रयास। अर्थात् किसी विषय के सम्बन्ध में कुछ कहने का प्रयास ही 'एसे' है। 'प्रयास' होने के कारण 'एसे' या निबंध अपने मूलरूप में प्रौढ़ रचना नहीं मानी गयी है। यह शिथिल मनःस्थिति में लिखित अव्यवस्थित और ढीली-ढाली रचना समझी जाती है। व्यवहार में विचार-प्रधान गंभीर लेखों तथा भाव-प्रधान आत्म-व्यंजक रचनाओं, दोनों के लिए निबंध शब्द का प्रयोग होता है। निबंध को परिभाषित करते हुए बाबू गुलाबराय ने कहा है—निबंध उस गद्य-रचना को कहते हैं जिसमें एक सीमित आकार के भीतर किसी विषय का वर्णन या प्रतिपादन एक विशेष निजीपन, स्वच्छन्दता, सौष्ठव और सजीवता तथा आवश्यक संगति और सम्बद्धता के साथ किया गया हो।" निबंध मुख्यतः चार प्रकार के माने गये हैं-  
1. वर्णनात्मक इसमें किसी वस्तु को स्थिर रूप में देखकर उसका वर्णन किया जाता है। 
2. विवरणात्मक-इसमें किसी वस्तु को उसके गतिशील रूप में देखकर उसका वर्णन किया जाता है। 
3. विचारात्मक-इसमें विचार और तर्क की प्रधानता होती है। 
4. भावात्मक—यह भाव-प्रधान होता है। इसमें आवेगशीलता होती है।  

वस्तुतः निबंध-लेखक के व्यक्तित्त्व के अनुसार निबंध-रचना के अनेक प्रकार हो सकते हैं। यह भेद सुविधा की दृष्टि से निबंधों को मोटे तौर पर वर्गीकृत करने के लिए किये गये हैं।  

हिन्दी में निबंध-रचना का आरम्भ भारतेन्दु-युग से ही माना जाता है। भारतेन्दु-युग में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट और बालमुकुन्द गुप्त ने अनेक विषयों से सम्बन्धित सुन्दर निबंध लिखे थे। उसके बाद महावीरप्रसाद द्विवेदी, बाबू श्यामसुन्दर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, बाबू गुलाबराय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी आदि ने इस विधा को विकसित और समृद्ध किया। आचार्य शुक्ल के बाद आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, रामधारीसिंह 'दिनकर', वासुदेवशरण अग्रवाल, डॉ० नगेन्द्र, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय आदि लेखकों ने हिन्दी निबंध की परम्परा को आगे बढ़ाया।  

(ख) गौण या प्रकीर्ण विधाएँ 


गौण विधाओं का एक-दूसरे से निकट का सम्बन्ध है। ये सभी एक प्रकार से निबंध-परिवार में आती हैं। प्रायः सभी का सम्बन्ध लेखक के व्यक्तिगत जीवन और उसके परिवेश से हैं। लेखक अपने देश-काल और परिवेश के प्रति जितने ही संवेदनशील होंगे, गौण कही जानेवाली विधाओं का उतना ही विकास होगा। सम्प्रति हिन्दी गद्य में इन विधाओं की रचना प्रचुर परिमाण में हो रही है। इसलिए हिन्दी गद्य के साम्प्रतिक स्वरूप को समझने के लिए इन विधाओं के विकास का ज्ञान आवश्यक है। 

जीवनी 

सफल जीवनी के लिए आवश्यक है कि किसी महान् व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक की घटनाओं को काल-क्रम से इस रूप में प्रस्तुत करना कि उस व्यक्ति का व्यक्तित्व निखर उठे। जीवनी-लेखक तटस्थ रहता है। वह अपनी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त नहीं करता। यों तो हिन्दी में जीवनी लेखन का कार्य भारतेन्दु युग में ही आरम्भ हो गया था, किन्तु आदर्श जीवनियाँ बहुत बाद में लिखी गयीं। द्विवेदी-युग में ऐतिहासिक पुरुषों और धार्मिक नेताओं की जीवनियाँ अधिक लिखी गयीं। इस युग के जीवनी-लेखकों में लक्ष्मीधर वाजपेयी, सम्पूर्णानन्द, नाथूराम प्रेमी, मुकुन्दीलाल वर्मा उल्लेखनीय हैं। छायावाद युग में राष्ट्रीय महापुरुषों-लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, गाँधी, जवाहरलाल नेहरू आदि की जीवनियाँ अधिक लिखी गयीं। इस युग के जीवनी-लेखकों में रामनरेश त्रिपाठी, गणेश शंकर विद्यार्थी, मन्मथनाथ गुप्त, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद और मुंशी प्रेमचन्द उल्लेखनीय हैं। छायावादोत्तर- युग में लोकप्रिय नेताओं, संत-महात्माओं, विदेशी महापुरुषों, वैज्ञानिकों, खिलाड़ियों और साहित्यकारों की जीवनियाँ लिखी गयीं। इस युग के जीवनी-लेखकों में काका कालेलकर, जैनेन्द्र कुमार, रामनाथ सुमन, रामवृक्ष बेनीपुरी, बनारसीदास चतुर्वेदी, राहुल सांकृत्यायन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इधर अमृत राय, शान्ति जोशी, रामविलास शर्मा और विष्णु प्रभाकर ने क्रमशः 'कलम का सिपाही', 'सुमित्रानन्दन पंत-जीवनी और साहित्य', 'निराला की साहित्य साधना' तथा 'आवारा मसीहा' लिखकर साहित्यकारों की आदर्श जीवनियाँ प्रस्तुत करने की परम्परा का श्रीगणेश किया है। 

आत्मकथा 

जब लेखक अपने जीवन को स्वयं प्रस्तुत करता है तो वह 'आत्मकथा' लिखता है। स्वयं अपने को निर्मम भाव से प्रस्तुत करना कठिन कार्य है। इसलिए आदर्श आत्मकथा लिखना भी कठिन कार्य है। बीती हुई घटनाओं को क्रमबद्ध रूप में स्मृति के आधार पर प्रस्तुत करना और उनके साथ ही तटस्थ रहकर आत्म-निरीक्षण करना सरल नहीं है, हिन्दी में यों तो स्वयं भारतेन्दु ने एक कहानी कुछ आप बीती कुछ जग बीती' लिखकर इस दिशा में प्रयोग आरम्भ किया भी, किन्तु यह प्रयोग अधूरा रह गया। हिन्दी की आदर्श आत्मकथाएँ छायावाद और छायावादोत्तर युग में लिखी गयी हैं। इस क्षेत्र में बाबू श्यामसुन्दर दास कृत 'मेरी आत्म कहानी', वियोगी हरि कृत 'मेरा जीवन प्रवाह', राजेन्द्र बाबू कृत 'मेरी आत्मकथा', यशपाल कृत 'सिंहावलोकन', पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' कृत 'अपनी खबर', बाबू गुलाब राय कृत 'मेरी असफलताएँ, वृन्दावनलाल वर्मा कृत 'अपनी कहानी', 'पन्त' कृत 'साठ वर्ष एक रेखांकन' और लोकप्रिय कवि बच्चन कृत 'क्या भूलूँ क्या याद करूं' तथा 'नीड़ का निर्माण फिर' उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। 

यात्रावृत्त  

जब लेखक अपने जीवन की अविस्मरणीय यात्राओं का विवरण आत्म-कथात्मक शैली में प्रस्तुत करता है तो वह 'यात्रा साहित्य' की सृष्टि करता है। आदर्श यात्रावृत्त वह माना जाता है जिसमें यात्रा-क्रम में आये हुए स्थान और बीती हुई घटनाएँ लेखक की स्मृति संवेदना का अंग बनकर चित्रवत् अंकित होती जाती हैं। यात्रावृत्त आत्मकथा का अंश भी हो सकता है और स्वतंत्र रूप से भी लिखा जा सकता है। यात्रावृत्त में 'आत्मकथा', 'संस्मरण' और 'रिपोर्ताज' तीनों के तत्त्व पाये जाते हैं। हिन्दी में 'यात्रावृत्त' लिखने का क्रम भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से प्रारम्भ होता है किन्तु कलात्मक यात्रावृत्त छायावाद और छायावादोत्तर-युग में लिखे गये हैं। इस क्षेत्र में राहुल सांकृत्यायन, देवेन्द्र सत्यार्थी, 'अज्ञेय', यशपाल, नगेन्द्र, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा आदि के द्वारा प्रस्तुत यात्रावृत्त उल्लेखनीय हैं। 

गद्यगीत या गद्यकाव्य  

गद्यगीत में भक्ति, प्रेम, करुणा आदि भावनाएँ छोटे-छोटे कल्पना-चित्रों के माध्यम से अन्योक्ति या प्रतीक पद्धति पर व्यक्त की जाती हैं। अनुभूति की सघनता, भावाकुलता, संक्षिप्तता, रहस्यमयता तथा सांकेतिकता श्रेष्ठ गद्यगीत की विशेषताएँ हैं। हिन्दी में गद्य-गीतों का आरम्भ राय कृष्णदास के साधना संग्रह' के प्रकाशन से हुआ। इसके बाद वियोगी हरि का 'तरंगिणी संग्रह प्रकाशित हुआ। । ये दोनों कृतियाँ द्विवेदी-युग की सीमा में आती हैं। इसके बाद छायावाद-युग में गद्य-गीतों की रचना अधिक हुई। राय कृष्णदास  और वियोगी हरि के अतिरिक्त चतुरसेन शास्त्री, वृन्दावनलाल वर्मा, 'अज्ञेय' और डॉ० रामकुमार वर्मा ने भी गद्यगीतों के क्षेत्र में अच्छे प्रयोग किये। छायावादोत्तर-युग में दिनेशनंदिनी डालमिया, डॉ० रघुवीर सिंह, तेज नारायण काक, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि ने सुन्दर गद्य-गीतों की रचना की। 

संस्मरण  

जब लेखक अपने निकट सम्पर्क में आनेवाले महत् विशिष्ट, विचित्र, प्रिय और आकर्षक व्यक्तियों, घटनाओं या दृश्यों को स्मृति के सहारे पुनः कल्पना में मूर्त करता है और उसे शब्दांकित करता है तब वह संस्मरण लिखता है। संस्मरण लिखते समय लेखक पूर्णतः तटस्थ नहीं रह पाता। याद आनेवाले का अंकन करते हुए वह स्वयं भी अंकित हो जाता है। संस्मरण-लेखक के लिए संवेदनशील, प्रभावनाही और व्यक्ति या वस्तु के वैशिष्ट्य को लक्षित करनेवाला होना चाहिए। हिन्दी में आदर्श संस्मरण छायावादोत्तर- युग में लिखे गये हैं। इस क्षेत्र में श्रीराम शर्मा, महादेवी वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर', देवेन्द्र सत्यार्थी, बनारसीदास चतुर्वेदी आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 

रेखाचित्र  

रेखाचित्र में भी किसी व्यक्ति, वस्तु या सन्दर्भ का चित्रांकन किया जाता है। इसमें सांकेतिकता अधिक होती है। जिस प्रकार रेखा-चित्रकार थोड़ी सी रेखाओं को प्रयोग करके किसी व्यक्ति, वस्तु या सन्दर्भ की मूलभूत विशेषता को उभार देता है उसी प्रकार लेखक कम से कम शब्दों का प्रयोग करके किसी व्यक्ति या वस्तु की मूलभूत विशेषता को उभार देता है। रेखाचित्र में लेखक का पूर्णतः तटस्थ होना आवश्यक है। वस्तुतः संस्मरण और रेखाचित्र एक-दूसरे से मिलती-जुलती विधाएँ हैं। संस्मरण में भी चित्र-शैली का ही प्रयोग किया जाता है किन्तु रेखाचित्र में चित्र अधूरा या खंडित भी हो सकता है, जबकि संस्मरण में चित्र छोटा या लघु भले हो उसे अपने आप में पूर्ण बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। संस्मरण अभिधामूलक होता है किन्तु रेखाचित्र सांकेतिक और व्यंजक होता है। वस्तुतः रेखाचित्र संस्मरण का कलात्मक विकास है। हिन्दी में महादेवी वर्मा, प्रकाश चन्द्र गुप्त, रामवृक्ष बेनीपुरी, बनारसीदास चतुर्वेदी, कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर', विनयमोहन शर्मा, विष्णु प्रभाकर और डॉ० नगेन्द्र के रेखाचित्र उल्लेखनीय हैं। 

रिपोर्ताज 

रिपोर्ट के कलात्मक और साहित्यिक रूप को ही रिपोर्ताज कहते हैं। रिपोर्ताज में समसामयिक घटनाओं को उनके वास्तविक रूप में प्रस्तुत किया जाता है। रिपोर्ताज लेखक का घटना से प्रत्यक्ष साक्षात्कार आवश्यक है। इसलिए युद्ध की विभीषिका, अकाल की छाया या पूरे मानव समाज को प्रभावित करनेवाली अन्य महत्त्वपूर्ण घटनाओं के घटित होने पर पत्रकार और साहित्यकार उस घटना के अनेक संदर्भो की प्रत्यक्ष जानकारी हासिल करते हैं और उन्हें रिपोर्ताज शैली में प्रस्तुत करके पाठक के मन को झकझोर देते हैं। हिन्दी में रिपोर्ताज लिखने का प्रचलन छायावादोत्तर युग में हुआ है। इस क्षेत्र में रांगेय राघव, बालकृष्ण राव, धर्मवीर भारती, कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर', 'विष्णुकांत शास्त्री आदि लेखकों के नाम उल्लेखनीय हैं। 

डायरी  

जब लेखक तिथि-विशेष में घटित घटना-चक्र को यथातथ्य रूप में अथवा अपनी संक्षिप्त प्रतिक्रिया या टिप्पणी के साथ लिख लेता है तो यह लेखन डायरी विधा के रूप में स्वीकार किया जाता है। डायरी कुछ महत्त्वपूर्ण तिथियों में घटित घटनाओं को लेकर भी लिखी जा सकती है और क्रमबद्ध रूप में रोजनामचा के रूप में भी लिखी जा सकती है। उसका आकार कुछ पंक्तियों तक ही सीमित हो सकता है और कई पृष्ठों तक विस्तृत भी। वह स्वतंत्र रूप से भी लिखी जा सकती है और कहानी, उपन्यास या यात्रावृत्त के अंग के रूप में भी। डायरी मूलतः लेखक की निजी वस्तु है। इसमें उसे अपने निजी विचार, दृष्टि, उद्भावना और प्रतिक्रिया व्यक्त करने की छूट है। यह दूसरी बात है कि जिस लेखक का सारा जीवन ही सार्वजनिक हो, उसकी डायरी भी सार्वजनिक बातों को लेकर लिखी जाय। कभी-कभी डायरी घटित तथ्य को आधार न बनाकर संभावित और काल्पनिक सत्य को लेकर भी लिखी जाती है। इसमें शिल्प डायरी का होता है किन्तु तथ्याधार सार्वजनिक होता है। हिन्दी में डायरी विधा का आरम्भ छायावादी-युग से मान्य है। इस सन्दर्भ में धीरेन्द्र वर्मा कृत 'मेरी कालेज डायरी' उल्लेखनीय है। छायावादोत्तर-युग में इलाचन्द्र जोशी, रामधारीसिंह 'दिनकर, शमशेर बहादुर सिंह, मोहन राकेश आदि की डायरियाँ प्रकाशित हुई हैं। हिन्दी में गद्य की इस कलात्मक विधा का अभी पूर्ण विकास नहीं हुआ है।

भेंटवार्ता  

जब किसी महान् दार्शनिक, राजनीतिज्ञ या साहित्यकार से मिलकर साहित्य, दर्शन या राजनीति के विषय में कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न किये जाते हैं और उनसे प्राप्त उत्तरों को व्यवस्थित ढंग से लिपिबद्ध कर लिया जाता है तो भेटवार्ता की सृष्टि होती है। भेंटवार्ता वास्तविक भी होती है और काल्पनिक भी। भेंट-वार्ताओं में जिस व्यक्ति से भेंट की जाती है उसके स्वभाव, रुचि, कार्य-  -कुशलता, बुद्धिमत्ता तथा अपनी उत्सुकता, संभ्रमता आदि का उल्लेख करके लेखक भेंट-वार्ताओं को अधिक रुचिकर बना सकता है। हिन्दी में वास्तविक और काल्पनिक दोनों ही प्रकार की भेंट-वार्ताएँ लिखी गयी हैं। वास्तविक भेंटवार्ता लिखनेवालों में पद्मसिंह शर्मा और रणवीर साँगा के नाम उल्लेखनीय हैं। काल्पनिक भेंट-वार्ता लिखनेवालों में राजेन्द्र यादव (चैखव : एक इण्टरव्यू) और श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन (भगवान् महावीर : एक इण्टरव्यू) उल्लेखनीय हैं। भेंट-वार्ताएँ छायावादोत्तर-युग में ही लिखी गयी हैं। अभी हिन्दी में इस विधा के विकास की पूरी संभावना है। 

पत्र-साहित्य  

जब लेखक अपने किसी मित्र, परिचित या अल्प परिचित व्यक्ति को अपने सम्बन्ध में या किसी महत्त्वपूर्ण समस्या के सम्बन्ध में उसकी और अपनी सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखकर उचित आदर, सम्मान या स्नेह का भाव प्रकट करते हुए निजी तौर पर मात्र सूचना, जिज्ञासा या समाधान लिखकर भेजता है और उत्तर की अपेक्षा रखता है तो वह पत्र-साहित्य का सृजन करता है। पत्र नितांत निजी हो सकते हैं और सार्वजनिक भी। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजे जानेवाले पत्र प्रायः सार्वजनिक प्रश्नों को लेकर लिखे जाते हैं। साहित्यिक दृष्टि से वे पत्र अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं जो प्रकाशनार्थ नहीं लिखे जाते और मात्र दो व्यक्तियों की बीच की वस्तु होते हैं। हिन्दी साहित्य में पत्र-प्रकाशन का आरम्भ द्विवेदी युग में ही हो गया था। महात्मा मुंशीराम ने स्वामी दयानन्द सम्बन्धी पत्रों का संकलन सन् । 904 में प्रकाशित कराया था। छायावाद-युग में रामकृष्ण आश्रम, देहरादून से 'विवेकानन्द पत्रावली' का प्रकाशन किया गया। छायावादोत्तर युग में पत्र-साहित्य के संकलन और प्रकाशन की दिशा में कई महत्त्वपूर्ण कार्य हुए हैं। इस क्षेत्र में बैजनाथ सिंह 'विनोद' द्वारा संकलित द्विवेदी पत्रावली' (सन् 1954), बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा संकलित ‘पद्मसिंह शर्मा के पत्र' (सन् 1956), वियोगी हरि द्वारा संकलित 'बड़ों के प्रेरणादायक कुछ पत्र' (सन् 1960), जानकीवल्लभ शास्त्री द्वारा संकलित 'निराला के पत्र' (सन् 1971), हरिवंशराय बच्चन द्वारा संकलित 'पंत के दो सौ पत्र बच्चन के नाम' (सन् 1971) उल्लेखनीय पत्र संकलन हैं। उक्त विधाओं के अतिरिक्त संप्रति हिन्दी गद्य-साहित्य में 'अभिनन्दन एवं स्मृति ग्रंथ', 'टिप्पणी लेखन', 'लघु कथा', 'एकालाप' आदि अनेक गद्य विधाएँ विकसित हो रही हैं।  
आज जीवन की संकुलता और मानवीय सम्बन्धों की जटिलता के कारण अनेक छोटी-छोटी गद्य-विधाओं के विकसित होने की सम्भावना बढ़ गयी है। इसके साथ ही गद्य-शैली में विविधता और उसकी अभिव्यक्ति-भंगिमा में अनेकरूपता आयी है। हिन्दी- गद्य यथार्थोन्मुख हुआ है। उसकी शब्द-सम्पदा में निरन्तर वृद्धि हो रही है। वाक्य-रचना में लचीलापन आया है। आज वह बाह्य- जगत् की विराटता और आन्तरिक जीवन की गहनता, जटिलता और सूक्ष्मता को व्यक्त करने में समर्थ है। यह हिन्दी गद्य के सशक्त और समृद्ध  होने का शुभ लक्षण है।

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