रीतिकाल
हिन्दी साहित्य का उत्तर-मध्य काल, जिसमें सामान्य रूप से शृङ्गार प्रधान लक्षण ग्रन्थों की रचना हुई, रीतिकाल कहा जाता है। रीति शब्द काव्यशास्त्रीय परम्परा का अर्थवाहक है। इस युग में कवियों की प्रवृत्ति रीति सम्बन्धी ग्रन्थ रचने की थी। इस काल के कवियों ने यदि शृङ्गारिक छन्द भी रचे तो वे स्वतन्त्र न होकर शृङ्गार रस की सामग्री के लक्षणों के उदाहरण होने के कारण रीतिबद्ध ही थे।
इसीलिए इस काल को रीतिकाल की संज्ञा दी गयी है। शृङ्गार की रचनाओं की प्रमुखता के कारण इसे शृङ्गार काल भी कहा जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसका समय सन् 1643 ई० (संवत् 1700 वि0) से 1843 ई० (संवत् 1900 वि0) तक निश्चित किया है, परन्तु किसी भी युग की प्रवृत्तियाँ न तो सहसा प्रादुर्भूत ही होती हैं और न सहसा समाप्त हो जाती हैं। अनेक दशाब्दियों तक आगे-पीछे उनके प्रभाव पाये जाते हैं। अतः अध्ययन की सुविधा के लिए रीतिकाल की सीमाएँ हमें सामान्य रूप में 17वीं शती के मध्य से 19वीं शती के मध्य तक मान लेनी चाहिए।
राजनीतिक परिस्थिति
राजनीतिक दृष्टि से यह काल मुगलों के शासन के वैभव के चरमोत्कर्ष और उसके बाद उत्तरोत्तर ह्रास, पतन और विनाश का युग कहा जा सकता है। शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल वैभव अपनी चरम सीमा पर रहा। जहाँगीर ने अपने शासनकाल में राज्य का जो विस्तार किया था, शाहजहाँ ने उसकी वृद्धि इतनी की कि उत्तर भारत के अतिरिक्त दक्षिण में अहमदनगर, बीजापुर और गोलकुण्डा राज्य तथा पश्चिम में सिन्ध के लहरी बन्दरगाह से लेकर पूर्व में आसाम में सिलहट और दूसरी ओर अफगान प्रदेश तक एकच्छत्र साम्राज्य की स्थापना हो गयी थी। राजपूतों ने भी मुगलों के विश्वासपात्र एवं स्वामिभक्त सेवक होकर दिल्ली के शासन की अधीनता स्वीकार कर ली थी। देश में सामान्य रूप से शान्ति थी। राजकोष भरा-पूरा था। औरंगजेब के शासन की बागडोर सँभालते ही उपद्रव प्रारम्भ हो गये थे। उसने उनका दमन किया। उसके पश्चात् उसके पुत्रों में संघर्ष हुआ। 1857 ई० में देशव्यापी राजक्रान्ति के बाद अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया। अवध, राजस्थान और बुन्देलखण्ड के रजवाड़ों का भी अन्त मुगल साम्राज्य के समान ही हुआ।
सामाजिक परिस्थिति
सामाजिक दृष्टि से यह काल घोर अधःपतन का काल था। इस काल में सामन्तवाद का बोलबाला था। सामन्तशाही के जितने भी दोष होने चाहिए, सभी इस काल में थे। सामाजिक व्यवस्था का केन्द्र-बिन्दु बादशाह था। उसके अधीन थे मनसबदार और अमीर-उमराव। समाज में दो वर्ग प्रधान थे- एक था शासक और दूसरा शासित। शासित वर्ग में एक ओर श्रमजीवी और कृषक थे तो दूसरी और सेठ-साहूकार और व्यापारी। जनसाधारण की बड़ी ही शोचनीय दशा थी। सेठ-साहूकार भाग्यवादी थे। विलास के उपकरणों की खोज, उनका संग्रह तथा सुरा-सुन्दरी की आराधना अभिजात वर्ग का अधिकार था। मध्यम और निम्न वर्ग के लोग उसका अनुकरण करते थे।
सांस्कृतिक परिस्थिति
सामाजिक दशा के समान ही देश की सांस्कृतिक स्थिति भी बड़ी शोचनीय थी। सन्तों एवं सूफियों के उपदेशों से प्रभावित होकर अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ ने हिन्दू और इस्लाम संस्कृतियों को निकट लाने का जो उपक्रम किया था वह औरंगजेब की कट्टरवादी नीति के कारण समाप्तप्राय था। विलास-वैभव का खुला प्रदर्शन हो रहा था, धार्मिक नियमों का पालन कठिन हो गया था। मन्दिरों में भी ऐश्वर्य एवं विलास की लीला होने लगी थी। विलास के साधनों से हीन वर्ग कर्म एवं आचार के स्थान में अन्धविश्वासी हो चला था। जनता के इस अन्धविश्वास का लाभ धर्माधिकारी उठाते थे।
साहित्य एवं कला की परिस्थिति
साहित्य एवं कला की दृष्टि से यह काल पर्याप्त समृद्ध था। इस युग में कवि एवं कलाकार साधारण वर्ग के होते थे, तथापि उनका बड़ा सम्मान होता था। उनके आश्रयदाता मुगल सम्राट् एवं राजा-महाराजा होते थे। कवियों एवं कलाकारों को अपने आश्रयदाताओं की अभिरुचि के अनुसार सृजन करना पड़ता था। इसका परिणाम यह हुआ कि इस युग के कवि एवं कलाकार प्रतिभावान होकर भी अपनी उत्कृष्ट मौलिकता समाज को प्रदान नहीं कर सके। विलासी आश्रयदाताओं के लिए रचा गया इस युग का काव्य स्वभावतः शृङ्गार-प्रधान हो गया। नारी के बाह्य सौन्दर्य के निरूपण में कवियों का श्रम सफल समझा जाता था। भाव-पक्ष की अपेक्षा कला- पक्ष का उत्कर्ष हुआ। इस काल का काव्यशास्त्रीय अध्ययन संस्कृत के आचार्यों का स्मरण दिलाता है। काव्य-कला के समान ही चित्रकला की भी इस युग में बड़ी उन्नति हुई। स्थापत्य, संगीत एवं नृत्य कलाओं की उन्नति तो इस काल की अपनी विशेषता है। इस युग में शृङ्गार रस प्रधान था। भूषण जैसे कवि ने वीर रस की रचना की। रीतिमुक्त कवियों में भाव की तन्मयता देखी जा सकती है। दोहा, सवैया, घनाक्षरी, कवित्त जैसे छन्द प्रचलित थे। ब्रजभाषा ही मुख्यतः काव्यभाषा थी।
भक्तिकाल तक हिन्दी काव्य प्रौढ़ता को पहुँच चुका था। भक्त कवियों ने अपने आराध्य के लीला-वर्णन में लौकिक रस का जो क्षीण रूप प्रस्तुत किया था, उत्तर-मध्यकालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनुकूल परिस्थितियाँ पाकर वह पूर्ण ऐहिकता-परक प्रधानतः शृङ्गार रस के रूप में विकसित हुआ। भक्तिकालीन कवियों में सर्वप्रथम नन्ददास ने नायिकाभेद पर रसमंजरी नाम की पुस्तक की रचना की। संस्कृत की काव्यशास्त्रीय परम्परा पर हिन्दी काव्य में रीति के वास्तविक प्रवर्तक केशवदासजी हैं। इस दृष्टिकोण से रचे गये कविप्रिया, रसिकप्रिया इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। इसके बाद हिन्दी रीति ग्रन्थों की परम्परा निरन्तर विकसित होती गयी। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इस युग के सम्पूर्ण साहित्य को रीतिबद्ध और रीतिमुक्त दो वर्गों में बाँटा गया है-
(i) रीतिबद्ध काव्य-रीतिबद्ध काव्य के अन्तर्गत वे काव्य-ग्रन्थ आते हैं जिनमें काव्य-तत्त्वों के लक्षण देकर उदाहरण रूप में काव्य-रचनाएँ प्रस्तुत की गयी हैं। इस परम्परा में कतिपय ऐसे आचार्य थे, जिन्होंने काव्यशास्त्र की शिक्षा देने के लिए रीति ग्रन्थों का प्रणयन किया था। समस्त रसों के निरूपक आचार्यों में चिन्तामणि का नाम सर्वप्रथम आता है। रस विलास छन्दविचार, पिंगल, शृङ्गार मंजरी, कविकुल कल्पतरु आदि इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। चिन्तामणि की परम्परा के दूसरे महत्त्वपूर्ण कवि आचार्य कुलपति मिश्र, देव, भिखारीदास, ग्वाल कवि आदि हैं। जिन कवियों के कृतित्व के कारण रीतिकाव्य प्रतिष्ठित हुआ, उनमें देव का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। नव रसों का सफल निरूपण करनेवाले आचार्यों में पद्माकर तथा सैयद गुलाम नबी ‘रसलीन आदि प्रसिद्ध हैं। शृङ्गार-रस-विषयक साँगोपांग विवेचन करने वाले आचार्यों में मतिराम का नाम सर्वप्रथम है। रीतिबद्ध काव्य-परम्परा के कवियों में कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने रीति ग्रन्थों की रचना न करके काव्य-सिद्धान्तों या लक्षणों के अनुसार काव्य-रचना की है। ऐसे कवियों में सेनापति, बिहारी, वृन्द, नेवाज, कृष्ण आदि की गणना की जाती है। सेनापति का प्रसिद्ध ग्रन्थ कवित्त रत्नाकर है। बिहारी रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। इनकी ख्याति का मूल आधार इनकी श्रेष्ठ कृति सतसई है। दोहा जैसे छोटे से छन्द में एक साथ ही अनेक भावों का समावेश कर सकने की सफलता के कारण इनके काव्य में गागर में सागर भरने की उक्ति चरितार्थ होती है।
(ii) रीतिमुक्त काव्य-रीति परम्परा के साहित्यिक बन्धनों एवं रूढ़ियों से मुक्त इस काल की स्वच्छन्द काव्यधारा
को रीतिमुक्त काव्य कहा जाता है। आन्तरिक अनुभूति, भावावेग, व्यक्तिपरक अभिव्यञ्जना की सांकेतिक काव्य-रूढ़ियों से मुक्ति, कल्पना की प्रचुरता आदि इसकी विशेषताएँ हैं। इस धारा के प्रमुख कवि घनानन्द हैं। इनकी काव्य-शैली बड़ी भावनात्मक तथा मार्मिक है। इस धारा के कवियों की लगभग सारी विशेषताएँ इनके काव्य में एक-साथ प्राप्त हो जाती हैं। इस धारा के अन्य प्रमुख कवि हैं-आलम, ठाकुर, बोधा और द्विजदेव।
रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
1. रीति निरूपण इस युग में रीति ग्रन्थों की रचना मुख्यतः तीन दृष्टियों से की गयी है। इनमें प्रथम उन रीति ग्रन्थों का निर्माण है जिनका उद्देश्य काव्यांग विशेष का परिचय कराना है, कवित्व का आग्रह नहीं है। जसवन्त सिंह का ‘भाषा- भूषण, याकूब खाँ का रस-भूषण, दलपतिराय वंशीधर का ‘अलङ्कार-रत्नाकर आदि रचनाएँ इसी कोटि में आती हैं। द्वितीय दृष्टि में रीति-कर्म और कवि-कर्म का समन्वय मिलता है। इनमें चिन्तामणि, मतिराम, भूषण, देव, पद्माकर, ग्वाल आदि आते हैं। लक्षणों का निर्माण न करके काव्य-परम्परा के अनुसार साहित्य-सृजन करनेवाले कवियों बिहारी, मतिराम आदि को तीसरी कोटि में रखा जाता है।
2 शृङ्गारिकता शृङ्गार की प्रवृत्ति रीतिकाल की कविता में प्रधान है। शृङ्गार के संविधान में नायक-नायिकाओं के भेद, उद्दीपक सामग्री, अनुभावों के विविध रूपों, संचारियों, संयोग के विविध भाव तथा वियोग की विभिन्न कार्यदशाओं का निरूपण इस प्रवृत्ति का प्राण है। इसमें नारी के बाह्य चित्रण की प्रमुखता है।
3. राज-प्रशस्ति यह प्रवृत्ति अलङ्कार और छन्दों के विवेचन करने वाले ग्रन्थों में भी देखने को मिलती है। इसका मुख्य विषय आश्रयदाताओं की दानवीरता अथवा युद्धवीरता की प्रशंसा ही रही है।
4. भक्ति की प्रवृत्ति रीतिग्रन्थों के प्रारम्भ में मङ्गलाचरणों, ग्रन्थों के अन्त में आशीर्वचनों, भक्ति एवं शान्त रसों के उदाहरणों में यह प्रवृत्ति देखने को मिलती है। राम और कृष्ण को विष्णु के अवतार के रूप में ग्रहण किया गया है। इस काल के कवियों के आकुल मन के लिए भक्ति शरण-भूमि थी। विलासिता के वर्णन से ऊबे हुए कवियों के द्वारा भक्ति की रची गयी फुटकर रचनाएँ बड़ी सुन्दर हैं।
5. नीति की प्रवृत्ति अन्योपदेश तथा अन्योक्तिपरक रचनाओं में नीति की प्रवृत्ति मिलती है। इस प्रकार की रचनाओं में वैयक्तिक अनुभवों का विशेष स्थान है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में रीतिकाल का अपना विशिष्ट स्थान है। इस काल में भारतीय काव्यशास्त्र की हिन्दी में अवतारणा हुई। इस काल की कविता का सामाजिक मूल्य भी है। पराभव के उस युग में समाज के अभिशप्त जीवन में सरसता का संचार कर रीति-कालीन कवियों ने अपने ढंग से समाज का उपकार किया था। कला की दृष्टि से भी रीतिकाल के काव्य का महत्त्व असन्दिग्ध है। इसी काल के कवियों ने ब्रजभाषा को पूर्ण विकास तक पहुँचाने का कार्य किया।
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