भक्तिकाल
प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ
- सूरदास-सूरसागर।
- गोस्वामी तुलसीदास–रामचरितमानस
- कबीरदास-बीजक।
- मलिक मुहम्मद जायसी—पद्मावत।
- मंझन—मधु मालती।
- उस्मान-चित्रावली।
- कुतबन-मृगावती।
जिस काल में मुख्यतः भागवत धर्म के प्रचार तथा प्रसार के परिणामस्वरूप भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात हुआ था, हिन्दी-साहित्य के इतिहास में उसे भक्तिकाल कहा जाता है। लोकोन्मुखी प्रवृत्ति के कारण इस काल की भक्ति-भावना लोक-प्रचलित भाषाओं में अभिव्यक्त हुई। इस युग को हिन्दी साहित्य का पूर्व मध्यकाल भी कहते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्तिकाल का निर्धारण सन् 1318 ई० (संवत् 1375 वि0) से 1643 ई० (संवत् 1700 वि0) तक किया है। भक्ति काव्य की परम्परा परवर्ती काल तक भी प्रवाहित होती रही है। अतः अध्ययन की सुविधा के लिए भक्तिकाल को 14वीं शती के मध्य से 17वीं शती के मध्य तक मानना उचित होगा। विदेशी सत्ता प्रतिष्ठित हो जाने के कारण देश की जनता में गौरव, गर्व और उत्साह का अब अवसर न रह गया था। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवद्-भक्ति ही एक सहारा था। युगद्रष्टा भक्त कवियों ने देश की जनता को सँभालने के लिए जिस काव्य का गान किया, भक्तिकाल उसी का शुभ परिणाम है।
राजनीतिक परिस्थिति
भक्तिकाल का आरम्भ दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351) के राज्यकाल में हुआ। शासक वंशों में सत्ता प्राप्त करने के लिए विद्रोह होते रहते थे। शेरशाह ने सैन्य-योजना सुसंगठित की थी, जिसका लाभ अकबर ने भी उठाया था। मुगलों में अकबर का राज्यकाल सभी दृष्टियों से सर्वोपरि रहा। वह हिन्दू-मुसलमान के समन्वय सम्बन्धी प्रयत्नों में शान्ति तथा व्यवस्था की स्थापना में सफल हुआ। जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी बहुत कुछ अकबर का ही अनुसरण किया था। इस समय तक देश की सैनिक शक्ति प्रायः क्षीण हो चुकी थी और विजेताओं का राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित हो चुका था। ऐसी अवस्था में वीरों के प्रशस्ति- गीत अपना प्रभाव खो चुके थे।
सामाजिक परिस्थिति
भारतीय समाज में वर्णों और जातियों का विशिष्ट स्थान विशेषता यह है कि जिस समाज ने पारसी, यवन (यूनानी),
शक, हूण आदि अनेक जातियों के साथ समन्वय करके उन्हें आत्मसात कर लिया, उसी का पैगम्बरी धर्म के अनुयायियों के साथ आपसी मेल-मिलाप उसी गति के साथ सम्भव न हो सका। फलस्वरूप दोनों पक्षों के बीच परस्पर सन्देह, जुगुप्सा और भेदभाव का वातावरण प्रबल हो उठा। विदेशी एवं विजातीय शासक हिन्दू जनता के साथ दुर्व्यवहार करते थे। छुआछूत के नियम कठोर और व्यापक थे। समाज में स्त्रियों का स्थान निम्न था। पर्दा-प्रथा जोरों पर थी। समाज में ऊँच-नीच की भावना पारस्परिक कटुता घृणा की अवस्था तक पहुँच गयी थी। तत्कालीन साधु-समाज पर भी पाखण्ड की काली छाया मँडराने लगी थी। दैनिक-जीवन, रीति- और रिवाज, रहन-सहन, पर्व-त्योहार आदि की दृष्टि से तत्कालीन भारतीय समाज सुविधा सम्पन्न और असुविधा-ग्रस्त इन दो वर्गों में विभक्त था। प्रथम वर्ग राजा-महाराजा, सुल्तान, अमीर, सामन्त और सेठ-साहूकारों का था। दूसरा वर्ग किसान, मजदूर और घरेलू उद्योग- धन्धे में लगी सामान्य जनता का था। दूसरा वर्ग विपन्न और दुःखी था।
गोस्वामी तुलसीदास कृत कवितावली की निम्नलिखित पंक्तियों में तत्कालीन स्थिति का स्पष्ट परिचय मिलता है-
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि,
बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।
जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों कहाँ जाइ, का करी।
धार्मिक परिस्थिति
वैदिक धर्म की आस्था पर सिद्धों और नाथ-पन्थियों की रहस्य-गुह्य-साधना गहरा आघात कर चुकी थी। पूजा-पाठ, धार्मिक- क्रिया-कलाप आदि के प्रति जो आस्था हिन्दू-समाज में थी, उसकी जड़ें प्रायः हिल चुकी थीं। साम्प्रदायिकता तथा अन्ध-विश्वासों का बड़ा विस्तार था। पाखण्ड की पूजा हो रही थी। पण्डित और मौलवी धर्म की मनमानी व्याख्या करके हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म को परस्पर विरोधी बना रहे थे। इस काल में धर्म साधनाओं की बाढ़-सी आ गयी थी। धर्माचार के नाम पर अनाचार और मिथ्याचार पलने लग गया था। ऐसे समय में उसे किसी समन्वयवादी दर्शन और आचार-पद्धति की आकांक्षा थी, जो जीवन की सहज अनुभूति पर आधारित हो। इसी की पूर्ति भक्ति-आन्दोलन में हुई।
साहित्यिक परिस्थिति
साहित्य की समृद्धि की दृष्टि से तो भक्तिकाल हिन्दी साहित्य का ‘स्वर्ण युग कहलाता है। भक्ति की जो पुनीत धारा इस युग में प्रवाहित हुई, उसने अभी तक जन-मानस को आप्लावित कर रखा है। ब्रज तथा अवधी दोनों भाषाओं में काव्य-रचना हुई। सूर, तुलसी, कबीर और जायसी जैसे कवियों को इसी युग । ने जन्म दिया।
भक्ति-आन्दोलन
हिन्दी के वास्तविक साहित्य का प्रारम्भ भक्त कवियों की रचनाओं से ही होता है। इस भक्ति-भावना को जन-जीवन में व्याप्त करने के लिए ही वस्तुतः हिन्दी परिनिष्ठित अपभ्रंश, प्राकृताभास आदि से अलग हुई थी। उस युग की भक्ति-भावना सम्पूर्ण देश की युग चेतना में परिव्याप्त थी। उत्तर भारत में भक्ति-भावना को प्रवाहित करने का श्रेय स्वामी रामानन्द तथा महाप्रभु वल्लभाचार्य को है। उत्तर भारत की तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक अवस्थाएँ इस भक्ति आन्दोलन के जागरण के लिए उत्तरदायी हैं। मध्यकालीन धर्मों में हिन्दू, जैन, बौद्ध, पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम प्रमुख थे और परस्पर सम्पर्क रखते थे। उन दिनों हिन्दू और इस्लाम प्रधान धर्म थे। वैष्णव धर्म मूलतः भक्ति-प्रधान था। सूफी, इस्लाम धर्म की एक शाखा थी। उसकी उपासना-पद्धति में प्रेम की प्रधानता है। किसी ने भगवान् को निर्गुण समझा, किसी ने सगुण। कोई उसे ज्ञान से प्राप्त करना चाहता था, तो कोई
विशुद्ध प्रेम से। इन धर्मों के अनुयायियों द्वारा भक्ति काव्य की उत्कृष्ट रचनाएँ हुईं। इस प्रकार भक्ति साहित्य का विपुल भण्डार समृद्ध हुआ। भक्ति-आन्दोलन का व्यापक प्रभाव तत्कालीन वास्तु-कला, मूर्तिकला और चित्रकला पर भी पड़ा है। भक्ति एक साथ ही कई धाराओं में बँट कर प्रवाहित हुई जिसे निर्गुण भक्तिधारा और सगुण भक्तिधारा कहते हैं।
विशुद्ध प्रेम से। इन धर्मों के अनुयायियों द्वारा भक्ति काव्य की उत्कृष्ट रचनाएँ हुईं। इस प्रकार भक्ति साहित्य का विपुल भण्डार समृद्ध हुआ। भक्ति-आन्दोलन का व्यापक प्रभाव तत्कालीन वास्तु-कला, मूर्तिकला और चित्रकला पर भी पड़ा है। भक्ति एक साथ ही कई धाराओं में बँट कर प्रवाहित हुई जिसे निर्गुण भक्तिधारा और सगुण भक्तिधारा कहते हैं।
(क) निर्गुण भक्ति
जिस भक्ति में भगवान् के निर्गुण-निराकार रूप की आराधना पर बल दिया गया, वह निर्गुण भक्ति कहलायी। जिन कवियों हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की कटुता को कम करके उन्हें एक-दूसरे के समीप लाने का प्रयास किया, उन्होंने निर्गुण-साधना पर बल दिया। निर्गुण भक्ति की दो शाखाएँ हैं-
(i) ज्ञानाश्रयी शाखा-यह उपासना ज्ञान और प्रेम पर आधारित है। भगवान् के स्वरूप का तात्त्विक एवं अपरोक्ष साक्षात्कार तथा उसके प्रति अनन्य एवं सहज प्रेम ही निर्गुण उपासना का मूल स्वरूप है। निर्गुण सम्प्रदाय ने सहज एवं साधनापूर्ण जीवन-पद्धति का निर्देश दिया है। भक्तिकाल से पहले के जीवन में जो एक ओर व्रत आदि की रूढ़िवादिता थी और दूसरी तरफ रहस्य गुह्य साधनाओं की जटिलता थी, उनसे मुक्ति केवल सहज प्रेम, ज्ञान एवं सरल तथा सदाचारी जीवन-दर्शन से ही मिल सकती है। यह कार्य निर्गुण भक्ति ने किया। यही कारण है कि इस युग की सहज अनुभूति की कविता जनमानस की भाषा में अभिव्यक्त हुई। ज्ञानाश्रयी शाखा में भगवान् के अवतारों की कल्पना का निषेध है। केवल निर्गुण और निराकार ब्रह्म की उपासना है। हिन्दी में इस ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रधान कवि कबीर हैं। वे स्वामी रामानन्द के शिष्य थे। उनकी भक्ति- भावना में बाह्याडम्बर, तीर्थ, व्रत, रोजा-नमाज आदि का खण्डन है और भगवान् को अद्वितीय ज्ञान एवं शुद्ध प्रेम से प्राप्त करने का सन्देश है। भक्ति-भावना की अभिव्यक्ति उनका प्रमुख उद्देश्य है और वह अनुभूति ही काव्य बन गयी है। इस धारा के अन्य सन्त-कवि नानक, दादू, मलूकदास, रैदास आदि हैं।
(ii) प्रेमाश्रयी शाखा-इस शाखा के काव्यों का मूल विषय सामाजिक रूढ़ियों से मुक्त एवं केवल सौन्दर्य वृत्ति से प्रेरित स्वच्छन्द प्रेम तथा प्रगाढ़ प्रणय-भावना है। इसके लिए नायक अनेक संकटों का सामना करने का साहस रखता है। सामाजिक रूढ़ियों में बँधे हुए परम्परागत प्रेम से हटकर स्वच्छन्द प्रेम की पवित्रता की स्थापना भी इन काव्यों का मुख्य प्रयोजन एवं प्रमुख उपलब्धि है। लौकिक प्रेम की सहज अनुभूति में आध्यात्मिकता तथा उसकी प्राप्ति के प्रयास में योग-साधना के दर्शन कराके इन कवियों ने जीवन को एक आस्था दी है जो रहस्य गुह्य साधनाओं तथा कठोर धर्मोपदेश, व्रत, नियम आदि से उखड़-सी गयी थी। ये कार्य प्रेम-कथाओं पर आध्यात्मिकता, रहस्यवाद, दार्शनिकता आदि के आरोप से तथा समासोक्ति या अन्योक्ति शैली को अपनाने से बड़ी ही सरलता से सिद्ध हो गया। इनकी कथावस्तु में लोक-कथाओं, इतिहास तथा कल्पना का मिश्रण है। इन काव्यों में रस, अलङ्कार आदि काव्यांगों का भी प्रौढ़ रूप मिलता है। इस धारा में मुसलमान और हिन्दू से दोनों ही धर्मों के कवि आते हैं। अधिकांश तो सूफी हैं, पर कुछ निर्गुण सन्त और कृष्ण भक्त कवि भी हैं। इसमें बहुत रहस्यवादी कवि भी हैं। रहस्यवाद के दर्शन से इस धारा के अधिकांश कवियों का भक्त कवियों में अन्तर्भाव हो जाता है। शुक्लजी ने प्रेममार्गी भक्तों की रचना-शैली को मसनवी कहा है, पर कुछ आलोचकों ने इन्हें भारतीय परम्परा का कथा-काव्य माना है। इन काव्यों में वातावरण और चरित्र-चित्रण भारतीयता के अनुरूप हुआ है। जायसी, मंझन, कुतबन आदि इस धारा के प्रमुख कवि तथा पद्मावत, अखरावट, मधुमालती आदि प्रमुख ग्रन्थ हैं। इस शाखा के अधिकांश कवियों की भाषा अवधी है, पर अनेक कवियों ने राजस्थानी, ब्रज और राजस्थानी मिश्रित ब्रज का भी प्रयोग किया है।
(ख) सगुण भक्ति
जीवन में व्यापक आस्था लाने तथा समन्वयवादी जीवन-दर्शन एवं आचार-पद्धति प्रदान करने की भावना से भक्ति आन्दोलन प्रारम्भ हुआ था। निर्गुण भक्ति--प्रधानतः निवृत्ति मार्ग, वैराग्य, ज्ञान, निराकार के प्रति प्रेम, योग-साधना आदि के द्वारा अपनी अपेक्षाकृत एकांगी जीवनदृष्टि, अभिव्यञ्जना की शुष्कता एवं व्यंग्यों की तीक्ष्णता के कारण समग्र जीवन में आस्था लाने का कार्य सम्पन्न नहीं कर सकी। उसने बाह्याडम्बर, क्लिष्ट साधनाओं, पारस्परिक विद्वेष तथा कटुता के झाड़-झंखाड़ काट कर फेंक दिये और इस प्रकार एक समतल भूमि तैयार कर दी। प्रेममार्गी कवियों ने प्रेम की सरसता से इस जीवन-भूमि को सिंचित किया और फिर जीवन की आस्था और विश्वास का बगीचा सगुण भक्तिधारा के कवियों ने लगाया। कृष्ण-भक्ति ने जीवन की सामान्य भावनाओं वात्सल्य, सख्य, रति-भाव के सभी रूपों को भक्ति में परिणत कर दिया। सारा जीवन ही साधना बन गया। इससे नित्य का लौकिक जीवन भक्तिमय हो गया। वैदिक धर्म की पुनः प्रतिष्ठा की जो आकांक्षा हिन्दू जीवन में थी, वह राम-भक्त तुलसीदास जी द्वारा पूर्ण हुई। उन्होंने जीवन की सभी परिस्थितियों के लिए आचार एवं धर्म के मानदण्ड दिये। जीवन को मर्यादा का मार्ग दिखाया तथा उस सब में भक्ति-रस प्रवाहित कर दिया। गृहस्थ और वैरागी, निवृत्तिमार्गी और प्रवृत्तिमार्गी दोनों के लिए धर्म के वास्तविक स्वरूप की प्रतिष्ठा तुलसीदास के द्वारा ही हुई। यही सगुण भक्ति की देन है।
(i) कृष्णभक्ति शाखा-भगवान् कृष्ण का लीला पुरुषोत्तम रूप इस शाखा के भक्तों का आराध्य है। राधा-कृष्ण विभिन्न लीलाएँ कृष्ण-साहित्य के प्रमुख विषय हैं। विद्यापति को इस शाखा का प्रथम कवि कहा जा सकता है। उनके बाद वल्लभ, निम्बार्क, राधा-वल्लभ, हरिदासी और चैतन्य सम्प्रदायों के भक्त कवियों ने कृष्ण-लीला का गान किया। इन भक्तों ने अपने-अपने सम्प्रदायों की भावना के अनुसार कृष्ण की बाल-लीला, किशोर-लीला एवं यौवन-लीला का वर्णन किया है। वल्लभ सम्प्रदाय में कृष्ण के बाल-रूप की ही आराधना है। शेष सम्प्रदायों में कृष्ण की किशोर एवं यौवन-लीला की प्रमुखता सूर तथा अष्टछाप के अन्य कवि वल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी थे, अत उनके काव्य में अन्य लीलाओं की अपेक्षा बाल- लीला का वर्णन अधिक है। बाल-वर्णन के क्षेत्र में सूरदास हिन्दी के ही नहीं, विश्व के श्रेष्ठ कवि हैं। कृष्ण-भक्ति के कवियों की भाषा ब्रज है। इन्होंने लीला रस प्रवाहित करनेवाले मुक्तक पद लिखे हैं। सूरसागर सूर का विशाल काव्य है। इस ग्रन्थ का उपजीव्य भागवत है। इसमें कृष्ण के सम्पूर्ण जीवन का चित्र है, पर कवि का मन कृष्ण की बाल-लीला तथा गोपियों के साथ की गयी प्रेम-लीला के संयोग एवं वियोग पक्षों के हृदयस्पर्शी वर्णन में अधिक रमा है। इनकी भक्ति पुष्टिमार्गीय कहलाती है। इसमें भगवान् के अनुग्रह से ही सब कुछ प्राप्त हो जाता है, साधनाओं का कोई महत्त्व नहीं है। कृष्ण-भक्ति ने जीवन की सभी इच्छाओं का आलम्बन कृष्ण को बनाकर सारे जीवन को ही भक्तिमय कर दिया।
(ii) रामभक्ति शाखा-इस शाखा के कवियों ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र का वर्णन किया। राम के चरित्र द्वारा ही जीवन के सभी क्षेत्रों के लिए धर्म, सदाचार एवं कर्त्तव्य का सन्देश जनसाधारण को हृदयंगम कराया जा सकता था। राम के चरित्र से भारतीय संस्कृति के समन्वयवादी रूप की पुनः प्रतिष्ठा हो सकी। राम का चरित्र इतना महान् और व्यापक है कि इसमें सम्पूर्ण मानव-मात्र को धर्म और जीवन का सन्देश देने की क्षमता है। यही कारण है कि काव्य के प्रबन्ध, मुक्तक, गीति आदि प्रकारों एवं दोहा, चौपाई, कवित्त, घनाक्षरी आदि शैलियों का आश्रय लेकर रामचरित्र वर्णित हो सका। रामकाव्य में जैसे भक्ति के सर्वांगीण रूप का परिपाक हुआ है, वैसे ही काव्योत्कर्ष भी अपनी चरम सीमाओं का स्पर्श करता है। भाव, अनुभाव, रस, अलङ्कार किसी भी दृष्टि से देखें, राम-काव्य हिन्दी साहित्य की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। तुलसी इस धारा के सबसे प्रमुख कवि हैं। जीवन का समन्वयवादी एवं मर्यादावादी दृष्टिकोण ही तुलसी की सबसे बड़ी देन है। जीवन की इसी चेतना का स्पन्दन आज भी भारतीय समाज अनुभव कर रहा है। तुलसी ने अवधी और ब्रज दोनों ही भाषाओं में राम का गुणगान किया है। रामचरितमानस, कवितावली, गीतावली, विनयपत्रिका आदि उनके अनुपम ग्रन्थ हैं। विनयपत्रिका की भक्ति में ज्ञान और भक्ति का पूर्ण सामंजस्य है। रामभक्ति की धारा प्रधानतः प्रबन्ध काव्य के रूप में बही। राम का चरित्र इसके लिए पूर्णतया उपयुक्त भी है, पर गीति और मुक्तक का क्षेत्र भी रामभक्ति से भरा पड़ा है। केशव की रामचन्द्रिका भी इसी धारा का ग्रन्थ है। नाभादास आदि महाकवि भी इसी धारा के हैं।
भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
1. निर्गुणोपासना की ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि निराकार ईश्वर के उपासक थे। गुरु के महत्त्व पर उनका विश्वास था और अन्धविश्वास, रूढ़िवाद, मिथ्याडम्बर तथा जाति-पाँति के बन्धनों के वे विरोधी थे। इनके काल की भाषा में अनेक बोलियों का मिश्रण था तथा वह सीधी-सादी होती थी। प्रधान छन्द साखी (दोहा) और पद थे। विश्वबन्धुत्व की भावना जगाना इनका प्रधान उद्देश्य था।
2. निर्गुणोपासना की प्रेमाश्रयी शाखा के कवि भारतीय लोकजीवन में प्रचलित कथाओं एवं इतिहास-प्रसिद्ध प्रेमगाथाओं पर आधारित काव्य लिखते थे। इनमें सूफी उपासना-पद्धति का प्रभाव था। गुरु का महत्त्व था। भाषा अवधी थी तथा दोहा एवं चौपाई प्रमुख छन्द थे
3. सगुणोपासना में कृष्ण-भक्ति काव्य के आधार कृष्ण और राम-भक्ति काव्य के आधार राम भगवान् के अवतार रूप में उपास्य थे। इनका गुणगान और लीलाओं का वर्णन प्रमुख था। सूर की काव्य-भाषा ब्रज थी। उन्होंने केवल मुक्तक पदों की रचना की, जिन्हें बाद में लीलाक्रम अथवा श्रीमद्भागवत के कथा-क्रम में संकलित कर लिया गया। तुलसी ने अवधी तथा ब्रजभाषा दोनों को काव्य-भाषा बनाया। तुलसी ने दोहा, चौपाई, सोरठा, बरवै, हरिगीतिका, सवैया आदि विविध छन्दों का प्रयोग किया है। विनयपत्रिका में विनय के पद हैं।
4. इस काल की विशिष्ट प्रवृत्ति कवियों का राजाश्रय से स्वतन्त्र होना है।
5. कृष्ण-भक्ति में शृङ्गार तथा वात्सल्य रस और सख्य भाव की प्रमुखता है। राम भक्ति में शान्त रस तथा दास्यभाव की प्रधानता है |
हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्ति-काल को हिन्दी का स्वर्ण युग कहा जाता है। भक्त कवियों ने चित्त की जिस उदात्त भूमिका में रम कर हृदय-सागर का मन्थन कर मनोरम भावों के नवनीत को प्रदान किया है, वह भारतीय साहित्य की शाश्वत विभूति है। निर्गुणोपासना की ज्ञानाश्रयी शाखा के सन्त कवियों ने समाज कल्याण के हितकारी उपदेश दिये। उन्होंने ज्ञान और सच्चे गुरु के महत्त्व को प्रतिष्ठा दी। प्रेमाश्रयी शाखा के सूफी सन्त कवियों ने ईश्वर-प्राप्ति का मुख्य साधन प्रेम बताया। सगुणोपासक कवियों कृष्ण की मनोरम लीलाओं एवं राम के मर्यादा पुरुषोत्तम चरित्र की बड़ी ही मनोरम झाँकियाँ प्रस्तुत की। सीमित वर्ण्य-विषयों का असीम वर्णन इस काव्य की विशेषता है। इन कवियों की रचनाओं की केवल विषयवस्तु ही नहीं, अपितु काव्यशास्त्रीय पक्ष भी परम समृद्ध है।
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