काव्य ? | काव्य साहित्य का विकास | हिंदी साहित्य का विकास - आधुनिक काल

आधुनिक काल


हिन्दी साहित्य में आधुनिकता का सूत्रपात अंग्रेजों की साम्राज्यवादी शासन-प्रणाली के नवीन अनुभव से हुआ था, जिसमें बाहर से बड़ी शान्ति दृष्टिगत होती थी, किन्तु भीतर धन का अविरल प्रवाह विदेश की ओर अग्रसर रहता था। यद्यपि अंग्रेज हमारा आर्थिक शोषण करते रहे और अपने देश के सरकारी और साथ-ही-साथ व्यक्तिगत खजाने भी लगातार भरते रहे, तथापि भारतवर्ष में वैज्ञानिक बोध का प्रसार अंग्रेजों के सम्पर्क के फलस्वरूप ही हुआ। आधुनिक युग, जीवन की यथार्थता के ग्रहण, विश्व के विभिन्न व्यापारों के बुद्धिपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण और साहित्य में सामान्य मानव की प्रतिष्ठा का युग रहा है और यह आधुनिक चेतना हमें अंग्रेजों के सम्पर्क से उपलब्ध हुई। आधुनिक हिन्दी काव्य इसी आधुनिक बोध से ओत-प्रोत आधुनिक चेतना से अनुप्राणित काव्य है

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आधुनिक काल का प्रारम्भ सन् 1843 ई० (संवत् 1900 वि0) से माना है। अन्य अनेक विद्वानों की सम्मति में इसका प्रारम्भ 19वीं शती के मध्य होता है। 7-8 वर्ष आगे-पीछे माने जाने से यह तथ्य विवादास्पद नहीं है। अध्ययन की सुविधा के लिए आधुनिक काल का उपविभाजन इस प्रकार किया गया है-

1. पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु-युग) सन् 1857-1900 ई०
2. जागरण-सुधार-काल (द्विवेदी-युग)सन् 1900-1922 ई०
3. छायावादी युगसन् 1923-1938 ई०
4. छायावादोत्तर युग-
(क) प्रगतिवाद, प्रयोगवाद सन् 1938-1960 ई०
(ख) नयी कविता युग सन् 1960 ई० से.

प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ

भारतेन्दु-युग  भारतेन्दु हरिश्चन्द्र प्रेम-माधुरी
श्रीधर पाठक कश्मीर-सुषमा


द्विवेदी-युग मैथिलीशरण गुप्त साकेत
अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध प्रिय-प्रवास

छायावादी युग जयशंकर प्रसाद कामायनी
महादेवी वर्मा यामा

प्रगतिवादी युग शिवमंगल सिंह सुमन प्रलय-सृजन
रामधारीसिंह दिनकर उर्वशी

प्रयोगवादी युग अज्ञेय आँगन के पार द्वार
नागार्जुन प्यासी-पथरायी आँखें

नयी कविता युग गिरिजाकुमार माथुर धूप के धान
भवानीप्रसाद मिश्र खुशबू के शिलालेख


(1) भारतेन्दु-युग

हिन्दी कविता में आधुनिकता का स्वर सर्वप्रथम भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाओं में सुनने को मिला। हिन्दी काव्यधारा में नवजीवन के संचरण के लिए उन्होंने ही कविता-वर्धिनी सभा जैसी नवीन साहित्यिक संस्था की स्थापना की थी और उसके मुखपत्र के रूप में कविवचन सुधा प्रकाशित की थी। भारतेन्दुजी की इस साहित्यिक संस्था की बैठकों की सूचना इसी पत्रिका में छपा करती थी। इसी पत्रिका में उसकी बैठकों में पठित रचनाएँ प्रकाशित हुआ करती थीं और इसी पत्रिका में उन पर मिलने वाले पुरस्कारों की घोषणा होती थी। हिन्दी के आधुनिक काल का कवि अपनी रुचि के विषय को लेकर अपनी रुचि की भाषा और अपनी रुचि के साहित्यिक संविधान में कुछ कहने को स्वच्छन्द था। आधुनिक हिन्दी काव्य आधुनिक कवियों के इसी स्वच्छन्द और समर्थ व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है।

    यह मनुष्य की सीमा है कि नवीनता के प्रति अत्यधिक आग्रहशील व्यक्ति भी परम्परा के प्रभाव से अपने को पूर्णतः मुक्त नहीं कर पाता। भारतेन्दु को एक ओर हम देश के आर्थिक शोषण से विक्षुब्ध, स्वदेशानुराग की भावना से ओतप्रोत, मातृभाषा की प्रतिष्ठावृद्धि के लिए कृतसंकल्प, समाज के सुसंस्कार के हित में सहज तत्पर, प्रकृति की दिव्य शोभा के प्रति स्नेह-विह्वल देखते और दूसरी ओर वे वल्लभ सम्प्रदाय से दीक्षा ग्रहण करते हैं, राजाश्रित कवियों की भाँति महारानी विक्टोरिया की प्रशंसा में तल्लीन हैं, रीतिकालीन कवियों के समान काव्य की शृङ्गार-सज्जा में प्रवीण हैं। उनके समकालीन कवियों में भी इसी द्विधा व्यक्तित्व की अभिव्यञ्जना मिलती है। भारतेन्दु स्वयं तो सन् 1885 में दिवंगत हो गये थे, किन्तु उनके समकालीन प्रतापनारायण मिश्र, बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन, अम्बिकादत्त व्यास आदि का काव्याभ्यास 19वीं शताब्दी के अन्त तक चलता रहा। उत्तरार्द्ध के कवि श्रीधर पाठक में आधुनिक कविता का स्वच्छन्दतावादी स्वर और अधिक मुखरित हुआ।

(2) द्विवेदी-युग

    सन् 1900 ई0 में सरस्वती के प्रकाशन के साथ हिन्दी कविता में आधुनिक प्रवृत्तियाँ बद्धमूल होनी आरम्भ हुईं। भारतेन्दु युग में उस काल की द्विधा वृत्ति के अनुरूप साहित्यिक भाषा के भी दो रूपों का प्रचलन रहा। गद्य रचनाएँ तो खड़ीबोली में लिखी गयीं, किन्तु काव्य-साधन ब्रजभाषा में ही चलती रही। निकता को हिन्दी साहित्य में पूर्णतः बद्धमूल करने के लिए आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जैसे जागरूक, व्यवस्थित और सशक्त व्यक्तित्व की अपेक्षा थी। सन् 1903 में उन्होंने सरस्वती का सम्पादन- भार ग्रहण किया और अपने महाप्राण व्यक्तित्व की छाया में हिन्दी भाषा और साहित्य का सम्पूर्ण संविधान ही बदल डाला, इसीलिए सन् 1900 से 1922 ई0 तक के काल को द्विवेदी युग की संज्ञा दी जाती है। 

    आचार्य द्विवेदी की विशेष प्रसिद्धि हिन्दी गद्य को परिष्कृत, परिमार्जित और व्याकरणसम्मत बनाने की दृष्टि से है, किन्तु इससे भी अधिक उनका महत्त्व हिन्दी के शब्दभण्डार की अभिवृद्धि, उसकी अभिव्यञ्जना शक्ति के संवर्धन और उसे ज्ञान-विज्ञान की नवीनतम धाराओं की अभिव्यक्ति के योग्य बनाने का रहा है। हिन्दी कवियों को उन्होंने ब्रजभाषा के मध्ययुगीन माध्यम को छोड़कर खड़ीबोली का आधुनिक माध्यम अपनाने की प्रेरणा दी। आचार्य द्विवेदी के काव्यदर्शन में विशेषरूप से उसके जड़ पक्षों के प्रति प्रबल विद्रोह का स्वर है और साथ-ही-साथ नये क्षेत्रों एवं प्रदेशों के पथ पर अग्रसर होने का आह्वान भी है।

    आधुनिक काव्य-दृष्टि के अनुरूप उन्होंने कविता को मन के भावावेग का सहज उद्गार बताया। उनकी धारणा थी कि चींटी से लेकर हाथी पर्यन्त पशु, भिक्षुक से लेकर राजा पर्यन्त मनुष्य, बिन्दु से लेकर समुद्र पर्यन्त जल, अनन्त आकाश, अनन्त पर्वत सभी को लेकर कविता लिखी जा सकती है, सभी से उपदेश मिल सकता है और सभी के वर्णन से मनोरंजन हो सकता है। आचार्य द्विवेदी के इस व्यापक काव्य-दर्शन को लेकर मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध, कामताप्रसाद गुरु, लोचनप्रसाद पाण्डेय आदि ने कविताएँ लिखीं। इनकी रचनाओं में भी हमें परम्परा और प्रयोग दोनों के स्वर सुनने को मिलते हैं। आचार्य द्विवेदी सहृदय होते हुए भी मूलतः बुद्धिवादी थे और उनके इसी व्यक्तित्व के अनुरूप उनके युग के साहित्य में इस जगत् के जीवन-प्रवाह का बुद्धिपरक व्याख्यान मिलता है। मैथिलीशरण गुप्त को हम भारतीय इतिहास के लगभग सभी पृष्ठों की बुद्धिपरक व्याख्या उपस्थित करते हुए देखते हैं, जो उनके रसात्मक व्यक्तित्व के कारण सरस भी है। उपाध्यायजी ने पहले कृष्ण और राधा की कथा को आधुनिक बुद्धिवादी दृष्टिकोण के अनुरूप नवीन कलेवर देकर उपस्थित किया और फिर कालान्तर में इसी दृष्टि से वैदेही-बनवास का प्रसंग प्रस्तुत किया। इस काल में अकेले रत्नाकर परम्परा के साथ पूर्णतः आबद्ध होकर मध्ययुगीन विषयों पर मध्ययुगीन काव्यभाषा में मध्ययुगीन कला-सौष्ठव की ही सृष्टि करते रहे।

(3) छायावादी युग

    प्रसादजी का रचनाकाल, जिनकी प्रारम्भिक रचनाओं में ही स्वानुभूति का स्वर प्रधान है, द्विवेदी युग के मध्य काल सन् 1909 से इन्दु पत्रिका के प्रकाशन के साथ आरम्भ होता है। इन्दु की प्रथम कला की प्रथम किरण में ही हम उन्हें स्वच्छन्दतावाद का उद्घोष करते देखते हैं।

    स्वच्छन्दतावाद साहित्य में विद्रोह का स्वर रहा है। सामाजिक जीवन में वह रूढ़ियों और परम्पराओं के प्रति विरोध और व्यक्ति के अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने की प्रवृत्ति रूप में प्रकट हुआ है। साहित्य में वह अत्यधिक सामाजिकता के विरोध में, आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति को प्रश्रय देता है। स्वच्छन्दतावादी साहित्यकार स्वभावतः अनुभूतिशील और भावुक मनोवृत्ति का होता है। वह जीवन को अपनी भावना और कल्पना से अनुरंजित करके उपस्थित करता है। वह मूलतः सौन्दर्य का साधक होता है और उसकी यह सौन्दर्य- साधना कभी मानवीय रूप के लिए होती है, कभी प्रकृति के प्रति उन्मुख तथा कभी किसी दिव्य अनुभूति से संप्रेरित होती है।

    स्वच्छन्दतावादी काव्य-रचनाओं का कला-पक्ष भी नवीनता लिये होता है। उसमें मौलिक कल्पना का स्वच्छन्द विलास ही दृष्टिगत होता है। हिन्दी का छायावादी काव्य इन सभी विशेषताओं से समन्वित है, साथ ही उसमें भारतीय जीवनधारा की कुछ परम्परागत और र कुछ युगीन प्रवृत्तियाँ भी प्रकट हुई हैं। परम्परागत प्रवृत्तियाँ-आध्यात्मिकता का संस्पर्श और वैष्णव भक्ति-भावना तथा युगीन प्रवृत्तियाँ- राष्ट्रीयता, पीड़ित जनता के प्रति सहानुभूति, दुःखवाद या निराशावाद की हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अनुभूतियों का स्वरूप भी भिन्न होता है, इसीलिए हिन्दी के इन स्वच्छन्दतावादी कवियों का भी अपना अलग-अलग व्यक्तित्व उनकी रचनाओं में उभरा है। उनकी काव्य-प्रवृत्तियों में इसीलिए पर्याप्त वैभिन्य है।

    हिन्दी की स्वच्छन्दतावादी काव्यधारा में आधुनिक काल के आध्यात्मिक महापुरुषों-रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, रामतीर्थ और कालान्तर में अरविन्द का प्रभाव रहा है। रवीन्द्रनाथ की आध्यात्मिक रचनाओं से भी हिन्दी के स्वच्छन्दतावादी कवियों ने बहुत कुछ ग्रहण किया है। इसीलिए प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवी की रचनाओं में अनेक स्थानों पर इस जगत् के विभिन्न स्वरूपों में उस परब्रह्म का छायाभास पाने जैसी प्रवृत्ति दृष्टिगत होती है। इसी आध्यात्मिक छायादर्शन की प्रवृत्ति के कारण इस काव्यधारा को छायावाद काव्यधारा कहा गया, किन्तु छायावादी कवियों का सम्पूर्ण साहित्य इस आध्यात्मिक प्रवृत्ति से ओत-प्रोत नहीं है।

    छायावादी कविता के ह्रास का सबसे बड़ा कारण विदेशी शासन के दमन-चक्र के नीचे पिसते हुए भारतीय जनसाधारण की निरन्तर बढ़ती हुई पीड़ा को कहा जा सकता है उसी के बोध को लेकर प्रसाद, निराला और पन्त अपने मनोलोक की भावना और कल्पना के प्रदेशों से निकल कर कठोर यथार्थ की भूमि पर उतर आये, पीड़ित मानवता के प्रति सहानुभूति प्रकट करने लगे, जनता के दुःख-दर्द को वाणी देने लगे और अपने चारों ओर की कुरूपताओं को मिटाने में तत्पर हो उठे। प्रसाद ने कथा-साहित्य, पन्त ने काव्य-रचनाओं और निराला ने गद्य और पद्य दोनों ही विधानों में अपने चारों ओर के कठोर यथार्थ का चित्रण करनेवाली रचनाएँ उपस्थित कीं। किन्तु जीवन का यह नया यथार्थ अपने समुचित विकास के लिए नये जीवन-दर्शन की अपेक्षा रखता था। यह नया यथार्थ एक तो बाहर का था जिसमें एक ओर पूँजी की वृद्धि होती थी और दूसरी ओर दीनता का प्रसार होता था। मनुष्य के मन के भीतर की घुटन, निराशा, कुण्ठा आदि व्यक्तित्व को खण्डित करने वाली अनेक वृत्तियाँ बड़ी सरगर्मी से चक्कर लगा रही थीं। जीवन के बाह्य यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए कार्ल मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का दर्शन अपनाया गया और मनुष्य के मन के भीतर सिगमण्ड फ्रॉयड के मनोविश्लेषण सिद्धान्त को उपयोगी समझा गया। साहित्य में प्रथम को प्रगतिवाद और दूसरे को प्रयोगवाद की संज्ञाएँ मिलीं।

(4) छायावादोत्तर युग

    (क) प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद-हिन्दी कविता में प्रगतिवाद की प्रतिष्ठा पश्चिम की मार्क्सवादी विचारधारा को लेकरहुई। किन्तु हमारे देश की भूमि पहले से ही इस नये जीवनदर्शन के लिए परिपक्व थी। यूरोप में पूँजीवादी सभ्यता के पर्याप्त विकसित हो जाने पर उसकी दुर्बलताओं को भली प्रकार पहचान कर उन्हें दूर करके नवीन सभ्यता के आविर्भाव की दृष्टि से साम्यवाद एवं अन्य प्रगतिशील विचारधाराओं का जन्म हुआ था। हमारे देश में भी औद्योगिकीकरण का क्रम बड़ी द्रुतगति के साथ चल रहा था और उसके फलस्वरूप मजदूर-संगठन और उनकी देखा-देखी किसान सभाएँ भी बनने लगी थीं। सन् 1917 में रूस की राज्य-क्रान्ति के अनन्तर सोवियत शासन स्थापित हो जाने पर भारतीय बुद्धिवादी भी सर्वहारा वर्ग को संगठित करके जनक्रान्ति की बात सोचने लगा था। पण्डित जवाहरलाल नेहरू और रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे महापुरुषों ने भी रूसी क्रान्ति और सोवियत शासन का अभिनन्दन किया था। इसी पृष्ठभूमि में सन् 1936 की लखनऊ कांग्रेस के समय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। गाँधीजी की विचारधारा से पर्याप्त प्रभावित प्रेमचन्दजी इस संस्था के प्रथम अधिवेशन के सभापति हुए। इस प्रकार हिन्दी साहित्य में प्रगतिवादी आन्दोलन चाहे मार्क्सवाद से अधिक अनुप्राणित हो गया हो, किन्तु आरम्भ में गाँधीवादियों और कांग्रेस के वामपन्थी विचारधारा के अनेक व्यक्तियों ने इसका सम्पोषण किया था। नरेन्द्र शर्मा का काव्य-विकास प्रेम और प्रकृति के उपरान्त गाँधीवाद और प्रगतिवाद की भूमिका तक पहुँचा। अब वे दर्शन एवं चिन्तन प्रधान हो गये हैं। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, बालकृष्ण शर्मा नवीन और सुमित्रानन्दन पन्त की रचनाओं से आधुनिक काव्य में प्रगतिवादी आन्दोलन का आरम्भ हुआ। गजाननमाधव मुक्तिबोध ने अपने सम्बन्ध में, अपने समाज, देश और विदेश के सम्बन्ध में गम्भीरता से सोचने को बाध्य किया और एक चिन्तन दिशा प्रदान की। रामधारीसिंह दिनकर ने इसके क्रान्तिकारी पक्ष को वाणी दी और फिर रामेश्वर शुक्ल अंचल शिवमंगलसिंह सुमन, डॉ० रामविलास शर्मा की रचनाओं में उसका स्वरूप और निखरा।

    प्रगतिवाद के साथ-साथ मनुष्य के मन के यथार्थ को अभिव्यक्त करनेवाली प्रयोगवादी काव्यधारा भी सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय के नेतृत्व में प्रवाहित हुई। इस धारा के कवियों पर प्रारम्भ में फ्रॉयड के मनोविश्लेषण सिद्धान्त का प्रभाव विशेष रूप से था। सन् 1943 में अज्ञेय ने अपनी पीढ़ी के छह कवियों के सहयोग से तारसप्तक का प्रकाशन किया।

    इस काव्यधारा को प्रयोगवाद की संज्ञा क्यों दी गयी, इस सम्बन्ध में भी अज्ञेय का यह वक्तव्य द्रष्टव्य है- “प्रयोग सभी कालों के कवियों ने किया है. किसी एक काल में किसी विशेष दिशा में प्रयोग करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक ही है। किन्तु कवि क्रमशः अनुभव करता आया है कि जिन क्षेत्रों में प्रयोग हुए हैं उनसे आगे बढ़कर अब उन क्षेत्रों का अन्वेषण होना चाहिए जिन्हें अभी नहीं छुआ गया है या जिनको अभेद्य मान लिया गया है।"

    (ख) नयी कविता-युग-सन् 1959 ई० में तीसरे तारसप्तक के प्रकाशन तथा प्रयोगवाद की समाप्ति के साथ ही सन् 1960 ई० से नयी कविता का जन्म माना गया। मनुष्य के मन का आलोक अब तक सर्वाधिक अभेद्य रहा था और अज्ञेयजी अथवा प्रयोगवादी कवियों के सौभाग्य से फ्रॉयड ने उसकी अर्गला खोल दी थी। भवानीप्रसाद मिश्र, गिरिजाकुमार माथुर, धर्मवीर भारती आदि की रचनाओं में आधुनिक मनोविज्ञान के विभिन्न सिद्धान्तों सम्बन्धित विचार प्रवाह, मुक्त चेतनाधारा, मनोविश्लेषण आदि के अनुरूप मनुष्य के मनोलोक के भावना-प्रवाह, स्वप्न, अवचेतन के भाव-खण्डों आदि के चित्रण देखने को मिलते हैं। हिन्दी कविता इस प्रयोगशीलता की प्रवृत्ति से भी आगे बढ़ गयी है और अब पहले की कविता से अपनी पूर्ण ‘पृथकता घोषित करने के लिए नयी कविता प्रयत्नशील है। सन् 1954 में डॉ0 जगदीश गुप्त और डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी के सम्पादन में नयी कविता काव्य संकलन के प्रकाशन से आधुनिक काव्य के इस नये रूप का शुभारम्भ हुआ था और वह इसी नाम के संकलनों में ही नहीं कल्पना, ज्ञानोदय आदि पत्रिकाओं के माध्यम से भी आगे बढ़ती रही है। पन्तजी ने कला और बूढ़ा चाँद तथा दिनकर ने चक्रवाल की कुछ रचनाओं में इसी नवीन काव्य-प्रवृत्ति को अपनाया। नयी कविता की आधारभूत विशेषता है कि वह किसी भी दर्शन के साथ बँधी हुई नहीं है और वर्तमान जीवन के सभी स्तरों के यथार्थ को नयी भाषा, नवीन अभिव्यञ्जना विधान और नूतन कलात्मकता के साथ अभिव्यक्त करने में संलग्न है। हिन्दी का यह नया काव्य कविता के परम्परागत स्वरूप  से इतना अलग हो गया है कि कविता न कहकर अकविता कहा जाने लगा है। आधुनिक कवि भावुकता के स्थान पर जीवन को बौद्धिक दृष्टिकोण से देखता है और इसीलिए उसे काल्पनिक आदर्शवाद के स्थान पर कटु यथार्थ अधिक आकृष्ट करता है।

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