काव्य ? | काव्य साहित्य का विकास | हिंदी साहित्य का विकास

काव्य क्या है


    काव्य वह छन्दोबद्ध एवं लयात्मक साहित्यिक रचना है, जो श्रोता या पाठक के मन में भावात्मक आनन्द की सृष्टि करती है। व्यापक अर्थ में काव्य से तात्पर्य सम्पूर्ण गद्य एवं पद्य में रचित भावात्मक सामग्री से है, किन्तु संकुचित अर्थ में इसे कविता का पर्याय समझा जाता है। काव्य के दो पक्ष होते हैं भाव-पक्ष और कला-पक्ष। भाव-पक्ष में काव्य के समस्त वर्ण्य-विषय आ जाते हैं और कला-पक्ष में वर्णन-शैली के सभी अंग सम्मिलित हैं। ये दोनों पक्ष एक-दूसरे के सहायक और पूरक होते हैं। भाव-पक्ष का सम्बन्ध काव्य की वस्तु से है और कला-पक्ष का सम्बन्ध आकार-शैली से है। वस्तु या आकार एक-दूसरे से पृथक् नहीं हो सकते, कोई वस्तु आकारहीन नहीं हो सकती। वैसे तो व्यापक दृष्टि से भाव-पक्ष और कला-पक्ष दोनों ही रस से सम्बन्धित हैं क्योंकि कला- पक्ष के अन्तर्गत जो अलङ्कार, लक्षण, व्यजंना और रीतियाँ हैं, वे सभी रस की पोषक हैं, तदापि भाव-पक्ष का रस से सीधा सम्बन्ध है। वह उसका प्रधान अंग है, कला-पक्ष के विषय उसके सहायक और पोषक हैं।

    काव्य के दो भेद किये जा सकते हैं-श्रव्य काव्य एवं दृश्य काव्य। श्रव्य काव्य में रसानुभूति पढ़कर या सुनकर होती है, जबकि दृश्य काव्य में रसानुभूति अभिनय एवं दृश्यों के द्वारा ही सम्भव है। श्रव्य काव्य के भी दो उपभेद हैं—प्रबन्ध काव्य एवं मुक्तक काव्य। प्रबन्ध काव्य में किसी कथा का आश्रय लेकर रचना की जाती है, जबकि मुक्तक काव्य में स्वतन्त्र पदों के रूप में भावाभिव्यक्ति की जाती है। प्रबन्ध काव्य के भी दो प्रकार हैं-महाकाव्य और खण्डकाव्य।

काव्य साहित्य का विकास

    प्रत्येक भाषा का साहित्य उस भाषा को बोलनेवाले समाज का सजीव चित्र होता है। साथ ही, वह उस समाज को बदलने और सी उसको प्रगति की प्रेरणा देने का समर्थ साधन भी होता है। उस समाज को पृष्ठभूमि में रख कर ही उस भाषा के साहित्य के इतिहास का अध्ययन किया जा सकता है। साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियाँ, विभिन्न काव्य-धाराएँ एवं विभिन्न युग एक-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया करते हुए अविच्छिन्न धारा में प्रवाहित होते हैं। इसी दृष्टि से हम हिन्दी काव्य साहित्य के स्वरूप एवं विकास का संक्षिप्त सर्वेक्षण निम्न पंक्तियों में करेंगे-

    हिन्दी साहित्य मूलतः खड़ीबोली के परिनिष्ठित रूप का साहित्य है, पर इसकी परिधि में मैथिली, अवधी, ब्रज, राजस्थानी जैसी साहित्यिक बोलियों का साहित्य भी आ जाता है। इन सभी बोलियों में हमें एक जैसी ही अनुभूति और विचारधारा का साहित्य मिलता है। समय-समय पर साहित्य के विषय बदलते रहे और विभिन्न युगों में हिन्दी की विभिन्न बोलियाँ प्रधान रहीं। वीरगाथा काल ग में राजस्थानी, पूर्व-मध्यकाल में अवधी तथा उत्तर-मध्यकाल में ब्रजभाषा की प्रधानता रही। आधुनिक युग मूलतः खड़ीबोली का युग है। 

    गत दस शताब्दियों में हरियाणा प्रान्त से लेकर मध्य प्रदेश तक तथा राजस्थान से बिहार प्रदेश तक का समाज जो कुछ अनुभव करता रहा है, जो कुछ भी सोचता रहा है, जो उसकी आशा-निराशा और आकांक्षाएँ रही हैं, उन सब की अभिव्यक्ति ही हिन्दी साहित्य मान है। इस साहित्य में भारत की अखण्ड सामाजिक संस्कृति के साथ ही जनपदीय लोक-संस्कृतियों का प्रतिबिम्ब भी है।

    अन्य भाषाओं की तरह हिन्दी का स्वरूप भी परिवर्तित होता रहा है। सातवीं शती के उत्तरार्द्ध से अपभ्रंश से विकसित होती हुई हिन्दी भाषा का साहित्य उपलब्ध होने लगता है। भाषा के स्वरूप में परिवर्तन होने पर हिन्दी के आदिकाल में अपभ्रंश साहित्य की प्रवृत्तियाँ चलती रही हैं। अतः अपभ्रंश साहित्य का सामान्य लेखा-जोखा हिन्दी साहित्य की गतिविधि समझने के लिए आवश्यक है। अपभ्रंश में साहित्य की बहुविध प्रवृत्तियों के दर्शन होते हैं—धर्म, शृंगार, भक्ति, वीर-भावना तथा अनेक प्रकार की रहस्य साधनाएँ इस साहित्य के प्रमुख विषय रहे हैं। एक ओर जैन आचार्यों और कवियों का धर्म एवं नीतिपरक साहित्य मिलता है, तो दूसरी ओर बौद्ध सिद्धों की रहस्यमय एवं गुह्य साधना की वाणी। बौद्ध सिद्धों, नाथों एवं जैन आचार्यों की रहस्य-गुह्य-योग-साधना और धार्मिक सिद्धान्तों की रचनाएँ मूलतः साहित्येतर हैं, पर उस युग के साहित्य को समझने के लिए अपरिहार्य हैं। नाथ साहित्य में भक्ति का पूर्वाभास भी होने लगता है। इस काल में कविता का प्रवाह अवरुद्ध नहीं था। जैन कवियो की रचनाएँ कविता की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। शृंगार रस का अच्छा विरह-काव्य भी इस युग में मिलता है। ‘प्रबन्ध चिन्तामणि, कुमारपालचरित जैसी महान् रचनाएँ और पुष्पदन्त, हेमचन्द्र जैसे श्रेष्ठ कवि भी इसी युग में हुए। इस प्रकार मूल हिन्दी साहित्य वस्तुतः अपभ्रंश साहित्य से ही विकसित हुआ है |

हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन सदैव ही समस्यामूलक एवं विवादग्रस्त रहा है। अपभ्रंश के  ञ्चल से हिन्दी के उदय के अनन्तरं उसमें साहित्य-सृजन का क्रम चलता रहा है। एक सहस्र वर्षों के रचनाकाल को किस आधार से विभाजित किया जाय, निःसन्देह एक समस्या है। डॉ० ग्रियर्सन, मिश्र-बन्धु, डॉ० रामकुमार वर्मा, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आदि विद्वानों ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का अलग-अलग काल-विभाजन किया है, जिसमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काल-विभाजन को अधिकतर विद्वान् मानते हैं, जो उचित प्रतीत होता है। डॉ० श्यामसुन्दर दास तथा डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी आचार्य शुक्ल के काल-विभाजन को ही स्वीकृति दी है। पण्डित रामचन्द्र शुक्ल ने डॉ0 ग्रियर्सन तथा मिश्र-बन्धुओं के काल-विभाजन का समीकरण किया है। उन्होंने अपने काल-विभाजन को काल-क्रम से स्थिर किया है और प्रवृत्तियों के आधार पर उसका नामकरण किया है। शुक्लजी द्वारा निर्धारित काल-विभाजन इस प्रकार है-
1. आदिकाल (वीरगाथाकाल) संवत् 1050 वि0 से 1375 वि0 तक।
2. पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल)-संवत् 1375 वि0 से 1700 वि0 तक।
3. उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) संवत् 1700 वि0 से 1900 वि0 तक।
4. आधुनिककाल (गद्य काल) संवत् 1900 वि0 से अब तक।

शुक्लजी का उक्त काल-विभाजन प्रामाणिक है। इसमें काव्य-प्रणयन शैली तथा ग्रन्थों की प्रसिद्धि को आधार माना गया है। वीर रस-परक रचनाओं की प्रधानता के कारण आदिकाल को वीरगाथाकाल कहा गया है। भक्ति-काव्य के प्राधान्य के कारण पूर्व- मध्यकाल को भक्तिकाल का नाम दिया गया है। शृङ्गार तथा लक्षण ग्रन्थों के बाहुल्य के कारण उत्तर-मध्यकाल को रीतिकाल और गद्य-रचना की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होने के कारण आधुनिककाल को गद्य-काल नाम दिया गया है। 

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