प्रस्तुत निबंध 'आचरण की सभ्यता' में लेखक ने आचरण की श्रेष्ठता प्रतिपादित की है। लेखक की दृष्टि में मौ लम्बी-चौड़ी बातें करना, बड़ी-बड़ी पुस्तकें लिखना और दूसरों को उपदेश देना तो आसान है किन्तु ऊँचे आदर्शों को आचरण में उतारना अत्यन्त कठिन है। जिस प्रकार हिमालय की सुन्दर चोटियों की रचना में प्रकृति को लाखों वर्ष लगाने पड़े हैं, उसी प्रकार समाज में सभ्य आचरण को विकसित करने में मनुष्य को लाखों वर्षों की साधना करनी पड़ी हैं। भी जनसाधारण पर सबसे अधिक प्रभाव सभ्य आचरण का ही पड़ता है। इसलिए यदि हमें पूर्ण मनुष्य बनना है तो अपने आचरण को श्रेष्ठ और सुन्दर बनाना होगा। आचरण की सभ्यता न तो बड़े-बड़े गन्यों से सीखी जा सकती है और न ही मन्दिरों, मस्जिदों और गिरजाघरों से। उसका खुला खजाना तो हमें प्रकृति के विराट् प्रांगण में मिलता है। आचरण की सभ्यता का पैमाना है परिश्रम, श्रेम और सरल व्यवहार। इसलिए हमें प्रायः श्रमिकों और सामान्य दीखनेवाले लोगों में उच्चतम आचरण के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं।
आचरण की सभ्यता
विद्या, कला, कविता, साहित्य, धन और राजस्व से भी आचरण की सभ्यता अधिक ज्योतिष्मती है। आचरण की सभ्यता को प्राप्त करके एक कंगाल आदमी राजाओं के दिलों पर भी अपना प्रभुत्व जमा सकता है। इस सभ्यता के दर्शन से कला, साहित्य और संगीत को अद्भुत सिद्धि प्राप्त होती है। राग अधिक मृदु हो जाता है; विद्या का तीसरा शिव नेत्र खुल जाता है, चित्र-कला का मौन राग अलापने लग जाता है; बक्ता चुप हो जाता है, लेखक की लेखनी थम जाती है; मूर्ति बनानेवाले के सामने नये कपोल, नये नयन और नयी छवि का दृश्य उपस्थित हो जाता है।
आचरण की सभ्यतामय भाषा सदा मौन रहती है। इस भाषा का निषण्ट राद्ध श्वेत पत्रों वाला है। इसमें नाममात्र के लिए भी शब्द नहीं। यह सभ्याचरण नाद करता हुआ भी मौन है, व्याख्यान देता हुआ भी व्याख्यान के पीछे छिपा है, राग गाता हुआ भी राग के सुर के भीतर पड़ा है। मृदु वचनों की मिठास में आचरण की सभ्यता मौन रू५ से खुली हुई है। नम्रता, दया, प्रेम और उदारता सब के सब सभ्याचरण की भाषा के मौन ब्याख्यान हैं। मनुष्य के जीवन पर मौन व्याख्यान का प्रभान चिरस्थायी होता है और उसकी आत्मा का एक अंग हो जाता है।
न काला, न नीला न पीला, न सफेद, न पूर्वी, न पश्चिमी, न उत्तरी, न दक्षिणी वे-नाम, बे-निशान, बे-मकान-विशाल
आत्मा के आचरण से मौनरूपिणी सुगंधि सदा प्रसारित हुआ वरती है। इसके मौन से प्रसूत प्रेम और पवित्रता-धर्म सारे जगन् का कल्याण करके विस्तृत होते हैं। इसकी उपस्थिति से मन और हृदय की ऋतु बदल जाते हैं। तीक्ष्ण गरमी से जले-भुने व्यक्ति आवरण के काले बादलों की बूंदाबाँदी से शीतल हो जाते हैं। मानसोत्पत्न शरद् ऋतु में क्लेशातुर हुए पुरुष इनकी सुगंधमय अटल वसंत ऋतु के आनन्द का पान करते हैं। आचरण के नेत्र के एक अश्रु से जगत् भर के नेत्र भीग जाते हैं आचरण के आनन्द-नृत्य से उन्मदिष्णु होकर वृक्षों और पर्वतों तक के हृदय नृत्य करने लगते हैं। आचरण के मौन व्याख्यान से मनुष्य को एक नया जीवन प्राप्त होता है। नये-नये विचार स्वयं ही प्रकट होने लगते हैं। सूखे काष्ठ सचमुच ही हरे हो जाते हैं। सूखे कूपों में जल मर आता है। नये नेत्र मिलते हैं। कुल पदार्थों के साथ एक नया मैत्री-भाब फूट पड़ता है। सूर्य, जल, वायु पुष्प, पत्थर घास, पात, नर-नारी और बालक तक में एक अश्रुतपूर्व सुन्दर मूर्ति के दर्शन होने लगते हैं।
मौनरूपी व्याख्यान की महत्ता इतनी बलवती, इतनी अर्थवती और इतनी प्रभावती होती है कि उसके सामने क्या मातृभाषा. क्या साहित्यभाषा और क्या अन्य देश की भाषा सब की संब तुच्छ प्रतीत होती हैं। अन्य कोई भाषा दिव्य नहीं, केवल आचरण की मौन भाषा ही ईश्वरीय है। विचार करके देखो, मौन व्याख्यान किस तरह आपके हृदय की नाड़ी-नाड़ी में सुन्दरता को पिरो देता है। वह व्याख्यान ही क्या, जिसने हृदय की धघुन को-मन के लक्ष्य को -ही न बदल दिया। चन्द्रमा की मंद-मंद हँसी का तारागण के कटाक्षपूर्ण प्राकृतिक मौन व्याख्यान का प्रभाव किसी कवि के दिल में घुसकर देखो। सूर्यास्त होने के पश्चात श्रीकेशवचन्द्र सेन, और महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने सारी रात एक क्षण-की तरह गुजार दी; यह तो कल की बात है। कमल और नरगिस में नयन देखनेवालें नेत्रों से पूछो कि मौन व्याख्यान की प्रभुता कितनी दिव्य है।
प्रेम की भाषा शब्द-रहित है। नेत्रो की, कपालों की, मस्तक की भाषा भी शब्द-रहित है। जीवन का तत्त्व भी शब्द से परे है। सच्चा आचरण-प्रभाव, शील, अचल-स्थित संयुक्त आचरण-न तो साहित्य के लंबे व्याख्यानों से गठा जा सकता है, न वेद की श्रुतियों के मीठे उपदेश से, न अंजील से, न कुरान से; न धर्मचर्चा से; न केवल सत्संग से। जीवन के अरण्य में धंसे हुए पुरुष के हृदय पर प्रकृति और मनुष्य के जीवन के पौन व्याख्यानों के यत्न से सुनार के छोटे हथौड़े की मंद-मंद चोटों की तरह आचरण का रूप प्रत्यक्ष होता है।
बर्फ का दुपट्टा बाँधे हुए हिमालय इस समय तो अति सुन्दर, अति ऊँचा और अति गौरवान्वित मालूम होता है, परन्तु प्रकृति ने अगणित शताब्दियों के परिश्रम से रेत का एक-एक परमाणु समुद्र के जल में डुबो-डुबोकर और उनको अपने विचित्र हथीड़े से सुडौल करके इस हिमालय के दर्शन कराये हैं। आवरण भी हिमालय की तरह एक ऊँचे कलशवाला मन्दिर है। यह बह आम का पेड्ट नहीं जिसको मदारी एक क्षण में, तुम्हारी आँखों में मिट्टी डालकर, अपनी हघेली पर जमा दे। इसके बनने में अनन्त काल लगा है पृथिवी बन गयी, सूर्य बन गया, तारागण आकाश में दौड़ने लगे, परन्तु अभी तक आचरण के सुन्दर रूप के पूर्ण दर्शन नहीं हुए। कहीं कहीं उसकी अत्यल्प छटा अवश्य दिखायी देती है।
पुस्तकों में लिखे हुए नुसखों से तो और भी अधिक बदहजमी हो जाती है। सारे वेद और शास्त्र भी यदि घोलकर पी लिये जायेँ तो भी आदर्श आचरण की प्राप्ति नहीं होती। आचरण प्राप्ति की इच्छा रखनेवाले को तक्क-वितर्क से कुछ भी सहायता नहीं मिलती। शब्द और बाणी तो साधारण जीवन के चोचले हैं ये आचरण की गुप्त गुहा में नहीं प्रवेश कर सकते। वहाँ इनका कुछ थी प्रभाव नहीं पड़ता। वेद इस देश के रहनेवालों के विश्वासानुसार ब्रह्म-वाणी हैं, परन्तु इतना काल व्यतीत हो जाने पर मी आज तक वे समस्त जगत् की भिन्न-भित्र जातियों को संस्कृत भाषा न बुला सके-न समझा सके-न सिखा सके। यह बात हो कैसे? ईश्वर तो सदा भौन है। ईश्वरीयं मीन शब्द और भाषा का विषय नहीं। वह केवल आचरण के कान में गुरु-मंत्र फूँक सकता है। चह केवल ऋषि के दिल में वेद का ज्ञानोदय कर सकता है।
किसी का आचरण वायु के झाँके से हिल जाय तो हिल जाय परन्तु साहित्य और शब्द की गोलन्दाजी और ऑधी से उसके सिर के एक बाल तक का बॉका न होना एक साधारण बात है। पुष्प की कोमल पंखड़ी के स्पर्श से किसी को रोमांच हो जाय; जल की शीतलता से क्रोध और विषय वासना शांत हो जायँ, बर्फ के दर्शन से पवित्रता आ जाय, सूर्य की ज्योति से नेत्र खुल जाये- परन्तु अंगरेजी भाषा का व्याख्यान-चाहे वह कारलायल ही का लिखा हुआ क्यों न हो--बनारस में पंडितों के लिए रामरोला ही है। इसी तरह न्याय और व्याकरण की वारीकियों के विषय में पंडितों के द्वारा की गयी चर्चाएँ और शास्त्रार्थ संस्कृत ज्ञान-हीन पुरुषों के लिए स्टीम इंजन के फपू-फप् शब्द से अधिक अर्थ नहीं रखते। यदि आप कहें व्याख्यानो द्वारा, उपदेशों द्वारा, धर्मचर्चा द्वारा कितने पुरुषों और नारियों के हृदय पर जीवन-व्यापी प्रभाव पड़ा है, तो उत्तर यह है कि प्रभान शब्द का नहीं पड़ता- प्रभाव तो सदा सदाचरण का पड़ता है। साधारण उपदेश तो हर गिरजे, हर मंदिर और हर मस्जिद में होते हैं, परन्तु उनका प्रभाव तभी झम पर पड़ता है जब गिरजे का पादरी स्वयं ईसा होता है--मंदिर का पुजारी स्वयं ब्रह्मर्षि होता है-मस्जिद का मुल्ला स्वयं पैगम्बर और रसूल होता है।
यदि एक ब्राह्मण किसी इबती कन्या की रक्षा के लिए-चाहे वह कन्या जिस किसी जाति की हो, जिस किसी मनुष्य की. हो, जिस किसी देश की हो--अपने-आपको गंगा में फेंक दे-चाहे उसके प्राण यह काम करने में रहे चाहे जायेँ-तो इस कार्य में प्रेरक आचरण की मौनमयी भाषा किस देश में, किस जाति में और किस काल में, कैन नहीं समझ सकता? प्रेम का आचरण, दया का आचरण-क्या पशु क्या मनुष्य-जगत् के सभी चराचर आप-हा-आप समझ लेते हैं। जगत भर के बच्च्चों की भाषा इस भाष्यहीन भाषा का चिहन है। बालकों के इस शुद्ध मौन का नाद आर हास्थ भी सब देशों में एक ही-सा पाया जाता है।
मनुष्य का जीवन इतना विशाल है कि उसके आचरण की रूप देने के लिए नाना प्रकार के ऊँच-नीच और भले-बरे विचार, अमीरी आर गरीबी, उत्नति और अवनति इत्यादि सहायता पहुँचीते हैं। प्वत्र अपवित्रता उतनी ही बलवती है. जितनी कि पवित्र पवित्रता। जो कछ जगत में हो रहा है वह केवल आचरण के विकास के अथ ही रहा है। अन्तरात्मा वही काम करती है जो बाह्य पदार्थों के सोग का अतिविष्न होता है। जिनको हम पवित्रात्मा कहते हैं, क्या पता है, किन-किन कूपों से निकलकर वे अब उदय को प्राप्त हप हैं। जिनको हम धर्मात्मा कहने हैं, क्या पता हैं, কিননकन अघमा का करके वे धर्म-ज्ञान को पा सके हैं। जिनको हम सभ्य कहत और ज अपने जीयन में पवित्रता का हो सब-कुछ समजत हैं, क्या पता है, वे कुछ काल पर्व बरी और अधर्म पवित्रता में लिप्त रहे हो? आपने जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों से भरी हुई अन्धकारमय कौठरी से निकलकर ज्योति और स्वच्छ वायु से परिपूर्ण खुले हुए देश में जब तवा अपना आचरण अपने नेत्र न खाल चुका हो तब तक धर्म के गूढ़ तत्त्व कैसे समझ में आ सकते हैं। नेत्र-रहित को सूर्य से क्या लाभ ? हदय-रहित की प्रेम से क्या लाभ? बहरें को राग से क्या लाभ? कविता, साहित्य, पीर, पंगम्बर, गुरु, आचार्य, ऋषि आदि के उपदेशों से लाभ उठाने का यदि आत्मा में बल नहीं तो उनसे क्या लाभ जब तक यह जीवन का बीज पृथिवी के मल-मूत्र के ढेर में पड़ा है अथवा जब तक वह खाद की गरमी से अंकुरित नहीं हुआ और प्रस्फुटित होकर उससे दो नये पत्ते ऊपर नहीं निकल आये, तब तक ज्योति और वायु उसके किस काम के?
वह आचरण जो धर्म-सम्प्रदायों के अनुच्चारित शब्दों को सुनाता है, हम में कहाँ जब वही नहीं तब फिर क्यों न ये सम्प्रदाय हमारे मानसिक महाभारतों के कुरुक्षेत्र बनें क्यों न अप्रेम, अपवित्र, हत्या और अत्याचार इन सम्प्रदायों के नाम से हमारा खून करें। कोई भी सम्प्रदाय आचरण-रहित पुरुषों के लिए कल्याणकारक नहीं हो सकता और आचरणवाले पुरुषों के लिए सभी धर्म साप्रदाय कल्याणकारक हैं। सच्चा साधु धर्म को गौरव देता है, धर्म किसी को गौरवान्वित नहीं करता।
आचरण का विकास जीवन का परमोद्देश्य है। आचरण के विकास के लिए नाना प्रकार की सामग्रियों का, जो संसार-संभूत शारीरिक, प्राकृतिक, मानसिक और आध्यात्मिक जीवन में वर्तमान हैं, उन सबकी (सबका) क्या एक पुरुष और क्या एक जाति के आचरण के विकास के साधनों के सम्बन्ध में विचार करना होगा। आचरण के विकास के लिए जितने कर्म हैं उन सबको आचरण के संगठनकर्ता धर्म के अंग मानना पड़ेगा। चाहे कोई कितना ही बड़ा महात्मा क्यों न हो, वह निश्चयपूर्वक यह नहीं कह सकता कि यों ही करो, और किसी तरह नहीं। आचरण की सभ्यता की प्राप्ति के लिए वह सबको एक पथ नहीं बता सकता। आचरणशील महात्मा स्वयं भी किसी अन्य की बनायी हुई सड़क से नहीं आया, उसने अपनी सड़क स्वयं ही बनायी थी। इसी से उपके बनाये ए रास्ते पर चलकर हम भी अपने आचरण को आदर्श के ढाँचे में नहीं ढाल सकते। हमें अपना रास्ता अपने जीवन की कुदाली की एक-एक चोट से रात-दिन बनाना पड़ेगा और उसी पर चलना भी पड़ेगा। हर किसी को अपने देश-कालानुसार रामप्राप्ति के लिए अपनी नैया आप ही बनानी पड़ेगी और आप ही चलानी भी पड़ेगी।
यदि मुझे ईश्वर का ज्ञान नहीं तो ऐसे ज्ञान ही से क्या प्रयोजन जब तक मैं अपना हथौड़ा ठीक-ठीक चलाता हूँ और रूपहीन लोहे को तलवार के रूप में गढ़ देता हूँ तब तक मुझे यदि ईश्वर का ज्ञान नहीं तो नहीं होने दो। उस ज्ञान से मुझे प्रयोजन ही क्या जब तक मैं अपना उद्धार ठीक और शुद्ध रीति से किये जाता हूँ तब तक यदि मुझे आध्यात्मिक पवित्रता का ज्ञान नहीं होता तो न होने दो। उससे सिद्धि ही क्या हो सकती है जब तक किसी जहाज के कप्तान के हृदय में इतनी वीरता भरी हुई है कि वह पहाभयानक मय में अपने जहाज को नहीं छोड़ता तब तक यदि वह मेरी और तेरी दृष्टि में शराबी और स्त्रैण है तो उसे वैसा ही होने दो। उसकी बुरी बातों से हमें प्रयोजन ही क्या आँधी हो—बरफ हो-बिजली की कड़क हो-समुद्र का तूफान हो-वह दिन रात आँख खोले अपने जहाज की रक्षा के लिए जहाज के पुल पर घूमता हुआ अपने धर्म का पालन करता है। वह अपने जहाज के साथ समुद्र में डूब जाता है, परन्तु अपना जीवन बचाने के लिए कोई उपाय नहीं करता। क्या उसके आचरण का यह अंश मेरे तेरे बिस्तर और आसन पर बैठे-बिठाये कहे हुए निरर्थक शब्दों के भाव से कम महत्त्व का है
न मैं किसी गिरजे में जाता हूँ और न किसी मंदिर न मैं नमाज पढ़ता हूँ और न रोजा ही व्रता हूँ, न संध्या ही करता
हूँ और न कोई देव-पूजा ही करता हूँ, न किसी आचार्य के नाम का मुझे पता है और न किसी के आगे मैंने सिर ही झुकाया है। तो इससे प्रयोजन ही क्या और इससे हानि भी क्या मैं तो अपनी खेती करता हूँ, अपने हल और बैलों को प्रातःकाल उठकर प्रणाम करता हूँ मेरा जीवन जंगल के पेड़ों और पत्तियों की संगति में गुजरता है, आकाश के बादलों को देखते मेरा दिन निकल जाता है। मैं किसी को धोखा नहीं देता हाँ यदि मुझे कोई धोखा दे तो उससे मेरी कोई हानि नहीं। मेरे खेत में अन्न उग रहा है, मेरा घर अन्न से भरा है, बिस्तर के लिए मुझे एक कमली काफी है, कमर के लिए लँगोटी और सिर के लिए एक टोपी बस है। हाथ-पाँव मेरे बलवान् हैं, शरीर मेरा नीरोग है, भूख खूब लगती है, बाजरा और मकई, छाछ और दही, दूध और मक्खन मुझे और मेरे बच्चों को खाने के लिए मिल जाता है। क्या इस किसान की सादगी और सच्चाई में वह मिठास नहीं जिसकी प्राप्ति के लिए भिन्न-भिन्न धर्म सम्प्रदाय लम्बी-चौड़ी और चिकनी-चुपड़ी बातों द्वारा दीक्षा दिया करते हैं?
जब साहित्य, संगीत और कला की अति ने रोम को घोड़े से उतारकर मखमल के गद्दों पर लिटा दिया--जब आलस्य और विषय-विकार की लम्पटता ने जंगल और पहाड़ की साफ हवा के असभ्य और उद्दण्ड जीवन से रोमवालों का मुख मोड़ दिया तब रोम नरम तकियों और बिस्तरों पर ऐसा सोया कि अब तक आप जागा और न कोई उसे जगा सका। ऐंग्लो-सैक्सन जाति ने जो उच्च पद प्राप्त किया वह उसने अपने समुद्र, जंगल और पर्वत से सम्बन्ध रखनेवाले जीवन से ही प्राप्त किया। जाति की उन्नति लड़ने-भिड़ने, मरने-मारने, लूटने और लूटे जाने, शिकार करने और शिका होनेवाले जीवन का ही परिणाम है। लोग कहते हैं, केवल धर्म ही जाति की उन्नति करता है। यह ठीक है, परन्तु यह धर्मांकुर जो जाति को उन्नत करता है, इस असभ्य, कमीने पापमय जीवन की गंदी राख के ढेर के ऊपर नहीं उगता है। मंदिरों और गिरजों की मन्द-मन्द, टिमटिमाती हुई मोमबत्तियों की रोशनी से यूरप इस उच्चावस्था को नहीं पहुँचा। वह कठोर जीवन जिसको देश-देशान्तरों को ढूँढ़ते-फिरते रहने के बिना शान्ति नहीं मिलती जिसकी अन्तर्ध्वाला दूसरी जातियों को जीतने, लूटने, मारने और उन पर राज करने के बिना मन्द नहीं पड़ती–केवल वही विशाल जीवन समुद्र की छाती पर मूंग दल कर और पहाड़ों को फाँद कर उनको उस महानता की ओर ले गया और ले जा रहा है। रॉबिनहुड की प्रशंसा में जो कवि अपनी सारी शक्ति खर्च कर देते हैं उन्हें तत्त्वदर्शी कहना चाहिए, क्योंकि रॉबिनहुड जैसे भौतिक पदार्थों से ही नेलसन और बेलिंगटन जैसे अंगरेज वीरों की हड्डियाँ तैयार हुई थीं। लड़ाई के आजकल के सामान–गोला, बारूद, जंगी जहाज और तिजारती बेड़ों आदि को देखकर कहना पड़ता है कि इनसे वर्तमान सभ्यता से भी कहीं अधिक उच्च सभ्यता का जन्म होगा।
धर्म और आध्यात्मिक विद्या के पौधे को ऐसी आरोग्य-वर्धक भूमि देने के लिए, जिसमें वह प्रकाश और वायु में सदा खिलता रहे, सदा फूलता रहे, सदा फलता रहे, यह आवश्यक है कि बहुत-से हाथ एक अनन्त प्रकृति के ढेर को एकत्र करते रहें। धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रियों को सदा ही कमर बाँधे हुए सिपाही बने रहने का भी तो यही अर्थ है। यदि कुल समुद्र का जल उड़ा दो तो रेडियम धातु का एक कण कहीं हाथ लगेगा। आचरण का रेडियम-क्या एक पुरुष का और क्या एक जाति का और क्या एक जगत् का- सारी प्रकृति को खाद बनाये बिना, सारी प्रकृति को हवा में उड़ाये बिना भला कब मिलने का है प्रकृति को मिथ्या करके नहीं उड़ाना उसे उड़ाकर मिथ्या करना है समुद्रों में डोरा डालकर अमृत निकालना है। सो भी कितना जरा-सा! संसार की खाक छानकर आचरण का स्वर्ण हाथ आता है। क्या बैठे बिठाये भी वह मिल सकता है
हिन्दुओं का सम्बन्ध यदि किसी प्राचीन असभ्य जाति के साथ रहा होता तो उनके वर्तमान वंश में अधिक बलवान् श्रेणी के मनुष्य होते-उनमें भी ऋषि, पराक्रमी, जनरल और धीर-वीर पुरुष उत्पन्न होते। आजकल तो वे उपनिषदों के ऋषियों के पवित्रतामय प्रेम के जीवन को देख-देखकर अहंकार में मग्न हो रहे हैं और दिन-पर-दिन अधोगति की ओर जा रहे हैं। यदि वह किसी जंगली जाति की संतान होते तो उनमें भी ऋषि और बलवान् योद्धा होते। ऋषियों को पैदा करने के योग्य असभ्य पृथिवी का बन जाना तो आसान है, परन्तु ऋषियों को अपनी उन्नति के लिए राख और पृथिवी बनाना कठिन है, क्योंकि ऋषि तो केवल अनन्त प्रकृति पर जते हैं, हमारी जैसी पुष्प-शय्या पर मुरझा जाते हैं। माना कि प्राचीन काल में, यूरप में सभी असभ्य थे, परन्तु आजकल तो हम असभ्य हैं। उनकी असभ्यता के ऊपर ऋषि-जीवन की उच्च सभ्यता फूल रही है और हमारे ऋषियों के जीवन के फूल पर आजकल असभ्यता का रंग चढ़ा हुआ है। सदा ऋषि पैदा करते रहना अर्थात् अपनी ऊँची चोटी के ऊपर इन फूलों को सदा रण करते रहना ही जीवन के नियमों का पालन करना है।
धर्म के आचरण की प्राप्ति यदि ऊपरी आडम्बरों से होती तो आजकल भारत-निवासी सूर्य के समान शुद्ध आचरणवाले हो जाते। भाई! माला से तो जप नहीं होता। गंगा नहाने से तो तप नहीं होता। पहाड़ों पर चढ़ने से प्राणायाम हुआ करता है, समुद्र में तैरने से नेती धुलती है आँधी, पानी और साधारण जीवन के ऊँच-नीच, गरमी-सरदी, गरीबी-अमीरी को झेलने से तप हुआ करता है। आध्यात्मिक धर्म के स्वप्नों की शोभा तभी भली लगती है जब आदमी अपने जीवन का धर्म पालन करे। खुले समुद्र में अपने जहाज पर बैठकर ही समुद्र की आध्यात्मिक शोभा का विचार होता है। भूखे को तो चन्द्र और सूर्य भी केवल आटे की बड़ी-बड़ीm दो रोटियाँ-से प्रतीत होते हैं। कुटियों में ही बैठकर धूप, आँधी और बर्फ की दिव्य शोभा का आनन्द आ सकता है। प्राकृतिक सभ्यता के आने पर ही मानसिक सभ्यता आती है और तभी वह स्थिर भी रह सकती है। मानसिक सभ्यता के होने पर ही आचरण-सभ्यता की प्राप्ति संभव है और तभी वह स्थिर भी हो सकती है। जब तक निर्धन पुरुष पाप से अपना पेट भरता है तब तक धनवान् पुरुष के शुद्धीचरण की पूरी परीक्षा नहीं। इसी प्रकार जब तक अज्ञानी क आचरण अशुद्ध है, तब तक ज्ञानवान के आचरण की पूरी परीक्षा नहीं--तब तक जगत् में आचरण की सम्यता का राज्य नहीं |
आचरण की सभ्यता का राज्य न आचरण की सम्यता का देश हो निराला है। उसमें न शारीरिक झगड़े हैं, न मानसिक, न आध्यात्मिक न उसमें विद्रोह है. न जंग ही का नामोनिशान है और न बहाँ कोई ऊैन है. न नीचा। न कोई वहाँ धनवान् हैं और न कोई वड़ाँ निर्धन । बहाँ प्रकृति का नाम नहीं, तहाँ तो प्रम ऑर एकता का ्ड राज्य रहता हैं। जिस समय आचरण की सभ्यत संसार नें आती है जस समय नीले आकाश से मनुष्य का बेद-ध्वनि मुनायी देती हैं, नर-नारी पुष्पवत् खिलने जाते हैं, प्रभात ही जता है, प्रभात का गजर बन जाता है, नारद की वीणा अतापने लगती है, ध्रुव का शंख गूँज उठता है, श्हूलाव का नृत्य होता है. शिव जा इमरू वजता हैं, कृष्ण की आँसुरी की धुन आारम्भ हो जाती हैं। जाहाँ ऐसे शय्द हते हैं, जहाँ ऐसे पुरुष रहते हैं, वहाँ ऐसी ज्योनि होतनी है, तही आचरण की सभ्यता का सुनहरा देश है। वहीं देश मनुष्य का स्वयेश है। जब तक घर न पहुंच जाग, सांगा अच्ा नहीं, बाहे गंदो में, आहे इंजील में,चाले कुरान में, चाहे (त्रिपीटक) में, चाहे इस स्भान में, वाहे उन स्थान में, कहीं भी सोना अच्छा नहीं। आलस्य मृत्य हैं। लेख तो पेड़ों के चित्र सदृश होते हैं, पेड़ तो होते ही नहीं जों फल लावे। लेखक ने यह नित् इसलिए भेजा हैं कि सरस्वती में चित्र को देखकर शायत कोह असली पेड़ को जाकर देखने का यत्न करे।
-सरदार पूर्णसिंह
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