प्राचीन-युगीन गद्य

 प्राचीन-युगीन गद्य


    इस युग के अन्तर्गत हिन्दी गद्य के उद्भव से भारतेन्दु युग के पूर्व तक का समय लिया गया है। वस्तुतः हिन्दी गद्य-साहित्य के आदिकाल में हिन्दी गद्य के प्राचीन रूप ही यत्र-तत्र उपलब्ध होते हैं। राजस्थान व दक्षिण भारत में तो अवश्य हिन्दी गद्य के प्रारम्भिक रूप की झलक मिलती है। उत्तर भारत में ब्रजभाषा गद्य के ही उदाहरण अधिक मात्रा में प्राप्त होते हैं। प्राचीन युग में काव्य-रचना के साथ-साथ गद्य-रचना की दिशा में भी कुछ स्फुट प्रयास लक्षित होते हैं। ‘राउलवेल (चम्पू), उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण और वर्णरत्नाकर इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। कुछ विद्वान ‘राउलवेल को ही राजस्थानी गद्य की प्राचीनतम रचना मानते हैं। ‘राउलवेल एक शिलांकित कृति है, जिसका पाठ मुम्बई के प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय से उपलब्ध कर प्रकाशित कराया गया है। विद्वानों ने इसका रचनाकाल दसवीं शताब्दी माना है। इसकी रचना ‘राउल नायिका के नख-शिख वर्णन के प्रसंग में हुई है। आरम्भ में इस कृति के रचयिता ‘रोडा ने राउल के सौन्दर्य का वर्णन पद्य में किया है और फिर गद्य का प्रयोग किया गया है। दूसरी रचना ‘उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण है, जिसकी रचना महाराज गोविन्द चन्द्र के सभा-पण्डित दामोदर शर्मा ने बारहवीं शताब्दी में की थी। इस ग्रन्थ की भाषा का एक उदाहरण इस प्रकार है- “वेद पढ़ब, स्मृति अभ्यासिब, पुराण देखब, धर्म करब। इससे गद्य और पद्य दोनों शैलियों की हिन्दी भाषा में तत्सम शब्दावली के प्रयोग की बढ़ती हुई प्रवृत्ति का पता चलता है। मैथिली के प्राप्त ग्रन्थों में ज्योतिरीश्वर का वर्णरत्नाकर ग्रन्थ ऐसी तीसरी रचना है। मैथिली हिन्दी में रचित गद्य की यह पुस्तक डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी और पण्डित बबुआ मिश्र के सम्पादन में बंगाल एशियाटिक सोसायटी से प्रकाशित हो चुकी है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के  मतानुसार इसकी रचना चौदहवीं शताब्दी में हुई होगी।

    इसके उपरान्त तो राजस्थानी गद्य, ब्रजभाषा गद्य और खड़ीबोली का प्रारम्भिक गद्य-साहित्य आदि ही विचारणीय सामग्री है। हिन्दी-परिवार की भाषाओं में गद्य का उन्मेष सर्वप्रथम राजस्थानी गद्य में प्राप्त होता है। राजस्थानी में गद्य-परम्परा निश्चित रूप से ईसा की तेरहवीं शताब्दी से प्रारम्भ होती है। राजस्थानी गद्य के प्रारम्भिक विकास में जैन विद्वानों का विशेष योग रहा है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह ब्रजभाषा के गद्य-साहित्य की अपेक्षा अधिक प्राचीन व समृद्ध है। राजस्थानी गद्य दानपत्रों, पट्टे, परवानों, सनदों, वार्ताओं और टीकाओं आदि के रूप में उपलब्ध होता है। उस पर संस्कृत अपभ्रंश की परम्परा का प्रभाव स्वाभाविक रूप से पड़ा है। राजस्थानी की प्रमुख गद्य रचनाएँ हैं—आराधना, बालशिक्षा टीका, जगत् सुन्दरी प्रयोगमाला, अतिचार, नवकार, व्याख्यान टीका, सबतीर्थ नमस्कार स्तवन, तत्त्वविचार प्रकरण, पृथिवीचन्द्र चरित्र, धनपाल कथा, तपोगच्छ गुर्वावली, अंजनासुन्दरी कथा आदि।

    ब्रजभाषा गद्य का सूत्रपात संवत् 1400 वि0 के आस-पास माना जाता है। ब्रजभाषा गद्य का प्राचीनतम् रूप आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार सन् 1457 ई0 तक का ही उपलब्ध होता है और उन्होंने योगियों के धार्मिक उपदेशों में से कुछ उद्धृत कर उसे संवत् 1400 वि0 के आस-पास का ब्रजभाषा गद्य मान लिया है। किन्तु भाषा-प्रयोग की दृष्टि से ब्रजभाषा गद्य के प्राचीनतम नमूने सन् 1513 ई0 के पूर्व के नहीं हैं। धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों के साथ वैद्यक, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, गणित, धनुर्वेद, शकुन आदि विषयों का प्रतिपादन ब्रजभाषा गद्य में हुआ है। ब्रजभाषा गद्य-साहित्य स्थूलतः चार वर्गों में विभक्त किया जा सकता है—मौलिक, टीकात्मक, अनूदित और पद्य-प्रधान रचनाओं में यत्र-तत्र प्रयुक्त टिप्पणीपरक गद्य। मौलिक (स्वतन्त्र) गद्य वल्लभ सम्प्रदाय के वचनामृतों, वार्ताग्रन्थों, कथा पुस्तकों, दर्शन विषयक ग्रन्थों, वैद्यक, ज्योतिष आदि उपयोगी विषयों, रचनाओं और पत्रों, शिलालेखों तथा कागज-पत्रों के रूप में उपलब्ध होता है। टीका, टिप्पणी, तिलक और भावना शीर्षक से व्याख्यात्मक गद्य प्राप्त होता है। इसी प्रकार अनुवाद अथवा छायानुवाद रूप में लिखित ग्रन्थ भी प्राप्त हैं। गद्य-प्रधान ग्रन्थों में टिप्पणीपरक गद्य चर्चा, वार्ता, तिलक या वचनिका शीर्षक लिखा गया है। सत्रहवीं शताब्दी तक की लिखी हुई जो रचनाएँ उपलब्ध हैं, उनमें गोस्वामी विट्ठलनाथ का शृंगार रस-मण्डन, गोकुलनाथ जी की चौरासी वैष्णवन की वार्ता और दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, नाभादास जी का अष्टयाम, बैकुण्ठमणि शुक्ल के अगहन महातम एवं वैसाख महातम, ध्रुवदास कृत सिद्धान्त विचार तथा लल्लूलाल कृत माधव विलास विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन्हीं के साथ टीकाओं की परम्परा भी चलती रही। प्रमुख टीकाएँ भुवनदीपिका टीका, एकादशस्कन्ध टीका, हितसंवर्धिनी टीका, धरनी-धरदास की टीका और लोकनाथ की गद्य-पद्यमयी टीका।

    खड़ीबोली गद्य की प्रामाणिक रचनाएँ सत्रहवीं शताब्दी ई0 से प्राप्त होती हैं। इस सन्दर्भ में सन् 1623 में लिखित जटमल कृत गोरा बादल की कथा उल्लेख्य है। आरम्भिक खड़ीबोली गद्य ब्रजभाषा से प्रभावित है। खड़ीबोली नाम पड़ने का कारण सम्भवत. इसका खरा होना है। कुछ लोग मधुर ब्रजभाषा की तुलना में इसके कर्कश होने के कारण इसे खड़ीबोली कहना उपयुक्त समझते हैं। कुछ लोगों की धारणा है कि मेरठ के आसपास की पड़ी बोली को खड़ी बनाकर लश्करों में प्रयोग किया गया, इसलिए इसे खड़ीबोली कहते हैं। ब्रजभाषा के प्रभाव से मुक्त खड़ीबोली गद्य का आरम्भ उन्नीसवीं शताब्दी से माना जा सकता है। ‘खड़ीबोली गद्य का एक रूप ‘दक्खिनी गद्य का है। मुहम्मद तुगलक के समय में अच्छी संख्या में उत्तर के मुसलमान दक्षिण में जाकर बस गये। इसके साथ इनकी भाषा भी दक्षिण पहुँची और वहाँ ‘दक्खिनी हिन्दी का विकास हुआ। दक्खिनी हिन्दी में गद्य और पद्य दोनों ही लिखे गये हैं। दक्खिनी खड़ीबोली गद्य का प्रामाणिक रूप सन् 1580 से प्राप्त है। इनमें प्रायः सूफी धर्म के सिद्धान्त लिखे गये हैं।

खड़ीबोली गद्य का विकास

    खड़ीबोली गद्य के प्रारम्भिक उन्नायकों में विशेष रूप से चार लेखकों का उल्लेख किया जाता है-मुंशी सदासुख लाल (राय), मुंशी इंशा अल्ला खाँ, सदल मिश्र, पंडित लल्लूलाल। इन लेखकों से कुछ पहले पटियाला दरबार के रामप्रसाद निरंजनी और मध्य प्रदेश के पं० दौलतराम ने साधु और व्यवस्थित खड़ीबोली का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया था। रामप्रसाद निरंजनी के भाषा योग वाशिष्ठ की भाषा अधिक परिष्कृत है। मुंशी सदासुख लाल (राय) दिल्ली के रहनेवाले थे। इन्होंने विष्णुपुराण का एक अंश लेकर उसे खड़ीबोली गद्य में प्रस्तुत किया। सदा सुखलाल की रचना ‘सुखसागर है। धार्मिक ग्रंथ होने के कारण इसमें पंडिताऊपन अधिक है। वाक्य-रचना पर फारसी शैली का प्रभाव है। मुंशी इंशा अल्ला खाँ ने रानी केतकी की कहानी लिखी है। इनकी शैली हास्य प्रधान और चटपटी है। तुकान्त वाक्यों का प्रयोग अधिक है। मुंशीजी लखनऊ के नवाब सआदत अली खाँ के दरबार में रहते थे। इसलिए उनकी शैली में तड़क-भड़क, शोखी और रंगीनी अधिक है। सदल मिश्र जिला आरा (बिहार) के निवासी थे। यह कलकत्ता के फोर्ट विलियम कालेज में हिन्दी के शिक्षक के रूप में कार्य करते थे। नासिकेतोपाख्यान इनकी प्रसिद्ध रचना है। इसमें पूर्वीपन अधिक है और वाक्य-रचना शिथिल है। पं० लल्लूलाल आगरा में रहनेवाले गुजराती ब्राह्मण थे। यह भी फोर्ट विलियम कालेज में नियुक्त थे। इनकी प्रसिद्ध रचना प्रेमसागर है। इसका गद्य ब्रजभाषा के प्रभाव से मुक्त नहीं है। कहीं-कहीं तुक-मैत्री का मोह खटकता है। भाषा परिमार्जित नहीं है। जिस समय ये लेखक हिन्दी खड़ीबोली गद्य में कहानी और आख्यान लिख रहे थे, उसी समय ईसाई मिशनरी भी ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए बाइबिल का हिन्दी खड़ीबोली गद्य में अनुवाद कराकर उसका प्रचार कर रहे थे। जनता के जीवन में घुलमिल कर उसे अपने अनुकूल बनाने के प्रयत्न में इन लोगों ने हिन्दी भाषा की सेवा की और हिन्दी गद्य के विकास में विशेष योग दिया। सामान्यतः ईसाई मिशनरियों की भाषा भी अपरिमार्जित और ऊबड़-खाबड़ है। तात्पर्य यह है कि अठारहवीं शताब्दी ई0 के अन्तिम चरण और उन्नीसवीं शताब्दी ई० के प्रथम चरण में खड़ीबोली गद्य के किसी भी लेखक की भाषा पूर्णतः परिमार्जित नहीं है। इन लेखकों का खड़ीबोली गद्य के विकास-क्रम में ऐतिहासिक महत्त्व अवश्य है।

भारतीय जागरण

    उन्नीसवीं शताब्दी ई0 के द्वितीय एवं तृतीय चरण में हमारे देश में सामाजिक और सांस्कृतिक ढाँचे में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। शिक्षा का पश्चिमीकरण हुआ। यातायात के साधनों में वृद्धि हुई। सामन्तवादी शासन-व्यवस्था का अन्त हुआ। अंग्रेजों की नौकरशाही पर आधृत नवीन शासन व्यवस्था ने अराजकता की स्थिति को दूर कर देश में शान्ति स्थापित की। प्रेसों की स्थापना के साथ अनेक प्रकार की पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आरम्भ हुआ। अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार से नवीन चेतना की लहर दौड़ गयी और अनेक सामाजिक, धार्मिक आन्दोलनों ने देश के जन-मानस को मथकर उसे आधुनिक विचारधाराओं को ग्रहण करने की स्थिति में ला दिया। इस नवीन चेतना के अभ्युदय को भारतीय जागरण (रेनेसाँ) की संज्ञा दी गयी है। इस जागरण को देशव्यापी रूप देने और इसकी गति को तीव्र करने में ब्रह्म समाज (सन् 1828), रामकृष्ण मिशन, प्रार्थना समाज (सन् 1867), आर्य समाज (सन् 1867) और थियोसॉफिकल सोसाइटी (सन् 1882) जैसी संस्थाओं का विशेष योगदान माना जाता है। उत्तर भारत में इस नये जागरण का आरम्भ अंग प्रदेश से हुआ। यहीं से समाचार-पत्रों के प्रकाशन की शुरुआत भी हुई। यह प्रदेश ब्रजभाषा केन्द्र से बहुत दूर पड़ता था। इसलिए नवीन चेतना को व्यक्त करने का दायित्व खड़ीबोली गद्य को ही वहन करना पड़ा। यह स्मरणीय है कि इस समय तक उत्तर भारत में पंजाब से लेकर बंग प्रदेश तक खड़ीबोली गद्य का प्रसार हो चुका था।

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