देवनागरी लिपि: संक्षिप्त परिचय
प्राचीन नगर लिपि के पश्चिमी रूप से देवनागरी लिपि विकसित हुई है नागरी लिपि का समुचित विकास 10 वीं शताब्दी से माना जाता है | प्राचीन अभिलेखों के लिखावट के अध्ययन से ज्ञात होता है कि भीमदेव प्रथम( 1028 ई.) भीमदेव द्वितीय( 1200 ई.) तथा उदय बर्मन( 1200 ई.) अभिलेखों में प्रयुक्त लिपि वर्तमान हिंदी के बहुत समीप आ गई है| डॉ कपिल देव द्विवेदी के अनुसार-” इस प्रकार वर्तमान देवनागरी लिपि का प्रारंभ 1000 से 1000 ई. तक मानना उचित है बाद में आवश्यक संशोधन परिवर्तन होते रहे| 18 वी सती की नागरी लिपि प्रायः वर्तमान नागरी के तुल्य पूर्ण विकसित हो गई थी| केवल कुछ मांत्रों में अंतर पाया जाता है|”
नामकरण के नामकरण पर विवाद है-
गुजरात के ब्राह्मणों द्वारा सर्वाधिक प्रयोग होने के कारण इसका नाम ‘ नागरी’ पढ़ा|
कुछ विद्वान बौद्ध ग्रंथ ‘ ललित विस्तार’ मैं उल्लेखित ‘ नाग’ लिपि से इसका संबंध स्थापित करते हैं परंतु डॉ बारनेट का मत है कि नागली देवनागरी लिपि दोनों सर्वथा भिन्न लीपिया है|
कुछ विद्वानों के अनुसार प्रमुख रूप से नगरों में प्रचलित होने के कारण इसका नाम नागरिक पड़ा|
आर एम शास्त्री के अनुसार देवताओं की प्रतिमाओं के निर्माण से पूर्व यहां पर उनकी उपासना सांकेतिक चिन्ह के द्वारा होती थी जो कई प्रकार के त्रिकोण आदि यंत्रों के बीच मैं अंकित ले जाते थे| इन यंत्रों को ‘ देव नगर’ और उन चिन्हों को ‘ देव नागर’ कहा जाता था| उन चिन्हों से ही देवनगर इसका विकास होने के कारण इसका नाम देव नागरी पड़ा|
‘ देवनगर’ अर्थात ‘काशी’ मैं प्रचार के कारण यह देव नागरी कहलाई|
एक मत यह भी है कि पाटलिपुत्र को पहले नागर और चंद्रगुप्त द्वितीय को देव कहा जाता था| उन्हीं के नाम पर इस लिपि को देवनागरी नाम लिया गया|
डॉ धीरेंद्र वर्मा के अनुसार- मध्य युग की स्थापत्य एक शैली का नाम' 'नागर' था जिसमें चौकोर आकृति होती थी| इधर नागरी लिपि के अधिकार अक्षर भी चौकर होते हैं| इस ना सम्मान देने के लिए 'देवनागरी' लिपि कहा गया|
डॉ भोलानाथ तिवारी के अनुसार यह मध्य बहुत प्रमाणित नहीं है| अतः नागरी लिपि की व्युत्पत्ति का प्रश्न अभी तक अनिर्णीत है| इसी संबंध में डॉ द्वारिका प्रसाद सक्सेना की मान्यता है- उक्त मतों में से कौन-सा मत सर्वथा ठीक है, यह तो निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता, परंतु यह निर्विवाद सत्य है कि जिस तरह श्रेष्ठ वाड्म्य वाली भाषा संस्कृत को परिष्कृत एवं परिमार्जित होने के कारण देववाणी कहा जाता है उसी तरह संस्कृत वाड्म्य को लिपिबद्ध करने के कारण इस परिष्कृत एवं परिमार्जित नागरी लिपि को देवनागरी नाम दिया गया है|
देवनागरी लिपि का विकास
डॉ द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार देवनागरी लिपि का सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात के नरेश जय भट्ट( 700- 800 ई) के एक शिलालेख में मिलता है| आठवीं शताब्दी में राष्ट्रकूट नरेशो मैं भी यह लिपि प्रचलित थी और नवी शताब्दी में बड़ौदा के ध्रुवराज ने भी अपने राज्य देशों में इसी लिपि का प्रयोग किया था| विजयनगर राज्य और कोंकण में भी इस देवनागरी लिपि का प्रचार था| इसी आधार पर कुछ विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि देवनागरी का विकास सर्वप्रथम दक्षिण में हुआ था और वही से बाद में यह लिपि उत्तर में प्रचलित हुई|
डॉक्टर सक्सेना यह भी मानते हैं कि भारत के सर्वाधिक भाग में प्रचलित रही| उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात आदि प्रांतों में उपलब्ध शिलालेखों, ताम्रपत्र, हस्त लेख, प्राचीन ग्रंथ आदि में देवनागरी लिपि ही अधिक मिलती है| आज भी यह लिपि संपूर्ण हिंदी प्रदेश के अतिरिक्त भारत के अधिकांश प्रांतों में प्रयुक्त होती है और हिंदी, संस्कृत, मराठी, नेपाली, तथा हिंदी की सभी बोलियों मैं इस लिपि का प्रयोग होता है|
ईशा की आठवीं शताब्दी से 18 वीं शताब्दी तक देवनागरी लिपि मेवाड़ के गुहिल वंश राजा, मारवाड़ के परिहार राजा, मध्य प्रदेश के हैहय वंशी राजा, राठौर और कलचुरी नरेश, कन्नौज के गढ़वाल, और गुजरात के सोलंकी राजाओं में पर्याप्त मात्रा में प्रचलित रही| आरंभ में किस लिपि के वर्णो पर शिरोरेखा नहीं थी तथा अ, घ, म, य, ष और स के सिर दो भागों में विभक्त थे| साथ ही 10 वीं शताब्दी की देवनागरी लिपि के अनेक वर्ण आधुनिक वर्ण से बहुत पृथक थे| धीरे-धीरे उन्हें सुंदर बनाने का प्रयास होता रहा और 14वीं शताब्दी मैं आकर इस लिपि के वनों का यह रूप स्थिर हो गया जो आजकल मिलता है|
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