कबीर दास के दोहे - 1

कबीर दास जी के दोहे हिंदी भावार्थ सहित


गुरु गोविंद दोऊ खडे, काके लागुं पांय
बलिहारी गुरु आपने , गोविंद दियो बताय ।।

गुरु और गोविंद (भगवान) दोनो एक साथ खडे हो तो किसे प्रणाम करणा चाहिये गुरु को अथवा गोविंद को ऐसी स्थिती में गुरु के श्रीचरणों मे शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रुपी प्रसाद से गोविंद का दर्शन प्राप्त करणे का सौभाग्य हुआ।

गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दुजा सब आकार
आपा मैटैं हरि भजैं , तब पावैं दीदार ।।

गुरु और गोविंद दोनो एक ही हैं केवळ नाम का अंतर है गुरु का बाह्य(शारीरिक) रूप चाहे जैसा हो किन्तु अंदर से गुरु और गोविंद मे कोई अंतर नही है। मन से अहंकार कि भावना का त्याग करके सरल ओऊ सहज होकार आत्म ध्यान करणे से सद्गुरू का दर्शन प्राप्त होगा जिससे प्राणी का कल्याण होगा जब तक मन  मे मैलरूपी माई और तूकि भावना रहेगी तब तक दर्शन नहीं प्राप्त  हो सकता

गुरु बिन ज्ञान उपजै, गुरु बिन मिलै मोष
गुरु बिन लखै सत्य को गुरु बिन मैटैं दोष ।।

कबीर दास जि कहते है हे सांसारिक प्राणीयों बिना गुरु के ज्ञान का मिलना असंभव है तब टतक मनुष्य अज्ञान रुपी अंधकार मे भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनो मे जकडा राहता है जब तक कि गुरु कि कृपा नहीं प्राप्तहोती मोक्ष रुपी मार्ग दिखलाने वाले गुरु हैं बिना गुरु के सत्य एवम् असत्य का ज्ञान नही होता उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा ? अतः गुरु कि शरण मे जाओ गुरु ही सच्ची रह दिखाएंगे

गुरु समान दाता नहीं , याचक सीष समान
तीन लोक  की सम्पदा, सो गुरु दिन्ही दान ।।

संपूर्ण संसार में गुरु के समान कोई दानी नहीं है और शिष्य के समान कोई याचक नहीं है ज्ञान रुपी अमृतमयी अनमोल संपती गुरु अपने शिष्य को प्रदान करके कृतार्थ करता है और गुरु द्वारा प्रदान कि जाने वाली अनमोल ज्ञान सुधा केवळ याचना करके ही शिष्य पा लेता है

गुरु को मानुष जानते, ते नार कहिए अन्ध
होय दुखी संसार मे , आगे जम की फन्द ।।

कबीरदास जी ने सांसारिक प्राणियो को ज्ञान का उपदेश देते हुए कहा है की जो मनुष्य गुरु को सामान्य प्राणी (मनुष्य) समझते हैं उनसे बडा मूर्ख जगत मे अन्य कोई नहीं है, वह आखो के होते हुए भी अन्धे के समान है तथा जन्म-मरण के भव-बंधन से मुक्त नहीं हो पाता

गुरु गोविंद करी जानिए, रहिए शब्द समाय
मिलै तो दण्डवत बन्दगी , नहीं पलपल ध्यान लगाय  ।।

ज्ञान के प्रकाश का विस्तार करते हुए संत कबीर कहते हैं हे मानव। गुरु और गोविंद को एक समान जाने गुरु ने जो ज्ञान का उपदेश किया है उसका मनन कारे और उसी क्षेत्र मे रहें जब भी गुरु का दर्शन हो अथवा हो तो सदैव उनका ध्यान करें जिससे तुम्हें गोविंद दर्शन करणे का सुगम (सुविधाजनक) मार्ग बताया

गुरु महिमा गावत सदा, मन राखो अतिमोद
सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभू की गोद ।।

जो प्राणी गुरु की महिमा का सदैव बखान करता फिरता है और उनके आदेशों का प्रसन्नता पूर्वक पालन करता है उस प्राणी का पुनःइस भव बन्धन रुपी संसार मे आगमन नहीं होता संसार के भव चक्र से मुक्त होकार बैकुन्ठ लोक को प्राप्त होता है

गुरु सों ज्ञान जु लीजिए , सीस दीजिए दान
बहुतक भोंदु बहि गये , राखि जीव अभिमान ।।

सच्चे गुरु की शरण मे जाकर ज्ञान-दीक्षा लो और दक्षिणा स्वरूप अपना मस्तक उनके चरणों मे अर्पित करदो अर्थात अपना तन मन पूर्ण श्रद्धा से समर्पित कर दो गुरु-ज्ञान कि तुलना मे आपकी सेवा समर्पण कुछ भी नहीं हैऐसा मानकर बहुत से अभिमानी संसार के माया-रुपी प्रवाह मे बह गये उनका उद्धार नहीं हो सका

गुरु पारस को अन्तरो , जानत हैं सब संत
वह लोहा कंचन करे , ये करि लेय महंत ।।

गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जनते हैं पारस मणी के विषय जग विख्यात है कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बाण जाता है किन्तु गुरु भी इतने महान हैं कि अपने गुण-ज्ञान मे ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं

गुरु शरणगति छाडि के, करै भरोसा और
सुख संपती को कह चली , नहीं नरक में ठौर ।।

संत जी कहते हैं कि जो मनुष्य गुरु के पावन पवित्र चरणों को त्यागकर अन्य पर भरोसा करता है उसके सुख संपती की बात ही क्या, उसे नरक में भी स्थान नहीं मिलता

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढैं खोट
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै  चोट ।।

संसारी जीवों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं- गुरु कुम्हार है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घडे के समान है जिस तरह घडे को सुंदर बनाने के लिए अंदर हाथ डालकर बाहर से थाप मारता है ठीक उसी प्रकार शिष्य को कठोर अनुशासन में रखकर अंतर से प्रेम भावना रखते हुए शिष्य की बुराईयो कों दूर करके संसार में सम्माननीय बनाता है

गुरु को सर पर राखिये चलिये आज्ञा माहि
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहीं ।।

गुरु को अपने सिर का गज समझिये अर्थात , दुनिया में गुरु को सर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए क्योंकि गुरु के समान अन्य कोई नहीं है गुरु कि आज्ञा का पालन सदैव पूर्ण भक्ति एवम् श्रद्धा से करने वाले जीव को संपूर्ण लोकों में किसी प्रकार का भय नहीं रहता गुरु कि परमकृपा और ज्ञान बल से निर्भय जीवन व्यतीत करता है

गुरु मुरति आगे खडी , दुतिया भेद कछु नाहि
उन्ही कूं परनाम करि , सकल तिमिर मिटी जाहिं ।।

आत्म ज्ञान से पूर्ण संत कबीर जी कहते हैं हे मानव साकार रूप में गुरु कि मूर्ति तुम्हारे सम्मुख खडी है इसमें कोई भेद नहीं गुरु को प्रणाम करो, गुरु की सेवा करो गुरु दिये ज्ञान रुपी प्रकाश से अज्ञान रुपी अंधकार मिट जायेगा

कबीर हरि के रुठते, गुरु के शरणै जाय
कहै कबीर गुरु रुठते , हरि नहि होत सहाय ।।

प्राणी जगत को सचेत करते हुए कहते हैं हे मानव यदि भगवान तुम से रुष्ट होते है तो गुरु की शरण में जाओ गुरु तुम्हारी सहायता करेंगे अर्थात सब संभाल लेंगे किन्तु गुरु रुठ जाये तो हरि सहायता नहीं करते जिसका तात्पर्य यह है कि गुरु के रुठने पर कोई सहायक नहीं होता

कबीर ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और
हरि के रुठे ठौर है, गुरु रुठे नहिं ठौर ।।

कबीरदास जी कहते है कि वे मनुष्य अंधों के समान है जो गुरु के महत्व को नहीं समझते भगवान के रुठने पर स्थान मिल सकता है किन्तु गुरु के रुठने पर कहीं स्थान नहीं मिलता

जैसी प्रीती कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय
कहैं कबीर ता दास का, पला पकडै कोय ।।

हे मानव जैसा तुम अपने परिवार से करते हो वैसा ही प्रेम गुरु से करो जीवन की समस्त बाधाएँ मिट जायेंगी कबीर जी कहते हैं कि ऐसे सेवक की कोई मायारूपी बन्धन में नहीं बांध सकता , उसे मोक्ष प्राप्ती होगी, इसमें कोई संदेह नहीं

मूलध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पांव
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सत भाव ।।

कबीर जी कहते है ध्यान का मूल रूप गुरु हैं अर्थात सच्चे मन से सदैव गुरु का ध्यान करना चाहिये और गुरु के चरणों की पूजा करनी चाहिये और गुरु के मुख से उच्चारित वाणी को सत्यनामसमझकर प्रेमभाव से सुधामय अमृतवाणी का श्रवण करें अर्थात शिष्यों के लिए एकमात्र गुरु ही सब कुछ हैं

गुरु मुरति गति चन्द्रमा , सेवक नैन चकोर
आठ पहर निरखत रहें , गुरु मुरति की ओर ।।

कबीर साहब सांसारिक प्राणियो को गुरु महिमा बतलाते हुए कहते हैं कि हे मानव गुरु कीपवित्र मूर्ति को चंद्रमा जानकर आठों पहर उसी प्रकार निहारते रहना चाहिये जिस प्रकार चकोर निहारता है तात्पर्य यह कि प्रतिपल गुरु का ध्यान करते रहें

कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार
धुंवा का सा धौरहरा, बिनसत लगे बार ।।

  संत कबीर जी कहते हैं कि गुरु की भक्ति के बिना संसार में इस जीवन को धिक्कार है क्योंकी इस धुएँ रुपी शरीर को एक दिन नष्ट हो जाना हैं फिर इस नश्वर शरीर के मोह को त्याग कर भक्ति मार्ग अपनाकर जीवन सार्थक करें

प्रेम बिना जो भक्ती ही सो निज दंभ विचार
उदर भरन के कारन , जन्म गंवाये सार ।।

प्रेम के बिना की जाने वाली भक्ती , भक्ती नहीं बल्की पाखंड ही वाहय आडम्बर है प्रदर्शन वाली भक्ति को स्वार्थ कहते है जो पेट पालने के लिए करते है सच्ची भक्ति के बिना सब कुछ व्यर्थ है भक्ति का आधार प्रेम है अतः प्रेम पूर्वक भक्ति करे जिससे फल प्राप्त हो

भक्ति बिना नहिं निस्तरै , लाख करै जो काय
शब्द सनेही है रहै , घर को पहुचे सोय ।।

भक्ति के बिना उद्धार होना संभव नहीं है चाहे कोई लाख प्रयत्न करे सब व्यर्थ है जो जीव सद्गुरु के प्रेमी है , सत्यज्ञान का आचरण करने वाले है वे ही अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सके है

भक्ति दुवारा सांकरा , राई दशवे भाय
मन तो मैंगल होय रहा , कैसे आवै जाय ।।

मानव जाति को भक्ति के विषय में ज्ञान का उपदेश करते हुए कबीरदास जी कहते है कि भक्ति का द्वार बहुत संकरा है जिसमे भक्त जन प्रवेश करना चाहते है इतना संकरा कि सरसों के दाने के दशवे भाग के बरोबर है जिस मनुष्य का मन हाथी की तरह विशाल है अर्थात अहंकार से भरा है वह कदापि भक्ति के द्वार में प्रवेश नहीं कर सकता

भक्ति निसैनी मुक्ति की , संत चढ़े सब धाय
जिन जिन मन आलस किया , जनम जनम पछिताय ।।

मुक्ति का मूल साधन भक्ति है इसलिए साधू जन और ज्ञानी पुरुष इस मुक्ति रूपी साधन पर दौड़ कर चढ़ते है तात्पर्य यह है कि भक्ति साधना करते है किन्तु जो लोग आलस करते है भक्ति नहीं करते उन्हें जन्म जन्म पछताना पड़ता है क्योंकि यह सुअवसर बार बार नहीं अता

भक्ति जुसिढी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय
और कोई चढ़ी सकै, निज मन समझो आय ।।

भक्ति वह सीधी है जिस पर चढ़ने के लिए भक्तो के मन में आपार ख़ुशी होती है क्योंकि भक्ति हो मुक्ति का साधन है भक्तों के अतिरिक्त इस पर एनी कोई नहीं चढ़ सकता ऐसा अपने मन में निश्चित कर लो

भक्ति भेष बहु अन्तरा , जैसे धरनि आकाश 
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ।।

भक्ति और वेश में उतना ही अन्तर है जितना अन्तर धरती और आकाश में है भक्त सदैव गुरु की सेवा में मग्न रहता है उसे अन्य किसी ओर विचार करने का अवसर ही नहीं मिलता किन्तु जो वेशधारी है अर्थात भक्ति करने का आडम्बर करके सांसारिक सुखो की चाह में घूमता है वह दूसरों को तो धोखा देता ही है, स्वयं अपना जीवन भी व्यर्थ गँवाता है

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