जब में पढ़ता था : मोहनदास करमचन्द गाँधी
प्रस्तावना :- 'जब मैं पढ़ता था' पाठ में गाँधीजी ने अपने जीवन के बारे में लिखा
है। प्रस्तुत पाठ के माध्यम से गाँधीजी के जीवन की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं की झांकी
प्रस्तुत की गयी है। गाँधीजी पितृ भक्त बालक थे, वे पिता की सेवा को सुख मानते थे, साथ ही सत्य एवं अहिंसा के पुजारी थे। वे सदा
सन्मार्ग पर चले तथा दूसरों को भी प्रेरित किया। प्रस्तुत पाठ में लगन और परिश्रम के महत्व को
दर्शाया गया है। गाँधीजी सादा जीवन और उच्च विचार के समर्थक थे। प्रस्तुत पाठ के
माध्यम से उन्होंने सत्य, सेवा एवं अहिंसा की शिक्षा दी है। गाँधीजी राही नहीं, राहों के अन्वेषक थे।
जब मैं पढ़ता था
मोहनदास करमचन्द
गाँधी
मेरे पिता करमचन्द गाँधी थे। वे राजकोट के दिवान
थे। वे सत्यप्रिय, साहसी एवं उदार
व्यक्ति थे। वे सदा उचित न्याय करते थे।
मेरी माता का नाम पुतली बाई था। उनका स्वभाव बहुत
अच्छा था। वे धार्मिक विचारों की महिला थी। पूजा-पाठ किये बिना भोजन नहीं करती थी।
2 अक्टुबर 1869 को पोरबंदर में मेरा जन्म हुआ। पोरबंदर से पिताजी
जब राजकोट गये तब मेरी उम्र सात वर्ष की होगी। पाठशाला से फिर फिर ऊपर के स्कूल में और वहाँ से
हाईस्कूल में गया।
एकबार पिताजी श्रवण पितृभक्ति' नामक नाटक की एक किताब खरीद लाए थे। मैंने उसे
बड़े शौक से पढ़ा। उन्हीं दिनों शीशे में तस्वीर दिखाने वाले लोग आया करते थे। तभी
मैंने अंधे माता-पिता को बहँगी पर बैठाकर वे जानेवाले श्रवणकुमार का चित्र देखा। इन
बातों का मेरे मन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। मन ही मन मैंने कहा - मैं भी श्रवण
कुमार की तरह बनूँगा।
मैंने 'सत्य हरिश्चन्द्र' नाटक भी देखा बार-बार उसे देखने की इच्छा होती। हरिश्चन्द्र के सपने
आते। बार-बार मन में यह बात उठती कि सभी हरिशचन्द्र की तरह सत्यवादी क्यों न बनें।
यही बात मन में बैठ गई कि चाहे हरिश्चन्द्र की तरह दुःख उठाना पड़े, पर सत्य को कभी नहीं छोड़ना चाहिए।
जब मैं केवल तेरह वर्ष का था, तभी मेरा विवाह कस्तूरबा के साथ हो गया था। मगर
मेरी पढ़ाई चलती रही। पांचवी और छठी कक्षा में तो छात्रवृत्तियाँ भी, मिली थी। अपने आचरण की ओर मैं बहुत ध्यान देता
था। इसमें यदि कोई भूल हो जाती तो मेरे आँखो में आँसू भर आते। शिक्षक का कुछ कहना
ही मेरे लिए असत्य हो जाता। अपने से बड़ों तथा शिक्षकों का अप्रसन्न होना मुझसे सहन नहीं
हो पाता था। मुझे याद नहीं कि मैंने कभी भी किसी शिक्षक या किसी लड़के से झूठ बोला
हो।
मैंने पुस्तकों में पढ़ा था कि खुली हवा में
घूमना स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है। यह बात मुझे अच्छी लगी और तभी से मैंने सैर करने
की आदत डाल ली। सैर करना भी एक तरह का व्यायाम ही है। इससे मेरा शरीर मजबूत हो
गया।
एक भूल की सजा मैं आज तक पा रहा हूँ। पढ़ाई में
अक्षर अच्छे होने की जरुरत नहीं यह गलत विचार मेरे मन में इंग्लैंड जाने तक रहा। आगे
चलकर दूसरों के मोती जैसे अक्षर, देखकर मैं बहुत पछताया। मैंने देखा कि अक्षर बुरे होना अपूर्ण शिक्षा की निशानी है। बाद
में मैंने अपने अक्षर सुधारने का प्रयत्न किया, परन्तु पके घड़े पर कहीं मिट्टी चढ़ सकती है?
सुलेख शिक्षा का जरुरी अंग है। उसके लिए चित्रकला
सीखनी चाहिए। बालक जब चित्रकला सीखकर चित्र बनानाजान जाता है तब यदि अक्षर लिखना सीखे तो उसके अक्षर
मोती जैसे हो सकते हैं।
मेरे संस्कृत शिक्षक काम लेने में सख्त थे। फारसी
के शिक्षक नरम थे। विद्यार्थी आपस में बाते करते कि फारसी बड़ी सरल है।
यह सुनकर मैं ललचाया और एकदिन फारसी की कक्षा में जा बैठा। यह देखकर संस्कृत
शिक्षक ने मुझे बुलाया और समझाया तुम्हें संस्कृत समझने में कोई कठिनाई हो
तो मुझे बताओ। मैं तो सभी विद्यार्थियों को अच्छी तरह संस्कृत पढ़ाना चाहता हूँ। आगे चलकर उसमें रस ही रस है। देखो
हिम्मत न हारो। तुम फिर कक्षा में आकर बैठो। मैं उन शिक्षक के प्रेम के कारण इन्कार न कर
सका। आज भी मैं उनका उपकार मानता हूँ क्योंकि आगे चलकर मैंने समझा कि संस्कृत का अच्छा अद्यायन किये बिना न
रहना चाहिए।
मैं हाईस्कूल में मन्दबुद्धि का विद्यार्थी नहीं
माना जाता था। पर जहाँ तक याद है मुझे कभी अपनी होशियारी का गर्व नहीं रहा। इनाम या छात्रवृत्ति
पाने पर मुझे आश्चर्य होता था। लेकिन अपने आचरण की मुझे बड़ी चिंता रहती थी। मेरे
हाथों कोई ऐसा काम हो जिसके लिए कोई मुझे दंड दे, यह मेरे लिए असहय था। मुझे याद है कि एक बार मुझे
मार खानी पड़ी थी। मुझे मार का दुःख न था पर मैं दंड का पात्र समझा गया। इस बात का
बड़ा दुःख था। यह बात पहली या दूसरी कक्षा की है। दूसरी बात उस समय की है जब मैं सातवीं
कक्षा में था। उस समय के हमारे हेडमास्टर कड़ा अनुशासन रखते थे। फिर भी वे
विद्यार्थियों के प्रिय थे, वे स्वयं ठीक काम करते और दूसरों से भी ठीक काम लेते थे। पढ़ाते अच्छा
थे। उन्होंने ऊपर की कक्षा के विद्यार्थियों के लिए व्यायाम और क्रिकेट अनिवार्य
कर दिये थे। मेरा मन इनमें नहीं लगता था। खेलना अनिवार्य होने के पहले तो मैं कभी
व्यायाम करने, क्रिकेट या फुटबॉल
खेलने गया ही नहीं था। वहाँ नहीं जाने में मेरा संकोची स्वभाव भी एक कारण था। अब
मैं मानता हूँ कि व्यायाम के प्रति अरुचि, मेरी गलती थी। उस समय मेरे मन में यह गलत विचार घर किए हुए था कि
व्यायाम का शिक्षा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। बाद में समझा कि पढ़ने
के साथ-साथ व्यायाम करना भी बहुत जरुरी है। व्यायाम में अरुचि का दूसरा कारण था पिताजी की
सेवा करने की तीव्र इच्छा। स्कूल बन्द होते ही तुरंत घर पहुँच उनकी सेवा में लग
जाता। अब व्यायाम अनिवार्य होने से इस सेवा में विघ्न पड़ने लगा। मैंने पिताजी की सेवा
के लिए व्यायाम से छुटकारा पाने का प्रार्थना पत्र दिया पर हेडमास्टर साहब कब
छोड़ने वाले थे।
एक शनिवार को स्कूल सबेरे का था।शाम के चार बजे
व्यायाम के लिए जाना था। मेरे पास घड़ीन थी। आकाश में बादल थे। इससे समय का पता न चला। बादलों से धोखा खा
गया।जब पहूँचा तो सब जा चुके थे। दूसरे दिन मुझसे कारण पूछा गया। मैंने जो बात थी,
बता दी। उन्होंने उसे माना नहीं और मुझे
एक या दो आना, ठीक से याद नहीं
कितना दंड देना पड़ा। मैं झूठा बना। मुझे भारी दुःख हुआ। मैं झूठा नहीं हूँ,
यह कैसे सिद्ध करूँ? कोई उपाय न था। मैं मन मारकर रह गया। रोया। बाद
में समझा कि सच बोलने वाले को असावधान भी नहीं रहना चाहिए।
शब्दार्थ :
सत्यप्रिय = सत्य से प्रेम करने वाला। धार्मिक = धर्म से जुड़ा, धर्म को मानने वाला। सत्यवादी = सत्य बोलने वाला। पितृभक्त = पिता के प्रति भक्ति। छात्रवृत्ति =
वजीफा। आचरण = चाल चलन । असहय =जो सहन नहीं होता है। स्वास्थ्य = सेहत। व्यायाम = कसरत। अध्ययन =
पढ़ना। अनुशासन = नियंत्रण। अनिवार्य =जरुरी। विघ्न = बाधा, रुकावट । अरुचि = रुचि न होना, मन के प्रतिकूल ।
0 टिप्पणियाँ
Please do not enter any spam link in the comment box