भीष्म साहनी

  भीष्म साहनी


  • न्म - 8 अगस्त1915 ई.
  • जन्म भूमि - रावलपिण्डी, भारत
  • मृत्यु - 11 जुलाई2003
  • मृत्यु स्थान - दिल्ली
  • अभिभावक पिता- हरबंस लाल साहनी, माता- लक्ष्मी देवी
  • पत्नी - शीला
  • कर्म भूमि - भारत
  • कर्म-क्षेत्र - साहित्य
  • मख्य रचनाएँ  - 'मेरी प्रिय कहानियाँ', 'झरोखे', 'तमस', 'बसन्ती', 'मायादास की माड़ी', 'हानुस', 'कबीरा खड़ा बाज़ार में', 'भाग्य रेखा', 'पहला पाठ', 'भटकती राख' आदि।
  • विषय  - कहानी, उपन्यास, नाटक, अनुवाद।
  • भाषा - हिन्दी, अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत, पंजाबी
  • विद्यालय - गवर्नमेंट कॉलेज (लाहौर), पंजाब विश्वविद्यालय
  • शिक्षा -  एम.ए.पी.एच.डी.
  • पुरस्कार-उपाधि -  'साहित्य अकादमी  पुरस्कार' (1975),'शिरोमणि लेखक सम्मान' (पंजाब सरकार) (1975), 'लोटस पुरस्कार' (अफ्रो-एशियन राइटर्स एसोसिएशन की ओर से 1970),'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' (1983), ‘पद्म भूषण (1998)’
  • नागरिकता  - भारतीय
  • शैली  - साधारण एवं व्यंगात्मक शैली

    देश के विभाजन से पहले भीष्म साहनी ने व्यापार भी किया और इसके साथ ही वे अध्यापन का भी काम करते रहे। तदनन्तर उन्होंने पत्रकारिता एवं 'इप्टा' नामक मण्डली में अभिनय का कार्य किया।

    रावलपिंडी पाकिस्तान में जन्मे भीष्म साहनी (8 अगस्त 1915 - 11 जुलाई 2003) आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से थे। 1936 में लाहौर गवर्नमेन्ट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने के बाद साहनी ने 1958 में पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की। भारत पाकिस्तान विभाजन के पूर्व अवैतनिक शिक्षक होने के साथ-साथ ये व्यापार भी करते थे। विभाजन के बाद उन्होंने भारत आकर समाचारपत्रों में लिखने का काम किया। बाद में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जा मिले। इसके पश्चात अंबाला और अमृतसर में भी अध्यापक रहने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में साहित्य के प्रोफेसर बने।1956 से 1963तक मास्को में विदेशी भाषा प्रकाशन गृह (फॉरेन लॅग्वेजेस पब्लिकेशन हाउस) में अनुवादक के काम में कार्यरत रहे। यहां उन्होंने करीब दो दर्जन रूसी किताबें जैसे टालस्टॉय आस्ट्रोवस्की इत्यादि लेखकों की किताबों का हिंदी में रूपांतर किया। 1965से 1967 तक दो सालों में उन्होंने नयी कहानियां नामक पात्रिका का सम्पादन किया। वे प्रगतिशील लेखक संघ और अफ्रो-एशियायी लेखक संघ (एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन) से भी जुड़े रहे। 1993 से 1997 तक वे साहित्य अकादमी के कार्यकारी समीति के सदस्य रहे।

साहनी को 1975 में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था. इसी वर्ष वे पंजाब सरकार के शिरोमणि लेखक पुरस्कार से सम्मानित किए गए . उन्हें 1980 में एफ्रो-एशिया राइटर्स एसोसिएशन का लोटस अवॉर्ड और 1983 में सोवियत लैंड नेहरु अवॉर्ड दिया गया था. 1986 में भीष्म साहनी को पद्मभूषण अलंकरण से भी विभूषित किया गया. इन बड़े पुरस्कारों और सम्मानों की सूची बस यह बताने के लिए है कि पाठकों की तारीफें मिलने के साथ-साथ बतौर लेखक समाज-सरकार भी उन्हें सराहते रहे हैं फिर भी उनकी सहजता-सरलता कभी कम नहीं हुई. शायद इसी कारण उन्होंने जिस भी विधा को छुआ, कुछ अनमोल उसके लिए छोड़ ही गए. कहानियों में चाहे वह ‘चीफ की दावत’, हो या फिर ‘साग मीट’, उपन्यास में ‘तमस’ और नाटकों में ‘हानूश’ और ‘कबिरा खड़ा बजार में’ जैसी अनमोल कृतियां.

    भीष्म साहनी को हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है। वे मानवीय मूल्यों के लिए हिमायती रहे और उन्होंने विचारधारा को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। वामपंथी विचारधारा के साथ जुड़े होने के साथ-साथ वे मानवीय मूल्यों को कभी आंखो से ओझल नहीं करते थे। आपाधापी और उठापटक के युग में भीष्म साहनी का व्यक्तित्व बिल्कुल अलग था। उन्हें उनके लेखन के लिए तो स्मरण किया ही जाएगा लेकिन अपनी सहृदयता के लिए वे चिरस्मरणीय रहेंगे।

    भीष्म साहनी के व्यक्तित्व की सहजता-सरलता वाले आयाम पर उनकी बेटी कल्पना साहनी की वह बात बेहद दिलचस्प है जो उन्होंने अपने पिता के आखिरी उपन्यास ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ के विमोचन के मौके पर कही थी. यहां उन्होंने बताया, ‘वो जो कुछ भी लिखते थे सबसे पहले मेरी मां को सुनाते थे. मेरी मां उनकी सबसे पहली पाठक और सबसे बड़ी आलोचक थीं. इस उपन्यास को भी मां को सौंपकर भीष्म जी किसी बच्चे की तरह उत्सुकता और बेचैनी से उनकी राय की प्रतीक्षा कर रहे थे. जब मां ने किताब के ठीक होने की हामी भरी तब जाकर उन्होंने चैन की सांस ली थी.’

    ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ सन 2000 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था और यह एक अद्भुत संयोग है कि उसी वक़्त इस प्रकाशन से दो और बड़े लेखकों के उपन्यास प्रकाशित हुए, निर्मल वर्मा का ‘अंतिम अरण्य’ और कृष्णा सोबती का ‘समय सरगम’. ध्यान देने वाली बात यह थी कि जहां अन्य दो लेखकों के उपन्यास के केंद्र में उनकी वृद्धावस्था और उसके एकांतिक अनुभव थे, वहीं भीष्म जी की किताब के केंद्र में एक प्रेमकथा थी. तब अंतर्धार्मिक प्रेम और विवाह के लिए ‘ऑनर किलिंग’ पहली बार किसी उपन्यास या कहें कि एक बड़े कद के लेखक की किताब का केंद्रबिंदु बनी थी.

    भीष्म जी के आखिरी उपन्यास में तमस वाली वही साम्प्रदायिकता थी और उससे लड़ते हुए कुछ असहाय और गिनेचुने लोग, पर कथा के विमर्श का फलक कुछ नया सा था. यहां न सोबती जी के उपन्यास का केंद्र - मृत्यु से लड़ने का वह महान दर्शन स्थापित हो रहा था, न निर्मल जी के लेखन में पाया जाने वाला आत्मचिंतन. ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ के केंद्र में तत्कालीन समाज और उसकी जटिलताएं और उनसे पैदा होने वाली समस्याएं थीं. दरअसल यह भीष्म जी के लेखन की विशेषता थी जहां वे जीवन की सच्चाई से आंख मिलाते थे और उनके माध्यम से पाठक भी ऐसा कर पाते थे.

    समाज को इस तरह देखने का काम मुंशी प्रेमचंद ने भी अपनी रचनाओं में किया लेकिन भीष्म साहनी का देखा-समझा समाज प्रेमचंद के आगे के समय का समाज है. साथ ही भीष्म जी ने अपनी भाषा में वैसी ही सादगी और सहजता रखी जो रचनाओं को बौद्धिकों के दायरे निकालकर आम लोगों तक पहुंचा देती है. यदि विष्णु प्रभाकर की अद्भुत रचना ‘आवारा मसीहा’ के बजाय तमस को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो इसकी एक वजह इस उपन्यास की वह भाषा भी होगी जिससे विषय की मार्मिकता लोगों को दिलों तक पहुंच जाती है. आलोचक नामवर सिंह भीष्म साहनी के लिए कहते हैं, ‘मुझे उनकी प्रतिभा पर आश्चर्य होता है कि कॉलेज में पढ़ते हुए वे लिखने, प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़ने का समय निकाल लेते थे.मैं यह नहीं कहता कि उनकी सभी रचनाओं का स्तर ऊंचा है लेकिन अपनी हर रचना में उन्होंने एक स्तर बनाए रखा... हैरानी होती है यह देख कर कि रावलपिंडी से आया हुआ आदमी जो पेशे से अंग्रेज़ी का अध्यापक था और जिसकी भाषा पंजाबी थी, वह हिंदी साहित्य में एक प्रतिमान स्थापित कर रहा था.’

    भीष्म साहनी हिन्दी फ़िल्मों के जाने माने अभिनेता बलराज साहनी के छोटे भाई थे।

    उन्हें 1975में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार1975में शिरोमणि लेखक अवार्ड (पंजाब सरकार)1980में एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन का लोटस अवार्ड1983 में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड तथा 1998 में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया।
उनके उपन्यास तमस पर 1976में एक फिल्म का निर्माण भी किया गया था।

प्रमुख रचनाएँ

उपन्यास :-
झरोखा - 1967
कड़ियाँ - 1970
तमस - 1973
बसंती - 1980
मय्यादास की माडी़ - 1988
कुन्तो - 1993
नीलू नीलिमा नीलोफर - 2000

कहानी संग्रह :-
भाग्यरेखा - 1953
पहला पाठ - 1957
भटकती राख - 1966
पटरियाँ - 1972
वाङ्चू - 1978
शोभायात्रा - 1981
निशाचर - 1983
पाली - 1989
डायन -1998

नाटक :-
हानूश - 1977
कबिरा खड़ा बाजार में - 1981
माधवी - 1985
मुआवजे - 1993
रंग दे बसंती - 1998
आलमगीर - 1999

आत्मकथा - बलराज माय ब्रदर

बालकथा- गुलेल का खेल

    बहुमुखी प्रतिभा के धनी भीष्म साहनी आम लोगों की आवाज उठाने और हिंदी के महान लेखक प्रेमचंद की जनसमस्याओं को उठाने की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले साहित्यकार के तौर पर पहचाने जाते हैं। विभाजन की त्रासदी पर तमसजैसे कालजयी उपन्यास लिखने वाले साहनी ने हिंदुस्तानी भाषा के उपयोग को बढ़ावा दिया।

भीष्म साहनी के सम्बंध में विद्वानों के कथन:-

राजेंद्र यादव
  '‘
भीष्म साहनी ने दबे कुचले और समाज के पिछड़े लोगों की समस्याओं को जनभाषा में अत्यंत सटीक तरीके से अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। यही वजह है कि उन्हें प्रेमचंद की परंपरा का साहित्यकार कहा जाता है।’'

आलोचक नामवर सिंह
"
जिस तरह से प्रेमचंद ने सामाजिक वास्तविकता और पूंजीवादी व्यवस्था के दुष्परिणामों को अपनी रचनाओं में चित्रित किया, उन्हीं विषयों को आजादी के बाद साहनी ने अपनी लेखनी का विषय बनाया।"

    राजेंद्र यादव ने बताया कि विभाजन के बाद पाकिस्तान से देश में आने वाले लोगों की मनोदशा और समस्याओं को अत्यंत ही सजीव और वास्तविक वर्णन उन्होंने तमस में किया है। यादव ने उनके साथ अपने संबंधों को ताजा करते हुए कहा कि विभाजन के बाद भारत में ही बस गए साहनी बड़े ही जिंदादिल इंसान थे। अत्यंत साधारण से दिखने वाले साहनी जब तब फोन करके किसी घटना को मजेदार चुटकुले के रूप में बताते थे।

    बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहनी ने नाटकों के अलावा फिल्मों में भी काम किया है। मोहन जोशी हाजिर हो, कस्बा के अलावा मिस्टर एंड मिसेज अय्यर फिल्म में उन्होंने अभिनय किया। साहनी की कृति पर आधारित धारावाहिक तमसकाफी चर्चित रहा था।

    राजेंद्र यादव ने बताया कि वह भारतीय नाट्य संघ इप्टा से भी जुड़े हुए थे। स्वाभाविक रूप से उनकी रूचि अभिनय में थी और वह फिल्मों की ओर भी आकर्षित हुए।

समाज के अंतिम व्यक्ति की आवाज उठाने वाले इस लेखक का निधन 11 जुलाई 2003 को दिल्ली में हुआ।


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