मध्ययुगीन संत काव्य और सार्वभौमिक मानव मूल्य

मध्ययुगीन संत काव्य और सार्वभौमिक मानव मूल्य


मध्ययुगीन संत काव्य तत्कालीन सामंतवादी और रुढ़िवादी परिवेश में मानवतावादी चेतना की प्रखर अभिव्यक्ति है। यह उस सांस्कृतिक जागरण की सशक्त अभिव्यक्ति है, जो गहरे मानवीय सरोकारों से उपजी है औरसार्वभौमिक मानव मूल्यों को प्रतिष्ठापित करता है|सार्वभौमिक मूल्य से तात्पर्य उन मूल्यों से है जिनकी प्रासंगिकता प्रत्येक भौगोलिक परिवेश और अतीत, वर्तमान एवं भविष्य के कालखंड में भी है| लेकिन यहाँ प्रासंगिकता से मतलब मात्र इतना नहीं है कि वह मूल्य वर्तमान या परिवेश विशेष की परिस्थितियों के अनुकूल होया हमारे विचारों को समर्थन करता हो, बल्कि प्रासंगिकता तब भी होती है जब वह मूल्य वर्तमान या परिवेश विशेष की परिस्थितियों को चुनौती भी देता है और उन्हें नवीन सन्दर्भों में परिष्कृत भी करता है|
मध्ययुगीन संत काव्य में सार्वभौमिक मानव मूल्यों कीअभिव्यक्ति निम्न रूपों में हुई है:-
मानव प्रेम के रूप में,
लोकधर्म के रूप में,
मानव कल्याण के रूप में,
सामाजिक विषमता और धार्मिक आडम्बरों के खंडन के रूप मे,
अखंड प्राकृतिक सत्ता के प्रति गहरे लगाव के रूप में |

महान और कालजयी कविता वही होती है जहाँ मनुष्य, उसके अस्तित्व और अस्मिता के समक्ष संकट और मानवता के अपमान करने वाले तत्वों के समक्ष प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है | यही नहीं महान कविता मानवीय एकता और सामाजिक समरसता और समन्वयता की भावना को विस्तार देती है, लोक जागरण की पक्षधरता के स्वर को मुखर करती है| इसमें कोई संशय नहीं कि मध्युगीन भक्त कवियों की वाणीअखिल मानवता के प्रति इस दायित्व का बखूबी निर्वहन करती हैं | 

मध्ययुगीन संतकवि चाहे वेअसम के शंकरदेव हों या गुजराती के नरसी मेहता हों, या कर्नाटक के अलम्मा प्रभु, या हिन्दी के कबीर, जायसी, नानक, तुलसी, दादू, मलूक दास और सूरदास हो, सभी के अपने- अपने निजी विश्वासों, इन संत कवियों की कमियों और उस काल की सीमाओं के बावजूदऐसे अनेक सूत्र है जो ऐसे मानव मूल्य को प्रतिष्ठापित करते है जो सार्वदेशिक और सर्वकालिक है|

कबीर दास जब कहते है-‘कबीरा सोई पीर है जो जाने पर पीर’- वो संत है जो दूसरे की पीड़ा जानता है, जब गुजराती के नरसी मेहता कहते हैं कि ‘वैष्णव जन तो तैने कहिए, पीर पराई जाने रे’-वही वैष्णव है जो दूसरे के दुख जानता है, तुलसीदास जब कहते हैं कि ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीरा सम नहिं अधमाई’-दूसरे को दुख देने के समान कोई पाप नहीं है और दूसरे को सुख पहुँचाने के समान कोई पुण्य नहीं है तो मध्यकालीन संत कवि एक ऐसे मानव धर्म की एक नई व्याख्या कर रहे होते है, एक ऐसे मानव मूल्य की प्रस्तावना लिख रहे होते हैजिसका आधार यह परम विश्वास था कि ‘घट-घट में तेरा सांई बसता, | इसलिए संत कवि दुखी जन की पीड़ा को जानने और मानव धर्म को जोड़ने वाले एकता का सूत्र स्थापित कर रहे थे | यह मानव धर्म हिन्दू और इस्लाम से परे हैं।

धर्म-अधर्म की यह नयी परिभाषा संत कवियों ने लोकहित या मानव कल्याण के सिद्धांत पर ही निर्मित किया है | दुनिया के अधिकतर देशों में जब धर्म का प्रभाव बढ़ता है तो पूरे माहौल में एक ही धर्म रहता है। कोई अन्य धर्म नहीं होता और जब धर्म का बंधन टूटता है तो उसके तोड़नेवाले उसी धर्म से उपजते हैं, विधर्मी नहीं होते। मध्ययुगीन भक्तिकाल का माहौल मानव धर्मी है | आज के धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदारों के लिए कबीर और जायसी और उनका मानव धर्म एक चुनौती की तरह है | इस मानव धर्म का आधार वह वह मानवीय प्रेम हैं जो मनुष्य को मुट्ठी भर धूल से उठाकर 'वैकुंठी'बनाता है। जिस व्यक्ति के अन्तः में प्रेम रस व्याप्त नहीं है, वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है | तुलसीदास ने प्रेम को ही सबसे बड़ा जीवन मूल्य माना है-सब नर करहिं परस्पर प्रीति, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति | यहाँ उन्होंने ‘स्वधर्म’ के द्वारा धार्मिक स्वतंत्रता का और ‘श्रुति नीति’ के द्वारा धर्म के मूल तत्वों का पक्ष लिया है, जो विकृत एवं संकीर्ण धार्मिक आडम्बरों से भिन्न है |

कबीर, नानक, शंकरदेव, तुलसी, सूर, नरसी मेहताआदि सभी संत कवियों की वाणी जीवन के प्रति आस्था से निकली हुई है, मानवीय सरोकारों से गहरे जुडी हुई है इसलिए वह हृदय की अतल गहराइयों से निकली हुई है। वह “अनभै सांचा” है अर्थात् अनुभव सत्य और अनभय सत्य से युक्त | इस “अनभै सांचा” के आधार पर संत-काव्य परंपरागत मानदण्डों को तिलांजलि देते हुए उन नए मानदण्डों की प्रतिष्ठापना करता है जिसमें व्यक्ति की सामाजिक प्रास्थिति के बजाय उसकी स्वयं की अस्मिता और व्यक्तित्व को सर्वोच्च मूल्य माना गया है। संत-काव्य हमारी संवेदनाओं को मानवीयता से जोड़ता है, मनुष्यता की नयी परिभाषा करता है तथा नया धर्म रचता है। यह नया धर्म ही "लोकधर्म" है और इसी लोकधर्म के प्रति समूचा संत-काव्य समर्पित है।

संत कवियों ने जन-जीवन का सीधा साक्षात्कर किया और जीवन में वैसी ही वाणी से फूट पड़ी | वे आँखिन देखी पर विश्वास करते थे।इसलिए उनके जीवन अनुभवों और कथनों के बीच अद्वैतताहै जो सिर्फ भारतवर्ष ने दुनिया को दिया है। संत कवि अपनी सरलता और सादगी और प्रेमसिक्त ह्रदय के कारण ही संत थे | डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं – "संत-साहित्य भारतीय जनता के प्रेम, घृणा, आशाओं और वेदना का दर्पण है। वह उसके हृदय की सबसे कोमल, सबसे सबल भावनाओं का प्रतिबिम्ब है। उसकी मानवीय सहजता लौकिक जीवन में आस्था और उज्ज्वल भविष्य की कामना का प्रतीक है।"

संत कवियों का मूल्य-बोध सामजिक यथार्थ से उपजा है। जिस परिवेश में संत कवियों ने अपनी पीयूषवर्षिणी वाणी से जन सामान्य को चेतना प्रदान की वह समाज क्षयशील प्रवृतियों से ग्रस्त समाज था | वह अज्ञान, अशिक्षा और अनैतिकता का युग था। जीवन के आदर्शों का पतन होने लगाथा,मानवता की भावना का लोप हो चला था,  मानवीय सद्वृतियाँ– प्रेम, क्षमा, करुणा, शील, सेवा, त्याग एवं अहिंसा जैसे चिरंतन मूल्य लुप्त प्राय होने लगे थे | मानव-धर्म जाति, वर्ग, संप्रदाय आदि में विभक्त हो चला था और जन समुदाय भावनात्मक रूप से विखरता जा रहा था | ऐसे परिवेश में अंधकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अधर्म से धर्म की ओर, पशुता से मानवता की ओर, विनाश से सृजन की ओर, और अंत में असीम से ससीम की ओर ले जाने का श्रेयसंत कवियों को है | इस प्रकार संत काव्य में सांसारिक जीवन के व्यापक क्षेत्र को दृष्टि में रखकर मानवीय मूल्यों का निरूपण किया है |

संत कवियों ने धर्म को उत्तुंग शिखर से उतारकर ठोस ज़मीन पर लोक जीवन से जोड़ दिया और इसके साथ ही धर्म को मनुष्यता से जोड़कर उच्चतर धरातल पर प्रतिष्ठित किया। इस प्रकारजिस नूतन मानव धर्म की प्रतिष्ठा की वह लोकधर्म ही नहीं अपितु विश्वधर्म में परिणत हो गया और निराशा. वासना, प्रतिशोध और प्रतिहिंसा के अन्धकार में भटकते हुए जन-सामान्य का पथ प्रदर्शित करने लगा और भविष्य में भी मार्ग प्रदर्शित करता रहेगा |धर्म तथा भक्ति का स्वर प्रधान होने के साथ ही मनुष्य के भौतिक तथा लौकिक जीवन को स्वीकृति प्रदान करने के कारण संत-काव्य लोक-जीवन का काव्य हो गया है | अर्थात् संत-काव्य की बुनियाद लोक जीवन है। यह मनुष्य की सहजता तथाजन-सामान्य की आशा-आकांक्षा एवं उसकी स्वाभाविक भावनाओं का काव्य है। इसी उनके काव्य में लोक संस्कृति का सौंदर्य है |

विचार और संवेदना दोनों स्तर परसंत कवि सामाजिक अन्याय का दो-टूक प्रतिरोध करते हैं| संत-काव्य ने राजदरबार-मंदिर-मस्जिद के दायरे को तोड़कर जो लोकधारा प्रवाहित की उसका मूल स्त्रोत लोक जीवन ही है। वस्तुतः यह लोक जागरण का साहित्य है क्योंकि इसने शोषित-पीड़ित तथा वंचित जन-समुदाय के बीच आत्म-सम्मान तथा आत्मविश्वास की भावना को जागृत किया। संत कवियों ने जिस सार्वभौम मानव धर्म की हिमायत की उसमें सभी प्रकार की भेद दृष्टि मिथ्या है। मानव-मानव में भेद इस परम अज्ञान का द्योतक है कि सभी एक परम तत्व से उत्पन्न है -
एक जोति से सब उत्पन्ना, को बाभन को शूदा
इसी तत्व दृष्टि से संत कवियों ने जाति-पाँति, छुआ-छूत, ऊँच-नीच के भेद का विरोध किया और मानवता की प्रतिष्ठा के लिए भेद बुद्धि के निराकरण सर्वोच्च प्राथमिकता देते है | संत कवि समाज में व्याप्त बाह्याडम्बर, पाखण्ड, कर्मकांड आदि का पूर्णतः विरोध करते हैं। उन्होंने धार्मिक मठाधीशों के धार्मिक मनमानेपन, बड़बोलेपन, धूर्तता और दंभ की आलोचना की और इस बात पर बल दिया कि विभिन्न धर्म मतों में प्रचलित कर्मकांडों तथा पूजा-पाठ आदि धर्म की मूल्य दृष्टि के पोषक नहीं हैं |

संत-काव्य में जिन सार्वभौमिक मूल्यों को तरजीह दी गई है वह लोकहितवादी विचारधारा को लेकर चलता है| इसलिए यह सम्पूर्ण विश्व मानवता का आधार है | धर्म, साहित्य और राजनीति सबकी एकमात्र कसौटी है लोक हित| तुलसीदास ने स्पष्ट सन्देश दिया है कि
‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी सो नृप अवस नरक अधिकारी’
राजनीति के मानवीय और अमानवीय चरित्र को पहचानने की कसौटी प्रजा का सुख है | यह तथाकथित आधुनिक, लोकतान्त्रिक और कल्याणकारी राज्य का दंभ भरने देशों के लिए महत्वपूर्ण सीख और चुनौती दोनों है |

सामाजिक पहचान के स्थान पर व्यक्ति की गरिमा को महत्व देने के बावजूद समष्टि हित को ध्यान में रखते हुए इन कवियों ने वर्गीय समाज की व्यक्तिवादिता का लगातार विरोध किया। ये कवि अधर्म जन्य विश्रृंखल समाज का विरोध ही नहीं करते वरन्‌ सहज, सरल एवं सत्य धर्म के स्वरूप को निर्दिष्ट करते हुए कहते हैं कि उसका आधार चरित्र, संयम एवं हृदय तथा मन की स्वच्छता है।वे मनुष्य की चेतना का सकुंचन नहीं वरन विस्तार चाहते हैं। यही संत-काव्य की प्रगतिशीलता है। इसके लिए वे नैतिक आदर्शों का भी प्रतिपादन करते हैं। इन्होंने जहाँ काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार आदि की निंदा की है, वहाँ सत्य, दया, प्रेम, परोपकार आदि का महत्व भी बतलाया है। परोपकार को वे संत का पहला लक्षण मानते है |

यही नहीं, कण-कण में एक ही परम तत्व के विद्यमान होने की अप्रतिम आस्था के कारण संत कवियों में सृष्टि के एक-एक तत्व के प्रति अद्भुत आकर्षण और ममता थी| गोरखनाथ ने घोषणा की थी- जोई-जोई पिंडेसोई ब्रह्मांडे अर्थात् जो शरीर में है, वही ब्रह्मांड में है।तुलसीदास ने ‘सियाराममय सब जग जानी, कहकर संसार के सभी पदार्थों में एक ही परम तत्व को व्याप्त माना| इस प्रकार ब्रह्माण्ड में मानव समाज के अतिरिक्त जीव जन्तुओं, वनस्पति जगत और भौतिक पदार्थों का भी एक विशाल संसार है। मनुष्यों का साथ इनका घनिष्ठ संबंध भी होता है। मानव जीव-जन्तु एवं वनस्पतियाँ आध्यात्मिक एकता से परिपूर्ण हैं।जीव-जन्तुओं के प्रति अपने लगाव को कबीर इन शब्दों में व्यक्त करते है– ‘जीव वधत अरू धरम कहते हो, अधरम कहाँ है भाई|’आधुनिक वैज्ञानिक शब्दों में कहा जाय तो संत कवियों में पारिस्थितिकी के प्रति गहरी सचेतनता थी जो वास्तव में मानव-अनुभूति का ही विस्तार है| कबीर, सूर, जायसी, तुलसी दास, नरसी मेहता, मीरा और शंकर देव सभी संत कवियों ने प्रकृति और ब्रह्माण्ड के विस्तृत परिप्रेक्ष्य में ही सार्वभौमिक मानव मूल्यों की सार्थकता को प्रतिष्ठित किया| आज जबकि प्रकृति के असंतुलन एवं वैषम्य के कारण विश्व मानव समुदाय के अपने अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है, ऐसे समय में संतों की प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम वास्तव में विश्व मानवता के प्रति प्रेम को ही प्रतिष्ठापित करता है | यही कारण है कि संत कवि आधुनिकता की चेतना के अधिक निकट लगते हैं|

संत काव्य की सार्वभौमिकता का एक विशिष्ट कारण उसकी विवेकपरक दृष्टि है| यह मानव विवेक ही अंतरात्मा के सहायक तत्वों में सबसे प्रमुख और विश्वसनीय है | संत कवियों के अनुसार इस मानव विवेक के बरक्स ऐसी कोई भी श्रद्धा और आस्था, जो समाज की विषमता को विधि का विधान मानकर स्वीकार कर ले, केवल अमानवीय वृतियों को जन्म देती है, मानवता के अस्तित्व के समक्ष संकट खड़े करती है और मानवीय गौरव को विकलांग बनाती है | लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उनके पास वैज्ञानिक दृष्टि थी | फिर भी उन्होंने अपनी विवेकपरक दृष्टि से मनुष्य की महत्ता को पहचाना और मानव के गरिमामय जीवन का मार्ग प्रशस्त किया |

मध्यकालीन संत काव्य में निहित मानव धर्म और मानवीय मूल्यों की सार्वभौमिकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बीसवीं सदी में साम्राज्यवाद के खिलाफ सबसे बड़ा और अहिंसक संग्राम छेड़ने वाले गाँधी भी अपना मार्गदर्शन इन संत कवियों से ही प्राप्त करते है | नरसी मेहता का‘वैष्णव जन तो तैने कहिए, पीर पराई जाने रे’ वह मूल्य है जो देश और काल की सीमाओं से परे मानव मात्र के कल्याण और उनके बीच एक-सूत्रता की प्रतिष्ठापना करता है | संतों ने जटिल परिस्थितियों के मध्य अपनी स्वतंत्र दृष्टि, मानवतावादी चिन्तन पद्धति और दृढ़ संकल्पना शक्ति के द्वारा समाज में व्याप्त विषमता का न केवल विरोध किया अपितु अपनी वाणियों के माध्यम से समतामूलक समाज के लिए आधारभूमि भी प्रस्तुत की।
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