गजानन माधव मुक्तिबोध
जीवन-विवेक से साहित्य-विवेक तक : मुक्तिबोध
“समीक्षक का प्रथम कर्तव्य यह है कि वह किसी भी कलाकृति के अंतर्तत्वों को-उसके प्राण तत्वों को-भावना-कल्पना को हृदयंगम करे, और एक विशेष दशा की ओर प्रवाहित अंतर्धारा की गति को, और उसकी अंतिम परिणति को सहानुभूतिपूर्वक अच्छी तरह से समझे और तदुपरान्त उसका विश्लेषण करे |”
किसी आलोचक के दायित्व का बोध कराने के साथ ही यह मुक्तिबोध का किसी भी कलाकृति को उसकी समग्रता के साथ समझने-समझाने, उसके स्वरुप का विश्लेषण करने और कलाकार के व्यक्तित्व और उसकी जीवन भूमि तक पहुँचने का महत्त्वपूर्ण सूत्र है | रचना और आलोचना दोनों स्तरों पर किसी भी कृति का समग्रता में कलात्मक मूल्यांकन को महत्त्व देने वाले मुक्तिबोध एक जीनियस लेखक ही नहीं थे, अपने समय के बड़े आलोचक भी हैं, जिन्होंने रचना-प्रक्रिया के अन्तसूत्रों को समझने के लिए तीसरा क्षण नाम से एक नया सिद्धांत और रचनात्मक आलोचना का एक नया स्वरूप प्रस्तुत किया, जो समस्त भारतीय काव्य-शास्त्र और पश्चिमी आलोचना सिद्धान्त के लिए एक चुनौती है | मुक्तिबोध से पहले रचना-प्रक्रिया विश्लेषण को लेकर आलोचना की कोई परम्परा नहीं है। उन्होंने उस समय तक हिन्दी आलोचना की जो परम्परा और मॉडल सुलभ थे, उसका अनुगमन नहीं लिया और अपनी आलोचना के लिए बिल्कुल एक नया मुहावरा गढ़ा। निर्मला जैन ने मुक्तिबोध के प्रखर आलोचना कर्म की पहचान करते हुए टिप्पणी की है कि ““नये प्रगतिशील कवि आलोचकों में वे सबसे प्रखर और गंभीर आलोचक थे | किसी कवि में आलोचना की ऐसी चिंतन शक्ति दुर्लभ ही है |”” उनकी आलोचना दृष्टि समकालीन प्रगतिशील आलोचकों से सर्वथा भिन्न थी | मुक्तिबोध की समीक्षा पद्धति साहित्य बोध के नए स्तर को उदघाटित करती है | तत्कालीन साहित्य के मूल्यांकन में जो गुणात्मक परिवर्तन होता है उसमें मुक्तिबोध की समीक्षा पद्धति की अहम भूमिका है |
मुक्तिबोध के रचनाकाल के दौरान तत्कालीन हिंदी साहित्य ‘व्यक्तिपरकता’ और ‘सामाजिकता’ की दो परस्पर विरोधी आलोचनात्मक ध्रुवों के बीच बंटा हुआ था| एक पक्ष जहाँ साहित्य में व्यक्ति के आन्तरिक सत्य या अनुभूतियों की अवहेलना कर रहा था और सामाजिक संदर्भो को अंतिम सत्य के रूप देखने का हिमायती था | वहीं दूसरी ओर कुछ आलोचक ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ की अभिव्यक्ति के उत्साह में सामाजिक संदर्भो की उपेक्षा कर संवेदना की मूल आधार भूमि से ही दूर हो जा रहे थे | मुक्तिबोध के अनुसार कुछ आलोचकों की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि “वे मुक्ति-संघर्ष, राष्ट्र प्रेम, प्राकृतिक सौन्दर्य, नारी सौन्दर्य, यथार्थ आलोचन भावना, आशा, उत्साह तथा और तत्समान भावों को ही प्रगतिशील समझते है|” जबकि अपने समकालीन प्रगतिशील आलोचना से उनकी शिकायत थी कि वह केवल बह्यपक्ष के चित्रण को महत्त्व देती है| दूसरी ओर ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ को अंतिम मानव सत्य मानने वाले रचनाकार अहंग्रस्त और कुंठाग्रस्त महत्वाकांक्षाओं के शिकार हो जाते है | मुक्तिबोध ने इस परस्पर-विरोधी ध्रुवों में समन्वय स्थापित करने की कोशिश नहीं की बल्कि किसी भी रचना को समग्रता के साथ देखने का प्रस्ताव किया | इसप्रकार उनका दृष्टिकोण समग्रतावादी है| मुक्तिबोध के अनुसार यदि स्वयं की अनुभूतियों या मनोभावों का सन्दर्भ सामाजिक है तो वे जनविरोधी नहीं हो सकती है | जो आलोचक अपने जड़ीभूत और यांत्रिक सिद्धांतों के सांचे में केवल क्रांतिकारी नारों की खोज में लिप्त होते है वे अपनी तमाम जन-पक्षधरता के बावजूद संवेदना की सामाजिक आधार-भूमि से कट जाते है | इसप्रकार मुक्तिबोध एक ओर जड़ मार्क्सवादी और यांत्रिक आलोचना प्रवृति के विरोध में खड़े होते हैं तो दूसरी ओर नयी कविता में ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य’ का नारा उछालने वाली कुंठाग्रस्त और जनविरोधी प्रवृतियों का भी विरोध करते है | वे पसंद-नापसंद के आधार पर प्रतिक्रियावादी और प्रगतिवादी जैसे योजनाबद्ध विभाजन का विरोध करते हुए स्पष्ट करते है कि “कोई भी भावना न अपने-आप में प्रतिक्रियावादी होती है, प्रगतिशील | वह वास्तविक जीवन संबंधों से युक्त होकर ही उचित या अनुचित, संगत या असंगत, सिद्ध हो सकती हैं|.......घृणा यदि उचित के प्रति है तो वह स्वयं घृन्य है, यदि वह अनुचित के प्रति है तो वह प्रशंसनीय है |” अतः कविता के किसी खास किस्म के ढाँचे में ही बंधी होने की मांग करने वाली प्रवृति का मुक्तिबोध विरोध करते है |
मुक्तिबोध ऐसे समीक्षक है जो व्यावहारिक आलोचना से शुरुआत करके साहित्य के सौन्दर्य-शास्त्र की ओर बढ़ते है | इसका कारण यह है कि वे काव्यानुभूति या सौन्दर्यानुभूति को जीवनानुभूति से अलग नहीं मानते है | अपनी आलोचना दृष्टि को स्पष्ट करते हुए वे ‘नये साहित्य का सौन्दर्य-शास्त्र’ में लिखते है कि “साहित्य-विवेक मूलत: जीवन-विवेक है। इसलिए जीवन से दूर अपनी आराम कुर्सी पर बैठा हुआ समीक्षक, बड़ा विद्वान ही क्यों न हो, जीवन का वैज्ञानिक विवेचन नहीं कर सकता, फिर उसकी साहित्यिक अभिव्यक्ति से विश्लेषण की बात ही क्या! बगैर जीवन को जाने, बगैर जिंदगी को पहचाने, जो आलोचक केवल जीवन की गूँजों (साहित्यिक अभिव्यक्ति) का विश्लेषण करता है, उसको किसी-न-किसी हद तक यांत्रिकता का सहारा लेना ही पड़ता है|”” क्योंकि “साहित्य-समीक्षा के मूल बीज वास्तविक जीवन में तजुर्बे के बतौर उपलब्ध होनेवाले ज्ञान-संवेदन तथा संवेदन-ज्ञान में ही है। इस ज्ञान-संवेदन और संवेदन-ज्ञान के परे जानेवाली ‘समीक्षा’ में न ‘ईक्षा’ यानी देखना या दृष्टि है, न सम्यकता |” आचार्य शुक्ल ने भी ‘रसात्मक बोध के विविध स्वरुप’ में काव्यानुभूति या सौन्दर्यानुभूति को जीवनानुभूति का उदात्त रूप माना है |
मुक्तिबोध साहित्य के अध्ययन को अंततः मानव-अस्तित्व के अध्ययन के रूप में स्वीकार करते है और व्यापक मानव समाज की मुक्ति से ही कविता की मुक्ति को संभव मानते है | अपने समग्रतावादी दृष्टिकोण के कारण मुक्तिबोध नयी कविता के सन्दर्भ में ‘सम्पूर्ण मनुष्य’ की प्रतिष्ठा की चिंता करते है-“जब तक हम सम्पूर्ण मनुष्य को लेकर न चलेंगें, तब तक उसके किसी एक अंश को सर्वप्रधान बनाकर हम सम्पूर्ण को खंडित कर देंगे| जब तक हम आज के युग के पीड़ित मनुष्य की सम्पूर्ण सत्ता का चित्रण नहीं करते.............तब तक नयी कविता का कार्य अधूरा है |” यह कार्य सामाजिक सन्दर्भों में आलोचनात्मक मानदंडों को विकसित करके ही किया जा सकता है |
मुक्तिबोध की आलोचना ही नहीं, सम्पूर्ण सर्जनात्मकता की केन्द्रीय संवेदना मानवता के प्रति गहरी प्रतिबद्धता है| इसलिए वे कृतियों की आलोचना के लिए केवल साहित्यिक मूल्यों और मानदंडों पर ही निर्भर नहीं रहते थे बल्कि मानव जीवन के मूल्यों की भी अपेक्षा रखते थे | वे रचनात्मक स्तर पर साहित्य में जनपक्षधरता पर जोर देते है और कविता या रचना को ‘व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के रूप में नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करते है जबकि आलोचनात्मक स्तर पर रचना में मानवीय वास्तविकता के मार्मिक पक्षों के उदघाटन को महत्त्व देते है | आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी लोक जीवन के मार्मिक पक्षों के उदघाटन को किसी भी रचना की उत्कृष्टता का आधार माना है |
हिंदी आलोचना को मुक्तिबोध की सबसे महत्वपूर्ण देन रचना प्रक्रिया का विश्लेषण रहा है | मुक्तिबोध से पहले आलोचना में रचना प्रक्रिया का विश्लेषण उपेक्षित था लेकिन उन्होंने रचना प्रक्रिया के विश्लेषण के द्वारा एक नवीन सैंद्वांतिक पक्ष रखा। वे मानते है कि रचनाकार की रचना प्रक्रिया खोज और ग्रहण पर आधारित एक साहसिक कृत्य है | ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में उन्होने काव्य की रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए सृजन के तीन क्षणों की बात की है। वे लिखते है कि “कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव क्षण। दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने कसकते-दुःखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और एक ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना मानो वह फैंटेसी अपनी आँखों के सामने ही खड़ी हो। तीसरा और अन्तिम क्षण है इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता|” इसलिए कदम-कदम पर सजगता अनिवार्य है अन्यथा रचना-प्रक्रिया के भटकाव से इंकार नहीं किया जा सकता है| इसप्रकार मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि रचना-केंद्रित और विश्लेषणवादी है | इसी क्रम में उन्होंने कलाकार की ईमानदारी का प्रश्न बार-बार उठाया है-‘भले ही काव्य-रचना हाथ में कलम लेकर टेबल पर की जाती रही हो, किन्तु रचना की सच्ची मनो भूमिका काव्य रचना के क्षणों के बाहर निरंतर तैयार होती रहती है|’
मुक्तिबोध के अनुसार रचना-प्रक्रिया रचनाकार के प्रयोजन, दृष्टि, संवेदन और काव्य की अंतर्वस्तु से प्रभावित होती है| रचनाकार की रचना-प्रक्रिया के विश्लेषण के आधार पर ही मुक्तिबोध ने पहली बार ‘कामायनी’ को एक विशाल ‘फैंटेसी’ या ‘स्वप्न कथा’ के रूप में देखने का प्रस्ताव किया है-“जो कलाकार की विधायक कल्पना द्वारा जीवन की पुनर्रचना है|” फैंटेसी के निर्माण के पीछे प्रसाद द्वारा कामायनी के पात्रों को प्रतीकात्मक चरित्र के रूप में देखे जाने की मंशा और संकेत को स्पष्ट करते है-“इस फैंटेसी के रूपाकार में सामंतवाद के ध्वंस से लगाकर नये व्यक्तिवाद के जन्म और पूंजीवाद के रुग्ण बालक के बाधाग्रस्त विकास की अवस्थाओं, चिंताओं, विषमताओं और विभेद तथा पूंजीवाद की सम्पूर्ण ह्रासगत अवस्था तक को प्रतीकात्मक पद्धति से गूँथ दिया है |” अर्थात् फैंटेसी के द्वारा समकालीन जीवन की समस्याओं को ही अभिव्यक्त किया गया है | कामायनी का ‘मनु’ वैदिक मनु नहीं है बल्कि तत्कालीन वर्ग का ही प्रतीक-पुरुष है | मुक्तिबोध कामायनी के मनु को सामंती मूल्यों का मूर्तिमान रूप मानते हैं | इसलिए मुक्तिबोध के अनुसार मनु की समस्या प्रकारांतर से प्रसाद की विचारधारा में निहित सामंती संस्कारों की समस्या है | ‘कामायनी:एक पुनर्विचार’ में कामायनी पर मुक्तिबोध का दृष्टिकोण अपने समकालीन या पूर्ववर्ती आलोचकों से सर्वथा भिन्न है|
रचना प्रक्रिया के विश्लेषण को महत्व देने के कारण मुक्तिबोध की व्यावहारिक आलोचना में एकांगिता का कोई स्थान नहीं है | वे किसी भी रचना के सकारात्मक पक्ष की पहचान करते है जो उनकी आलोचना की विश्वसनीयता का सबसे बड़ा प्रमाण है | मुक्तिबोध अपनी व्यावहारिक आलोचना में रचनाओं या रचनाकारों के पक्ष या विपक्ष में खड़े नहीं होते | जिस आलोचनात्मक विवेक और सदाशयता से वे कामायनी पर विचार करते है वैसे ही ‘उर्वशी’ पर भी विचार करते हैं और उतनी ही सजगता से ‘अँधा युग’ पर भी | लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि आलोचना प्रक्रिया में मुक्तिबोध अपने वैचारिक आग्रहों से मुक्त होते है| जब वे ‘कामायनी’ पर पुनर्विचार करते है तो प्रसाद की फैंटेसी निर्माण की दक्षता, प्रसाद के कल्पना के विस्तार, अभिव्यंजना शक्ति और मिथकों एवं ऐतिहासिक तथ्यों को काव्यरूप में प्रस्तुत करने की प्रसाद की क्षमता से प्रभावित हैं। लेकिन मुक्तिबोध प्रसाद की उस विश्वदृष्टि से सहमत नहीं होते है जो छायावादी कविता के आभिजात्यवादी और दार्शनिक मिजाज का प्रतिनिधित्व करती है और मानते है कि अपने मर्यादावादी दृष्टिकोण के द्वारा प्रसाद जी वर्ग-विभाजित समाज में जो स्थायित्व प्रदान करना चाहते है वह नितान्त प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण है | ‘अँधा युग’ की रचना प्रक्रिया का विश्लेषण भी मुक्तिबोध फैंटेसी के आधार पर करते है और आजादी के बाद की परिस्थितियों में हुए मूल्य विघटन या सभ्यता के संकट को महाभारत की कथा के माध्यम से प्रस्तुत करने का श्रेय धर्मवीर भारती को देते है | लेकिन समाजशास्त्रीय जिज्ञासा के अभाव के कारण धर्मवीर भारती द्वारा मूल्य विघटन या सभ्यता के संकट के कारणों और लक्षणों में घालमेल कर देने के कारण मुक्तिबोध ‘अँधा युग’ को ‘उत्पीड़ित विवेक का विस्फोट’ घोषित करते हैं |
कामायनी की प्रतीकात्मकता में निहित फैंटेसी के माध्यम से प्रसाद जिस यूटोपिया लोक का सृजन करते है, उसका विश्लेषण करते हुए मुक्तिबोध इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि कामायनी बुद्धिवाद के विरुद्ध आस्थावाद और आत्मावाद का रूप धारण कर लेता है जो इस काव्य की त्रासदी है | मुक्तिबोध के अनुसार कामायनी की सफलता या सार्थकता इस बात में निहित है कि प्रसाद जी समाज के मूलभूत संघर्ष की पहचान की है| लेकिन उनका मर्यादावाद उस संघर्ष का वैज्ञानिक समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकता है | यह ‘कामायनी’ के कोरे भावुकतावाद या हृदयवाद की सीमा है | कामायनी में प्रसाद की मर्यादावादी और भावुकतावादी दृष्टि का प्रतिनिधित्व श्रद्धा करती है | लेकिन मुक्तिबोध के शब्दों में “श्रद्धावाद घनघोर व्यक्तिवाद है | ह्रासगत पूंजीवाद का जनता को बरगलाने का एक जबरदस्त साधन है|” यहाँ मुक्तिबोध आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की मान्यता के साथ खड़े होते है | आचार्य शुक्ल ने भी ‘कामायनी’ में श्रद्धा और इड़ा में श्रद्धा को अधिक महत्त्व देने के प्रति निराशा प्रकट की है और इड़ा के प्रति श्रद्धा की उक्ति “सिर चढ़ी रही पाया न ह्रदय” का प्रत्युत्तर देते हुए लिखा है कि श्रद्धा के लिए यह बात भी कही जा सकती है कि “रस पगी रही पाई न बुद्धि”| शुक्लजी की तरह मुक्तिबोध भी इड़ा का समर्थन करते हुए उसके चरित्र को कामायनी का सबसे उज्जवल चरित्र कहा है-“इड़ा का व्यक्तित्व चरित्र बहिर्मुख, सकर्मक, विज्ञानवादी और वैयक्तिक स्वार्थ से नितांत रहित है | इड़ा स्वप्न-द्रष्टा भी है –ऐसी स्वप्न-द्रष्टा जो अपनी विधायक बुद्धि और रचनात्मक कार्य द्वारा उस स्वप्न को वास्तविकता में परिणत कर देती है |” यही नहीं आधुनिक विषमता पूर्ण समाज को प्रत्यक्ष करने में मुक्तिबोध इड़ा के चरित्र से काफी प्रभावित है-“इड़ा वैविध्यमय जीवन के उच्चतर विकास और प्रसार में विचरण करती हुई आधुनिक सभ्यता की विषमताओं पर खेद प्रकट करती है, आत्मालोचन करती है | इड़ा की आत्मालोचना में आत्म-भर्त्सना का विष नहीं है...........मानव समाज की वर्तमान अवस्था पर खेद और उसके भविष्य के संबंध में उसके ह्रदय में चिंता है |” आधुनिक विषमता पूर्ण समाज के सापेक्ष मुक्तिबोध की इस मूल्यपरक दृष्टि के महत्व को समझा जा सकता है|
लेकिन मुक्तिबोध द्वारा मार्क्सवादी धारणा के अनुकूल भौतिकवादी सामाजिक संघर्ष और द्वंदों के बीच कामायनी को फैंटेसी रूप में देखने और प्राप्त निष्कर्ष को दोनों के युग बोध के सन्दर्भ में देखने की जरुरत है| वास्तव में प्रसाद के सृजनात्मक बोध और मुक्तिबोध के आलोचनात्मक बोध के पीछे उन दोनों का अलग-अलग युगबोध है | जहाँ प्रसाद ऐतिहासिक-पौराणिक परम्परा के सापेक्ष एक पराधीन समाज में यूटोपिया लोक का सृजन करते है जबकि मुक्तिबोध स्वतंत्र लेकिन जटिल होती सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों के सापेक्ष सभ्यता समीक्षा करते है | यदि वे कामायनी में श्रद्धा के चरित्र की तुलना में इड़ा के चरित्र को अधिक महनीय देखते है तो इसका मूल कारण भी आजादी के बाद तेजी से ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी के साथ ही आधुनिकता की तेज होती बयार के बीच वह विषमता पूर्ण समाज है जो किसी भी रचनाकार या आलोचक को आलोचना और आत्मालोचना के लिए विवश करता है | मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि मूल्यपरक है | अपने समकालीनों से वे इस अर्थ में भी अलग है कि उनकी दृष्टि के केंद्र में मूल्य महत्वपूर्ण रहा है | नामवर सिंह मुक्तिबोध की इस समीक्षा दृष्टि के संदर्भ में टिप्पणी करते है-“एक नए सृजनशील कवि के नाते मुक्तिबोध काव्य और जीवन दोनों ही क्षेत्रों में छायावाद के प्रतिक्रियावादी मूल्यों के खिलाफ संघर्ष करना अपना कर्तव्य समझते थे, इसलिए उन्होंने विशेष रूप से कामायनी के भीतर घुसकर उन ‘सामाजिक-ऐतिहासिक शक्तियों’ का उदघाटन किया |”
आचार्य शुक्ल की तरह छायावादी कवियों में सुमित्रानंदन पन्त ही मुक्तिबोध के भी प्रिय कवि रहे है | प्रसाद के विपरीत वे पन्त की दृष्टि के कायल है क्योंकि वे दार्शनिकता की कुंठा से मुक्त है | यही नहीं, पन्त का काव्य महादेवी के अमूर्त दुःखवादी दर्शन से भी अलग है | पन्त की प्रशंसा के पीछे भी मुक्तिबोध का वही वैचारिक आग्रह है जिसके आधार पर वे प्रसाद की विश्वदृष्टि को ख़ारिज करते हैं | प्रसाद के विपरीत पन्त के बारे में वे लिखते है कि पन्त का “मार्क्सवाद जनगण के प्रति उनकी सहज सहानुभूति ही का वास्तववादी विस्तार है|” यहाँ मुक्तिबोध एक बार फिर अर्थभूमियों के संकोच को लेकर छायावाद के प्रति आचार्य शुक्ल की नाराजगी से सहमत दिखाई देते है | वे छायावादी काव्य में अतिशय दार्शनिकता और अमूर्तता को लक्षित करते हुए माना कि छायावाद में मानव जीवन के बहुत ही अल्प और अमहत्वपूर्ण विषयों की ओर ध्यान दिया गया है |
मुक्तिबोध के यहाँ ‘ज्ञान’ और ‘संवेदना’ दोनों परस्पर संबंधित अवधारणाएं हैं। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में उन्होंने स्पष्ट किया है कि ज्ञान और संवेदना दोनों का संबंध हमारे चारों ओर व्याप्त वास्तविक जीवन से है| मनुष्य अपने जीवन में विभिन्न परिस्थितियों व क्षणों को झेलता है। इस अर्थ में वह उनका भोक्ता है। अनुभव की इस प्रक्रिया में वह अत्यंत मूल्यवान संवेदनाएँ अर्जित करता है किंतु जब तक ये संवेदनाएं एकांगी हैं इनका कोई महत्व नहीं। परिस्थिति के ज्ञान, जीवन में प्राप्त शिक्षा-दीक्षा, विभिन्न प्रभावों और संस्कारों के संचित ज्ञान के अभाव में ये संवेदनाएँ हमारी दृष्टि को धुंधला कर सकती हैं। मुक्तिबोध मानते हैं कि संवेदना का ज्ञानात्मक होना ज़रूरी है अर्थात् संवेदना का ज्ञान द्वारा संयत और निर्दिष्ट होना आवश्यक है जो एक तरह से आचार्य शुक्ल ज्ञान प्रसार के भीतर ही भाव प्रसार होता है, का ही भावांतरण है | इसी प्रकार, एकांगी ज्ञान भी जब तक कोरा, शुष्क, नीरस, और जीवन के प्रत्यक्ष अनुभवों की संवेदना से वंचित रहेगा तब तक मूल्यवान या उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकेगा। संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना को भीतर संजोने से ही कविता पूर्णता की ओर अग्रसर होती है। उनकी दृढ मान्यता थी कि “जीवन-जगत के संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना में समाई हुई मार्मिक आलोचना दृष्टि के बिना कवि कर्म अधूरा है |” आज सामाजिक स्तर, सर्जनात्मक स्तर या आलोचना के स्तर पर जिस तरह से असंवेदनशीलता बढ़ी है, वह ज्ञान रहित संवेदना और संवेदना रहित ज्ञान का ही प्रतिफल है जिसके बरक्स मुक्तिबोध संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना को स्थापित करते है |
जनता का साहित्य के सवाल पर भी भी मुक्तिबोध विचार करते हैं | ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में जनता के साहित्य को स्पष्ट को करते हुए वे लिखते है कि "साहित्य का संबंध आपकी भूख-प्यास से है, मानसिक और सामाजिक| किसी भी प्रकार का आदर्शात्मक साहित्य जनता से असबंद्ध नहीं है| दरअसल जनता का साहित्य का अर्थ, जनता को तुरंत ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज़ नहीं| ऐसा होता तो क़िस्सा, तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते|" तो फिर जनता का साहित्य का अर्थ क्या है? वे लिखते है कि “इसका अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को, जनता के जीवन आदर्शों को प्रतिस्थापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो. इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनीतिक मुक्ति से लेकर अज्ञान से मुक्ति तक है|"
इसप्रकार मुक्तिबोध ने समकालीन आलोचना और सृजनशीलता में न केवल परम्परा के मूल्यों और मानों को तर्कसंगत ढंग से मूल्यांकन किया बल्कि प्रगतिशील रचनाशीलता और आलोचना को मार्क्सवादी सिद्धांतों के यांत्रिक अंधानुकरण से मुक्त करते हुए और व्यापक जनवादी भूमि पर स्थापित करते हुए स्वस्थ और सृजनात्मक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी | उन्होंने विशुद्ध कलावादी प्रवृति और यांत्रिक व नारावादी मार्क्सवादी प्रवृति को अस्वीकार करते हुए भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक चिन्तन व सृजन के सन्दर्भ में एक नयी आलोचना पद्धति की परिकल्पना की |
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