भक्ति आंदोलन

भक्ति आंदोलन


भक्ति आन्दोलन कोई कोरा धार्मिक आन्दोलन नहीं था| यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन था | सर्वप्रथम यह दक्षिण भारत में उत्पन्न और प्रसारित आंदोलन था। यह शंकराचार्य के ज्ञानमार्गीय अद्वैतवाद की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ था, जिसने भक्ति की संभावना को अवरुद्ध कर दिया था| रामानुज, निम्बार्क, मध्व और वल्लभ आदि आचार्यों ने शंकर के अद्वैतवाद के बरक्स भक्ति की पुनःस्थापना की| इसमें पहले से चली आ रही आलवार और नयनवार संतों की परम्परा ने अहम भूमिका निभायी, जिन्होंने हिंदू समाज की जातिगत संकीर्णता से विद्रोह करते हुए भक्ति का मार्ग अपनाया| दूसरा उल्लेखनीय तथ्य यह कि जिस रामानंद के माध्यम से भक्ति का आगमन दक्षिण से उत्तर की ओर हुआ, उनके विचारों की भी इस भक्ति आन्दोलन के स्वरूप निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका रही है| रामानंद जन्म-आधारित भेद-भाव और अस्पृश्यता के खिलाफ थे। सभी वर्णों और जातियों के एक साथ उठने-बैठने, खाने-पीने के पक्ष में थे वे। पूरे भक्ति आन्दोलन और भक्ति साहित्य में व्यक्त चेतना पर गौर करें तो किसी भी प्रकार के भेद-भाव का विरोध और सभी वर्णों और जातियों के बीच समानता की भावना सर्वप्रथम है| इस भावना को व्यापक महत्व देते हुए सभी भक्त कवियों ने भगवान या परम सत्ता के समक्ष सभी प्राणी समुदाय को समान घोषित किया और मानव-मात्र को एक ही ज्योति से उत्पन्न माना| अपनी सीमा के कारण वे भले ही व्यावहारिक स्तर पर भेद-भाव का विरोध और समानता की भावना को स्थापित करने में सफल नहीं हो पायें हो लेकिन अध्यात्म और साहित्य के स्तर पर दृढ़ता से ‘हरि को भजै सो हरि का होई’ की भावना को प्रसारित किया |

भक्ति आन्दोलन के स्वरूप के संबंध में के. दामोदरन का मानना है कि भक्ति के मूल में वैष्णवों के सिद्धांत होने के बावजूद यह मूलतः सामाजिक-सांस्कृतिक आदर्शों की अभिव्यक्ति थी| दामोदरन के अनुसार “सांस्कृतिक क्षेत्र में उन्होंने राष्ट्रीय नवजागरण का रूप धारण किया| सामाजिक विषय-वस्तु में वे जातिप्रथा के अधिपत्य और अन्यायों के विरुद्ध अत्यंत महत्वपूर्ण विद्रोह के द्योतक थे| इस आन्दोलन ने भारत में विभिन्न राष्ट्रीय इकाइयों के उदय को नया बल प्रदान किया| साथ ही राष्ट्रीय भाषाओँ और उनके साहित्य को अभिवृद्धि का मार्ग भी प्रशस्त किया| व्यापारी और दस्तकार सामन्ती शोषण का मुकाबला करने के लिए इस आन्दोलन से प्रेरणा प्राप्त करते थे| यह सिद्धांत कि ईश्वर के सामने सभी मनुष्य, फिर वे ऊँची जाति के हों या नीची जाति के, समान हैं, इस आन्दोलन का केंद्रबिंदु बन गया, जिसने पुरोहित वर्ग और जाति के आतंक के विरुद्ध संघर्ष करने वाले आम जनता के व्यापक हिस्सों को अपने चारो ओर एकजुट किया|” इस प्रकार इस आन्दोलन ने सामंती उत्पीड़न के विरुद्ध संयुक्त संघर्ष चलाने का मार्ग प्रशस्त किया और|

भक्ति आन्दोलन फैलाव राष्ट्रव्यापी था| इसने देश के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम सभी ओर स्पंदित किया | दक्षिण में रामानुज ने ब्राह्मण-अब्राह्मण सभी को अपनी शिष्य परंपरा में शामिल किया और दक्षिण में व्याप्त जातिगत कट्टरता और अस्पृश्यता जैसी विकृतियों पर प्रहार किया| उत्तर में रामानंद ने क्रांतिकारी सामाजिक विचारों का प्रसार किया| तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम आदि संतों ने इस आन्दोलन के माध्यम से महाराष्ट्र में जातीय और सांप्रदायिक एकता को मजबूत किया | इसकी तरह बंगाल में चंडीदास से लेकर चैतन्य तक सभी भक्तों ने मनुष्य मात्र की समानता जोर देते हुए भक्ति आन्दोलन को सशक्त बनाया | सबसे महत्वपूर्ण यह कि चाहे उत्तर हो, दक्षिण हो या पूर्व और पश्चिम हो, भक्ति आन्दोलन का मुख्य नेतृत्व नीची कही जाने वाली जातियों के हाथ में ही रहा | इन संतों ने आम जनता को वर्ग, धर्म, जाति और संप्रदाय की संकीर्णता से मुक्त करते हुए उनके बीच समरसता का प्रसार किया और सामंतवाद की जड़ों पर कड़ा प्रहार किया | भक्ति-आंदोलन ने शोषित-पीड़ित, उपेक्षित और अपमानित जनता को जगाया और सामाजिक समानता की आवाज मुखरित की। जन्मजात समानता है, तो जीवन में भी समानता हो। इस महान उद्देश्य को साधने के लिए जनता को जगाना भी भारतीय इतिहास में महात्मा बुद्ध के बाद ही हुआ।
भक्ति आन्दोलन की कतिपय मूलभूत प्रवृतियां थी| अलग-अलग धार्मिक विचारों के बावजूद ईश्वर के समक्ष सबकी समानता का प्रतिपादन, प्रत्येक व्यक्ति की अस्मिता और उसके सदगुणों को महत्त्व, जाति-प्रथा का विरोध, बाह्याचारों, कर्मकांडों और अंधविश्वासों की भर्त्सना, मनुष्य सत्य को सर्वोपरि मानना, आराधना के स्तर पर भक्ति को सर्वोच्च महत्त्व, जातिगत, वर्गगत और धर्मगत भेदभाव एवं उत्पीड़न का दृढ विरोध आदि भक्ति आन्दोलन के सभी पुरस्कर्ताओं के मूल प्रस्थान बिंदु हैं | भक्ति आंदोलन का नारा था -

जात-पांत पूछे नहिं कोई
हरि को भजै सो हरि का होई।।

जाहिर है कि हिंदू समाज की जाति प्रथा के खिलाफ विद्रोह का स्वर था भक्ति-आंदोलन। इस नारे और विद्रोह ने मुख्यतः सामंती वर्चस्व को चुनौती दी। सबसे महत्वपूर्ण यह कि भक्ति आंदोलन के संतों और भक्तों में नामदेव दर्जी, नानक बनिया, कबीर जुलाहा, रैदास चमार, दादू दयाल धुनिया, सेना नाई, साधना कसाई थे। इनमें नानक को छोड़कर सभी समाज में प्रायः निचले पायदान पर थे|  उन्हें मंदिर में प्रवेश करके ईश्वर से अपना दुखड़ा सुनाने का, प्रार्थना करने का भी अधिकार नहीं था।

भक्ति के प्रसार और उसके आन्दोलन  बन जाने में तत्कालीन जनभाषा की अहम भूमिका रही है | समाज में प्रायः निचले पायदान के संतों और भक्तों के द्वारा शिष्ट या संस्कृत भाषा का अपनाया जाना संभव नहीं था| एक तो तत्कालीन शिष्ट भाषा समाज के तथाकथित उच्च वर्ग की भाषा थी, दूसरे जन-जागरण के लिए जन-भाषा या लोक भाषा की जरूरत थी। भक्त कवियों ने लोक-भाषा को काव्य-भाषा बना दिया। इससे जन-चेतना के विकास की प्रक्रिया भी आगे बढ़ी। अंधविश्वासों और रूढ़ियों पर धार्मिक आडंबर पर जमकर चोट की गई।

भक्ति आंदोलन के कवि राज्याश्रित नहीं थे, बल्कि उसके खिलाफ थे। तुलसी ने तो कहा ही कि हम नर के मनसबदार नहीं बन सकते| कुंभन दास ने भी कहा-'संतन को कहाँ सीकरी सो काम' और कबीर ने कहा -'प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय| राजा-परजा जेहि रुचै सीस देई लै जाय॥'
कुलमिलाकर भक्ति-आंदोलन और भक्ति-काव्य हमारी विरासत है। हम उस महान जागरण और सृजन के वारिस हैं। भक्ति-आंदोलन ने जनता के हृदय में श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, जिजीविषा जागृत की, साहस, उल्लास, प्रेम भाव प्रदान किया, अपनी मातृभूमि, इसकी संस्कृति का विराट एवं उत्साहवर्धक चित्र प्रस्तुत किया और प्रकारंतर से लोगों के हृदय में देशप्रेम को भी जागृत किया।

उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि भक्ति आन्दोलन का स्वरुप अखिल भारतीय और बहुआयामी था| भक्तिकालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परिस्थितियों ने भक्ति आन्दोलन के उदय और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी | आचार्य शुक्ल भक्ति आन्दोलन के उदय में तत्कालीन परिस्थितियों को अहम मानते है तो आचार्य द्विवेदी परिस्थितियों को नहीं नकारते हुए भी परंपरा पर जोर देते है| इस आन्दोलन में अवर्ण से लेकर सवर्ण, महिला से लेकर पुरुष, शिक्षित से लेकर अशिक्षित और हिन्दू से लेकर मुसलमान तक सभी शामिल थे | कुलमिलाकर यह आन्दोलन अपने स्वभाव में जनतान्त्रिक था | भक्ति साहित्य इसी आन्दोलन की देन है |
Post Navi

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ