प्रेमचंद और उनकी लोकवादिता
हिंदी भाषी समाज में कबीर और तुलसी के बाद सबसे अधिक लोक स्वीकृति प्रेमचंद को ही प्राप्त है। वे सच्चे अर्थों में ‘लोकवादी’ रचनाकार हैं | लोकवादिता उनकी रचनाओं का अभिन्न अंग है | अपने कथा साहित्य में प्रेमचंद ने भारतीय समाज के यथार्थवादी चित्रण के लिए जिस कला को विकसित किया वह लोक जीवन के प्रति सूक्ष्म और व्यापक अनुभूति का परिणाम है | भारतीय जन जीवन के जितने रूपों, वर्गों और मनुष्य के जितने पक्षों का उन्होंने वस्तुपरक चित्रण किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है | प्रेमचंद के कथा साहित्य का ऐतिहासिक संदर्भ है | इसलिए उनकी रचनाओं में जो लीक जीवन या मनुष्य विद्यमान है वह अपनी पूरी ऐतिहासिकता के साथ मौजूद है |
प्रेमचंद जिस ऐतिहासिक परिवेश में रचना कर रहे थे, वह विभिन्न जातियों, धर्मों, भाषाओँ और क्षेत्रीयता के आधार पर बंटा ही नहीं था बल्कि अज्ञान, अशिक्षा, अंधविश्वास और रुढियों के बीच जकडा भी हुआ था | इसके ऊपर शोषण चक्र की अनंत श्रृंखला थी जो औपनिवेशिक ब्रिटिश सत्ता के साथ देशी सामंतवाद और पूंजीवाद के तिहरे गठजोड़ का परिणाम थी| औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध एक व्यापक स्वाधीनता आंदोलन को जन्म देने के लिए एक व्यापक तैयारी के बतौर न केवल समस्त धार्मिक और सामाजिक रुढियों से मुक्त होने की आवश्यकता थी, बल्कि समस्त भारतीयों को आपस में संगठित करने की आवश्यकता थी| इसी आवश्यकता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में प्रेमचंद का कथा साहित्य अपना रूपाकार ग्रहण करता है | उनके निश्चित सामाजिक और राजनीतिक उद्देश्य थे-“साहित्य केवल विलासिता की वस्तु नहीं है | हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है”(साहित्य का उद्देश्य- ले. प्रेमचंद पृष्ठ सं. १६ )| यह उदघोषणा उनके सामाजिक दृष्टि बोध और आधुनिक भाव बोध का प्रमाण है | उनके उपन्यासों-प्रेमाश्रम, कर्मभूमि, निर्मला, गोदान आदि और कहानियों में तत्कालीन यथार्थ बोध-वर्ग वैषम्य, किसानों और मजदूरों का शोषण, सामाजिक असमानता, वेश्या जीवन, अनमेल विवाह, पूंजीवादी संस्कृति की अभिव्यक्ति ही नहीं हुई बल्कि जनता की साम्राज्य विरोधी भावना भी अभिव्यक्त हुई| इसलिए प्रेमचंद के कथा साहित्य का मूल स्वर सामंतवाद विरोधी, पूंजीवाद विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी है | यही नहीं वे साहित्य में रीतिवादी और व्यक्तिवादी-कलावादी मूल्यों के भी विरोधी है | राम स्वरुप चतुर्वेदी का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि “ साहित्यिक क्षेत्र में प्रेमचंद ने वही काम किया जो राजनीतिक क्षेत्र में गाँधी ने किया |” (हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास-ले. राम स्वरुप चतुर्वेदी, पृष्ठ सं. १४० ) महात्मा गाँधी यह अच्छी तरह से समझते थे कि औपनिवेशिक सत्ता को व्यापक जन समाज, खासतौर से किसानों और मजदूरों, की भागीदारी के बिना उखाड़ फेंका नहीं जा सकता है | गाँधी ने लक्षित किया कि किसानों और मजदूरों की समस्याओं, उनकी जरूरतों और आकांक्षाओं को राष्ट्रीय स्तर पर उठाकर ही उन्हें जनांदोलन के लिए प्रेरित किया जा सकता है और इसप्रकार उन्हें स्वाधीनता आंदोलन की मुख्य धारा में शामिल किया जा सकता है | गाँधी द्वारा चम्पारण, अहमदाबाद और खेडा का सत्याग्रह किसानों और मजदूरों की इसी भागीदारी को सुनिश्चित करता है | गाँधी की तरह प्रेमचंद भी जानते थे कि किसान आंदोलन ही स्वाधीनता आन्दोलन का रीढ़ साबित हो सकता है | स्वाधीनता आन्दोलन की इसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए प्रेमचंद रचनात्मक स्तर पर किसान जीवन को केन्द्र में रखकर अपनी भूमिका निभा रहे थे | प्रेमचंद को किसानों से गहरा लगाव था | उन्हें यह एहसास था कि इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि है और किसान ही इसे मजबूती प्रदान कर सकते हैं जबकि किसानों की हालत अत्यंत दयनीय है | वे महाजनों, सूदखोरों, सामंतों और पंडे-पुरोहितों के चौतरफा शोषण के शिकार है | वे किसानों की त्रासद समस्याओं और शोषण की अनंत श्रृंखला की वास्तविकता की पहचान करते है और सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और नैतिक पाखंडों का पर्दाफाश करते है| किसानों और मजदूरों के प्रति इस अनन्य लगाव को देखकर ही राम विलास शर्मा लिखते है कि “ प्रेमचंद की कला इस बात में है कि वे हिंदुस्तान के बदले हुए किसान का चित्र खींच सके हैं|” लोक जीवन के प्रति प्रेमचंद की अनन्य पक्षधरता से साहित्य जगत के एक बड़े और विवादित सवाल का उत्तर मिल जाता है कि कला, कला के लिए होनी चाहिए या जनता के लिए ? प्रेमचंद का सम्पूर्ण कथा साहित्य इसका प्रमाण है |
प्रेमचंद लोक जीवन की अनुभूति के लिए प्रगतिवादी नारेबाजी या क्रांतिकारी लफ्फाजी को भी अनावश्यक ठहराते हैं| वे जब भी तत्कालीन औपनिवेशिक, सामन्तवादी और पूंजीवादी तंत्र की आलोचना करते है तो एक बुद्धिजीवी या स्कॉलर की तरह या नहीं बल्कि किसानों और मजदूरों सहित पूरी शोषित जनता की दृष्टि से आलोचना करते हैं| वे स्वाधीनता आंदोलन को शोषित-उत्पीड़ित किसानों और मजदूरों की व्यापक सामाजिक और आर्थिक मुक्ति के साथ जोड़कर देखते थे, जिनकी मुक्ति के बिना स्वाधीनता बेमानी हो जाती है | ‘गबन’ का देवीदीन खटिक के माध्यम से प्रेमचंद ने तथाकथित बड़े बड़े देश भक्तों की कथनी और करनी तथा देशी पूंजीपतियों एवं कांग्रेस के उच्च शिक्षित मध्य वर्ग की मिलीभगत की आलोचना की है | देवीदीन खटिक कटाक्ष करता है-“उनके घर जाकर देखो-एक भी देसी चीज नहीं मिलेगी......अरे तुम क्या देश का उद्धार करोगे | पहले अपना उद्धार कर लो |” इसप्रकार सामंतवादी-पूंजीवादी और साम्राज्यवादी ताकतों के गठजोड़ की भर्त्सना करते हुए कांग्रेस के वर्ग चरित्र के प्रति लोगों को सावधान करते हैं | यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि आज के राजनीतिक नेतृत्व वर्ग में और सामाजिक जीवन में जिस तरह से कथनी और करनी का अंतर सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता जा रहा है, उससे समग्र मुक्ति को लेकर प्रेमचंद की आशंका और गहरी होती गयी है | आजादी के बाद स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व के आदर्शों की घोषणा के बावजूद जीवन में चरितार्थ करने के लिए आवश्यक साधनों को जिस तरह से अवरुद्ध करने का प्रयास किया गया, वह तत्कालीन कांग्रेस में घुस आये देसी पूंजीपति वर्ग के कारनामों का ही परिणाम है, जिसकी पहचान प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में आजादी से काफ़ी पहले किया था | ‘जागरण’ के 16 अप्रैल, 1934 के ‘ठेलमठेला’ शीर्षक संपादकीय में प्रेमचंद ने सत्याग्रह सिद्धांत को गलत रूप में जनता तक पहुंचाने को लेकर गांधीजी द्वारा कांग्रेस के नेताओं पर इल्जाम को व्यर्थ मानते हुए कांग्रेस के वर्ग चरित्र को ही इसके लिए जिम्मेदार ठहराया- महात्माजी को खुद आज से तेरह साल पहले सोच लेना चाहिए था, कि जिन लोगों के हाथ में हम यह अमोघ अस्त्र दे रहे हैं, वे इसे चला भी सकते हैं या नहीं।... क्या महात्माजी ने उस वक्त यह समझा था कि ये सभी देवता हैं? अगर वह मानव स्वभाव से इतने बेखबर हैं, तो उनका कसूर है जो एक राष्ट्र के नेता में बहुत बड़ा कसूर है।...भविष्य में राजनीति को राष्ट्रहित की दृष्टि से देखना होगा।’’ प्रेमचंद का यह राष्ट्रहित लोकहित की चिंताओं से संवलित है |
प्रेमचंद के पूर्ववर्ती रचनाकारों ने उपन्यास लेखन को धर्म और नैतिक उपदेश के साथ ही मनोरंजन का माध्यम बनाया | लेकिन यह उनकी सीमा नहीं, धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों की पृष्ठभूमि में समय की माँग थी | इसके साथ ही हिंदी भाषा और साहित्य की ओर जनसमाज, खासतौर से शिक्षित समुदाय, को आकर्षित करने के लिए मनोरंजन का माध्यम बनाना भी जरुरी था | लेकिन प्रेमचंद ने उपन्यास की पठनीयता को बरकरार रखते हुए उसे न केवल उन्नत कला रूप में प्रतिष्ठापित किया बल्कि उपन्यास को सामाजिक और राष्ट्रीय सवालों से जोड़कर उसे मुक्तिकामी चेतना का माध्यम भी बना दिया | उन्होंने हिंदी उपन्यास को पौराणिक कथाओं, तिलिस्मी, जासूसी और काल्पनिक गल्प कथाओं की दुनिया से निकालकर लोक जीवन के धरातल पर ला खड़ा किया और उनके जीवन संघर्ष के महाकाव्य के रूप में स्थापित किया | प्रो. मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में, इसप्रकार “प्रेमचंद के हाथों हिंदी उपन्यास की ‘कर्मभूमि’ ही नहीं बदली, उसका ‘कायाकल्प’ भी हुआ |”
यूरोप में उपन्यास को मध्य वर्ग का महाकाव्य माना जाता रहा है, लेकिन प्रेमचंद ने किसानों, दलितों, स्त्रियों, मजदूरों और दूसरे शोषित जन समुदायों के जीवन संघर्षों का समग्रता से चित्रण कर उपन्यास के महाकाव्यात्मक सौंदर्य को ही बदल दिया | भारत में उपन्यास मध्य वर्ग के जीवनानुभवों का महाकाव्य नहीं रहा | इनके उपन्यासों में भारतीय समाज की संरचनाओं, संस्थाओं और जीवन मूल्यों के संदर्भ में भारतीय मनुष्य के अपराजेय जीवन संघर्ष को देखा जा सकता है | वे उपन्यास को ‘मानव चरित्र के अध्ययन’ से जोड़ने के लक्ष्य के प्रति हमेशा सजग रहे | इसीलिए उनके पात्र मानसिक तनावों और अंतर्द्वंद के बावजूद सहज और स्वाभाविक ही लगते बल्कि हमारे बहुत ही निकट लगते हैं |
प्रेमचंद का जीवन और साहित्य इस बात का प्रमाण है कि लोकजीवन में रचने-बसने वाले और इस देश की मिट्टी की सुगंध की पहचान करने वाले महान रचनाकार थे | इसके अतिरिक्त उनकी कोई विशिष्टता नहीं थी| वे आम जनों की तरह ही थे, पूरी तरह से सहज, जीवन संघर्षों से जूझते हुए | प्रेमचंद के बेटे अमृत राय ने लिखा है कि ‘अपने साथ वो ऐसा एक भी चिन्ह नहीं रखना चाहते थे, जिससे पता चले कि वो दूसरे साधारण जनों से जरा भी अलग है। कोई त्रिपुण्ड-तिलक से अपनी विशेषता की घोषणा करता है, कोई रेशम के कुर्ते और उत्तरीय के बीच से झांकने वाले अपने ऐश्वर्य से, कोई अपनी साज-सज्जा के अनोखेपन से, कोई अपने किसी खास अदा या ढंग से|’ लेकिन उनमें गहरी जीवन दृष्टि थी | इसलिए समाज और राजनीति की उन्हें गहरी समझ थी | लोक जीवन के प्रति गहरी संवेदना के कारण ही वे सूदखोरों, महाजनों, जमींदारों और पंडे पुरोहितों से सीधी टक्कर लेते हैं |
प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने प्रेमचंद की तुलना पश्चिम के महान उपन्यासकारों से करते हुए लिखा है कि “प्रेमचंद के कथा साहित्य की दुनिया पश्चिम के आलोचनात्मक यथार्थवाद के रचनाकारों की दुनिया से भिन्न किस्म की है | यूरोप के उपन्यासकारों की दुनिया के केन्द्र में या तो पतनशील सामंत वर्ग है या उत्थानशील बुर्जुआ वर्ग या दोनों और इन दोनों का संघर्ष है |” जबकि प्रेमचंद के कथा साहित्य में ‘ किसानों का जीवन संघर्ष ही केंद्रीय विषय है | जीवन में किसान जिस शोषण के शिकार थे, उस शोषण के पेचीदे तंत्र, उसकी जटिल प्रक्रिया और उसकी भयानक परिणति का चित्रण प्रेमचंद ने किया है|” इसका मतलब यह नहीं है कि उनके कथा साहित्य में मध्य वर्ग हाशिए पर है | समाज का प्रत्येक वर्ग या समुदाय अपनी पूरी वास्तविकता के साथ विद्यमान है | अमृत राय लिखते है कि “वे अपनी जनता को अच्छी तरह से जानते थे, वे उसे बहुत प्यार करते थे और उन्होंने अपनी कलम का इस्तेमाल जनता के हित में लड़ने वाली चमकदार तलवार के रूप में किया | सभी मामलों में, चाहे वे राजनीतिक हों, चाहे आर्थिक, चाहे सामाजिक, किसी बात के अच्छे-बुरे की उनकी एक और अकेली कसौटी यह थी की उससे जनता को फ़ायदा पहुँचता है या चोट लगती है |” व्यापक जनसमाज के प्रति उनकी यही पक्षधरता उन्हें लोकवादी कथाकार बनाती है |
‘सेवासदन’ में प्रेमचंद वेश्यावृति की सामाजिक समस्या को अशिक्षा, दहेज और स्त्री की व्यापक पराधीनता जैसी समस्याओं से जोड़कर देखते हैं वहाँ वे ‘पराधीन सपनेहू सुख नाहीं’ कहने वाले महाकवि तुलसीदास के साथ खड़े होकर इस मानवता विरोधी प्रवृति पर कठोर प्रहार करते है | इसके साथ ही स्त्री की शिक्षा, बाल विवाह का विरोध और विधवाओं के पुनर्विवाह की समस्या उनके मुख्य एजेंडे पर थे| ‘प्रेमाश्रम’ में प्रेमचंद औपनिवेशिक और सामंती व्यवस्था के अंतर्गत ग्रामीण जीवन की त्रासदी का अंकन के साथ ही किसानों के जीवन में आती हुई संघर्ष चेतना का यथार्थवादी चित्रण करते हैं| सरकारी दमन और क्रूरता के बावजूद गांधीजी का ‘चम्पारण’ और ‘खेडा’ सत्याग्रह जिस तरह से सफल होता है, उसी प्रकार ‘प्रेमाश्रम’ में प्रेमशंकर के नेतृत्व में चलने वाला लखनपुर गांव का किसान सत्याग्रह भी सफल होता है | ‘रंगभूमि’ में नवविकसित पूंजीवाद और भारतीय परंपरा के द्वन्द के संदर्भ में अंग्रेज रेजिडेंट के माध्यम से देसी रियासतों में प्रजा पर किए जाने वाले अत्याचारों का मार्मिक अंकन किया है | ‘कर्मभूमि’ अछूतों के प्रति अत्याचार और शोषण का चित्र है | ‘निर्मला’ अनमेल विवाह से उपजी समस्याओं के बीच घुटते और परिवार की त्रासदी है | ‘कायाकल्प’ में जागीरदारों के वैभव विलास और इसके लिए किसानों के शोषण का चित्रण है | अंत में ‘गोदान’ शोषण के दुष्चक्र के बीच किसान के मजदूर होते जाने की दारुण दशा की महागाथा है | लोक जीवन के इतने विविध स्तरों की चिंता और उनका व्यापक ज्ञान संसार उनकी प्रखर सामाजिक चेतना का ही परिणाम है | वे लोक जीवन में व्याप्त धार्मिक पाखंडों, नारी जाति की सामाजिक-आर्थिक पराधीनता, सड़ी-गली पारंपरिक मान्यताओं, रीतिरिवाजों, अंधविश्वासों और दलितों के सामाजिक-आर्थिक शोषण को बिना किसी लागलपेट के निर्मम तरीके से उभारते है| लोक जीवन के प्रति उनकी चिंता धर्म, वर्ण, संप्रदाय और जाति से परे है | उनका विरोध मानवीय क्षुद्रता, अमीरी-गरीबी के बढ़ते फर्क, दलाली, परजीवीपन, बेईमानी और फरेब से है | इसके विपरीत प्रेमचंद अपनी रचनाओं के माध्यम से जिन मानवीय गुणों की स्थापना करते है, वो हमारी आत्मा को रचती हैं। अमानवीय समय में हमें मानवीय बनाती हैं और आज भी हमारे समाज का मनोबल बढ़ा रही हैं। वे जाति, धर्म, स्त्री-पुरुष के नाम पर होने वाले विभेद की दृढ़तापूर्वक आलोचना करते हैं। वे जनसाधारण की ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, शूरता, त्याग, बलिदान, न्याय-निष्ठा और धैर्य के सदगुणों का चित्रण करते हिंदी साहित्य को लोक जीवन के बीच से ऐसे हीरो दिए जो आज भी हमारे मन-मष्तिष्क को संवेदित करते है | वे ‘ईदगाह’ के हामिद की संवेदना, प्रेमाश्रम के कादिर मियां की मानवीय छवि और पंच-परमेश्वर के जुम्मन शेख की न्याय दृष्टि को जिस तरह से उभारते है उसका आधार केवल मानवता के प्रति आदमी विश्वास है | उनके विचारों या मान्यताओं से हम मतभेद रख सकते है, उनमें अंतर्विरोध हो सकता है परन्तु लोक जीवन की अनुभूति के प्रति ईमानदारी और सचाई निर्विवाद है | रामविलास शर्मा प्रेमचंद में निहित कलाकार की सचाई को लक्षित करते हुए लिखा है कि “उन्होंने परिस्थितियों को घटा-बढ़ाकर चित्रित नहीं किया, अपने युग की निर्धनता, दासता और पीडितों की आर्त वेदना को जैसा उन्होंने अनुभव किया, वैसा दूसरों ने नहीं |”
लोक जीवन के प्रति गहरी पक्षधरता से प्रेमचंद ने साबित किया है कि लोक और समाज से अलग रहकर महान साहित्य की रचना नहीं की जा सकती है और महान रचनाएं किसी वैचारिक संगठन या किसी वाद के प्रति पक्षधरता का मोहताज नहीं होती | स्वयं प्रेमचंद के विचारों में बदलाव होता रहा है परन्तु लोक और समाज की गहरी अनुभूति उनके कलाकार को श्रेष्ठतम स्वरुप प्रदान करती है |
0 टिप्पणियाँ