भक्ति दुलेही गुरून की, नहिं कायर का काम ।
सद्गुरु की भक्ति करना अत्यन्त ही कठिन कार्य है । यह कायरों के वश की बात नहीं है । यह एसे पुरुषार्थ का कार्य है कि जब अपने हाथ से अपना सिर काटकर गुरु के चरणों में समर्पित करोगे तभी मोक्ष को प्राप्त होओगे ।
भक्ति पदारथ तब मिले , जब गुरु होय सहाय ।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ।।
कबीर जी कहते है कि भक्ति रूपी अनमोल तत्व की प्राप्ति तभी होती है जब जब गुरु सहायक होते है, गुरु की कृपा के बिना भक्ति रूपी अमृत रस को प्राप्त कर पाना पूर्णतया असम्भव है ।
भक्ति बीज पलटे नहीं, जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच नीच बर अवतरै , होय सन्त का सन्त ।।
भक्ति का बोया बीज कभी व्यर्थ नहीं जाता चाहे अनन्त युग व्यतीत हो जाये । यह किसी भी कुल अथवा जाति में ही , परन्तु इसमें होने वाला भक्त सन्त ही रहता है । वः छोटा बड़ा या ऊँचा नीचा नहीं होता अर्थात भक्त की कोई जात नहीं होती ।
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।
मन मनसा मा जै नहीं , होन चहत है दास ।।
गुरु की भक्ति करने का मन में बहुत उत्साह है किन्तु ह्रदय को तूने शुद्ध नहीं किया । मन में मोह , लोभ, विषय वासना रूपी गन्दगी भरी पड़ी है उसे साफ़ और स्वच्छ करने का प्रयास ही नहीं किया और भक्ति रूपी दास होना चाहता है अर्थात सर्वप्रथम मन में छुपी बुराइयों को निकालकर मन को पूर्णरूप से शुद्ध करो तभी भक्ति कर पाना सम्भव है ।
तिमिर गया रवि देखते, कुमति गयी गुरु ज्ञान ।
सुमति गयी अति लोभते, भक्ति गयी अभिमान ।।
जिस प्रकार सूर्य उदय होते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार सद्गुरु के ज्ञान रूपी उपदेश से कुबुद्धि नष्ट हो जाती है । अधिक लोभ करने से बुद्धि नष्ट हो जाती है । और अभिमान करने से भक्ति का नाश हो जाता है अतः लोभ आदि से बचकर रहना ही श्रेयस्कर है ।
भाव बिना नहिं भक्ति जग , भक्ति बिना नहिं भाव ।
भक्ति भाव इक रूप है , दोऊ एक सुझाव ।।
भक्ति और भाव का निरूपण करते हुए सन्त शिरोमणि कबीर साहेब जी कहते है कि संसार में भाव के बिना भक्ति नहीं और निष्काम भक्ति के बिना प्रेम नहीं होता है भक्ति और भाव एक दुसरे के पूरक है अर्थात इनके बीच कोई भेद नहीं है । भक्ति एवम भाव के गुण, लक्षण , स्वभाव आदि एक जैसे है ।
भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कराने , यह तन रहो कि जाव ।।
भक्तो की यह रीति है वे अपने मन एवम इन्द्रिय को पूर्णतया अपने वश में करके सच्चे मन से गुरु की सेवा करते है । लोगो के उपकार हेतु ऐसे सज्जन प्राणी अपने शारीर की परवाह नहीं करते । शारीर रहे अथवा मिट जाये परन्तु अपने सज्जनता रूपी कर्तव्य से विमुख नहीं होते ।
भक्ति पंथ बहु कठिन है , रत्ती न चालै खोट ।
निराधार का खेल है, अधर धार की चोट ।।
भक्ति साधना करना बहुत ही कठिन है । इस मार्ग पर चलने वाले को सदैव सावधान रहना चाहिए क्योंकि यह ऐसा निराधार खेल है कि जरा सा चुकने पर रसातल में गिरकर महान दुःख झेलने होते है अतः भक्ति साधना करने वाले झूठ, अभिमान , लापरवाही आदि से सदैव दूर रहें ।
कामी क्रोधी लालची , इनते भक्ति ना होय ।
भक्ति करै कोई सूरमा , जादि बरन कुल खोय ।।
विषय वासना में लिप्त रहने वाले, क्रोधी स्वभाव वाले तथा लालची प्रवृति के प्राणियों से भक्ति नहीं होती । धन संग्रह करना, दान पूण्य न करना ये तत्व भक्ति से दूर ले जाते है । भक्ति वही कर सकता है जो अपने कुल , परिवार जाति तथा अहंकार का त्याग करके पूर्ण श्रद्धा एवम् विश्वास से कोई पुरुषार्थी ही कर सकता है । हर किसी के लिए संभव नहीं है ।
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये जान ।
सुखदायी सब जीव सों, यही भक्ति परमान ।।
कबीर दास जी संसारी जीवो को सन्मार्ग की शिक्षा देते हुए कहते है की पाचो विषयों को त्यागना ही वैराग्य है । भेद भाव आदि दुर्गुणों से रहित होकर समानता का व्यवहार करना ही परमज्ञान है और स्नेह , उचित आचरण भक्ति का सत्य प्रमाण है । भक्तों में ये सद्गुण विद्यमान होते है ।
देखा देखी भक्ति का, कबहू न चढ़सी रंग ।
विपत्ति पड़े यों छाडसि , केचुलि तजसि भुजंग ।।
दूसरों को भक्ति करते हुए देखकर भक्ति करना पूर्ण रूप से सफल भक्ति नहीं हो सकती , जब कोई कठिन घडी आयेगी उस समय दिखावटी भक्ति त्याग देते है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सर्प केचुल का त्याग कर देता है ।
और कर्म सब कर्म है , भक्ति कर्म निह्कर्म ।
कहै कबीर पुकारि के, भक्ति करो ताजि भर्म ।।
कबीर दास जी कहते है कि आशक्ति के वश में होकर जीव जो कर्म करता है उसका फल भी उसे भोगना पड़ता है किन्तु भक्ति ऐसा कर्म है जिसके करने से जीव संसार के भाव बन्धन से मुक्त होकर परमगति को प्राप्त होता है अतः हे सांसारिक जीवों । आशक्ति , विषय भोगों को त्यागकर प्रेमपूर्वक भक्ति करो जिससे तुम्हारा सब प्रकार से कल्याण होगा ।
भक्ति भक्ति सब कोई कहै , भक्ति न जाने भेद ।
पूरण भक्ति जब मिलै , कृपा करै गुरुदेव ।।
भक्ति भक्ति तो हर कोई प्राणी कहता है किन्तु भक्ति का ज्ञान उसे नहीं होता, भक्ति का भेद नहीं जानता । पूर्ण भक्ति तभी प्राप्त हो सकती है जब गुरु देव की कृपा प्राप्त हो अतः भक्ति मार्ग पर चलने से पहले गुरु की शरण में जाना अति आवश्यक है । गुरु के आशिर्वाद और ज्ञान से मन का अन्धकार नष्ट हो जायेगा ।
कबीर माया मोहिनी , भई अंधियारी लोय ।
जो सोये सों मुसि गये, रहे वस्तु को रोय ।।
कबीर साहेब कहते है कि माया मोहिनी उस काली अंधियारी रात्रि के समान है जो सबके ऊपर फैली है । जो वैभव रूपी आनन्द में मस्त हो कर सो गये अर्थात माया रूपी आवरण ने जिसे अपने वश में कर लिया उसे काम , क्रोध और मोहरूपी डाकुओ ने लूट लिया और वे ज्ञान रूपी अमृत तत्व से वंचित रह गये ।
कबीर माया मोहिनी , मांगी मिलै न हाथ ।
मना उतारी जूठ करु, लागी डोलै साथ ।।
कबीर जी के वचनासुनर माया अर्थात धन, सम्पति वैभव संसार के प्रत्येक प्राणी को मोहने वाली है तथा माँगने से किसी के हाथ नहीं आती । जो इसे झूठा समझकर , सांसारिक मायाजाल समझकर उतार फेंकता है उसके पीछे दौड़ी चली आती है तात्पर्य यह कि चाहने पर दूर भागती है और त्याग करने पर निकट आती है ।
कबीर या संसार की, झूठी माया मोह ।
जिहि घर जिता बधावना , तिहि घर तेता दोह ।।
संसार के लोगों का यह माया मोह सर्वथा मिथ्या है । वैभव रूपी माया जिस घर में जितनी अधिक है वहा उतनी ही विपत्ति है अर्थात भौतिक सुखसम्पदा से परिपूर्ण जीव घरेलू कलह और वैरभाव से सदा अशान्त रहता है । दु:खी रहता है ।
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खंड ।
सद्गुरु की किरपा भई , नातर करती भांड ।।
माया के स्वरुप का वर्णन करते हुए संत कबीर दास जी कहते है कि माया बहुत ही लुभावनी है । जिस प्रकार मीठी खांड अपनी मिठास से हर किसी का मन मोह लेती है उसी प्रकार माया रूपी मोहिनी अपनी ओर सबको आकर्षित कर लेती है । वह तो सद्गुरु की कृपा थी कि हम बच गये अन्यथा माया के वश में होकर अपना धर्म कर्म भूलकर भांड की तरह रह जाते ।
माया छाया एक सी, बिरला जानै कोय ।
भगता के पीछे फिरै , सनमुख भाजै सोय ।।
धन सम्पत्ति रूपी माया और वृक्ष की छाया को एक समान जानो । इनके रहस्य को विरला ज्ञानी ही जानता है । ये दोनों किसी की पकड़ में नहीं आती । ये दोनों चीज़े भक्तों के पीछे पीछे और कंजूसों के आगे आगे भागती है अर्थात वे अतृप्त ही रहते है ।
माया दोय प्रकार की, जो कोय जानै खाय ।
एक मिलावै राम को, एक नरक ले जाय ।।
संत शिरोमणि कबीर जी कहते है कि माया के दो स्वरुप है । यदि कोई इसका सदुपयोग देव सम्पदा के रूप में करे तो जीवन कल्याणकारी बनता है किन्तु माया के दूसरे स्वरुप अर्थात आसुरि प्रवृति का अवलम्बन करने पर जीवन का अहित होता और प्राणी नरक गामी होता है ।
मोटी माया सब तजै , झीनी तजी न जाय ।
पीर पैगम्बर औलिया, झीनी सबको खाय ।।
धन संपत्ति , पुत्र, स्त्री , घर सगे सम्बन्धी अदि मोटी माया का बहुत से लोग त्याग कर देते है किन्तु माया के सूक्ष्म रूप यश सम्मान आदि का त्याग नहीं कर पाते है और यह छोटी माया ही जीव के दुखो का कारण बनती है । पीर पैगम्बर औलिया आदि की मनौती ही सबको खा जाती है.
झीनी माया जिन तजी, मोटी गई बिलाय ।
ऐसे जन के निकट से, सब दुःख गये हिराय ।।
कबीर जी कहते है कि जिसने सूक्ष्म माया का त्याग कर दिया , जिसने मन की आसक्ति रूपी सूक्ष्म माया से नाता तोड़ लिया उसकी मोटी माया स्वतः ही नष्ट हो जाती है और वह ज्ञान रूपी अमृत पाकर सुखी हो जाता है । उसके समस्त दुःख दूर चले जाते है अतः सूक्ष्म माया को दूर भगाने का प्रयत्न करना चाहिए ।
माया काल की खानि है, धरै त्रिगुण विपरीत ।
जहां जाय तहं सुख नहीं , या माया की रीत ।।
माया विपत्ति रूपी काल की वह खान है जो त्रिगुणमयी विकराल रूप धारण करती है यह जहाँ भी जाती है वहाँ सुख चैन का नाश हो जाता है और अशांति फैलती है । यही माया का वास्तविक रूप है । ज्ञानी जन मायारूपी काल से सदैव दूर रहते है ।
माया दीपक नर पतंग , भ्रमि भ्रमि माहि परन्त ।
कोई एक गुरु ज्ञानते , उबरे साधु सन्त ।।
माया , दीपक की लौ के समान है और मनुष्य उन पतंगों के समान है जो माया के वशीभूत होकर उन पर मंडराते है । इस प्रकार के भ्रम से, अज्ञान रूपी अन्धकार से कोई विरला ही उबरता है जिसे गुरु का ज्ञान प्राप्त होने से उद्धार हो जाता है ।
जरा आय जोरा किया , नैनन दीन्ही पीठ ।
आंखो ऊपर आंगुली , वीष भरै पछनीठ ।।
वृध्दावस्था ऊपर आई तो उसने अपना जोर दिखाया , कमजोर शरीर के साथ आँखों ने पीठ फेर ली अर्थात कम दिखायी पड़ने लगा । यहाँ तक कि आँखों के ऊपर अंगुलियों की छाया करने पर बहुत थोडा सा दिखायी पड़ता है ।
काल हमारे संग है , कस जीवन की आस ।
दस दिन नाम संभार ले, जब लग पिंजर सांस ।।
कबीर दास जी कहते है कि जब काल हमारे साथ लगा हुआ है तो फिर जीने की आशा कैसी ? यह जीवन मिथ्या है, जब तक शरीर में प्राण है तभी तक तुम्हारे पास अवसर है अतः इस अल्प जीवन में सतकर्म करके अपना परलोक सुधार लो ।
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