यशपाल 1903-1976

 यशपाल 1903-1976

व्यक्तित्व

यशपाल का जन्म 1903 ई0 में फिरोजपुर छावनी (पंजाब) में हुआ था। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा गुरुकुल-कांगड़ी में
हुई, जहाँ के राष्ट्रीय वातावरण ने उनके मन को प्रभावित एवं उद्वेलित किया। तत्पश्चात् नेशनल कालेज, लाहौर में आप भगतसिंह तथा सुखदेव जैसे क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आये और अन्य सशस्त्र-क्रान्तिकारी-आन्दोलनों में सक्रिय हो उठे। राजद्रोह के अभियोग में आपको कारावास का दण्ड मिला। आपने लखनऊ से एक लोकप्रिय मासिक पत्र विप्लव प्रकाशित किया। जेल-जीवन में भी आप स्वाध्याय तथा कहानी-लेखन में रत रहे। आपका देहावसान 26 दिसम्बर, 1976 ई० को हुआ।

कृतित्व

यशपाल जी के कथा-संकलन हैं—पिंजरे की उड़ान, ज्ञानदान, अभिशप्त, तर्क का तूफान, भस्मावृत चिन्गारी, वो दुनिया, फूलो का कुर्ता, धर्मयुद्ध, उत्तराधिकारी तथा चित्र का शीर्षक। दादा कामरेड, देशद्रोही, पार्टी कामरेड, दिव्या, मनुष्य के रूप में, अमिता तथा झूठा-सच आपके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। आपके निबन्धों तथा संस्मरणों के संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं।

कथा-शिल्प एवं भाषा-शैली

यशपाल जी यशस्वी कथाकार थे। यथार्थवादी तथा प्रगतिशील कहानीकारों में आपका विशिष्ट स्थान है। आपकी
कहानियों में जीवन-संघर्ष में रत सन्तप्त मानव का स्वर मुखर हो उठा है। आप पर मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव था। आपने समस्या-प्रधान कहानियों की रचना की है। आपकी कहानियों के कथानक सरल एवं स्पष्ट हैं। वे अधिकतर मध्यवर्गीय जीवन से चुने गये हैं। कथावस्तु जन-जीवन के व्यापक क्षेत्र से सम्बद्ध है तथा सामाजिक जीवन के विविध पक्षों को प्रस्तुत करती है। आपने विविध वर्गों, स्थितियों एवं जातियों के पात्रों का चयन किया है तथा उनके जीवन-संघर्ष, विद्रोह एवं उत्साह के सजीव चित्र प्रस्तुत किये हैं। चरित्र-चित्रण मनोवैज्ञानिक है। यशपाल सामाजिक-जीवन के सन्दर्भ में मानव के मानसिक द्वन्द्वों के कथाकार थे। आपकी प्रमुख कहानियाँ हैं—धर्मयुद्ध, फूल की चोरी, चार आने, अभिशप्त, कर्मफल, फूलो का कुर्ता, पाँव तले की डाल आदि।

आपकी कहानियाँ जन-सामान्य से सम्बद्ध हैं, अतः आपकी कहानियों की भाषा-शैली व्यावहारिक एवं सरल है।
आपने सर्व-सामान्य में प्रचलित अन्य भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग किया है। मुहावरों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से
रोचकता में वृद्धि हुई है। सामाजिक विकृतियों पर आपने बड़े तीखे व्यंग्य किये हैं। कहानियों में कथोपकथन अकृत्रिम एवं स्वाभाविक हैं। वे पात्रों की मनोदशा का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करने के साथ-साथ कथावस्तु को विकसित करने में योग देते थे।
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