कबीर दास के दोहे - 6



दीन गरीबी दीन को, दुंदुर को अभिमान
दुंदुर तो विष से भरा, दीन गरीबी जान ।।

सरळ हृद्य मनुष्य को दीनता, सरलता एवम् सादगी अत्यन्त प्रिय लगती है किन्तु उपद्रवी व्यक्ति अभिमान रुपी विष से भरा रहता है और विनम्र प्राणी अपनी सादगी को अति उत्तम समझता है

गुरु सों प्रीती निबाहिये, जेहि तत निबहै संत
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत ।।

जिस प्रकार भी सम्भव हो गुरु से प्रेम का निर्वाह करना चाहिए और निष्काम भाव से गुरु की सेवा करके उन्हें प्रसन्न रखना चाहिए प्रेम बिना वे दूर ही हैं यदि प्रेम है तो वे सदैव तुम्हारे निकट रहेगें

सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड
तीन लोक पाइये, अरु इक इस ब्राहमण्ड ।।

सम्पूर्ण संसार में सद्गुरू के समान कोई अन्य नहीं है सातों व्दीप और नौ खण्डों में ढूंढनें पर भी गुरु के समान कोई नहीं मिलेगा गुरु हि सर्वश्रेष्ठ है इसे सत्य जानो

सतगुरु हमसों रीझि कै, कह्य एक परसंग
बरषै बादल प्रेम को, भिंजी गया सब अंग ।।

सद्गुरू ने मुझसे प्रसन्न होकर एक प्रसंग कहा जिसका वर्णन शब्दों में कर पाना अत्यन्त कठिन है उनके हृद्य से प्रेम रुपी बादल उमड कर बरसने लगा और मेरा मनरूपी शरीर उस प्रेम वर्षा से भीगकर सराबोर हो गया

मांगन मरण समान है, तोहि दई में सीख
कहै कबीर समुझाय के, मति मांगै कोई भीख ।।

कबीर जी कहते है कि दुसरों हाथ फैलाना मृत्यु के समान है यह शिक्षा ग्रहण के लो जीवन मी कभी किसी से भिक्षा मत मांगो भिक्षा मांगना बहुत अभ्रम कार्य है प्राणी दुसरों कि निगाह में गिरता ही है स्वयं अपनी दृष्टि में पतित हो जाता है

ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत
सत्यवान परमार थी, आदर भाव सहेत ।।

ज्ञानी व्यक्ति कभी अभिमानी नहीं होते उनके हृद्य में सबके हित की भावना बसी रहती है और वे हर प्राणी से प्रेम का व्यवहार करते है सदा सत्य का पालन करने वाले तथा परमार्थ होते हैं

नाम रसायन प्रेम रस, पीवन अधिक रसाल
कबीर पीवन दुर्लभ है, मांगै शीश कलाल ।।

संत कबीर जी कहते है कि सद्गुरू के ज्ञान का प्रेम रस पीनें में बहुत ही मधुर और स्वादिष्ट होता है किन्तु वह रस सभी को प्राप्त नहीं होता जो इस प्राप्त करने के लिए अनेकों काठीनाइयो को सहन करते हुए आगे बढता है उसे हि प्राप्त होता है क्योंकि उसके बदले में सद्गुरू तुम्हारा शीश मांगते हैं अर्थात् अहंकार का पूर्ण रूप से त्याग करके सद्गुरू को अपना तन मन अर्पित कर दो

प्रेम पियाला सो पिये, शीश दच्छिना देय
लोभी शीश दे सकै, नाम प्रेम का लेय ।।

प्रेम का प्याला वही प्रेमी पी सकता है जो गुरु को दक्षिणा स्वरूप अपना शीश काटकर अर्पित करने को सामर्थ्य रखता हो कोई लोभी, संसारी कामना में लिप्त मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता वह केवल प्रेम का नाम लेता है प्रेम कि वास्तविकता का ज्ञान उसे नहीं है

कबीर क्षुधा है कुकरी, करत भजन में भंग
वांकू टुकडा डारि के, सुमिरन करूं सुरंग ।।

संत स्वामी कबीर जो कहते हैं कि भूख उस कुतिया के समान है जो मनुष्य को स्थिर नहीं रहने देती अतः भूख रुपी कुतिया के सामने रोटी का टुकडा डालकर शान्त कर दो तब स्थिर मन से सुमिरन करो

जिन गुरु जैसा जानिया , तिनको तैसा लाभ
ओसे प्यास भागसी , जब लगि धसै आस ।।

जिसे जैसा गुरु मिला उसे वैसा ही ज्ञान रूपी लाभ प्राप्त हुआ जैसे ओस के चाटने से सभी प्यास नहीं बुझ सकती उसी प्रकार पूर्ण सद्गुरु के बिना सत्य ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता

कबीर संगी साधु का दल आया भरपूर
इन्द्रिन को मन बांधिया , या तन कीया घूर ।।

कबीर दस जी कहते हैं कि साधुओं का दल जिसें सद्गुण , सत्य, दया , क्षमा , विनय और ज्ञान वैराग्य कहते हैं , जब ह्रदय में उत्पन्न हुआ तो उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में करके शरीर का त्याग कर दिया अर्थात वे यह भूल गये कि मै शरीर धारी हूं

हरिजन तो हारा भला , जीतन दे संसार
हारा तो हरिं सों मिले , जीता जम के द्वार ।।

संसारी लोग जिस जीत को जीत और जिस हार को हार समझते हैं हरि भक्त उनसे भिन्न हैं सुमार्ग पर चलने वाले उस हार को उस जीत से अच्छा समझते हैं जो बुराई की ओर ले जाते हैं संतों की विनम्र साधना रूपी हार संसार में सर्वोत्तम हैं

गाली ही से उपजै, कलह कष्ट मीच
हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच ।।

गाली एक ऐसी है जिसका उच्चारण करने से कलह और क्लेश ही बढ़ता है लड़ने मरने पर लोग उतारू हो जाते है अतः इससे बचकर रहने में ही भलाई है इससे हारकर जो चलता है वही ज्ञानवान हैं किन्तु जो गाली से लगाव रखता है वह अज्ञानी झगडे में फंसकर अत्यधिक दुःख पाता है

जो जल बाढे नाव में, घर में बाढै दाम
दोनों हाथ उलीचिये , यही सयानों काम ।।

यदि नव में जल भरने लगे और घर में धन संपत्ति बढ़ने लगे तो दोनों हाथ से उलीचना आरम्भ कर दो दोनों हाथो से बाहर निकालों यही बुद्धिमानी का काम है अन्यथा डूब मरोगे धन अधिक संग्रह करने से अहंकार उत्पन्न होता है जो पाप को जन्म देता है

कबीर पांच पखेरुआ , राखा पोश लगाय
एक जू आया पारधी , लगइया सबै उड़ाय ।।

सन्त शिरोमणि कबीर दस जी कहते है कि अपान, उदान , समान , व्यान और प्राण रूपी पांच पक्षियों को मनुष्य अन्न जल आदि पाल पोषकर सुरक्षित रखा किन्तु एक दिन काल रूपी शिकारी उड़ाकर अपने साथ ले गया अर्थात मृत्यु हो गयी

कबीर यह तन जात है, सकै तो ठौर लगाव
कै सेवा कर साधु की, कै गुरु के गुन गाव ।।

अनमोल मनुष्य योनि के विषय में ज्ञान प्रदान करते हुए सन्त जी कहते है कि हे मानव ! यह मनुष्य योनि समस्त योनियों उत्तम योनि है और समय बीतता जा रहा है कब इसका अन्त जाये , कुछ नहीं पता बार बार मानव जीवन नहीं मिलता अतः इसे व्यर्थ गवाँओ समय रहते हुए साधना करके जीवन का कल्याण करो साधु संतों की संगति करो,सद्गुरु के ज्ञान का गुण गावो अर्थात भजन कीर्तन और ध्यान करो

बेटा जाये क्या हुआ , कहा बजावै थाल
आवन जावन होय रहा , ज्यों कीड़ी की नाल ।।

पुत्र के उत्पन्न होने पर लोग खुशियां मानते है ढोल बजवाते हैं ऐसी ख़ुशी किस लिए संसार में ऐसा आना जाना लगा ही रहता है जैसे चीटियों की कतार का आना जाना

सहकामी दीपक दसा , सीखै तेल निवास
कबीर हीरा सन्त जन , सहजै सदा प्रकाश ।।

विषय भोग में सदा लिप्त रहने वाले मनुष्यों की दशा जलते हुए उस दीपक के समान है जो अपने आधार रूप तेल को भी चूस लेता है जिससे वह जलता है ।कबीर दास जी कहते है कि सन्त लोग उस हीरे के समान है जिनका प्रकाश कभी क्षीण नहीं होता वे अपने ज्ञान के प्रकाश से जिज्ञासु के ह्रदय को प्रकाशित करते है

मोह सलिल की धार में, बहि गये गहिर गंभीर ।।
सूक्ष्म मछली सुरति है, चढ़ती उल्टी नीर ।।

मोहरूपी जल की तीव्र धारा में बड़े बड़े समझदार और वीर बह गये , इससे पार पा सके सूक्ष्म रूप से शरीर के अन्दर विद्यमान सुरति एक मछली की तरह है जो विपरीत दिशा ऊपर की ओर चढ़ती जाती है इसकी साधना से सार तत्व रूपी ज्ञान की प्राप्ती होती है

गुरु को कीजै दण्डवत , कोटि कोटि परनाम
कीट जाने भृंग को, गुरु कर ले आप समान ।।

गुरु के चरणों में लेटकर दण्डवत और बार बार प्रणाम करो गुरु की महिमा अपरम्पार है, जिस तरह कीड़ा भृंग को नहीं जानता किन्तु अपनी कुशलता से स्वयं को भृंग के समान बना लेता है उसी प्रकार गुरु भी अपने ज्ञान रूपी प्रकाश के प्रभाव से शिष्य को अपने सामान बना लेते है

सतगुरु मिले तो सब मिले , तो मिला कोय
मात पिता सूत बांधवा , ये तो घर घर होय ।।

कबीर दस जी कहते है की सद्गुरु मिले तो जानो सब कोई मिल गये , कुछ मिलने को शेष नहीं रहा माता-पिता , भाई-बहन , बंधू बांधव तो घर घर में होते है सांसरिक रिश्तों से सभी परिपूर्ण हैं सद्गुरु की प्राप्ती सभी को नहीं होती

सहज मिलै सो दूध है, मांगि मिलै सो पानि
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें ऐंचातानि ।।

जो बिना मांगे सहज रूप से प्राप्त हो जाये वह दूध के समान है और जो मांगने पर प्राप्त हो वह पानी के समान है और किसी को कष्ट पहुंचाकर या दु:खी करके जो प्राप्त हो वह रक्त के समान है उपरोक्त का निरूपण करते हुण कबीरदास जी कहते है

जो जागत सो सपन में , ज्यौं घट भीतर सांस
जो जन जाको भावता, सो जन ताके पास ।।

जिस प्रकार जो सांसे जाग्रत अवस्था में हैं वही सांसें सोते समय स्वप्न अवस्था में घट के अन्दर आता जाता है उसी प्राकर जो जिसका प्रेमी है, वह सदा उसी के पास रहता है किसी भी अवस्था में दूर नहीं होता

जीवत कोय समुझै नहिं , मुवा कह संदेस
तन मन से परिचय नहीं , ताको क्या उपदेश ।।

जीवित अवस्था में कोई ज्ञान का उपदेश और सत्य की बातें सुनता नहीं मर जाने पर उन्हें कौन उपदेश देने जायेगा जिसे अपने तन मन की सुधि ही नहीं है उसे उपदेश देने से क्या लाभ ?

शब्द सहारे बोलिये , शब्द के हाथ पाव
एक शब्द औषधि करे , एक शब्द करे घाव ।।

मुख से जो भी बोलो, सम्भाल कर बोलो कहने का तात्पर्य यह कि जब भी बोलो सोच समझकर बोलो क्योंकि शब्द के हाथ पैर नहीं होते किन्तु इस शब्द के अनेकों रूप हैं। यही शब्द कहीं औषधि का कार्य करता है तो कहीं घाव पहूँचाता  है अर्थात कटु शब्द दुःख देता है

यह तन कांचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ
टपका लागा फुटि गया, कछु आया हाथ ।।

यह शरीर मिटटी के कच्चे घड़े के समान है जिसे हम अपने साथ लिये फिरते है और काल रूपी पत्थर का एक ही धक्का लगा, मिटटी का शरीर रूपी घड़ा फुट गया हाथ कुछ भी लगा अर्थात सारा अहंकार बह गया खाली हाथ रह गये

जिभ्या जिन बस में करी , तिन बस कियो जहान
नहिं तो औगुन उपजे, कहि सब संत सुजान ।।

जिन्होंने अपनी जिह्वा को वश में कर लिया , समझो सरे संसार को अपने वश में कर लिया क्योंकि जिसकी जिह्वा वश में नहीं है उसके अन्दर अनेकों अवगुण उत्पन्न होते है ऐसा ज्ञानी जन और संतों का मत है

काल पाय जग उपजो , काल पाय सब जाय
काल पाय सब बिनसिहैं , काल काल कहं खाय ।।

काल के क्रमानुसार प्राणी की उत्पत्ति होती है और काल के अनुसार सब मिट जाते हैं समय चक्र के अनुसार निश्चित रुप से नष्ट होना होगा क्योंकि काल से निर्मित वस्तु अन्ततः कालमें ही विलीन हो जाते हैं

काम काम सब कोय कहै , काम चीन्है कोय
जेती मन की कल्पना , काम कहावै सोय ।।

काम शब्द का मुख से उच्चारण करना बहुत ही आसान है परन्तु काम की वास्तविकता को लोग नहीं पहचानते उसके गूढ़ अर्थ को समझने का प्रयास नहीं करते मन में जितनी भी विषय रूपी कल्पना है वे सभी मिलकर काम ही कहलाती हैं

बहुत जतन करि कीजिए , सब फल जाय साय
कबीर संचै सूम धन , अन्त चोर लै जाय ।।

कबीरदास जी कहते है कि कठिन परिश्रम करके संग्रह किया गया धन अन्त में नष्ट हो जाता है जैसे कंजूस व्यक्ति जीवन भार पाई पाई करके धन जोड़ता है अन्त में उसे चोर चुरा ले जाता है अर्थात वह उस धन का उपयोग भी नहीं कर पाता



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