नामकरण की दृष्टि से उत्तर-मध्यकाल विवादास्पद है।
- इसे मिश्र बंधु ने 'अलंकृत
काल',
- रामचन्द्र शुक्ल ने 'रीतिकाल'
और
- विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने 'श्रृंगार
काल'
- रमाशंकर शुक्ल रसाल ‘कलाकाल’
कहा है।
रीति शब्द से अभिप्राय है काव्य-रीति या
काव्य-परिपाटी।
- रीतिकाल के उदय के संबंध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत है
: 'इसका कारण जनता की रूचि नहीं, आश्रयदाताओं
की रूचि थी, जिसके लिए वीरता और कर्मण्यता का जीवन बहुत
कम रह गया था। .... रीतिकालीन कविता में लक्षण ग्रंथ, नायिका
भेद, श्रृंगारिकता आदि की जो प्रवृत्तियाँ मिलती
हैं उसकी परंपरा संस्कृत साहित्य से चली आ रही थीं।
- डॉ० नगेन्द्र का मत है, 'घोर
सामाजिक और राजनीतिक पतन के उस युग में जीवन बाहय अभिव्यक्तियों से निराश होकर घर की
चारदीवारी में कैद हो गया था। घर में न शास्त्र चिंतन था न धर्म चिंतन। अभिव्यक्ति
का एक ही माध्यम था-काम। जीवन की बाहय अभिव्यक्तियों से निराश होकर मन नारी के अंगों
में मुँह छिपाकर विशुद्ध विभोर तो हो जाता था' ।
- हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, 'संस्कृत
के प्राचीन साहित्य विशेषतः रामायण और महाभारत से यदि भक्तिकाल के कवियों ने प्रेरणा
ली तो रीतिकाल के कवियों ने उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य से प्रेरणा व प्रभाव लिया।
...... लक्षण ग्रंथ, नायिका भेद, अलंकार
और संचारी आदि भावों के पूर्वनिर्मित वर्गीकरण का आधार लेकर ये कवि बंधी-सधी बोली में
बंधे-सधे भावों की कवायद करने लगे' ।
- समग्रतः रीतिकालीन काव्य जनकाव्य नहीं है बल्कि दरबारी संस्कृति
का काव्य है। इसमें श्रृंगार और शब्द-सज्जा पर जोर रहा। कवियों ने सामान्य जनता की
रुचि को अनदेखा कर सामंतों एवं रईसों की अभिरुचियों को कविता के केन्द्र में रखा। इससे
कविता आम आदमी के दुख एवं हर्ष से जुड़ने के बजाय दरबारों के वैभव व विलास से जुड़ गई।
रीतिकाल की दो मुख्य प्रवृत्तियाँ थीं-
(1) रीति निरूपण
(2) श्रृंगारिकता
(1) रीति निरूपण को काव्यांग विवेचन के आधार पर दो वर्गो में बाँटा
जा सकता है
(क) सर्वाग विवेचन : सर्वाग विवेचन के अन्तर्गत काव्य के सभी अंगों
(रस, छंद, अलंकार
आदि) को विवेचन का विषय बनाया गया है। चिन्तामणि का 'कविकुलकल्पतरु',
देव का 'शब्द रसायन', कुलपति
का 'रस रहस्य', भिखारी
दास का 'काव्य निर्णय' इसी
तरह के ग्रंथ हैं।
(ख) विशिष्टांग विवेचन : विशिष्टांग विवेचन के
तहत काव्यांगों में रस, छंद व अलंकारों में से किसी एक अथवा दो अथवा
तीनों का विवेचन का विषय बनाया गया है। तीनों में रस में और रस में भी श्रृंगार रस
में रचनाकारों ने विशेष दिलचस्पी दिखाई है। 'रसविलास'
(चिंतामणि), 'रसार्णव' (सुखदेव
मिश्र), 'रस प्रबोध' (रसलीन),
'रसराज' (मतिराम), 'श्रृंगार
निर्णय' (भिखारी दास), 'अलंकार
रत्नाकर' (दलपति राय), 'छंद
विलास' (माखन) आदि इसी श्रेणी के ग्रंथ हैं।
रीति निरूपण की परिपाटी बहुत सतही है। रीति निरूपण में रीति कालीन
रचनाकारों की रूचि शास्त्र के प्रति निष्ठा का परिणाम नहीं है बल्कि दरबार में पैदा
हुई रचनात्मक आवश्यकता है। इनका उद्देश्य सिर्फ नवोदित कवियों को काव्यशास्त्र की हल्की-फुल्की
जानकारी देना है तथा अपने आश्रयदाताओं पर अपने पांडित्य का धौंस जमाकर अर्थ दोहन करना
है
रीतिकालीन कवियों को तीन वर्गों में बाँटा जाता है-
- रीतिबद्ध,
- रीतिसिद्ध
एवं
- रीतिमुक्त।
रीतिबद्ध कवि : रीतिबद्ध कवियों (आचार्य कवियों) ने अपने लक्षण
ग्रंथों में प्रत्यक्ष रूप से रीति परम्परा का निर्वाह किया है; जैसे-
केशवदास, चिंतामणि, मतिराम,
सेनापति, देव, पद्माकर
आदि।
रीतिसिद्ध कवि : रीतिसिद्ध कवियों की रचनाओं की पृष्ठभूमि में अप्रत्यक्ष
रूप से रीति परिपाटी काम कर रही होती है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से साफ पता चलता है कि
उन्होंने काव्य शास्त्र को पचा रखा है। बिहारी, रसनिधि
आदि इस वर्ग में आते है।
रीतिमुक्त कवि : रीति परंपरा से मुक्त कवियों को रीतिमुक्त कवि
कहा जाता है। घनानंद, आलम, ठाकुर,
बोधा, द्विजदेव आदि इस वर्ग
में आते हैं।
रीतिकालीन आचार्यों में देव एकमात्र अपवाद है जिन्होंने रीति निरूपण
के क्षेत्र में मौलिक उद्भावनाएं की।
(2) रीतिकाल की दूसरी मुख्य प्रवृत्ति श्रृंगारिकता थी।
(i) रीतिबद्ध कवियों की श्रृंगारिकता :रीतिबद्ध कवियों ने काव्यांग
निरूपण करते हुए उदाहरणस्वरूप श्रृंगारिकता रचनाएँ प्रस्तुत की है। केशवदास,
चिंतामणि, देव, मतिराम
आदि की रचनाओं में इसे देखा जा सकता है।
(ii) रीतिसिद्ध कवियों की श्रृंगारिकता : रीतिसिद्ध
कवियों का काव्य रीति निरूपण से तो दूर है, किन्तु
रीति की छाप लिए हुए है। बिहारी, रसनिधि आदि की रचनाओं
में इसे देखा जा सकता है।
(iii) रीतिमुक्त कवियों की श्रृंगारिकता : रीतिमुक्त
कवियों की श्रृंगारिकताविशिष्ट प्रकार की है। रीतिमुक्त कवि 'प्रेम
की पीर' के सच्चे गायक थे। इनके श्रृंगार में प्रेम
की तीव्रता भी है एवं आत्मा की पुकार भी। घनानंद, आलम,
ठाकुर, बोधा आदि की रचनाओं में
इसे महसूस किया जा सकता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है : ''श्रृंगार
रस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान 'बिहारी
सतसई' का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक-एक
दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है। .... बिहारी ने इस सतसई के अतिरिक्त
और कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यही एक ग्रंथ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है। .... मुक्तक
कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है,
इसमें कोई संदेह नहीं।
जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समाहार शक्ति
जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण
रूप से वर्तमान थी। इसी से वे दोहे ऐसे छोटे छंद में इतना रस भर सके हैं। इनके दोहे
क्या है रस के छोटे-छोटे छीटें है।''
रीतिकाल की गौण प्रवृत्तियाँ थीं- भक्ति वीरकाव्य/राज
प्रशस्ति व नीति।
- रीतिकाल में भक्ति की प्रवृत्ति मंगलाचरणों, ग्रंथों की समाप्ति
पर आशीर्वचनों, काव्यांग विवेचन संबंधी ग्रंथों में दिए गए उदाहरणों
आदि में मिलती है।
- रीतिकाल में लाल कवि, पद्माकर भट्ट, सूदन,
खुमान, जोधराज आदि ने जहाँ प्रबंधात्मक वीर-काव्य
की रचना की, वहीं भूषण, बाँकी दास आदि मुक्तक
वीर-काव्य की। इन कवियों ने अपने संरक्षक राजाओं का ओजस्वी वर्णन किया है।
- रीतिकाल में वृन्द, रामसहाय दास, दीन
दयाल गिरि, गिरिधर, कविराय, घाघ-भड्डरि, वैताल आदि ने नीति विषयक रचनाएँ रची।
रीतिकालीन शिल्पगत विशेषताएँ :
(1) सतसई परम्परा का पुनरुद्धार
(2) काव्य भाषा-वज्रभाषा (श्रुति मधुर व कोमल कांत पदावलियों से युक्त
तराशी हुई भाषा)
(3) काव्य रूप-मुख्यतः मुक्तक का प्रयोग
(4) दोहा छंद की प्रधानता (दोहे 'गागर में सागर'
शैली वाली कहावत को चरितार्थ करते है तथा लोकप्रियता के लिहाज से संस्कृत
के 'श्लोक' एवं अरबी-फारसी के शेर के समतुल्य
है।); दोहे के अलावा 'सवैया' (श्रृंगार रस के अनुकूल छंद) और 'कवित्त' (वीर रस के अनुकूल छंद) रीति कवियों के प्रिय छंद थे। केशवदास की 'रामचंद्रिका' को 'छंदों'
का अजायबघर' कहा जाता है।
रीतिमुक्त/रीति स्वच्छन्द काव्य की विशेषताएँ :
बंधन या
परिपाटी से मुक्त रहकर रीतिकाव्य धारा के प्रवाह के विरुद्ध एक अलग तथा विशिष्ट पहचान
बनाने वाली काव्यधारा 'रीतिमुक्त काव्य' के नाम से जाना जाता है।
रीतिमुक्त काव्य की विशेषताएँ थीं :
(1) रीति स्वच्छंदता
(2) स्वअनुभूत प्रेम की अभिव्यक्ति
(3) विरह का आधिक्य
(4) कला पक्ष के स्थान पर भाव पक्ष पर जोर
(5) पृथक काव्यादर्श/प्राचीन काव्य परम्परा का त्याग
(6) सहज, स्वाभाविक एवं प्रभावी अभिव्यक्ति
(7) सरल, मनोहारी बिम्ब योजना व सटीक प्रतीक विधान
रीतिकालीन देव ने फ्रायड की तरह, लेकिन फ्रायड के
बहुत पहले ही, काम (Sex) को समस्त जीवों
की प्रक्रियाओं के केन्द्र में रखकर अपने समय में क्रांतिकारी चिंतन दिया।
प्रसिद्ध पंक्तियाँ:-
इत आवति चलि, जाति उत चली छ सातक हाथ।
चढ़ि हिंडोरे सी रहै लागे उसासनु हाथ।।
(विरही नायिका इतनी अशक्त हो गयी है कि सांस लेने मात्र से छः सात हाथ
पीछे चली जाती है और सांस छोड़ने मात्र से छः सात हाथ आगे चली जाती है। ऐसा लगता है
मानो जमीन पर खड़ी न होकर हिंडोले पर चढ़ी हुई है।) -बिहारी
वासर की संपति उलूक ज्यों न चितवत
(जिस तरह दिन में उल्लू संपत्ति की ओर नहीं ताकते उसी तरह राम अन्य स्त्रियों
की तरफ नहीं देखते।) -केशवदास
आगे के कवि रीझिहें, तो कविताई, न तौ
राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है।
(आगे के कवि रीझें तो कविता है अन्यथा राधा-कृष्ण के स्मरण का बहाना
ही सही।)
-भिखारी दास
जान्यौ चहै जु थोरे ही, रस कविता को बंस।
तिन्ह रसिकन के हेतु यह, कान्हों रस सारंस।।
-भिखारी
दास
काव्य की रीति सिखी सुकवीन सों
(मैंने काव्य की रीति कवियों से ही सीखी है।)
-भिखारी दास
तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार
-भिखारी दास
रीति सुभाषा कवित की बरनत बुधि अनुसार
-चिंतामणि
अपनी-अपनी रीति के काव्य और कवि-रीति
-देव
अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नैकु सयानप
बाँक नहीं।
तहँ साँचे चलैं ताजि आपनपौ, झिझकै कपटी जे निसांक
नहीं।।
-घनानन्द
यह कैसो संयोग न सूझि पड़ै जो वियोग न एको विछोहत है
-घनानंद
मोहे तो मेरे कवित्त बनावत।
-घनानंद
यह प्रेम को पंथ कराल महा तरवारि की धार पर धाबनो है
-बोधा
जदपि सुजाति सुलक्षणी सुवरण सरस सुवृत्त।
भूषण बिनु न विराजई कविता वनिता मीत।।
-केशवदास
लोचन, वचन, प्रसाद,
मुदृ हास, वास चित्त मोद।
इतने प्रगट जानिये वरनत सुकवि विनोद।।
-मतिराम
युक्ति सराही मुक्ति हेतु, मुक्ति भुक्ति को
धाम।
युक्ति, मुक्ति और भुक्ति को मूल सो कहिये काम।।
-देव
दृग अरुझत, टूटत कुटुम्ब, जुरत
चतुर चित प्रीति।
पड़ति गांठ दुर्जन हिये दई नई यह रीति।।
-बिहारी
फागु के भीर अभीरन में गहि
गोविंदै लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की पद्माकर,
ऊपर नाहिं अबीर की झोरी।
छीनी पितंबर कम्मर ते सु
विदा दई मीड़ि कपोलन रोरी
नैन नचाय कही मुसकाय,
'लला फिर आइयो खेलन होरी' ।
-पद्माकर
आँखिन मूंदिबै के मिस,
आनि अचानक पीठि उरोज लगावै
-चिंतामणि
मानस की जात सभै एकै पहिचानबो
-गुरु गोविंद सिंह
अभिधा उत्तम काव्य है मध्य लक्षणा लीन
अधम व्यंजना रस विरस, उलटी कहत प्रवीन।
-देव
अमिय, हलाहल, मदभरे,
सेत, स्याम, रतनार।
जियत, मरत, झुकि-झुकि परत,
जेहि चितवत एक बार।।
-रसलीन
भले बुरे सम, जौ लौ बोलत नाहिं
जानि परत है काक पिक, ऋतु बसंत के माहिं।
-वृन्द
कनक छुरी सी कामिनी काहे को कटि छीन
-आलम
नेही महा बज्रभाषा प्रवीन और सुंदरतानि के भेद को जानै
-बज्रनाथ
एक सुभान कै आनन पै कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ को
-बोधा
आलम नेवाज सिरताज पातसाहन के
गाज ते दराज कौन नजर तिहारी है
-चन्द्रशेखर
देखे मुख भावै अनदेखे कमल चंद
ताते मुख मुरझे कमला न चंद।
-केशवदास
सटपटाति-सी ससि मुखी मुख घूँघट पर ढाँकि
-बिहारी
मेरी भव बाधा हरो
-बिहारी
कुंदन का रंग फीको लगै, झलकै अति अंगनि चारु गोराई।
आँखिन में अलसानि, चित्तौन में मंजु विलासन की सरसाई।।
को बिन मोल बिकात नहीं मतिराम लहे मुसकानि मिठाई।
ज्यों-ज्यों निहारिए नेरे है नैननि त्यों-त्यों खरी निकरै
सी निकाई।।
-मतिराम
तंत्रीनाद कवित्त रस सरस राग रति रंग।
अनबूड़े बूड़ेतिरे जे बूड़ेसब अंग।।
-बिहारी
साजि चतुरंग वीर रंग में तुरंग चढ़ि
-भूषण
गुलगुली गिलमैं, गलीचा है, गुनीजन
हैं, चिक हैं, चिराकैं है, चिरागन की माला हैं।
कहै पदमाकर है गजक गजा हूँ सजी,
सज्जा हैं, सुरा हैं, सुराही
हैं, सुप्याला हैं।
-पद्माकर
रावरे रूप की रीति अनूप, नयो नयो लागै ज्यौं
ज्यौं निहारियै।
त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहूँ नहिं आन तिहारियै।
-घनानंद
घनानंद प्यारे सुजान सुनौ, इत एक तें दूसरो
आँक नहीं।
तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला, मन लेहु पै देहु छटाँक
नहीं।।
[सुजान-घनानंद की प्रेमिका का नाम: घनानंद ने प्रायः सुजान
(एक अर्थ-सुजान, दूसरा अर्थ-श्रीकृष्ण) को संबोधित
करते हुए अपनी कविताएँ रची है]
-घनानंद
चाह के रंग मैं भीज्यौ हियो, बिछुरें-मिलें प्रीतम
सांति न मानै।
भाषा प्रबीन, सुछंद सदा रहै, सो घनजी के कबित्त बखानै।।
-बज्रनाथ (घनानंद के कवि-मित्र एवं प्रशस्तिकार)
उत्तर-मध्यकालीन/रीतिकालीन रचना एवं रचनाकार:-
चिंतामणि - कविकुल कल्पतरु, रस विलास, काव्य विवेक, श्रृंगार
मंजरी, छंद विचार मतिराम - रसराज, ललित ललाम, अलंकार
पंचाशिका, वृत्तकौमुदी
राजा जसवंत सिंह - भाषा भूषण
भिखारी दास - काव्य निर्णय, श्रृंगार निर्णय
याकूब खाँ - रस भूषण
रसिक सुमति - अलंकार चन्द्रोदय
दूलह - कवि कुल कण्ठाभरण
देव -शब्द रसायन, काव्य रसायन, भाव विलास, भवानी विलास, सुजान
विनोद, सुख सागर तरंग
कुलपति मिश्र - रस रहस्य
सुखदेव मिश्र - रसार्णव
रसलीन - रस प्रबोध
दलपति राय - अलंकार रत्नाकर
माखन - छंद विलास
बिहारी -बिहारी सतसई
रसनिधि - रतनहजारा
घनानन्द - सुजान हित प्रबंध, वियोग बेलि,
इश्कलता, प्रीति पावस, पदावली
आलम -आलम केलि
ठाकुर - ठाकुर ठसक
बोधा - विरह वारीश, इश्कनामा
द्विजदेव -श्रृंगार बत्तीसी, श्रृंगार चालीसी, श्रृंगार लतिका
लाल कवि -छत्र प्रकाश (प्रबंध)
पद्माकर भट्ट - हिम्मत बहादुर विरुदावली (प्रबंध)
सूदन - सुजान चरित (प्रबंध)
खुमान- लक्ष्मण शतक
जोधराज - हम्मीर रासो
भूषण -शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक
वृन्द -वृन्द सतसई
राम सहाय दास - राम सतसई
दीन दयाल गिरि -अन्योक्ति कल्पद्रुम
गिरिधर कविराय - स्फुट छन्द
गुरु गोविंद सिंह -सुनीति प्रकाश, सर्वसोलह प्रकाश, चण्डी चरित्र।
रीतिकाल के कवि (कालक्रमानुसार)
रसखान (1533-1585 ई.) : रचनाएँ ౼
1. सुजान रसखान (स्फुट छन्दों का संग्रह, भक्ति, प्रेम, राधा-कृष्ण प्रेम माधुरी),
2. दानलीला (पौराणिक प्रसंग का राधा-कृष्ण के संवाद के रूप में चित्रण)
3. अष्टयाम (कृष्ण की दिनचर्या का वर्णन)
4. प्रेमवाटिका (1614 ई., राधा-कृष्ण को प्रेमोद्यान के मालिन-माली मानकर मानकर प्रेम के गूढ़तत्व का वर्णन )
वैरीसाल रचनाएँ : भाषाभूषण (अलंकार-निरूपक ग्रंथ,1568 ई.)
केशवदास (1555 -1617 ई.) (रीतिकाल के प्रवर्त्तकों में से एक, ब्रजभाषा के अलंकारवादी कवि) :
रचनाएँ ౼
1. रसिकप्रिया (1591 ई., श्रृंगार तथा अन्य रसों का विवेचन, नायिका भेदों, कामदशाओं, रसदोषों इत्यादि का वर्णन 16 प्रकाशों में),
2. नखशिख (1600 ई.),
3. बारहमासा (1600 ई.),
4. रामचन्द्रिका (1601 ई., श्रीराम पर प्रबंधकाव्य),
5. कविप्रिया (1601 ई., अलंकारों, काव्य दोषों आदि का वर्णन, 16 प्रभावों में),
6. छन्दमाला (1602 ई., दो भागों में विभक्त, प्रथम भाग में 77 वर्णवृत्तों और द्वितीय भाग में 26 मात्रावृत्तों का वर्णन),
7. रतनबावनी (1606 ई., प्रबंधकाव्य),
8. वीरसिंहदेव चरित (1607 ई., प्रबंधकाव्य),
9. विज्ञानगीता (1610 ई., प्रबंधकाव्य),
10. जहांगीर जस चन्द्रिका (1612 ई., प्रबंधकाव्य) ।
सेनापति 1589 ई. : रचनाएँ ౼ कवित्त रत्नाकर (1649 ई., 394 छन्दों में रस, अलंकार, रामभक्ति, ऋतु वर्णन) काव्यकल्पद्रुम, गुरु शोभा (1701 ई.), चाणक्य नीति का भावानुवाद ।
बिहारीलाल 1595-1663 ई. : रचना౼ बिहारी सतसई (1662 ई.), कुल 713 दोहे। बिहारी सतसई पर लिखी गई टीकाएँ : कृष्णलाल कवि रचित बिहारी सतसई की पहली टीका (सं. 1719), मान कवि या मानसिंह रचित बिहारी सतसई की दूसरी टीका (सं.1771), शुभकरण और कमलनयन द्वारा संयुक्त रूपेण रचित बिहारी सतसई की 'अनवरचन्द्रिका' नामक टीका (सं. 1771), कर्ण कवि रचित 'साहित्यचन्द्रिका' (सं. 1794), सूरति मिश्र रचित टीका 'अमरचन्द्रिका' (सं. 1794), हरिचरणदास रचित 'साहित्यचन्द्रिका' (सं. 1734), असनी के ठाकुर की टीका देवकीनन्दन टीका (सं. 1861), लल्लूलाल रचित टीका 'लालचन्द्रिका', पं. ज्वाला प्रसाद की टीका 'भावार्थ प्रकाशिका', पद्मसिंह शर्मा की टीका 'संजीवनभाष्य', लाला भगवानदीन का टीका 'बिहारीबोधिनी' और जगन्नाथदास रत्नाकर रचित टीका 'बिहारी रत्नाकर'।
चिंतामणि 1600-1685 ई.:
रचनाएँ - 1. रस-विलास (1630-80 ई., रसविवेचन) 2. श्रृंगार मंजरी (नायक-नायिका भेद) 3, कविकुलकल्पतरु (1650 ई.,सर्वांग निरूपक ग्रंथ) 4. रामायण (रामकथा) 5. रामाश्मेध (रामकथा) 6. काव्य-विवेक 7. छंद-विचार 8. काव्य-प्रकाश 9. श्रृंगार-मंजरी 7. 8. कृष्ण-चरित 9. कवित्त-विचार 10. पिंगल। (भाषा : ब्रज)
तोष कवि की रचनाएँ : सुधानिधि (1634 ई., रसभेद और भावभेद, दो पुस्तकें और मिली हैं--'विनय शतक और नखशिख')। ‘मिश्रबंधु विनोद’ के अनुसार इनके छह ग्रंथों का पता चलता है- ‘कामधेनु’, ‘भैयालाल पचीसी’, ‘कमलापति चालीसा’, ‘दीन व्यंग्यशतक’ और ‘महाभारती छप्पनी’। (माधुरी, नवम्बर-1927, पृ0-584-85) में इनकी सात रचनाओं का उल्लेख है- ‘भारत पंचशिका’ (यही विनोद का ‘महाभारत’ छप्पनी ग्रंथ प्रतीत होता है।) ‘दौलत चन्द्रिका’, ‘राजनीति’, ‘आत्मशिक्षा’, ‘दुर्गापचीसी’ (संभवतः यही भैयालाल पचीसी है), ‘नायिका भेद’ (अपूर्ण) और ‘व्यंग्यशतक’। इनकी शैली सरल, सरस तथा स्वाभाविक है।
भूषन भूषित दूषन हीन प्रवीन महारस मैं छबि छाई।
पूरी अनेक पदारथ तें जेहि में परमारथ स्वारथ पाई
औ उकतैं मुकतै उलही कवि तोष अनोषभरी चतुराई।
सुखदेव मिश्र की रचनाएँ : रस रत्नाकर (1633-1703 ई.), रसार्णव (1633-1703 ई.), वृत्तविचार (1633-1703 ई.), अध्यात्म प्रकाश (1633-1703 ई.)।
रसनिधि 1603-1660 ई. रचनाएँ:౼ रतनहजारा (बिहारी के अनुकरण पर श्रृंगार, भक्ति, नीति आदि के दोहे), विष्णुपद कीर्तन, कवित्त, बारहमासा, रसनिधि सागर, ह्डोला, अरिल्ल आदि।
मतिराम 1604-1701 ई. रचनाएँ:౼ 1. रसराज (1633 ई.) 2. ललितललाम (1661 ई.) 3. मतिराम सतसई (1681 ई.), 4, अलंकार पंचशिका (1690 ई.), 5. छंदसार (1701 ई., वृत्त कौमुदी) 6. साहित्य सार 5. लक्षण श्रृंगार 6. 7. फूलमंजरी 8. (भाषा : ब्रज)।
भूषण 1613-1715 ई. रचनाएँ:౼ 1. शिवराज भूषण 2. भूषण उल्लास 3. दूषण उल्लास 4. भूषण-हजारा 5. शिवा बावनी 6. छत्रसाल दशक । (भाषा ब्रज)
जसवंतसिंह 1627-1729 ई. रचनाएँ : भाषाभूषण (1650 ई.-85 ई.), प्रबंधचन्द्रोदय (1650 ई.-85 ई., नाटक)
कुलपति मिश्र 1630-1700 ई.: रचनाएँ౼ 1. रस रहस्य (1727 ई., मम्मट के काव्य प्रकाश का छायानुवाद) 2. द्रोणपर्व (संवत् 1737), 3. युक्तितरंगिणी (1743), 4. नखशिख, 5. संग्रहसार, 6. गुण रसरहस्य (1724) ।आश्रयदाता : जयपुर महाराज रायसिंह ।
मंडन 1633 ई.: जानकी जू का ब्याह, पुरन्दरमाया।
मुरलीधर भूषण रचनाएँ : छन्दोहृदय प्रकाश (1666 ई.)।
वृन्द 1643-1723 ई.: रचनाएँ : बारहमासा (1668 ई.), भाव पंचाशिका (1680), नयनपचीसी (1686 ई.), श्रृंगार शिक्षा (1691 ई.), पवन पचीसी (1991 ई.), वृंद सतसई (1704 ई.), यमक सतसई (1706 ई.), चोर पंचाशिका, सत्यस्वरूप 8. भारतकथा, समेतशिखर
सूरति मिश्र रचनाएँ : 'श्रीनाथबिलास' (प्रथम कृति, कृष्ण की लीलाओं का वर्णन), 'भक्तविनोद' (भक्तों की दिनचर्या वर्णित) 'कामधेनु' (भगवन्नाम स्मरण के लिए चमत्कारी रचना), 'अलंकारमाला' (1709 ई., अलंकार-ग्रंथ)), रसरत्नमाला, रससरस, रसिकप्रिया की टीका 'रसगाहक चंद्रिका' (1734 ई., जहानाबाद के नसरुल्लाह खाँ के लिए), बिहारी सतसई की 'अमर चंद्रिका' टीका (1737 ई., जोधपुर के दीवान अमरसिंह के लिए), 'जोरावरप्रकाश' (1843 ई., बीकानेर नरेश जोरावर सिंह के आग्रह पर), नखशिख, 'छंदसार' (पिंगलनिरूपक), 'काव्यसिद्धांत' (कविशिक्षा), 'रसरत्न' (नायिकाभेद) तथा 'श्रृंगारसार' (रस से संबंधित)। रसरत्नमाला और रसरत्नाकर नामक रचनाएँ भी इनकी बताई जाती है,
कुमारमणि 1665 ई. रचनाएँ : रसिकरंजन (1708 ई.), रसिकरसाल (1719 ई.)
देव कवि 1673-1767 ई. रचनाएँ : 1. रस-विलास (संवत 1783, 'राजा भोगीलाल को समर्पित)
2. भवानी-विलास (भवानीदत्ता वैश्य के नाम पर) 3. भाव-विलास (1689 ई., रीति कथन, औरंगज़ेब के बड़े पुत्र आजमशाह को सुनाया था) 4. कुशल-विलास (भवानीदत्ता वैश्य के नाम पर) 5. जातिविलास (भिन्न-भिन्न जातियों और भिन्न-भिन्न प्रदेशों की स्त्रियों का वर्णन), 6. प्रेमपचीसी 7. प्रेम-तरंग 8. प्रेम चंद्रिका (राजा उद्योत सिंह वैश्य के लिए) 9. प्रेमदीपिका 10. शब्द-रसायन (1680 ई., काव्य-रसायन, काव्यशास्त्र के सभी अंगो का वर्णन, आचार्यत्व), रागरत्नाकर (राग रागनियों के स्वरूप का वर्णन), देव शतक, देवचरित्र (कृष्ण कथा), सुजान विनोद, सुखसागर तरंग (1689 ई., अनेक ग्रंथों से लिए हुए कवित्तों का संग्रह), अष्टयाम (रात-दिन के भोगविलास की दिनचर्या, औरंगज़ेब के बड़े पुत्र आजमशाह को सुनाया था), देवमाया प्रपंच (नाटक, धर्म विवेचन), राधिकाविलास, ब्रह्मदर्शन पचीसी (विरक्ति का भाव), तत्वदर्शन पचीसी (विरक्ति का भाव), वृक्ष विलास (अन्योक्ति) । ( भाषा : ब्रज) आश्रयदाता : राजा भोगीलाल
घनानन्द 1689-1739 ई.: रचनाएँ ౼1. सुजानसागर 2. विरहलीला 3. कोकसार 4. रसकेलिबल्ली 5. कृपाकांड।
रसलीन (पूरा नाम : सैयद ग़ुलाम नबी रसलीन)1699-1750 ई. : रचनाएँ౼ अंगदर्पण (1737 ई., नखशिख-वर्णन, कुल 180 दोहे में नायिका के अंगों, आभूषणों, भंगिमाओं, चेष्टाओं आदि का उपमा तथा उत्प्रेक्षा युक्त चमत्कारपूर्ण वर्णन), रसप्रबोध (1742 ई., 1127 दोहे में रस, भाव, नायिकाभेद, षट्ऋतु वर्णन, बारहमासा आदि अनेकानेक प्रसंग वर्णित) स्फुट छन्द ।
अमिय, हलाहल, मद भरे, सेत स्याम रतनार।
जियत, मरत, झुकि झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।
सोमनाथ 1700-1760 ई. रचनाएँ : 1. रसपीयूषनिधि (1737 ई.) 2. श्रृंगार-विलास (1725-1760 ई.) 3. सुजान-विलास (1730 ई.) 4. पंचाध्यायी 5. कृष्णलीलावती 6. माधवविनोद (1752 ई., नाटक)।
भिखारीदास 1705-1770 ई. रचनाएँ : 1. काव्य-निर्णय (1725-60 ई., सभी काव्यांगों का विवेचन) 2. रस-सारांश (1725-60 ई., नायक-नायिका भेद) 3. श्रृंगार निर्णय (1725-60 ई.) 4. छंदोर्णवपिंगल (1725-60 ई.), 5. शब्द नामकोश (1725-60 ई.) 6. विष्णु पुराण भाषा (1725-60 ई.) 7. शतरंज शतिका (1725-60 ई.) 8. छन्दप्रकाश।
आश्रयदाता : प्रतापगढ़ के सोमवंशी राजा पृथ्वीसिंह के भाई बाबू हिंदूपतिसिंह।
कालिदास त्रिवेदी रचनाएँ : 'वधू विनोद' (संवत 1749, नायिका भेद और नख शिख की पुस्तक), 'जँजीराबंद' (बत्तीस कवित्तों की), 'राधा माधव बुधा मिलन विनोद', 'कालिदास हज़ारा' (इसमें संवत 1481 से लेकर संवत 1776 तक के 212 कवियों के 1000 पद्य संग्रहीत)
श्रीपति रचनाएँ : 1. काव्य-सरोज (1750 ई., काव्यांगों का निरूपण) 2. कविकल्पद्रुम 3. सरोजकालिका 4. विक्रम-विलास 5. अनुप्रास-विनोद 6. अलंकार-गंगा, रससागर। श्रीपति ने काव्य के सब अंगों का निरूपण किया है।
रंजन मदन, तन गंजन बिरह, बिबि,
खंजन सहित चंदबदन तिहारो है
ब्रजवासीदास 1733 ई. : प्रबोधचन्द्रोदय नाटक।
रसिक गोविन्द 1743-1838 ई.: रामायणसूचनिका।
दूलह 1750 ई.: 'कविकुल कंठाभरण' (1750 ई., अलंकार ग्रंथ)
पद्माकर 1753-1833 ई. रचनाएँ : 1. पदमाभरण (1810 ई.) 2. हिम्मत बहादुर विरुदावली 3. जगद् विनोद (1803-21 ई.) 4. प्रबोध पचासा (1803-21 ई.) 5. 6. 7. गंगालहरी (1803-21 ई.) राम रसायन (1803-21 ई.) 8. हिम्मत बहादुर विरुदावली (1792 ई.), प्रतापसिंह विरुदावली (1803-21 ई.) विनोद पचासा, यमुनालहरी । (भाषा : ब्रजभाषा)
गुलगुली गिल में गलीचा हैं, गुनीजन हैं,
चाँदनी है, चिक है चिरागन की माला हैं।
कहैं पद्माकर त्यौं गजक गिजा है सजी
सेज हैं सुराही हैं सुरा हैं और प्याला हैं।
तान तुक ताला है, विनोद के रसाला है,
सुबाला हैं, दुसाला हैं विसाला चित्रसाला हैं।
बेनी प्रवीन रचनाएँ : श्रृंगार भूषण, नवरसतरंग (1817 ई., नायिका भेद के उपरांत रस भेद और भाव भेद का संक्षेप में निरूपण), 'नानारावप्रकाश' (अलंकार ग्रंथ) ।
रसिक गोविंद 1794-1834 ई.: रचनाएँ౼ रसिक गोविंदानंद घन (सं. 1858, रस, नायक-नायिका भेद, अलंकार, गुण, दोष आदि का विस्तृत वर्णन), अष्टदेशभाषा (ब्रज, खड़ी बोली, पंजाबी, पूरबी आदि आठ बोलियों में राधाकृष्ण की शृंगारलीला का वर्णन), 'पिंगल' (छंदों का निरूपण), 'समयप्रबंध' (राधा-कृष्ण की शृंगारलीलाओं का अनेक ऋतुओं के संदर्भ में वर्णन), रामायण सूचनिका या ककहरा रामायण (ककारादि क्रम से सारी राम-कथा का 33 दोहों में वर्णन, सं. 1859 वि. के पूर्व), कलियुगरासो (16 कवित्त में कलि के दुष्प्रभावों से बचने के लिए श्रीकृष्ण से प्रार्थना, संवत् 1866 विक्रमी)), 'लछिमनचंद्रिका' (काशीवासी जगन्नाथ कान्यकुब्ज के बेटे लक्ष्मण के लिए, संवत् 1887 वि., 'रसिक-गोविंदानंदधन' के वर्ण्यविषय को समझाने के लिए), रसिक गोविंद (सं.1890, चंद्रालोक या भाषाभूषण के ढंग की अलंकार की पुस्तक), युगलरस माधुरी (रोलाछंद में 'राधा-कृष्ण विहार' और वृंदावन का बहुत ही सरल और मधुर भाषा में वर्णन)
'रसिकगोविंद' (अलंकारनिरूपक ग्रंथ, अलंकार-लक्षण-उदाहरण छंदबद्ध रूप में, संवत 1891 वि.)।
ठाकुर 1770-1827 ई. : रचनाएँ ౼ 1. ठाकुर ठसक 2. शतक ।
अमीरदास 1783-1868 ई.: रचनाएँ౼ 1. सभा मंडन (1827 ई.) 2. वृतचंद्रोदय (1830 ई.) 3. ब्रजविलास सतसई (1832 ई.) 4. अमीर प्रकाश 5. श्रीकृष्ण साहित्य सिंधु 6. शेरसिंह प्रकाश 7. वैद्यकल्पतरु 8. (भाषा : ब्रजभाषा)
ग्वाल कवि 1791-1868 ई.(रीतिकाल के रीतिग्रंथकार कवि और अन्तिम आचार्य) :
रचनाएँ౼ रसिकानन्द, साहित्यानन्द, रसरंग, अलंकार भ्रमभंजन, दूषणदर्पण (कवि दर्पण) तथा प्रस्तार प्रकाश।'दूषण दर्पण' में हिन्दी कवियों की कविताओं के उदाहरण संकलित करके उनका विस्तार से दोष विवेचन किया है। रचनाएँ : अलंकारमाला, रसरत्नमाला, नखशिख, काव्य-सिद्धांत, रसरत्नाकर, श्रृंगार सागर, भक्तिविनोद
बेनीबन्दीजन 1792-1833 ई. : रचनाएँ౼ टिकैतराय प्रकाश, भड़ैवा संग्रह, रसविलास।
चंद्रशेखर वाजपेयी 1798-1875 ई. रचनाएँ : हम्मीर हठ (1845 ई. ), नखशिख, रसिकविनोद (1846 ई., नायिकाभेद और रसों का वर्णन), वृंदावनशतक, गुरुपंचाशिंका, ज्योतिष का ताजक, माधवी
वसंत, हरि-भक्ति-विलास (हरि-मानसविलास), विवेकविलास, राजनीति का एक वृहत् ग्रंथ।
जोधपुर के राजा मानसिंह, पटियालाधीश कर्मसिंह और महाराज नरेंद्रसिंह के आश्रय में रहे।
प्रताप साहि 1823 से 1842 ई. (कविताकाल): 'व्यंग्यार्थ कौमुदी' (सं. 1882, कवित्त, दोहे, सवैये मिलाकर 130 पद्य, सब व्यंजना या ध्वनि के उदाहरण हैं) 'काव्य विलास' (सं. 1886), जयसिंह प्रकाश, शृंगारमंजरी, शृंगार शिरोमणि, अलंकार चिंतामणि, काव्य विनोद, रसराज की का, रत्नचंद्रिका, जुगल नखशिख, बलभद्र नखशिख की टीका।
'व्यंग्यार्थ कौमुदी' का सवैया౼
सीख सिखाई न मानति है, बर ही बस संग सखीन के आवै।
खेलत खेल नए जल में, बिना काम बृथा कत जाम बितावै
छोड़ि कै साथ सहेलिन को, रहि कै कहि कौन सवादहि पावै।
कौन परी यह बानि, अरी! नित नीरभरी गगरी ढरकावै
घड़े के पानी में अपने नेत्रों का प्रतिबिंब देख उसे मछलियों का भ्रम होता है। इस प्रकार का भ्रम एक अलंकार है। अत: भ्रम या भ्रांति अलंकार, यहाँ व्यंग्य हुआ। 'भ्रम' अलंकार में 'सादृश्य' व्यंग्य रहा करता है। अत: अब इस व्यंग्यार्थ पर पहुँचे कि 'नेत्र मीन के समान हैं'।
आश्रयदाता : चरखारी (बुंदेलखंड) के महाराज 'विक्रमसाहि'
द्विजदेव 1830-1871 ई. (अयोध्या के महाराज मान सिंह, रीतिकालीन स्वच्छन्द मुक्तक काव्य परम्परा के अंतिम कवि) रचनाएँ : श्रृंगार लतिका (वसन्त और नखशिख वर्णन), श्रृंगार बत्तीसी (यह पहलब पुस्तक का ही अंश है)।
तू जो कही, सखि ! लोनो सरूप, सो मो अँखियान कों लोनी गई लगि।
खोलि इन नैननि निहारौ तो निहारौ कहा।
आश्रयदाता : चरखारी (बुंदेलखंड) के महाराज 'विक्रमसाहि'
रघुराज सिंह 1833-1879 ई. रचनाएँ : रामस्वयंवर (रामकथा पर आधारित प्रबंध-काव्य संवत् 1926)
रसरूप रचनाएँ : तुलसी भूषण (अलंकार-निरूपक ग्रंथ)
जगत् सिंह रचनाएँ : साहित्यसुधानिधि।
गिरधरदास रचनाएँ : रसरत्नाकर, भारती भूषण, उत्तरार्द्ध नायिका भेद।
रहीम रचनाएँ : बरवै नायिका भेद, नगरशोभा।
रामसहायदास (कविताकाल 1803-1823 ई.) रचनाएँ : रामसहाय ने 'रामसतसई' (शृंगार रस का
उत्तम ग्रंथ, बिहारी सतसई के अनुकरण पर)), 'श्रृंगार सतसई', रामसप्तसति , 'ककहरा', 'बानी
भूषण', नामक काव्य ग्रंथ रचे थे। 'बिहारी सतसई' के अनुकरण पर इन्होंने 'रामसतसई' बनाई
थी।'रामसतसई', 'रामसप्तसति' और 'शृंगारसतसई' तीनों एक ही रचना के तीन नाम ज्ञात होते हैं। इस के
अतिरिक्त इन्होंने तीन पुस्तकें और लिखी हैं – वाणीभूषण (अलंकारनिरूपक ग्रंथ), वृत्ततरंगिणी
(संवत्र् 1873, पिंगल-ग्रंथ), 'राम सप्त शतिका' और ककहरा (अंतिम रचना, जायसी की 'अखरावट' के ढंग
पर लिखित धर्म और नीति के उपदेश की पुस्तक)।
ये काशी नरेश 'महाराज उदित नारायण सिंह' के आश्रय में रहते थे।
उत्तर मध्यकाल (रीतिकील) की मुख्य काव्यधाराएँ (प्रवृत्तियाँ)
1. रीतिकाव्य प्रवृत्ति
2. रीतिबद्ध या रीतिसिद्ध श्रृंगार काव्य
3. रीतिमुक्त प्रेमकाव्य-धारा
4. वीर काव्य-धारा
5. नीति काव्य-धारा
6. दक्खिनी हिन्दी प्रेमाख्यान या मसनवी काव्य-धारा
7. उत्तर भारत की प्रेमाख्यान काव्य-धारा
8. भक्तिकाव्य-धारा।
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