कृष्णा सोबती : मन को अभिव्यक्त करने वाली कथाकार
भारतीय भाषाओं के साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए दिया जाने वाला देश का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार वयोवृद्ध कथाकार कृष्णा सोबती को दिए जाने की घोषणा की गयी है| हिंदी कथा साहित्य की मजबूत स्वर रही कृष्णा सोबती को यह पुरस्कार महज उनकी सृजनशीलता की उत्कृष्टता का सम्मान नहीं है अपितु उन्हें यह पुरस्कार दिये जाने से स्वयं में ज्ञानपीठ पुरस्कार ही अधिक गौरवान्वित हुआ है | इसके पहले साहित्य अकादमी सम्मान सहित कई साहित्यिक पुरस्कारों से नवाजी जा चुकी हैं| 18 फरवरी 1924 को गुजरात (वर्तमान पाकिस्तान) में जन्मी कृष्णा सोबती की जीवन यात्रा 93 वर्ष पूरी हो गई है और 1950 में कहानी ‘लामा’ से साहित्यिक सफर शुरू करने वाली सोबती की साहसपूर्ण सर्जनात्मकता अपनी सम्पूर्ण प्रखरता और उर्जा के साथ अभी भी अक्षुण्ण है| ‘सूरजमुखी अँधेरे के’, ‘दिलोदानिश’, ‘ज़िन्दगीनामा’, ‘ऐ लड़की’, ‘समय सरगम’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘जैनी मेहरबान सिंह’, ‘हम हशमत’, ‘बादलों के घेरे’ और हाल ही प्रकाशित ‘बुद्ध का कमंडल लद्दाख’ और ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान’ उनकी कालजयी रचनाएं हैं जिसमें युग-बोध और भाव बोध जीवन की सहज लय में रच-बस कर अभिव्यक्त हुआ है |
कृष्णा सोबती
विभाजन की त्रासदी को इसी नजरिये से परखते हुए कृष्णा सोबती ने हाल ही में एक अद्भुत आत्मकथात्मक उपन्यास ‘गुजरात पकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ लिखा है जिसमें उन्होंने युवा दिनों की उन घटनाओं को याद किया है जो भारत और पाकिस्तान की आजादी के अंतिम दो-तीन वर्षों में घट रही थी| खासतौर से 16 अगस्त 1946 के ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के बाद लाहौर से लेकर बिहार और बंगाल तक हिंसा और उस धर्म विशेष की महिलाओं के साथ अमानुषिक अत्याचार के व्यापक परिप्रेक्ष्य में स्त्री देह और मन पर क्या गुज़री है, को कृष्णा सोबती ने अत्यंत ही मनोवैज्ञानिकता के साथ बयान किया है | उपन्यास कदम दर कदम इस सवाल से जूझता चलता है, ‘बेदखल होने का मतलब क्या होता है?’ लेकिन विभाजन के बाद बेदखल होने का दर्द कुछ ऐसा था कि ‘ना कोई यहां था आंसू पोंछने के लिए और न ही कोई वहां था कंधा देने के लिए’| इस प्रकार यह उपन्यास कृष्णा सोबती की जिंदगी के एक अत्यंत ही संवेदनशील पहलू से हमें रूबरू कराता है| इस उपन्यास में उनकी कहानी ‘सिक्का बदल गया’ के मानवीय संवेदनाओं के ह्रास और नैतिक मूल्यों के पतन से आगे बढ़ते हुए रिश्तों में आए बदलाव को व्यापक फलक पर अभिव्यक्त किया गया है | ‘सिक्का बदल गया’ में उस दर्द को बयान किया गया है जो सत्ता(व्यवस्था) का सिक्का बदलते ही अपने साथ के लोगों का व्यवहार कैसे बदल जाता है | दरअसल यह कहानी राजनीतिक सत्ता परिवर्तन या बदलाव की ओर संकेत करने की अपेक्षा सैंकड़ों सालों से रह रहीं दो भिन्न संस्कृतियों और धर्मों के लोगों की मनःस्थिति में आए बदलाव की ओर संकेत करती है। कुल मिलाकर यह कहानी उस तोड़-फोड़ को अभिव्यक्त करती है जो विभाजन के दौरान राजनीतिक स्तर से अधिक मानसिक और नैतिक मूल्यों के स्तर पर हुई।
स्त्री की अस्मिता और मुक्ति के सवाल के साथ स्त्री चरित्रों को लेकर निर्भिकता और खुलापन कृष्णा सोबती के रचनाकर्म का अभिन्न अंग रहा है| स्त्रियों की मुक्ति की छटपटाहटों और घर की चहारदीवारी से बाहर निकलने की हसरतें उनके कथा साहित्य में अनायास ही नहीं चली आती हैं बल्कि उसे उन्होंने एक पारदर्शी भाषा के द्वारा महिलाओं की कल्पना के सांचे में ढाल दिया है| स्त्री मन की ग्रंथियों और उलझनों को समझने और अभिव्यक्त करने में सिद्धहस्त कृष्णा सोबती का ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ विभाजन के बाद परिवेश में एक ऐसी लड़की की है जो बाल यौन शोषण का शिकार होती है जिसका उसकी मनःस्थिति ऐसा असर होता है कि यौनावस्था में खुद के शरीर को हर तरह से प्रयोग कर फेक दिए गए चिथड़े के समान समझने लगती है, जिसमे न कोई आकर्षण होता है, न जिसका कोई प्रयोग हो और न ही जिसकी कोई ज़रूरत महसूस करता है| ‘मित्रो मरजानी’ साहित्य और देह के वर्जित प्रदेश की यात्रा है जिसमें मध्य वर्गीय/संयुक्त पारिवारिक परिवेश में मित्रो बड़ी बेबाक, निडर और सक्षम रूप से अपनी देह की माँग को किसी अपराध बोध से जोड़कर नहीं देखती । मित्रो की इस मुखरता एक ओर न केवल रुढ़िवाद को सकते में डाल देता है बल्कि लकीरवादी स्त्री चेतनावादी भी ठगी रह गई| मानवीय स्वातंत्र्य की हिमायत और रूढ़ि का प्रतिरोध कृष्णा सोबती जी के कथा साहित्य की मौलिक विशेषता है। ‘दिलोदानिश’ और ‘डार से बिछुड़ी’ नारी-उत्पीड़न की गाथाएँ हैं | ‘डार से बिछुड़ी’ में अपने मूल जड़ से कटी, बाजार में खरीदी-बेचीं, लूटी और भगाई स्त्री की कहानी है जो एक कुत्ते की तरह वफ़ादार बनकर अपने हर ‘मालिक’ को सुखी रखने की कोशिश करती है और उनके सुख-दुःख को अपना मानकर अपनी जिंदगी सार्थक करती है लेकिन अपनी सूक्ष्मता में पुरुषवादी समाज की सामंती और ऐय्याश मानसिकता की विद्रूपता को भी परत-दर-परत उघाडती भी है| नारी मनोविज्ञान की विशेषज्ञ सोबती ने ‘दिलोदानिश’ में नारी समाज की इस विडम्बना का साक्षात्कार करती है कि नारी चाहे पत्नी हो या प्रेमिका, उपेक्षा, शोषण और उत्पीड़ित होने के लिए अभिशप्त है |
‘समय सरगम’ जीवन के अंतिम पड़ाव पर खड़ी अरण्या के अकेलेपन के माध्यम से एक पुरानी और नई सदी के दो छोरों को समेटता हुआ और जीए हुए अनुभव की तटस्थता और सामाजिक परिवर्तन से उभरा एक अनूठा उपन्यास है। वृद्ध अरण्या अविवाहित रहने के बावजूद जीवन को अपनी शर्त्तों पर जीने में भरोसा करती है | धर्म, अध्यात्म और सामाजिक नियमों का उसके सामने कोई मूल्य नहीं है | दूसरे शब्दों में, परंपरा और आधुनिकता का समन्वय ही ‘समय सरगम’ है। `ऐ लड़की' (1991) जीवन के अंतिम पड़ाव पर एक बीमार बूढी महिला की अदम्य जिजीविषा का महाकाव्य है | वह अपनी लड़की के संवाद में अपने बीते जीवन की स्मृतियों से गुजरती है और ज़िन्दगी के सभी आयामों को छूती हैं फिर चाहे वो दुःख हो या ख़ुशी या जीवन हो या मौत, प्रेम हो या विवाह | उस बूढी महिला का दर्द न जाने कितनी सारी स्त्रियों का दर्द है, जिसने अपने हिस्से का जीवन जीया ही नहीं। फिर भी यह कहानी मौत से डरने की नहीं, बल्कि उससे जूझने–जीतने और उसके निषेध की कहानी बन जाती है| इन दोनों उपन्यासों के माध्यम से कृष्णा सोबती ने बुजुर्गों की कथा के माध्यम से जीवन के अंतिम छोर पर जी रहे लोगों की उलझनों, मानसिक द्वंद्वों, जीवन-शैली, मृत्युमय आदि कई विषयों पर दार्शनिक चिंतन प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही नारी जीवन की बदलती सोच एवं अपने अधिकारों के प्रति सजगता को भी रेखांकित किया है। ‘बादलों के घेरे’ की कहानियों में सामाजिक परिवेश और पारिवारिक दायरे को स्वानुभूति के स्तर पर लाकर अभिव्यक्त करने के कारण इनमें नारी जीवन के प्रति गहरी संवेदनात्मक प्रतिक्रिया है | ये कहानियाँ संवेदना और शिल्प दोनों स्तरों पर कहानी के परंपरागत स्वरुप को काफी सार्थकता से तोड़ती है|
‘ज़िंदगीनामा’ (1979)
‘बुद्ध का कमंडल लद्दाख’ भी एक तरह से नारी दृष्टि से लद्दाख की संस्कृतिक, सामाजिक राजनीतिक यात्रा है| कृष्णा सोबती के अनुसार स्त्रियों की देह प्रकृति और हमारे बीच एक फिल्टर की तरह हो जाती है और तब हम न देह का आनंद पा पाते हैं, और न प्रकृति का | वे मानती है कि स्त्रियों के लिए यात्राएं आसान नहीं नहीं हैं, बाहर से बचते हुए स्त्री अक्सर अपनी देह में कैद हो जाती है, उस देह को होनेवाले खतरों की कल्पना में और विडम्बना यह कि खतरा किसी कीड़े-मकोड़े या भालू से नहीं बल्कि पुरुष से | नारी स्वतंत्रता और अस्मिता की पक्षकार सोबती खुद को पाने के लिए, खुद से प्यार करने के लिए, तयशुदा जवाबों को घर पर छोड़ कर सिर्फ सवालों को पाने के लिए कभी खुद से बाहर निकलने का समर्थन करती हैं |
कृष्णा सोबती का रचनात्मक विकास वस्तु के स्तर पर ही नहीं, भाषा और शिल्प के स्तर पर होता रहा है। उनके रचनाकर्म में भाषागत प्रयोगशीलता स्पष्ट परिलक्षित होती है| उनकी भाषिक रचनात्मकता का ताना-बाना कथ्य के अनुरूप रुपांतरित होता जाता है | उनकी हर कृति में भाषा बदलती है क्योंकि हर कृति में नए-नए चरित्रों को गढ़ने की कारीगरी और उस चरित्र का दबाव भाषिक संरचना को बदलने के लिए विवश करता है| कृष्णा सोबती के चरित्रों के संवाद ऐसे मालूम होते हैं जैसे ये संवाद स्वयं उनके सामने बोले या कहे गये हों। ‘मित्रो मरजानी’ की भाषा सोबती की भाषा नहीं है बल्कि उपन्यास की मित्रो की भाषा है जबकि ‘ए लड़की’ में भाषा का तेवर और गहराई बिल्कुल अलग है| ज़िंदगीनामा की भाषा खेतिहर समाज की भाषा है और बोलियों का अद्भुत संसार है तो ‘यारों के यार’ में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ है, जो कुछ लोगों को बोल्ड, अश्लील और मर्दानी गालियों से अचंभित कर देने वाली भाषा लगती है| ‘दिलोदानिश’ की भाषा पुरानी दिल्ली की शहराती उर्दू की भाषा है | ‘सिक्का बदल गया’ पंजाब की पृष्ठभूमि और विभाजन के पश्चात वहाँ के माहौल को लेकर लिखी गयी है। इसकी भाषा में पंजाबी तड़का को महसूस किया जा सकता है | साथ ही विभाजन के ध्वंस के बाद विभाजन के पश्चात अपनी जड़ों से अलग होने पर मजबूर हो गये लोगों की मनःस्थिति का असल हकीकत बयान करने में सक्षम है |
इसप्रकार नूतन जीवन बोध के साथ एक विशिष्ट शिल्प विधान में कृष्णा सोबती की कथा-भूमि न केवल पाठकों और आलोचकों को चौंकाती है बल्कि एक अभिनव संदेश भी देती है | एक ओर बेखौफ और बेलौस लेकिन दूसरी ओर बिल्कुल तटस्थ रूप से स्त्री चरित्र की सहजता और संवेदना का आख्यान करने वाली इस उस्ताद कारीगर को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना स्वागत योग्य है, वे निःसंदेह इसकी हक़दार है |
0 टिप्पणियाँ