सुमित्रानन्दन पन्त - जीवन परिचय और रचनाएँ
सुमित्रानन्दन पन्त जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि "कविता करने की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि कूर्माचल प्रदेश को है।"
जीवन-परिचय
प्रकृति के अनुपम चितेरे कवि सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म हिमालय की गोद में बसे उत्तरांचल प्रदेश के कौसानी ग्राम में 20 मई सन् 1900 ई. को हुआ था। जन्म के कुछ घण्टों पश्चात् ही इनकी माता का निधन हो जाने के कारण इनका लालन-पालन इनकी दादी ने किया।गाँव की पाठशाला और राजकीय हाईस्कूल अल्मोड़ा से शिक्षा प्राप्त करने के बाद काशी से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। अल्मोड़ा में पढ़ते समय ही इन्होंने अपना नाम गुसांई दत्त से बदलकर सुमित्रानन्दन रख लिया। इसके बाद जब ये इलाहाबाद के सेण्ट्रल म्योर कॉलेज से इण्टर कर रहे थे, तभी गांधी जी के आन्दोलन से प्रभावित होकर कॉलेज छोड़ बैठे और स्वाध्याय से ही अंग्रेजी, संस्कृत और बंगला को अध्ययन किया।
अपने कोमल स्वभाव के कारण सत्याग्रह में सम्मिलित नहीं हुए और साहित्य साधना में संलग्न हो गए। सन 1931 ई. में ये कालाकांकर आ गए। वहा मार्क्सवाद का अध्ययन किया और फिर प्रयाग आकर प्रगतिशील विचारों की पत्रिका 'रूपाभ' निकाली।
सन् 1942 ई. में 'भारत छोड़ो आन्दोलन' से प्रेरित होकर 'लोकायन' नामक सांस्कृतिक पीठ की योजना बनाई। उसे क्रियान्वित करने के लिए विश्व प्रसिद्ध नर्तक उदयशंकर से सम्बन्ध स्थापित किया और भारत भ्रमण के लिए निकल पड़े। इसी भ्रमण में इनका श्री अरविन्द से परिचय हुआ और उनके दर्शन से प्रभावित होकर प्रयाग लौटकर अनेक काव्य संकलन प्रकाशित किए जिन पर 'अरविन्द दर्शन' का स्पष्ट प्रभाव झलकता है। यथा: 'स्वर्ण किरण', 'स्वर्ण धूलि', 'उत्तरा' आदि।
सन 1950 में आकाशवाणी से सम्बद्ध हुए और प्रयाग में रहकर स्वच्छन्द रूप से साहित्य स्रजन करने लगे। भारत सरकार ने इनको 'पद्म विभूषण' की उपाधि से अलंकृत किया। इन्हें 'लोकायतन' पर 'सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार' और 'चिदम्बरा' पर ज्ञानपीठ पुरूस्कार प्राप्त हुआ। 29 दिसम्बर, सन् 1977 ई. को इनका निधन हो गया।
साहित्य सृजन :-
सात वर्ष की उम्र में, जब वे चौथी कक्षा में ही पढ़ रहे थे, उन्होंने कविता लिखना शुरु कर दिया था। १९१८ के आसपास तक वे हिंदी के नवीन धारा के प्रवर्तक कवि के रूप में पहचाने जाने लगे थे। इस दौर की उनकी कविताएं वीणा में संकलित हैं। १९२६ में उनका प्रसिद्ध काव्य संकलन ‘पल्लव’ प्रकाशित हुआ। कुछ समय पश्चात वे अपने भाई देवीदत्त के साथ अल्मोडा आ गये। इसी दौरान वे मार्क्स व फ्रायड की विचारधारा के प्रभाव में आये। १९३८ में उन्होंने 'रूपाभ' नामक प्रगतिशील मासिक पत्र निकाला। शमशेर, रघुपति सहाय आदि के साथ वे प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुडे रहे। वे १९५० से १९५७ तक आकाशवाणी से जुडे रहे और मुख्य-निर्माता के पद पर कार्य किया। उनकी विचारधारा योगी अरविन्द से प्रभावित भी हुई जो बाद की उनकी रचनाओं 'स्वर्णकिरण' और 'स्वर्णधूलि' में देखी जा सकती है। “वाणी” तथा “पल्लव” में संकलित उनके छोटे गीत विराट व्यापक सौंदर्य तथा पवित्रता से साक्षात्कार कराते हैं। “युगांत” की रचनाओं के लेखन तक वे प्रगतिशील विचारधारा से जुडे प्रतीत होते हैं। “युगांत” से “ग्राम्या” तक उनकी काव्ययात्रा प्रगतिवाद के निश्चित व प्रखर स्वरों की उद्घोषणा करती है। उनकी साहित्यिक यात्रा के तीन प्रमुख पडाव हैं – प्रथम में वे छायावादी हैं, दूसरे में समाजवादी आदर्शों से प्रेरित प्रगतिवादी तथा तीसरे में अरविन्द दर्शन से प्रभावित अध्यात्मवादी। १९०७ से १९१८ के काल को स्वयं उन्होंने अपने कवि-जीवन का प्रथम चरण माना है। इस काल की कविताएँ वाणी में संकलित हैं। सन् १९२२ में उच्छ्वास और १९२६ में पल्लव का प्रकाशन हुआ। सुमित्रानंदन पंत की कुछ अन्य काव्य कृतियाँ हैं - ग्रन्थि, गुंजन, ग्राम्या, युगांत, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, कला और बूढ़ा चाँद, लोकायतन, चिदंबरा, सत्यकाम आदि। उनके जीवनकाल में उनकी २८ पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिनमें कविताएं, पद्य-नाटक और निबंध शामिल हैं। पंत अपने विस्तृत वाङमय में एक विचारक, दार्शनिक और मानवतावादी के रूप में सामने आते हैं किंतु उनकी सबसे कलात्मक कविताएं 'पल्लव' में संगृहीत हैं, जो १९१८ से १९२५ तक लिखी गई ३२ कविताओं का संग्रह है। इसी संग्रह में उनकी प्रसिद्ध कविता 'परिवर्तन' सम्मिलित है। 'तारापथ' उनकी प्रतिनिधि कविताओं का संकलन है। [3] उन्होंने ज्योत्स्ना नामक एक रूपक की रचना भी की है। उन्होंने मधुज्वाल नाम से उमर खय्याम की रुबाइयों के हिंदी अनुवाद का संग्रह निकाला और डाॅ○ हरिवंश राय बच्चन के साथ संयुक्त रूप से खादी के फूल नामक कविता संग्रह प्रकाशित करवाया। चिदम्बरा पर इन्हे 1972 मे ज्ञानपीठ पुरस्कार से ,काला और बूढ़ा चांद पर साहित्त्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
विचारधारा :-
उनका संपूर्ण साहित्य 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' के आदर्शों से प्रभावित होते हुए भी समय के साथ निरंतर बदलता रहा है। जहां प्रारंभिक कविताओं में प्रकृति और सौंदर्य के रमणीय चित्र मिलते हैं वहीं दूसरे चरण की कविताओं में छायावाद की सूक्ष्म कल्पनाओं व कोमल भावनाओं के और अंतिम चरण की कविताओं में प्रगतिवाद और विचारशीलता के। उनकी सबसे बाद की कविताएं अरविंद दर्शन और मानव कल्याण की भावनाओं से ओतप्रोत हैं।[4] पंत परंपरावादी आलोचकों और प्रगतिवादी तथा प्रयोगवादी आलोचकों के सामने कभी नहीं झुके। उन्होंने अपनी कविताओं में पूर्व मान्यताओं को नकारा नहीं। उन्होंने अपने ऊपर लगने वाले आरोपों को 'नम्र अवज्ञा' कविता के माध्यम से खारिज किया। वह कहते थे 'गा कोकिला संदेश सनातन, मानव का परिचय मानवपन।'
पुरस्कार व सम्मान:-
हिंदी साहित्य सेवा के लिए उन्हें पद्मभूषण(1961), ज्ञानपीठ(1968), साहित्य अकादमी , तथा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से अलंकृत किया गया। सुमित्रानंदन पंत के नाम पर कौसानी में उनके पुराने घर को, जिसमें वह बचपन में रहा करते थे, 'सुमित्रानंदन पंत वीथिका' के नाम से एक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। इसमें उनके व्यक्तिगत प्रयोग की वस्तुओं जैसे कपड़ों, कविताओं की मूल पांडुलिपियों, छायाचित्रों, पत्रों और पुरस्कारों को प्रदर्शित किया गया है। इसमें एक पुस्तकालय भी है, जिसमें उनकी व्यक्तिगत तथा उनसे संबंधित पुस्तकों का संग्रह है।
सन २०१५ में पन्त जी की याद में एक डाक-टिकट जारी किया गया था।
उत्तराखण्ड में कुमायूँ की पहाड़ियों पर बसे कौसानी गांव में, जहाँ उनका बचपन बीता था, वहां का उनका घर आज 'सुमित्रा नंदन पंत साहित्यिक वीथिका' नामक संग्रहालय बन चुका है। इस में उनके कपड़े, चश्मा, कलम आदि व्यक्तिगत वस्तुएं सुरक्षित रखी गई हैं। संग्रहालय में उनको मिले ज्ञानपीठ पुरस्कार का प्रशस्तिपत्र, हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा मिला साहित्य वाचस्पति का प्रशस्तिपत्र भी मौजूद है। साथ ही उनकी रचनाएं लोकायतन, आस्था आदि कविता संग्रह की पांडुलिपियां भी सुरक्षित रखी हैं। कालाकांकर के कुंवर सुरेश सिंह और हरिवंश राय बच्चन से किये गये उनके पत्र व्यवहार की प्रतिलिपियां भी यहां मौजूद हैं।
संग्रहालय में उनकी स्मृति में प्रत्येक वर्ष पंत व्याख्यान माला का आयोजन होता है। यहाँ से 'सुमित्रानंदन पंत व्यक्तित्व और कृतित्व' नामक पुस्तक भी प्रकाशित की गई है। उनके नाम पर इलाहाबाद शहर में स्थित हाथी पार्क का नाम 'सुमित्रानंदन पंत बाल उद्यान' कर दिया गया है।
रचनाएँ
इनकी प्रमुख रचनाओं का विवरण इस प्रकार है :- काव्य कृतियाँ - 'वीणा', 'ग्रन्थि', 'पल्लव', 'गुंजन', 'युगान्त', 'युगवाणी', 'ग्राम्या', 'स्वर्ण किरण', 'स्वर्ण धूलि', 'युगपथ' 'उत्तरा', 'वाणी', 'कला और बूढा चाँद', 'लोकायतन' (महाकाव्य), 'चिदम्बरा', 'परुषोत्तम राम', 'पतझर', 'गीत हंस', 'गीत पर्व', आदि।
- उपन्यास - 'हार'
- कहानी संग्रह -'पाँच कहानियाँ।
सुमित्रानन्दन पन्त काव्य का दूसरा चरण प्रगतिवादी रचनाओं का है। इसके अन्तर्गत कवि के तीन संकलन हैं - युगान्त, युगवाणी और ग्राम्या। सुमित्रानन्दन पन्त जी की रचनाओं का अन्तिम चरण अरविन्द दर्शन एवं नवमानवतावाद से प्रभावित है। इसके अन्तर्गत कवि के निम्न संकलन लिए जा सकते हैं स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि, उत्तरा, लोकायतन, चिदम्बरा, आदि।
हिन्दी साहित्य में स्थान
कविवर सुमित्रानन्दन पन्त आधुनिक काल के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। उनकी रचनाओं को पाठकों ने समादृत किया है। 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित पन्त जी हिन्दी के महान कवियों में से एक हैं।छायावाद और प्रगतिवाद दोनों ही काव्यधाराओं पर उन्होंने अपनी लेखनी चलाई है। डॉ. नगेन्द्र के शब्दों में हम कह सकते हैं "पन्त जी की मेधा-सक्रिय शक्ति देखकर आश्चर्य चकित होना पड़ता है। हमारे वर्तमान के निर्माताओं में उनका गौरव अद्वितीय है। एक ही व्यक्ति ने अपने अल्पकाल में साहित्य की गति को दो बार दो विभिन्न दिशाओं में मोड़ दिया हो-ऐसा दूसरा उदाहरण अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।"
हिन्दी काव्य में प्रकृति सुंदरी का सुकुमार चित्र अंकित कर उसके सहज सौन्दर्य के चतर चितेरे और कोमल भावनाओं के कवि के रूप में पन्त जी सदैव अमर रहेंगे।
"पन्त प्रकृति के सुकुमार कवि है" ?
सुमित्रानन्दन पन्त जी को प्रकृति का सुकुमार कवी कहा गया है। उनका जन्म प्रकृति की रम्य गॉड में हुआ। जिसके सौन्दर्य को उन्होंने भली-भाँति देखा परखा था। कविता करने की प्रेरणा भी उन्हें प्रकृति निरीक्षण से मिली थी। प्रकृति उनकी चिर सहचरी रही है। वे नारी सौन्दर्य की तुलना में प्रकृति सौन्दर्य को वरीयता देते हुए कहते हैं :तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूं लोचन?
आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण
पन्त ने प्रकृति को बड़े सूक्ष्म रूप में देखा है। उनकी कविताओं में प्रकृति के आलम्बन रूप की सुन्दर झाँकी देखने को मिलती है। उनकी बादल, गुंजन, परिवर्तन, एक तारा, नौका-विहार इसी प्रकार की कविताएँ हैं। यथा :मेखलाकार पर्वत अपार, अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़।
अवलोक रहा है बार-बार, नीचे जल में निज महाकार।
उद्दीपन रूप में प्रकृति
चित्रण किसी भाव के उद्दीपन के लिए जब प्रकृति को आधार बनाया जाता है, तब उद्दीपन रूप में प्रकृति चित्रण होता है। सुमित्रानन्दन पन्त के काव्य में अधिक तो नहीं, फिर भी इस प्रकार का चित्रण देखने को मिलता है, यथा :सौरभ समीर रह जाता 'प्रेयसि'! ठण्डी साँसें भर।'
मानवीकरण के रूप में प्रक्रति चित्रण
प्रकृति पर चेतनता का आरोप मानवीकरण कहा जाता है। सुमित्रानन्दन पन्त जी प्रकृति में मानव-क्रिया, मानव-भावों आदि का तादाम्य प्रकृति के साथ स्थापित करते हैं। जड़ प्रकृति भी पन्त जी के लिए जड़ नहीं है, उसमें भी चेतना है। यथा :पियालों में फूलों के
प्रिये भर-भर अपना यौवन
पिलाता है मधुकर को।'
उपदेशक रूप में प्रकृति चित्रण
'पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश' मानव को कभी-कभी सुन्दर उपदेश देता है। कवि पन्त जी ने अनेक रचनाओं में प्रकृति को उपदेशक के रूप में चित्रित किया गया है, जैसे :अपने घर के सौरभ से, जग का आँगन भर जाओ।
मानव के प्रति सहानुभूति रूप में प्रकृति-चित्रण
प्रकृति ममतामयी होती है। मानव के दुःख से दुःखी होकर उससे सहानुभूति रखती है। मानव के कष्टों के साथ प्रकृति भी दुःखी हो जाती है। मानव प्रेम का चित्रण सुमित्रानन्दन पन्त की इन पंक्तियों में देखिए :मानव तुम सबसे सुन्दरतम।
रहस्यात्मक रूप में प्रकृति चित्रण
ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने की प्रवृत्ति रहस्यवाद है। कवि सुमित्रानन्दन पन्त ने भी प्रकृति में किसी अव्यक्त ईश्वर को देखा है। ऐसे ईश्वर को, जो सारे संसार का नियामक है, उसका संचालन करता है। जैसे :जान मुझको अबोध, अज्ञान
सुझाते हो तुम पथ अनजान,
फूंक देते छिद्रों में गान
प्रतीक रूप में प्रकृति चित्रण
प्रकृति चित्रण में सौन्दर्य और सजीवता की सृष्टि के लिए प्रतीकों की योजना की जाती है। सुमित्रानन्दन पन्त जी के काव्य में इस प्रकार का प्रकृति-चित्रण पर्याप्त मात्रा में देखा जा सकता हैं। 'परिवर्तन' कविता की सजीवता नवीनता और मधुरता प्रतीको के कारण ही है। प्रकृति का सुन्दर युवती के रूप में एक प्रतीकात्मक चित्रण देखिए :हुए कल ही हल्दी के हाथ
खुले भी थे न लाज के बोल
खिले भी चुम्बन शून्य कपोल।
'परिवर्तन' कविता के कथ्य एवं शिल्प।
'परिवर्तन' पन्त जी द्वारा रचित एक लम्बी कविता है जो मूलतः 'पल्लव' नामक काव्य संकलन में संकलित है। 'परिवर्तन' कविता का मूल विषय दार्शनिक है किन्तु सुमित्रानन्दन पन्त जी ने इसे काव्य को सरलता से युक्त कर दिया है। 'परिवर्तन' कविता को समालोचकों ने एक "ग्रैण्ड महाकाव्य" तक कहा है। स्वयं पन्त जी इसे 'पल्लव' काल की प्रतिनिधि मानते हैं। इस कविता के काव्य सौन्दर्य का उद्घाटन निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है :परिवर्तन जीवन का शाश्वत सत्य
कवि ने परिवर्तन को जीवन का शाश्वत सत्य माना है। यहाँ सब कुछ परिवर्तनशील है। पृथ्वी का वह वैभव अब कहाँ चला गया। यहाँ सब कुछ मिथ्या है। संसार की अचिरता को देखकर हवा ठण्डी साँसें भरती है, आकाश ओस के आँसू गिराता है और समुद्र सिसकता है-शून्य भरता समीर निःश्वास,
डालता पातों पर चुपचाप
ओस के आंसू नीलाकाश,
परिवर्तन के कोमल एवं कठोर रूप
परिवर्तन के कोमल एवं कठोर दोनों रूपों का चित्रण इस कविता में किया गया है। यह परिवर्तन जब प्रलयकालीन ताण्डव नृत्य करता है तो संसार में उथल-पुथल मच जाती है। यह अत्यन्त निष्ठूर है तथा इस पर किसी की करुण पुकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता-तुम्हारा ही ताण्डव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान, पतन!
विविध रसों का चित्रण
परिवर्तन कविता में विविध रसों का चित्रण कवि ने किया है। इसमें शृगार रस, करुण रस, रौद्र रस, भयानक रस आदि का सुन्दर चित्रण हुआ है। करुण रस का एक चित्र देखिए-बना सिंदूर अंगार।
वातहत लतिका वह सुकुमार
पड़ी है छिन्नाधार।।
परिवर्तन की सर्वशक्तिमत्ता
परिवर्तन सर्वाधिक शक्तिशाली है। परिवर्तन को रोक पाने की क्षमता किसी में नहीं है। यह अत्याचारी शासक के समान नगर को जन शून्य कर देता है तथा चिरकाल में संचित कला कौशल एवं वैभव क्षण मात्र में नष्ट कर देता है-हर लेते हो विभव कला कौशल चिरसंचित।।
भावानुकूल भाषा का प्रयोग
परिवर्तन कविता में कवि ने प्रसंगानुकूल भाषा का प्रयोग करते हुए कहीं कोमल तो कहीं कठोर भाषा का प्रयोग किया है। भाषा में प्रतीकात्मकता एवं लाक्षणिकता का भी प्रयोग किया गया है यथा-और फिर अंधकार अज्ञात।।
लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरंतर
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर।।
परिवर्तन कविता में अत्यन्त मनोहारी अलंकार योजना की गई है। इस कविता में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग किया गया है। कुछ उपमाएँ द्रष्टव्य हैं, यथा-
- तुम नृशंस नृप से जगती पर चढ़ अनियंत्रित
- इन्द्र धनु की सी छटा विशाल
- शिशिर सा झर नयनों का नीर
- हिमजल हास,
- गालों के फल,
- कचों के चिकने काले व्याल,
- ओस के आंसू।
पन्त जी ने गाँधी जी के महान व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति 'बापू के प्रति कविता में की है।
कविवर सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित कविता 'बापू के प्रति' उनके काव्य संग्रह 'यगान्त' से ली गई है। इस रचना में उन्होंने युगपुरुष महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला है। महात्मा गाँधी को कवि ने एक ऐसा महान पुरुष बताया है जो एक पूर्ण मानव थे। गाँधी जी के सिद्धान्तों पर ही भावी संस्कृति का निर्माण होगा। वे भले ही शरीर से दुर्बल हड्डियों का ढाँचा मात्र थे तथापि उनमें उच्चकोटि का आत्मिक बल निहित था। कवि ने बापू के व्यक्तित्व का निरूपण करते हुए कहा है-हे अस्थिशेष! तुम अस्थिहीन,
तुम पूर्ण इकाई जीवन की,
जिसमें असार भव-शून्य लीन,
आधार अमर, होगी जिस पर
भावी की संस्कृति समासीन।
हे बापू! संसार के अन्य लोग जहाँ अपना सुख प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं वहीं तुम सत्य की खोज को जीवन का लक्ष्य मानते रहे। बाकी लोग तो शरीर को प्रधानता देते हैं इसलिए वे मिट्टी के पु ले हैं किन्तु तुम आत्मा के प्रफुल्लित कमल हो।
आए तुम करने सत्य-खोज,
जग की मिट्टी के पुतले जन,
तुम आत्मा के, मन के मनोज!
कवि ने साम्राज्यवाद को कंस मानते हए बताया है कि उसने मानवता रूपी देवकी को बन्दी बना लिया था। परतन्त्रता के कारागार में ही तमने दिव्य शक्ति रूपी कृष्ण को अवतरित कर अंग्रेजी साम्राज्य को उखाड़ फेंका और असम्भव को भी सम्भव कर दिखाया ।
मानवता, पशु-बलाक्रान्त,
श्रृंखला-दासता, प्रहरी बहु
निर्मम शासन-पद शक्ति-भ्रान्त,
स्पष्ट है कि प्रस्तुत कविता में पन्त जी ने गाँधी जी के प्रति अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उन्हें एक महामानव के रूप में निरूपित किया है।
'गीत विहग' कविता का संदेश।
'गीत विहग' सुमित्रानन्दन पन्त जी की सुन्दर रचना है जो उनके काव्य संकलन 'उत्तरा' से ली गई है। इसमें कवि ने स्वयं को गीत सुनाने वाला ऐसा पक्षी माना है जो मानव जीवन की गरिमापूर्ण कहानी सुनाता है और उसे नवीनता एवं चेतना से युक्त गीत सुनाकर नई स्फूर्ति प्रदान करता है। जीवन के पतझड़ में मन की शाखा पर वसन्त के रूप में खिलकर नए पत्तों का संसार बसाने का काम भी गीत विहग ही करता है-मैं नव प्रभात के नभ में उठ मुसकाता,
जीवन पतझर में जन मन की डालों पर
मैं नव मधु के ज्वाला पल्लव सुलगाता!
युग पिक बन प्राणों का पावक बरसाता!
मिट्टी के पैरों से भव-क्लान्त जनों को
स्वप्नों के चरणों पर चलना सिखलाता,
मैं स्वर्गगा स्मित अन्तर्पथ बतलाता,
जन जन को नव मानवता में जाग्रत कर
मैं मुक्त कण्ठ जीवन रण शंख बजाता!
चेतना गगन में मन के पर फैलाता,
मैं अपने अन्तर का प्रकाश बरसा कर
जीवन के तम को स्वर्णिम कर नहलाता!
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