सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ (7 मार्च 1911-4 अप्रैल 1987) ने कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा-वृत्त, निबन्ध, गीति-नाट्य, ललित निबन्ध, डायरी जैसी साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा का परिचय दिया.
अज्ञेय के विस्तृत और वैविध्यपूर्ण जीवनानुभव उनकी रचनाओं में यथार्थवादी ढंग से अभिव्यक्त हुए हैं. उनकी कविताएं हों, कहानियां या उपन्यास – सभी रचनाओं में उनके जीवन के विभिन्न कालों की संवेदना तो अभिव्यक्त हुई ही है, रचनाकालीन जीवन यथार्थ भी अपने पूर्ण रूप में अभिव्यक्ति पा सका है.
क़रीब पांच दशक तक फैले अपने रचना संसार में अज्ञेय ने तीन उपन्यास लिखे – शेखर : एक जीवनी (दो भाग); नदी के द्वीप और अपने-अपने अजनबी.
‘शेखर एक जीवनी’ के पहले भाग का प्रकाशन 1941 में हुआ. ये वो दौर था जब भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई निर्णायक मोड़ पर पहुंच गई थी. स्वयं अज्ञेय ने भी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य के रूप में इस आंदोलन में हिस्सा लिया था, गिरफ्तार हुए थे, जेल गए थे. चार साल के बंदी जीवन में अज्ञेय ने स्वतंत्रता का महत्व और क़रीब से जाना था.
शेखर: एक कालजयी उपन्यास
'शेखर' की भूमिका में लिखते हैं कि यह जेल के स्थगित जीवन में केवल एक रात में महसूस की गई घनीभूत वेदना का ही शब्दबद्ध विस्तार है ये उपन्यास है.
शेखर जन्मजात विद्रोही है. वो परिवार, समाज, व्यवस्था, तथाकथित मर्यादा – सबके प्रति विद्रोह करता है. वो स्वतंत्रता का आग्रही है और व्यक्ति की स्वतंत्रता को उसके विकास के लिए बेहद ज़रूरी मानता है.
कहते हैं यथार्थवादी साहित्य में किसी भी पात्र का जन्म अकस्मात् नहीं होता, या यों कहें वो महज़ कोरी कल्पना नहीं होता. कार्य-कारण संबंधों के आधार पर ही किसी यथार्थवादी रचना में घटनाओं और पात्रों का जन्म और विकास होता है. ‘शेखर’ में व्यक्ति स्वातंत्र्य की अनुभूति और अभिव्यक्ति की जो छटपटाहट पूरे उपन्यास में नज़र आती है वो दरअसल प्रेमचंद के गोदान (1936) के पात्र ‘गोबर’ के चरित्र का स्वाभाविक विकास है.
‘गोबर’ की संवेदना का ही स्वाभाविक विकास है अज्ञेय का ‘शेखर’ जो अपने अंतर्मन की आवाज़ सुनता है और वही करता है जिसकी गवाही उसका विवेक देता है. वो स्कूल नहीं जाना चाहता क्योंकि वो मानता है कि स्कूलों में टाइप बनते हैं जबकि शेखर व्यक्ति बनना चाहता है. एक ऐसा व्यक्ति जो पूरी ईमानदारी से अपने जीवन के सुख-दुख से गुज़रना चाहता है. वो पिता की सलाह को नज़रअंदाज़ कर अंग्रेज़ी की बजाय हिंदी में लेखन करना चाहता है क्योंकि अंग्रेज़ी से उसे दासता की अनुभूति होती है.
इस उपन्यास में ‘शेखर’ एक निहायत ईमानदार व्यक्ति है, अपनी अनुभूतियों और जिज्ञासाओं के प्रति बेहद ईमानदार. जीवन की नई-नई परिस्थितियों में उसके मन में कई सवाल उठते हैं और वह अनुभव करता चलता है, सीखता चलता है.
अज्ञेय ने मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ‘शेखर’ के ज़रिए एक व्यक्ति के विकास की कहानी बुनी है जो अपनी स्वभावगत अच्छाइयों और बुराइयों के साथ देशकाल की समस्याओं पर विचार करता है, अपनी शिक्षा-दीक्षा, लेखन और आज़ादी की लड़ाई में अपनी भूमिका के क्रम में कई लोगों के संपर्क में आता है लेकिन उसके जीवन में सबसे गहरा और स्थायी प्रभाव शशि का पड़ता है जो रिश्ते में उसकी बहन लगती है, लेकिन दोनों के रिश्ते भाई-बहन के संबंधों के बने-बनाए सामाजिक ढांचे से काफी आगे निकलकर मानवीय संबंधों को एक नई परिभाषा देते हैं.
हिंदी साहित्य के लिए शशि-शेखर संबंध तत्कालीन भारतीय समाज में एक नई बात थी जिसे लेकर आलोचकों के बीच उपन्यास के प्रकाशन के बाद से लेकर आज तक बहस होती है.
शेखर एक जगह शशि से कहता है – ‘कब से तु्म्हें बहन कहता आया हूं, लेकिन बहन जितनी पास होती है, उतनी पास तुम नहीं हो, और जितनी दूर होती है, उतनी दूर भी नहीं हो’- ये भारतीय उपन्यास में स्त्री-पुरुष संबंधों की एक नई अभिव्यक्ति थी.
‘शेखर’ दरअसल एक व्यक्ति के बनने की कहानी है जिसमें उसके अंतर्मन के विभिन्न परतों की कथा क्रम के ज़रिए मनोवैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करने की कोशिश अज्ञेय ने की है. इस उपन्यास के प्रकाशन के बाद कुछ आलोचकों ने कहा था कि ये अज्ञेय की ही अपनी कहानी है.
लेकिन अज्ञेय ने इसका स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि शेखर के जीवन की कुछ घटनाएं और स्थान उनके जीवन से मिलते-जुलते हैं लेकिन जैसे-जैसे शेखर का विकास होता गया है वैसे-वैसे शेखर का व्यक्ति और रचनेवाला रचनाकार एक-दूसरे से अलग होते गए हैं.
दूसरा उपन्यास
अज्ञेय का दूसरा उपन्यास है – ‘नदी के द्वीप’ (1951). यह भी एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास है जिसमें एक तरह से यौन संबंधों को केंद्र बनाकर जीवन की परिक्रमा की गई है.
इस उपन्यास के मुख्य पात्र हैं भुवन, रेखा, गौरा और चंद्रमाधव.
भुवन विज्ञान का प्रोफेसर है, रेखा एक पढ़ी-लिखी पति द्वारा परित्यक्ता स्त्री है, गौरा भुवन की छात्रा है. उपन्यास में दो अन्य गौण पात्र हैं हेमेंद्र और डॉक्टर रमेशचंद्र. हेमेंद्र रेखा का पति है जो केवल उसे पाना चाहता है और जब हासिल नहीं कर पाता तो उसे छोड़ देता है.
उसे सौंदर्योबोध, नैतिकता जैसे मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं. डॉक्टर रमेशचंद्र रेखा का नया पति हैं जो एक सुलझा हुआ इनसान है.
‘शेखर’ की तुलना में इस उपन्यास में घटनाएं बहुत कम हैं क्योंकि उपन्यास के पात्र बाहर बहुत कम जीते हैं.
वे ज्यादातर आत्ममंथन या आत्मालाप कर रहे होते हैं. ये इतने संवेदनशील पात्र हैं कि बाहर की जिंदगी की हल्की सी छुअन भी इन्हें भीतर तक हिला कर रख देती है. अज्ञेय ने उपन्यास में पात्रों की इसी भीतरी ज़िंदगी को विभिन्न, प्रतीकों, बिम्बों और कविताओं के ज़रिए उभारने की कोशिश की है.
उपन्यास में भुवन रेखा और गौरा दोनों के बेहद क़रीब है. ये तीनों ही मध्यवर्गीय संवेदना से भरे, आधुनिकता बोध वाले बुद्धिजीवी पात्र हैं. लेकिन इनकी सबसे बड़ी समस्या ये है कि ये भीतर ही भीतर चाहे जितनी ही लंबी विचार सरणि बना लें, उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाते.
यहां तक कि एक-दूसरे के लिए अपनी भावनाएं भी. इस उपन्यास में व्यक्ति नदी के द्वीप की तरह है. चारों तरफ नदी की धारा से घिरा लेकिन फिर भी अकेला और अपनी सत्ता में स्वतंत्र.
उपन्यास के मुख्य पात्र रेखा और भुवन एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट हैं. दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी हैं लेकिन फिर भी रेखा भुवन को छोड़कर डॉक्टर रमेश चंद्र से विवाह करती है. गौरा और भुवन के बीच भी एक-दूसरे के लिए आकर्षण है लेकिन वे उसे सही रूप में व्यक्त नहीं कर पाते.
कुल मिलाकर ये उपन्यास अलग-अलग पात्रों के जीवन, उनके सुख-दुख, उनके आंतरिक भावावेश को कवित्वपूर्ण भाषागत अभिव्यक्तियों के ज़रिए बयां तो करता है लेकिन युगीन यथार्थ को पूरी तरह स्पर्श नहीं कर पाता और इसकी वजह है पात्रों का अपने भीतर जीते जाना, बाहर या समाज में नहीं.
तीसरा उपन्यास
अज्ञेय का तीसरा उपन्यास है ‘अपने-अपने अजनबी’ (1961).
सार्त्र, किर्केगार्ड, हाइडेगर के पश्चिमी अस्तित्ववादी दर्शन पर आधारित इस उपन्यास में सेल्मा और योके दो मुख्य पात्र हैं.
कथानक बेहद छोटा है. सेल्मा मृत्यु के निकट खड़ी कैंसर से पीड़ित एक वृद्ध महिला है और योके एक नवयुवती. दोनों को बर्फ से ढके एक घर में साथ रहने को मजबूर होना पड़ता है जहां जीवन पूरी तरह स्थगित है.
इस उपन्यास में स्थिर जीवन के बीच दो इंसानों की बातचीत के ज़रिए उपन्यासकार ने ये समझाने की कोशिश की है कि व्यक्ति के पास वरण की स्वतंत्रता नहीं होती. न तो वो जीवन अपने मुताबिक चुन सकता है और न ही मृत्यु.
सेल्मा मृत्यु के क़रीब है और वो चाहती थी कि उस बर्फ घर में अकेले रहते हुए उसकी मृत्यु हो जाए लेकिन संयोगवश योके वहां पहुंच जाती है और उसे योके जैसी अजनबी के साथ वो सबकुछ बांटना पड़ता है जो वो अपने सगों के साथ नहीं बांटना चाहती थी. वरण की स्वतंत्रता और जीवन के विविध सत्यों को लेकर दोनों ही पात्र एक-दूसरे से जो बीतचीत करते हैं उसी के ज़रिए अस्तित्ववादी दर्शन को अज्ञेय ने पूरी तरह स्पष्ट करने की कोशिश की है लेकिन उसे एक नई भारतीय व्याख्या भी दी है.
सेल्मा मृत्यु के क़रीब है लेकिन फिर भी जीवन से भरी हुई है जबकि योके युवती है, जीवन में उसे बहुत कुछ देखना बाकी है लेकिन आसन्न मृत्यु के भय से वो इतनी आक्रांत है कि जीते हुए भी उसका आचरण मृत के समान है. वो घोर निराशा के अंधेरे में डूब जाती है. योके बार-बार सेल्मा से कहती है व्यक्ति चुनने के लिए स्वतंत्र होता है.
उपन्यास में सेल्मा की मौत हो जाती है. योके बर्फ के घर से बाहर निकल जाती है लेकिन उस स्थगित जीवन में जिंदगी का जैसा क्रूर चेहरा उसने देखा था उसे भुला नहीं पाती. वरण की स्वतंत्रता की तलाश में अंत में वो ये कहते हुए ज़हर खाकर अपने जीवन का अंत कर देती है कि उसने जो चाहा वो चुन लिया.
बेहद छोटे कथानक के ज़रिए अज्ञेय ने इस उपन्यास में अस्तित्ववाद की पश्चिमी निराशावादी व्याख्या में भारतीय आस्थावादी व्याख्या को जोड़ने का प्रयास किया है.
अज्ञेय ने अपने इन तीनों ही उपन्यासों के ज़रिए भारतीय औपन्यासिक विकास को एक नई ऊंचाई दी है. 'शेखर' एक जीवनी जहां व्यक्ति स्वतंत्रता की अनुभूति और अभिव्यक्ति की एक मार्मिक यथार्थवादी अभिव्यक्ति है वहीं 'अपने-अपने अजनबी' मृत्यु के आतंक के बीच जीवन जीने की कला का यथार्थवादी दस्तावेज़ है.
अज्ञेय भाषा की श्रेष्ठता और उसमें नए-नए प्रयोगों के आग्रही थे.इन तीनों ही उपन्यासों में प्रयोग और अभियक्ति दोनों ही स्तरों पर अज्ञेय ने भाषा को एक नया संस्कार दिया है।
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