महाकवि विद्यापति
अनुसन्धान के क्रम में पाया गया है कि उनकी रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट, मैथिली—तीन भाषाओं में उपलब्ध हैं। प्रसिद्ध ग्रन्थ हिन्दी साहित्य का इतिहास में प्रख्यात समालोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने काल विभाजन करते हुए विषय-बोध के स्तर पर जिन बारह ग्रन्थों को आधार मानकर आदिकाल का नामकरण वीरगाथाकाल किया था, उसमें दो ग्रन्थ विद्यापति के ही थे—कीर्तिलता और कीर्तिपताका। पर यह विचित्र रहस्य है कि बावजूद इसके विद्यापति को उन्होंने अपने साहित्येतिहास में एक अवतरण से अधिक जगह नहीं दी।
अनेक कारणों से भारत के अधिकांश मनीषियों के जन्म-मृत्यु का काल आज के शोधकर्मियों के लिए विवाद का मसला बना हुआ है। विद्यापति उस प्रकरण के सार्थक उदाहरण हैं। उनके जन्म-मृत्यु की स्पष्ट सूचना का उल्लेख कहीं नहीं मिलने के कारण विद्वान लोग उनकी रचनाओं में अंकित राजाओं के उल्लेख से तिथि-र्निधारण हेतु तर्क करते आए हैं। दशरथ ओझा विद्यापति की आयु एकासी वर्ष मानकर उनका काल सन् 1380-1460 बताते हैं (हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास/दशरथ ओझा/राजपाल एण्ड सन्स/2008/पृ. 50)। रामवृक्ष बेनीपुरी उस काल के राजाओं और राजवंशों की तजबीज करते हुए विद्यापति की आयु नब्बे वर्ष मानकर उनका काल सन् 1350-1440
(ल.सं. 241-331)
बताते हैं। कीर्तिलता की भूमिका लिखते हुए महामहोपाध्याय उमेश मिश्र उनका समय सन् 1360-1448
(ल.सं. 241-329)
बताते हैं। इस गणना में विद्यापति की आयु नबासी वर्ष, और लक्ष्मण संवत् तथा इसवी सन् के बीच 1119 वर्ष का अन्तर हो जाता है, जबकि यह अन्तर मात्र 1110 वर्ष का है। इस समय लक्ष्मण संवत 905 चल रहा है, जो 21 जनवरी 2015 (माघ कृष्ण प्रतिपदा, शक संवत 1936)
को पूरा होगा। इस आलोक में पं. शिवनन्दन ठाकुर की स्थापना सत्य के सर्वाधिक निकट लगती है। पर्याप्त शोध-सन्दर्भ और तर्कसम्मत व्याख्या देकर वे विद्यापति की आयु सन्तानबे वर्ष और उनके समय की गणना सन् 1342-1439
(ल.सं. 232-329)
करते हैं।
कुछ दशक पूर्व तक तो उनके जन्मस्थान के बारे में भी गहरा विवाद था। बंगलाभाषियों का दावा था कि विद्यापति बंगाल के थे, और बंगला के रचनाकार थे। कुछ अनुसन्धानकर्ताओं ने तो बंगाल में उनके जन्मस्थान साथ-साथ बंगवासी राजा शिवसिंह और रानी लखिमा की खोज भी कर ली। विवाद गहराता गया। दरअसल मैथिली में रची गई राधाकृष्ण प्रेमविषयक उनकी पदावली उस समय अत्यधिक लोकानुरंजक थी। उन मनोहारी पदों की लोकप्रियता जन-जन के कण्ठ में बसी हुई थी। लोकोक्ति, मुहावरे की तरह पदों की पंक्तियाँ लोकजीवन में प्रयुक्त होने लगी थीं। कवि-कोकिल, कविकण्ठहार जैसे सम्मानित सम्बोधनों के साथ वे सच्चे अर्थ में जनकवि की तरह लोकप्रिय और चर्चित थे। मैथिली लिपि में लिखी गई उस पदावली के कई वर्णों के स्वरूप बंगला वर्णमाला से मेल खाते थे। उन्हीं दिनों बंगाल में राधाकृष्ण के परम भक्त चैतन्य महाप्रभु (सन् 1486-1534)
का आविर्भाव हुआ। लोककण्ठ में बसे विद्यापति के पदों को सुनकर वे मन्त्रमुग्ध हो उठे। कहते हैं कि शृंगार-रस से परिपूर्ण विद्यापति के गीत गाते हुए चैतन्य महाप्रभु भक्तिभाव से बेसुध हो जाते थे। उनकी शिष्य-परम्परा में भी इस प्रथा का अनुसरण हुआ। कुछ तो उस तरह की रचनाएँ भी करने लगे। सैकड़ो वर्षों तक बंगलाभाषियों द्वारा गाए जाने के कारण विद्यापति के पदों का स्वरूप भी वहाँ बंगला हो गया। अब इतना-सा आधार तो साहित्यिक विवाद के लिए पर्याप्त होता है। विवाद चला, पर ग्रियर्सन, महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री, बाबू नगेन्द्रनाथ गुप्त, सुनीति कुमार चटर्जी आदि विद्वानों की एकस्वर घोषणा के बाद अब वे सारी बहसें समाप्त हो गईं। अब कोई दुविधा नहीं कि विद्यापति मिथिला के बिस्फी गाँव के थे, जो अब बिहार के मधुबनी जिले में आता है।
कर्मकाण्ड,
धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र, न्यायशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित महाकवि विद्यापति की संस्कृत, अवहट्ट, मैथिली—तीनो भाषाओं की रचनाएँ गाथा, कीर्तिगान, उपदेश, नीति, धर्म,
भक्ति, शृंगार, संयोग-वियोग, मान-अभिसार...जीवन-यापन के हर क्षेत्र से सम्बन्धित विषय की हैं। शास्त्र और लोक—दोनों ही संसार की मोहक छवियाँ उनकी कालजयी रचनाओं में चित्रित मिलती हैं।
उपलब्ध शोधों के आधार पर उनकी निम्नलिखित कृतियों की जानकारी मिलती है—
कीर्तिलता : (कीर्तिसिह के शासन-काल में उनके राज्यप्राप्ति के प्रयत्नों पर आधारित अवहट्ट में रचित यशोगाथा)
कीर्तिपताका : (कीर्तिसिह के प्रेम प्रसंगों पर आधारित अवहट्ट में रचित)
भूपरिक्रमा : (देवसिंह की आज्ञा से, मिथिला से नैमिषारण्य तक के तीर्थस्थलों का भूगोल-ज्ञानसम्पन्न संस्कृत में रचित ग्रन्थ)
पुरुष परीक्षा : (महाराज शिवसिंह की आज्ञा से रचित नीतिपूर्ण कथाओं का संस्कृत ग्रन्थ)
लिखनावली : (राजबनौली के राजा पुरादित्य की आज्ञा से रचित अल्पपठित लोगों को पत्रलेखन सिखाने हेतु संस्कृत ग्रन्थ)
शैवसर्वस्वसार : (महाराज पद्मसिह की धर्मपत्नी विश्वासदेवी की आज्ञा से संस्कृत में रचित शैवसिद्धान्तविषयक ग्रन्थ)
शैवसर्वस्वसार-प्रमाणभूत संग्रह : (शैवसर्वस्वसार
की रचना में उल्लिखित शिवार्चनात्मक प्रमाणों का संग्रह)
गंगावाक्यावली : (महाराज पद्मसिह की पत्नी विश्वासदेवी की आज्ञा से रचित गंगापूजनादि, एवं हरिद्वार से गंगासागर तक के तीर्थकृत्यों से सम्बद्ध संस्कृत ग्रन्थ)
विभागसार : (महाराज नरसिंहदेव दर्पनारायण की आज्ञा से रचित सम्पत्तिविभाजन पद्धति विषयक संस्कृत ग्रन्थ)
दानवाक्यावली : (महाराज नरसिंहदेव दर्पनारायण की पत्नी धीरमति की आज्ञा से दानविधि वर्णन पर रचित संस्कृत ग्रन्थ)
दुर्गाभक्तितरंगिणी : (धीरसिंह की आज्ञा से रचित दुर्गापूजन पद्धति विषयक संस्कृत ग्रन्थ, और विद्यापति की अन्तिम कृति)
गोरक्ष विजय : (महाराज शिवसिंह की आज्ञा से रचित मैथिली एकांकी, गद्यभाग संस्कृत एवं प्राकृत में और पद्यभाग मैथिली में)
मणिमंजरि नाटिका : (संस्कृत में लिखी नाटिका, सम्भवत: इस कृति की रचना कवि ने स्वेच्छा से की)
वर्षकृत्य : (पूरे वर्ष के पर्व-त्यौहारों के विधानविषयक मात्र 96 पृष्ठों की कृति,
सम्भवत:)
गयापत्तलक : (जनसाधारण हेतु गया में श्राद्ध करने की पद्धतिविषयक संस्कृत कृति)
पदावली : (शृंगार एवं भक्तिरस से ओतप्रोत अत्यन्त लोकप्रिय पदों का संग्रह)
उक्त सूची से स्पष्ट है कि विद्यापति का रचना-फलक बहुआयामी था। मानवजीवन व्यवहार के प्राय: हर पहलू पर उनकी दृष्टि सावधान रहती थी। पर इन सभी विविधता के बावजूद उनकी सर्वाधिक प्रसिद्धि पदावली को लेकर ही है। मैथिली में रचे उनके सैकड़ो पद के मूल विषय राधाकृष्ण प्रेमविषयक शृंगार और शिव, दुर्गा, गंगा आदि देवी-देवता की भक्ति के हैं; पर उनके कई भेदोपभेद हैं, जिनमें उनके भाषा-साहित्य-संगीत-कला-संस्कृति के तात्त्विक ज्ञान के संकेत स्पष्ट दिखाई देते हैं; साथ-साथ समाजसुधार, रीति-नीति से सम्बद्ध उनकी धारणाएँ, एवं अनुरागमय जनसरोकार के चमत्कारिक स्वरूप निदर्शित हैं।
पाण्डुलिपि की प्राप्ति के आधार पर उनके पदों का वर्गीकरण निम्नलिखित सात खण्डों में किया गया है—
नेपाल पदावली,
रामभद्रपुर पदावली,
तरौनी पदावली,
रागतरंगिणी,
वैष्णव पदावली,
चन्दा झा संकलन,
लोककण्ठ से एकत्र पदावली।
विषय के आधार पर उनके पदों को तीन कोटि में बाँटा जा सकता है—
शृंगारिक पद,
भक्ति पद,
विविध पद।
विद्यापति के पदों के संकलन में भारतीय मनीषा के कई श्रेष्ठ अनुसन्धानवेताओं ने अपना अमूल्य योगदान दिया है। उनमें से बाबू नगेन्द्रनाथ गुप्त, शिवपूजन सहाय, डॉ. ग्रियर्सन के अवदान के प्रति नतमस्तक होना हर विद्यापतिप्रेमी का दायित्व बनता है। बाद के दिनों में रामवृक्ष बेनीपुरी और नागार्जुन ने भी कुछ चुने हुए पदों का अर्थ सहित संचयन किया। यहाँ बेनीपुरी द्वारा सम्पादित पुस्तक से कुछ चुने हुए पदों के उल्लेख के साथ विद्यापति के पदों के वैविध्य को समझने की कोशिश की गई है।
वय:सन्धि
सैसव जौवन दुहु मिलि गेल। स्रवनक पथ दुहु लोचन लेल।।
वचनक चातुरि लहु-लहु हास। धरनिये चाँद कएल परगास।।
मुकुर हाथ लए करए सिंगार। सखि पूछइ कइसे सुरत-बिहार।।
निरजन उरज हेरइ कत बेरि। बिहँसइ अपन पयोधर हेरि।।
पहिलें बदरि-सम पुन नवरंग। दिन-दिन अनंग अगोरल अंग।।
माधव पेखल अपरुब बाला। सैसव जौवन दुहु एक भेला।।
विद्यापति कह तोहें अगेआनि। दुहु एक जोग इह के कह सयानि।।
विद्यापति का यह पद नायिका के वय:सन्धि से सम्बन्धित है। वय:सन्धि किसी नायिका की उम्र की वह अवस्था है, जिसमें वह किशोरावस्था त्यागकर तरुणाई की ओर, अर्थात् युवावस्था की ओर बढ़ती है। यह उम्र के अन्तरालों के मिलन का समय होता है और अचानक से नायिका के तन एवं मन—दोनों में विशेष तरह का परिवर्तन आने लगता है। इस कारण भारतीय साहित्य के अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाकारों ने इस उम्र का विशिष्ट चित्रण किया है। शृंगार रस के विलक्षण चितेरा विद्यापति को इसमें महारत हासिल थी।
वस्तुत: इस आयु में नायिका के शरीर में तरुणाई के प्रारम्भिक संकेत उभरने लगते हैं। अपने उस आंगिक विकास से वह मन ही मन प्रमुदित होती रहती है। मन में उठी प्रमोद की यह धारणा उसे आत्ममुग्ध करने लगती है। अनुभवहीनता में बड़ा दायित्व पाकर कोई जिस तरह गर्व और भय के बीच अनिर्णय की स्थिति में रहे, वय:सन्धि की नायिका का वही हाल होता है।
प्रस्तुत पद में कवि वय:सन्धि की ऐसी ही एक नायिका का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि सैसव (बाल्यावस्था) और युवावस्था—दोनों का मिलन हुआ है। अर्थात नायिका का बचपन छूटा जा रहा है, और तरुणाई का प्रवेश हो रहा है। उम्र के इस बदलाव के कारण शरीर के विभिन्न अंगों में तरुणाई की छटा आती जा रही है। आँखों के दोनों बाहरी कोर कुछ तीक्ष्ण और कानों की ओर अग्रसर लग रहे हैं। अर्थात् कटाक्ष की भंगिमा दिखने लगी है। बात करने की शैली में एक चातुर्य आ गया है, वह रह-रहकर मन्द-मन्द मुस्काने लगी है। रूप ऐसा निखर उठा है कि धरती पर चन्द्रमा के प्रकाश उतर आने जैसा लगने लगा है। हाथ में आइना लेकर वरवक्त शृंगार में लिप्त रहने लगी है। सयानी सखियों से काम-क्रीड़ा (सुरत-बिहार) के बारे में पूछने लगी है। एकान्त और निर्जन पाकर बार-बार अपने उभरते उरोजों को निहारने लगी है। अपने ही वक्षों को, जो पहले बेर के आकार के छोटे-छोटे थे, फिर बढ़कर नारंगी के आकार के हुए, उन्हें देख-देख खुद ही बिहुँसने लगी है। तरुणाई से इस तरह सम्पन्न हुई नायिका के पूरे व्यक्तित्व पर कामदेव (अनंग) ने बसेरा कर रखा है। सैसव-यौवन के मिलन से निखरे रूप वाली नायिका का यह स्वरूप नायक कृष्ण को अपूर्व लगता है। कवि विद्यापति नायिका से कहते हैं—हे सुन्दरी! तुम अज्ञानी हो, इस तरह दो अवस्थाओं के मिलन से ही नायिका सयानी होती है।
अन्तिम से पूर्व वाली पंक्ति में अचानक 'माधव'
शब्द का आना अप्रत्याशित नहीं है। असल में विद्यापति अपने समस्त शृंगारिक पदों में स्थितप्रज्ञ प्रवक्ता ही रहते हैं, स्वयं कहीं रूपरस के भोक्ता नहीं होते। अब वय:सन्धि के इतने उज्ज्वल और मादक रूप का जब वर्णन हुआ, तो इस सुकन्या का रूपरस-भोक्ता कोई नायक तो होगा! इसलिए यहाँ नायक कृष्ण का प्रवेश होता है।
सैसव जौवन दरसन भेल। दुहु दल-बलहि दन्द-परि गेल।।
कबहुँ बाँधए कच कबहुँ बिथार। कबहुँ झाँपए अंग कबहुँ उघार।।
थीर नयान अथिर किछु भेल। उरज उदय-थल लालिम देल।।
चपल चरन, चित चंचल भान। जागल मनसिज मुदित नयान।।
विद्यापति कह करु अवधान। बाला अंग लागल पँचवान।।
यह पद नायिका के वय:सन्धि का विवरण है। इसमें उम्र के दो पड़ावों का मिलन होता है, सन्धि होती है, सैसव जा रहा होता है, यौवन आ रहा होता है। एक उम्र-खण्ड के अनुभवों को त्यागकर दूसरे अनुभव-संसार में प्रवेश का यह विलक्षण अवसर होता है। महाकवि विद्यापति इस सन्धिकाल के वर्णन में चमत्कार भरते हुए नजर आते हैं। प्रसंगानुकूल उल्लेखनीय है कि जो 'सन्ध्या' शब्द अब 'शाम' का रूढ़ अर्थ पा गया है, उसके नामकरण का मूल कारण सन्धिकाल ही है।
पद के पहले दोनों चरणों में महाकवि विद्यापति ने नायिका की उम्र के दोनों पड़ावों—सैसव (बाल्यावस्था) और यौवन (युवावस्था) का मानवीकरण कर दोनों का द्वन्द्व कराया है। उम्र के इस मुकाम पर आकर बालाओं के मन-मिजाज में अचानक से ढेर सारे परिवर्तन होने लगते हैं। शारीरिक आकार-प्रकार में परिवर्तन होने लगते हैं, युवावस्था के शारीरिक-संकेत प्रकट होने लगते हैं, इस शारीरिक परिवर्तन का सीधा प्रभाव उसके मन पर भी पड़ता है, मन चंचल और कल्पनालोक में विचरन करने लगता है, नायिका किसी अनाहूत उन्माद से प्रतिपल भरी रहती है, काम-क्रीड़ा के ज्ञान के प्रति जिज्ञासा बढ़ जाती है, स्त्री-देह और पुरुष-देह का अन्तर समझने लगती है, अनुभवी स्त्री से सख्यभाव बढ़ जाता है, बचपन का अबोध-भाव मिट जाता है, बालसुलभ निश्छलता समाप्त हो जाती है, पर शारीरिक-मानसिक उपलब्धि के नए मुकाम में उपयोग हेतु उस अबोध-भाव और निश्छलता को जबरन थामे रखने की चेष्टा करती है। नाज-नखरों से भर जाती है। मानसिक भाव के इसी संघर्ष को कवि ने दो बलशाली दलों के द्वन्द्व के रूप में देखा है।
वय:सन्धि की नायिका को देखकर कवि कहते हैं कि उनके सैसव और यौवन—दोनों की भेंट हुई है (दरसन>दर्शन>भेंट>सन्धि), आमना-सामना हुआ है, दोनों दलों के सैन्यबल में द्वन्द्व हो रहा है। दरअसल यह द्वन्द्व नई उम्र की नई-नई थपकियों के कारण होता है। अनुभवहीन उम्र में ताजा-ताजा आए बड़े दायित्वों के कारण मन चंचल रहता है, किसी एक अवस्था के औचित्य पर आस्था नहीं रहती है, चंचलतावश क्षण-क्षण अवस्था बदलती रहती है। कभी तो अपने बाल (कच~केश) समेटकर बाँध लेती है, कभी उसे खोलकर फैला (बिथार) देती है। कभी अपने अंगों को ढक (झाँपए) लेती है, कभी उसे उघार देती है। यहाँ अंग का विशेष सन्दर्भ उसके विकासमान उरोजों के आकार से है। मन स्थिर ही नहीं होता, किसी एक स्थिति पर दृढ़ नहीं हो पाता कि हाँ, यह ठीक है। दरअसल यह उसके मन की चंचलता के कारण होता है। अब तक जो उसकी नजरें स्थिर (थीर) रहती थीं, अब चंचल-सी (अथिर) हो गई हैं। उरोजों के उदय-स्थल (उदय-थल) पर लालिमा छा गई है। पैरों की चंचलता (चपल) के साथ-साथ चित की भी चंचलता प्रतीत (भान) होने लगी है। प्रसन्नचित आँखों (मुदित नयान) में कामदेव (मनसिज) जाग उठे हैं। विद्यापति कहते हैं—हे तरुणी, खुद को सँभालो, मनोयोगपूर्वक (अवधान) संयम रखो, क्योंकि ऐसी उम्र आने पर बालाओं के अंग-अंग में कामदेव के पँचवान लग जाते हैं। यह पँचवान कामदेव (पँचबान) के वेधक बाण हैं—सम्मोहन, उन्मादन, स्तम्भन, शोषण, तापन— प्रेम-पथिक को 'काम' के देवता इन्हीं पाँचो बाणों से आहत करते हैं; जिस कारण कामदेव को पँचबान कहा जाता है। किसी व्यक्ति, वस्तु, या बिम्ब को देखकर उस पर अनुरक्त होना, मुग्ध-मोहित होना, सम्मोहन है और उसे पा लेने के लिए उन्मादित होना उन्मादन। रक्त, वीर्य आदि के स्राव को रोकने के अलावा अपनी सम्मोहित धारणा पर टिके रहना स्तम्भन है; सम्मोहन के कारण ठाने हुए व्यापार में हित-अनहित सब त्यागकर लगे रहना यहाँ शोषण है, जो उसके अन्य प्रचलित अर्थों से अलग है। कामदग्धता की जिस तपिश में वह निरन्तर दग्ध हुआ जा रहा है, वह तापन है।
कुच-जुग अंकुर उतपति भेल। चरन-चपल गति लोचन लेल।।
अब सब खन रह आँचर हाथ। लाजे सखीजन न पुछए बात।।
कि कहब माधव बयसक सन्धि। हेरइत मनसिज मन रहु बन्धि।।
तइअओ काम हृदय अनुपाम। रोपल कलस ऊँच कए ठाम।।
सुनइत रस-कथा थापय चीत। जइसे कुरंगिनि सुनए संगीत।।
सैसव जौबन उपजल बाद। केओ नहि मानए जय-अबसाद।।
विद्यापति कौतुक बलिहारि। सैसब से तनु छोडनहि पारि।।
यह पद भी वय:सन्धि का ही है। नायिका के शारीरिक फलक में जो परिवर्तन हुआ है, उसका विवरण यहाँ दर्ज हुआ है। कहा गया है कि नायिका के दोनों उरोज (कुच~स्तन~उरोज; जुग~जोड़ा~दोनों) अँकुरित होकर (अँकुर उतपति) ऊँचे होने लगे हैं। पैरों की चंचलता (चरन-चपल) आँखों (लोचन) में समा गई है। जब-तब अब हाथों से आँचल सँभालती रहती है, लाज के मारे सखियों से कोई अनुभव की बात तक नहीं पूछती। हे माधव! वय:सन्धि (बयसक सन्धि) के इन उमंगों की बातें आपको क्या कहूँ! इस उम्र में ऐसा ही होता है। उरोजों को देखते (हेरइत) ही मन में कामदेव (मनसिज) जाग उठता है, पर उसे मन में ही बाँधे रखना पड़ता है। फिर भी कामदेव हृदय में अनुपम रंग बिखेरते हैं। हृदय के ऊँचे स्थान पर उनका स्वागत-कलश स्थापित कर रखा है। इस उम्र की नायिकाएँ रसवन्त बातें (रस-कथा), कामक्रीड़ा की बातें बहुत ध्यान से, सुस्थिर मन से सुनती हैं, और उन्हें हृदयंगम (थापय चीत) करती हैं; जैसे कोई हिरणी (कुरंगिनि) संगीत सुनती है। इस पद के अन्तिम अंश में आकर कवि सैसव और यौवन के बीच बहस छिड़ जाने (उपजल बाद) की बात करते हैं। किसकी जय होगी, किसकी पराजय, कहना कठिन है, कोई जय-पराजय (जय-अबसाद) मानने को तैयार नहीं है। कवि विद्यापति इस कौतुक को बलिहारी देते हैं, पर उनकी राय यही बनती है कि अन्तत: शैशव को ही उस शरीर से अपना अधिकार छोडना पड़ेगा।
पहिलें बदरि कुच पुन नवरंग। दिन-दिन बाढ़ए पिड़ए अनंग।
से पुन भए गेल बीजकपोर। अब कुच बाढ़ल सिरिफल जोर।
माधव पेखल रमनि सन्धान। घाटहि भेटलि करइत असनान।
तनसुक सुबसन हिरदय लाग। जे पए देखब तन्हिकर भाग।
उर हिल्लोलित चाँचर केस। चामर झाँपल कनक महेस।
भनइ विद्यापति सुनह मुरारि। सुपुरुख बिलसए से बर नारि।
नायिका के नखशिख वर्णन में विद्यापति की विलक्षणता जगजाहिर है। यह पूरा पद वय:सन्धि में प्रविष्ट नायिका के उरोजों के उत्तरोत्तर विकास पर केन्द्रित है। साथ ही इसमें सद्य:स्नाता का भी वर्णन स्पष्ट है। बाल्यावस्था के सपाट वक्षस्थल के बारे में कहा गया है कि वहाँ उरोजों का आकार पहले तो उदित हुआ बेर के आकार में, फिर बढ़कर नारंगी (नवरंग) के आकार का हुआ। उसके बाद फिर दिनानुदिन उरोज बढ़ते गए और कामदेव अंग-अंग में पीड़ा पहुँचाने लगे। उल्लेखनीय है कि यह पीड़ा और कुछ नहीं, काम-वेदना है। वे ही उरोज बढ़ते बढ़ते टाभनींबू (बीजकपोर) के आकार के हो गए, और आगे फिर बढ़कर बेल (सिरिफल~श्रीफल~बेल) की बराबरी करने लगे। माधव, अर्थात् कृष्ण-कन्हाई तो ऐसी रमणी नायिका की गतिविधियों (सन्धान) की टोह में थे ही, उन्होंने उस सुन्दरी को देख लिया। वे घाट पर नहाती हुई दिखीं। नहाई हुई सुन्दरी के भीगे शरीर में उसके पहनावे के सुन्दर वस्त्र (सुबसन), अर्थात महीन वस्त्र उसके उरोजों (हिरदय) से चिपके (लाग) हुए थे। उस सद्य:स्नाता तरुणी को देखने का अवसर जिसे लगे, उसका तो भाग्य जग जाए। सुपुष्ट उरोजों पर सुन्दरी के लम्बे, गीले, काले बाल इधर-उधर बिखरे (चाँचर) झूल (हिल्लोलित) रहे थे। प्रतीत हो रहा था जैसे सोने (कनक) के शिवलिंगों (महेस) को चँवर से ढँक दिया गया हो। यहाँ नायिका के अतिशय गौरवर्ण सुपुष्ट उरोजों के आकार-प्रकार के कारण उन्हें शिवलिंग का रूपक दिया गया है। विद्यापति कहते हैं—हे मुरारि! सुनिए, ऐसी सुन्दर रमणी के साथ कोई सुपुरुष ही विलास कर सकता है।
नखशिख वर्णन
कि आरे! नव यौवन अभिरामा ।
जत देखल तत कहए न पारिअ,
छओ अनुपम एक ठामा ।।
हरिन इन्दु अरविन्द करिनि हिम, पिक बूझल अनुमानी ।
नयन बदन परिमल गति तन रुचि, अओ गति सुललित बानी ।।
कुच जुग उपर चिकुर फुजि पसरल,
ता अरुझाएल हारा ।
जनि सुमेरु ऊपर मिलि ऊगल, चाँद बिहुनि सबे तारा ।।
लोल कपोल ललित मनि-कुण्डल, अधर बिम्ब अध जाई ।
भौंह भमर, नासापुट सुन्दर, से देखि कीर लजाई ।।
भनइ विद्यापति से बर नागरि, आन न पाबए कोई ।
कंसदलन नाराएन सुन्दर तसु रंगिनि पए होई ।।
यह पद नखशिख वर्णन का है। नखशिख का अर्थ हुआ नीचे पैर के अंगूठे के नाखून से लेकर ऊपर शिखर तक के अंग-प्रत्यंग का सौन्दर्य वर्णन। नायिकाओं के सौन्दर्य वर्णन में रचे गए काव्य की यह विशिष्ट कोटि है। इस पद में कवि नवयौवन प्राप्त नायिका के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए पुलक उठते हैं। उसके विलक्षण रूप से चकित होकर कह उठते हैं—अहा! नायिका का यह कैसा मनमोहक नवयौवन है! ऐसा मनोरम रूप, कि देखा हुआ भी कहा न जाए। चकित करने वाला। एक-दो की कौन कहे, छह-छह अनुपम-अनूठे पदार्थ एक जगह जुट आए हैं। उनकी हिरण जैसी आँखें, चाँद जैसा मुखमण्डल, कमल जैसी सुगन्धि, हथिनी जैसी मदमस्त चाल, सोने जैसा कान्तिमय मोहक शरीर, और कोयल जैसा अति सुललित स्वर आह्लादक है। खुली हुई केशराशि उरोजों पर फैल गए हैं। मोतियों का हार उसमें उलझ गया है। हार के दाने बालों की कालिमा के बीच जगमगा रहे हैं। प्रतीत होता है, जैसे सुमेरु पर्वत पर चाँद विहीन तारे चमक रहे हों। कानों में लटके मणि-कुण्डल चमक रहे हैं। होठ और कपोल का सौन्दर्य देख बिम्बाफल सकुचाकर आधा हुआ जा रहा है। भौंहों के सौन्दर्य से भौंरे और नासिका के सौन्दर्य से तोते शरमाए जा रहे हैं। कवि विद्यापति कहते हैं कि ऐसी सुन्दर कामिनी किसी और को नहीं मिल सकती। यह नायिका कंसदलन नारायण जैसे सुन्दर नायक की प्रेयसी ही होगी।
उल्लेखनीय है कि यहाँ 'कंसदलन नाराएन'
द्विअर्थी पद है—इसका एक अर्थ होगा कंस जैसे अत्याचारी का नाश करनेवाले कृष्ण; दूसरा अर्थ होगा मिथिला के राजा (ओइनवार वंश के अन्तिम राजा) कंसनारायण। यहाँ एक दुविधा है—पर्याप्त तर्कसम्मत शोध-सन्दर्भ देकर पं. शिवनन्दन ठाकुर निर्णय देते हैं कि विद्यापति का समय सन् 1342-1439
(ल.सं. 232-329)
होना चाहिए। जबकि कंसनारायण (ओइनवार वंश के अन्तिम राजा) का काल सन् 1532-1546 के आसपास का है। कंसनारसयण,
शिवसिंह के चचेरे भाई नरसिंह दर्पनारायण की चौथी पीढ़ी के सन्तान हैं। (नरसिंह दर्पनारायण~धीरसिंह हृदयनारायण~भैरवसिंह हरिनारायण~रामभद्र रूपनारायण~लक्ष्मीनाथ कंसनारायण) अब कोई कवि कितने भी प्रतिभाशाली हों, वे लगभग एक सौ वर्ष बाद के किसी राजा का नाम कैसे ले सकते हैं? इस स्थिति में 'कंसदलन नाराएन' का अर्थ कृष्ण ही उचित प्रतीत होता है, पर रामवृक्ष बेनीपुरी ने अपने संकलन में 'कंसदलन नाराएन' का अर्थ मिथिला के राजा दिए हैं।
कबरी-भय चामरि गिरि-कन्दर,
मुख-भय चाँद अकासे।
हरिनि नयन-भय, सर-भय कोकिल, गति-भय गज बनबासे।।
सुन्दरि,
किए मोहि सँभासि न जासि।
तुअ डर इह सब दूरहि पड़ाएल,
तोहें पुन काहि डरासि।।
कुच-भय कमल-कोरक जल मुदि रहु, घट परबेस हुतासे।
दाड़िम सिरिफल गगन बास करु, संभु गरल करु ग्रासे।।
भुज-भय पंक मृणाल नुकाएल,
कर-भय किसलय काँपे।
कबि-सेखर भन कत कत ऐसन, कहब मदन परतापे।।
इस पद में भी नवयौवना नायिका के सम्मोहक सौन्दर्य का नखशिख वर्णन किया गया है। सौन्दर्य निरूपण में यहाँ कवि ने अपने अपूर्व कौशल का परिचय दिया है। नायिका के केश, मुख, नयन, स्वर, पयोधर, दन्तपंक्ति, कण्ठ, भुजा, हथेली आदि की प्रशंसा में अकूत सौन्दर्य का निरूपण हुआ है। कवि कहते हैं—हे सुन्दरी! तुम्हारे बालों की सुन्दरता के डर से चँवरवाली गाय गिरि-कन्दरा में छुप गई (कहते हैं कि चाँवरि गाय की पूँछ के बाल अनिन्द्य सुन्दर होते हैं), मुखमण्डल की आभा देखकर डर के मारे चाँद आकाश भाग गया। आँखों के सौन्दर्य से डरकर हरिण, स्वर के मिठास से डरकर कोकिल, और चाल की मादकता से डरकर हथिनी जंगल भाग गई। अब हे सुन्दरी! तुम मुझे बताती क्यों नहीं जाती? तुम्हारे डर के मारे जब ये सारे के सारे भाग खड़े हुए, फिर तुम्हें किससे डर लग रहा है?
तुम्हारे उन्नत और नुकीले उरोजों की बनावट से डरकर कमल की कलियाँ पानी के नीचे छिपी बैठी हैं, लाज के मारे घट आग (हुतासे) में प्रवेश कर गया (यहाँ घड़े की गोलाई की तुलना नायिका के स्तन के विस्तृत आयत और सुपुष्ट गोलाई से की गई है, और आवे में पकने का जिक्र हुआ है)। अनार और बेल आसमान में लटक गए, अर्थात् धरती छोड़कर ऊँचाई में भाग गए (यहाँ बेल की गोलाई, चिकनाई, माँसलता, मजबूती की तुलना नायिका के स्तन की सुपुष्टता से, और दाँतों की सघनता, चमक, सौन्दर्य की तुलना अनार के दानों की गझिन पंक्तियों से की गई है)। तुम्हारे कण्ठ के सौन्दर्य से अपने कण्ठ के सौन्दर्य का दर्प चूर हो जाने की कल्पना से निरास होकर भगवान शिव ने जहर पीकर अपना कण्ठ काला कर लिया। तुम्हारी बाँहों की सुन्दरता से डरकर कमल-मृणाल कीचड़ में छिप गया, तुम्हारे हाथों की कोमलता और सौन्दर्य देखकर डर के मारे किसलय काँपने लगे। कविशेखर, अर्थात् विद्यापति कहते हैं कि कामदेव के प्रताप से हुए ऐसे करतबों का कोई कितना बखान करे!
पीन पयोधर दूबरि गता। मेरु उपजल कनक लता।।
ए कान्ह ए कान्ह तोरि दोहाई। अति अपरुब देखलि राई।।
मुख मनोहर अधर रंगे। फुललि माधुरी कमलक संगे।।
लोचन जुगल भृंग अकारे। मधुक मातल उड़ए न पारे।।
भँउहेरि कथा पूछह जनू। मदन जोड़ल काजर-धनू।।
भन विद्यापति दूतिबचने। एत सुन कान्ह करु गमने।।
नखशिख-वर्णन के इस पद में विद्यापति ने रूपक अलंकार का भव्य उपयोग किया है। विदित है कि उपमेय पर उपमान का आरोप रूपक अलंकार कहलाता है। नायिका के उन्नत उरोज,
दुबली काया, मनोहर मुखमण्डल, लाल-लाल होठ, दोनों कजरारी आँखें, भव्य भौंहों के लिए क्रमश: सुमेरु पर्वत, स्वर्णलता, कमल, मधुरी फूल, भौंरे, और कामदेव के धनुष का रूपक दिया गया है। उल्लेखनीय है कि कवि ने यहाँ सौन्दर्य-गान हेतु कहीं उपमा नहीं दी है, उपमेय में उपमान का आरोप कर दिया है। उन्होंने उन्नत (पीन~सुपुष्ट) उरोजों (पयोधर) को सुमेरु (मेरु) पर्वत जैसा नहीं कहा है, उन्हें सीधे सुमेरु ही कहा है। इसी तरह अन्य रूपक भी हैं। कहते हैं कि पद की नायिका के दुबले-पतले (दूबरि) शरीर (गता~गात~गात्र~नारी का यौवनमय तन) में ये उन्नत उरोज ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, जैसे किसी स्वर्णलता (कनक लता) में सुमेरु पर्वत के फल लग आए हों। यहाँ स्वर्ण का तात्पर्य नायिका का भव्य गौरांग है, लता का तात्पर्य उनके शरीर का छड़हड़ापन है, और सुमेरु पर्वत का तात्पर्य उनके उरोजों की सुपुष्टता है। कवि कहते हैं—हे कन्हाई! दुहाई हो आपकी। आज तो आपकी प्रेयसी राधा (राई) का अति अपूर्व रूप देखा। उनके मनोहर मुखमण्डल में लाल-लाल होठ (अधर) भव्य लग रहे थे; जैसे कमल और मधुरी संग-संग खिल पड़े हों। दोनों (जुगल) मदमस्त कजरारी आँखें (लोचन) मधुपान से मदहोश भौंरे (भृंग) हैं, जो मस्ती के कारण उड़ नहीं पा रहे हैं। और, भौंहों के बारे में तो पूछिए ही मत, वे तो काजल के बने कामदेव (मदन) के तने हुए धनुष लग रहे हैं। यहाँ भौंहों की कालिमा और बाँकपन के कारण उसे काजल से बना धनुष कहा गया है। विद्यापति कहते हैं कि दूती (दूत) के मुँह से यह सन्देश (दूतिबचने) सुनते ही कन्हाई राधा से मिलने चल पड़े। उल्लेखनीय है कि अनुरागमय सन्देश के आदान-प्रदान से नायक-नायिका के बीच प्रेम-प्रसंग को प्रगाढ़ करने में दूती की अहम् भूमिका होती है। इनका मैत्रीभाव दोनों पक्षों से रहता है। विरह में दोनों को प्रबोधन और मिलन में दोनों को विवेकधारण की मन्त्रणा देकर ये उनके प्रेम को उदात्त बनाते हैं। कई बार ये सखी भी होती है, कई बार सखा भी। राधा-कृष्ण प्रेम में उद्धव अथवा उधो का नाम ख्यात है।
सद्य:स्नाता
कामिनि करए सनाने,
हेरितहि
हृदय हनए पँचबाने।
चिकुर गरए जलधारा,
जनि मुख-ससि डरें रोअए अँधारा।
कुच-जुग चारु चकेवा,
निअ कुल मिलत आनि कोने देवा।
ते संकाएँ भुज-पासे,
बाँधि धएल उड़ि जाएत अकासे।
तितल बसन तनु लागू,
मुनिहुक
मानस मनमथ जागू।
सुकवि विद्यापति गावे,
गुनमति धनि पुनमत जन पाबे।
इस पद में सद्य:स्नाता नायिका के सौन्दर्य वर्णन हुआ है। वर्णन की दृष्टि से 'सद्य:स्नाता'
नायिका की एक कोटि है। शृंगार-रस के काव्य में इस कोटि के काव्य में वैसी रचनाएँ आती हैं, जिनमें नायिका के स्नान के तत्काल बाद का वर्णन होता है। सद्य: का अर्थ होता है अभी-अभी पूरा हुआ व्यापार; और स्नान से बने शब्द स्नात का अर्थ होता है नहाया हुआ। स्नात का स्त्रीलिंग रूप हुआ स्नाता। इस तरह सद्य:स्नाता का अर्थ हुआ अभी-अभी नहाई हुई नायिका।
नहाती हुई, अथवा नहाई हुई नायिका के अद्भुत सौन्दर्य के वर्णन के असंख्य उदाहरण भारतीय काव्य में मिलते हैं। यहाँ विद्यापति की सौन्दर्य-दृष्टि देखने योग्य है। कवि कहते हैं—कामिनी नहा रही है, और उसे नहाते हुए देखकर हृदय में कामदेव (पँचबान) के वेधक बाण धँसे जा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि प्रेम-पथ के पथिक को 'काम' के देवता अपने पाँच प्रकार के बाणों—सम्मोहन, उन्मादन, स्तम्भन, शोषण, तापन—से आहत करते हैं; इसीलिए कामदेव को पँचबान कहा जाता है। सम्मोहन का अर्थ है किसी व्यक्ति, वस्तु, या बिम्ब को देखकर उसके प्रति अनुरक्त हो जाना, मोहित हो जाना। उन्मादन का अर्थ है उस अनुरक्ति के आधार को पा लेने के लिए उन्मादित हो जाना। स्तम्भन का अर्थ रक्त, वीर्य आदि के स्राव को रोकने के अलावा उस धारणा पर टिके रहना भी है, जिस पर वह सम्मोहित हुआ है। शोषण के अन्य प्रचलित अर्थों के साथ एक अर्थ हित-अनहित सब त्यागकर उस व्यापार में लगे रहना भी है, जो उसने उस सम्मोहन के कारण शुरू किया है। तापन का अर्थ उस कामदग्धता का ताप है, जिसकी तपिश में वह निरन्तर दग्ध हुआ जा रहा है।
कवि कहते हैं कि जिस कामिनी को नहाते देख इस तरह हृदय में वेधक पँचबान धँसे जा रहे हैं; उसके सरोबर से बाहर निकलते हुए बालों से जलधार निकल रहे हैं। प्रतीत हो रहा है कि चन्द्रमा जैसे मुखमण्डल की आभा देखकर डर के मारे अन्धकार रोए जा रहा है, कि अब तो उसे भागना ही पड़ेगा। यहाँ बालों के कालेपन की सघनता को कवि ने रात के अन्धकार के रूप में चित्रित किया है। दोनों वक्ष इतने उन्नत और अग्रमुख हैं कि वे चकवा पक्षी के जोड़े की तरह सुन्दर, चंचल, गोल-मटोल और उड़कर अपने झुण्ड में भाग जाने को तत्पर प्रतीत होते हैं। उल्लेखनीय है कि चकवा भारतवर्ष का ऐसा पक्षी है जो जाड़े के दिनों में जलाशयों के किनारे पाया जाता है, इनमें अतिशय प्रेम होता है, और कहा जाता है कि रात को अपने जोड़े से इसका वियोग हो जाता है। कामिनी के इन भीगे वक्षों के लिए चकवा का यह विलक्षण उपमान प्रशंसनीय है। कहीं ये उड़कर आकाश ही न चले जाएँ, इस आशंका में नायिका ने अपनी दोनों बाँहों के आलिंगन से उन्हें जकड़ रखा है। भीगे वस्त्र शरीर में इस तरह चिपके हुए हैं कि मुनियों, तपस्वियों के हृदय में भी कामदेव (मनमथ) जाग उठें। सुकवि विद्यापति कहते हैं कि ऐसी गुणवती नायिका किसी पूर्णमति, बुद्धिमान, भाग्यशाली नायक को ही मिल सकती है।
अभिसार
चन्दा जनि उग आजुक राति। पिया के लिखिअ पठाओब पाँति।।
साओन सएँ हम करब पिरीति। जत अभिमत अभिसारक रीति।।
अथवा राहु बुझाओब हँसी। पिबि जनि उगिलह सीतल ससी।।
कोटि रतन जलधर तोहें लेह। आजुक रयनि घन तम कए देह।।
भनइ विद्यापति सुभ अभिसार। भल जन करथि परक उपकार।।
यह पद नायिका के अभिसार से सम्बन्धित है। अभिसार का अर्थ है--अभिसरन, अभिसरण, अभिसारण, अर्थात् किसी सुनिश्चित स्थान की ओर बढ़ना। पर व्यावहारिक रूप से अभिसार का अर्थ अब प्रेम-प्रसंग में 'प्रिय मिलन के लिए निर्धारित स्थान की ओर जाना' रूढ़ हो गया है। वैसे तथ्य है कि यह पद पूरे तौर पर अभिसार नहीं दिखाता, अभिसार शुरू करने से पूर्व की तैयारी दिखाता है। वस्तुत: अभिसार प्रेम-प्रसंग का ऐसा उद्यम है, जो रात को नियोजित होता है, जब सामान्य तौर पर घर-परिवार-समाज के सामान्य सदस्य अपनी समस्त जैविक क्रियाओं से निवृत्त होकर सो गए रहते हैं, नायिका सभी स्वजनों-परिजनों से नजरें बचाकर अपने नायक से मिलने सुनिश्चत स्थान पर जाती हैं। नायिका के इस संचरण में स्वजन-परिजन के अलावा कुछ और भी बाधक-तत्त्व होते हैं, वे हैं—चन्द्रमा का प्रकाश, क्योंकि उस प्रकाश में राह चलते हुए कोई देख ले सकता है; अन्धकार, वर्षा, कीच-कण्टक भरे रास्ते। अभिसार के पद रचनेवाले कवियों ने ऐसे बाधक तत्त्वों से बचने हेतु विभिन्न पदों में नायिकाओं की चतुराई भी व्यक्त की है। शुक्लाभिसार, कृष्णाभिसार, पावसाभिसार; क्रमश: चाँदनी, अन्धेरी, और पावस (वर्षा ऋतु) की रात में होनेवाले अभिसार के अलग-अलग नाम हैं—और इनमें सम्भावित बाधाओं से बचने की अलग-अलग पद्धतियाँ हैं।
इस पद में विद्यापति ने जिस अभिसार के लिए नायिका के मनोभाव का चित्रण किया है, वह अभिसार पावस की चाँदनी रात में होनेवाली है। अब चूँकि उस अभिसार का सबसे बड़ा बाधक चन्द्रमा ही होगा, इसलिए वह उससे निवेदन करती हुई कहती है—हे चन्दा! तुम कृपाकर आज की रात मत उगो! मैं अपने प्रिय को पत्र लिखकर भेज रही हूँ। सावन का महीना है। यह मास मुझे बहुत पसन्द है। मैं इस महीने से प्रेम करती हूँ। क्योंकि इस मौसम में अभिसार बहुत सुलभ, सम्मत और आनन्दमय होता है, मुझे आज ही अपने प्रियतम से मिलना है। तुम आज की रात मत उगो! या फिर आज हँसी-खेल में समझा-बुझाकर, राहु को मनाऊँगी कि वे इस शीतल चन्द्र (ससी) की किरणें पी ले और रात भर न उगले (प्रचलित कथा है कि चन्द्रग्रहण में राहु चन्द्रमा को निगल जाते हैं, और थोड़ी देर बाद फिर उसे मुक्त कर देते हैं, अर्थात उगल देते हैं।) या कि सावन के इस बादल (जलधर) से निवेदन करती हूँ कि चाहे तो मुझसे लाखों-करोड़ों रत्न (रतन~हीरे-मोती) ले ले, पर आज ऐसी घटा बन कर छाए कि पूरी रात गहन अन्धकार कर दे। विद्यापति कवि कहते हैं कि अभिसार की यह शुभ हो! हर भले लोग दूसरों का उपकार करना अच्छा मानते हैं।
निअ मन्दिर सएँ पद दुई चारि। घन घन बरिस मही भर बारि।।
पथ पीछर बड़ गरुअ नितम्ब। खसु कत बेरि न किछु अवलम्ब।।
बिजुरि-छटा दरसाबए मेघ। उठए चाह जल धारक थेघ।।
एक गुन तिमिर लाख गुन भेल। उतरहु दखिन भान दुर गेल।।
ए हरि करिअ मोहि जनि रोस। आजुक बिलम्ब दइब दिअ दोस।।
यह पद पावस की रात में नायिका द्वारा किए गए अभिसार, और नायक तक पहुँचने में हुए विलम्ब के कारण नायिका द्वारा दिए जा रहे स्पष्टीकरण से सम्बन्धित है। नायक के पास नायिका विलम्ब से पहुँची है, और अब स्वयं को र्निदोष प्रमाणित करने हेतु तर्क देती है कि हे हरि! आप ही बताएँ मैं क्या करती? घर निकलकर दो-चार कदम ही चली थी, कि घनघोर वर्षा होने लगी, चारो ओर पानी भर गया। पूरे रास्ते बेहिसाब फिसलन से भर गए। मेरा नितम्ब भी तो बहुत भारी है, इसमें तो सँभल-सँभल कर चलना होता है। न जाने कितनी बार रास्ते में मैं गिर पड़ी। कुछ सहारे के लिए साथ में नहीं था। बेशुमार बादल गरज रहे थे, ताबरतोड़ बिजली कड़क रही थी। पानी की बौछारें उमर रही थीं। एक तो वैसे ही अन्धेरी रात, ऊपर से यह घनघोर घटा; एक गुना अन्धकार लाखगुना हो गया। उत्तर-दक्षिण कुछ भी दिशा-ज्ञान नहीं हो पा रहा था। पूरा दिग्भ्रम छाया हुआ था। अब आप ही कहें, मैं क्या करती, मेरा क्या दोष? हे हरि! आप मुझ पर रोष न करें, मेरा कोई कसूर नहीं है, आज के विलम्ब का सारा दोष दैवयोग को जाता है।
मान
अरुण पुरब दिशा बहलि सगरि निसा,
गगन मलिन भेल चन्दा।
मुँदि गेलि कुमुदिनि तइओ तोहर धनि, मूँदल मुख अरबिन्दा।।
चाँद बदन कुबलय दुहु लोचन,
अधर मधुरि निरमान।
सगर सरीर कुसुमें तुअ सिरिजल,
किए दहु हृदय पखान।।
असकति कर कंकन नहि पहिरसि,
हार हीर हृदय भेल भार।
गिरिसम गरुअ मान नहि मुंचसि,
अपरुब तुअ बेवहार।।
अबगुन परिहरि हेरह हरखि धनि, मानक अबधि बिहान।
राजा सिवसिंह रूपनराएन,
कवि विद्यापति भान।।
यह पद नायिका के 'मान'
से सम्बन्धित है। नायिका की उस अवस्था को 'मान' कहते हैं जब वह नायक के किसी आचरण से, या किसी अन्य कारण-अकारण रूठ जाती है। इस पद में कवि ने नायिका के उसी मान का वर्णन किया है। नायिका रूठी हुई है, और नायक उन्हें मना रहे हैं, उन्हें मनाते हुए पूरी रात गुजर जाती है, पर वह अपना मान नहीं तोड़ती है। अन्त में विवश होकर नायक कहते हैं—हे सुन्दरी! देखो पूरब दिशा में बाल-सूर्य की लालिमा निखर उठी है। प्रकाश फैलने से रात का अन्धकार पूरी तरह मिट चुका है। आकाश में चन्द्रमा मलिन हो चुका है। खिली हुई कुमुदिनी अब मुँद चुकी है, फिर भी तुम्हारा कमल जैसा मुखमण्डल खिला नहीं है, वह मुँदा हुआ ही है। उल्लेखनीय है कि कुमुदिनी चन्द्रमा की उपस्थिति से खिलती है, और चाँद के छिपते ही वह बन्द हो जाती है। इसके विपरीत कमल सूर्य के उगने से खिलते हैं, और उसके छिपने से बन्द हो जाते हैं। यहाँ कवि ने बड़े कौशल से उपमानों को बहुअर्थी बनाया है। उधर सूर्य की लालिमा निखर आई है, और नायक स्वयं उपस्थित हैं। अब इस हाल में, जब नायक जैसे सूर्य उपस्थित हों, सारे राग-विराग, उचती-विनती के अन्धकार छँट गए हों, फिर भी नायिका के कमल जैसे मुखमण्डल खिलते क्यों नहीं? नायक फिर कहते हैं—हे सुन्दरी! चाँद जैसा तुम्हारा मुखमण्डल है, नीलकमल (कुबलय) जैसी आँखें हैं, मिठास और लालिमा से निर्मित फूल जैसे होठ हैं, तुम्हारे पूरे शरीर की ही रचना फूलों से हुई है, पर आश्चर्य है कि तुम्हारा हृदय ऐसा पत्थर-सा कठोर कैसे हो गया कि मेरे इतने मनाने पर भी तुम मान नहीं रही हो, अपना मान तोड़कर तुम प्रसन्न नहीं हो रही हो!
नायक फिर कहते हैं कि आलस्य के मारे कंगन नहीं पहनती,
हीरे का हार भी तुम्हें हृदय का भार लग रहा है, पर्वत-सा कठोर अपना 'मान' त्याग नहीं रही हो, तुम्हारा यह व्यवहार गजब है, पहले तुम ऐसी नहीं थी! हे सुन्दरी! मेरे अवगुणों को त्यागकर हर्ष से देखो, अब 'मान' की अवधि समाप्त हो गई। कवि विद्यापति कहते हैं कि राजा शिवसिंह रूपरस के स्वामी हैं।
यह पद इसी रूप में उमापति रचित सुप्रसिद्ध नाटक पारिजात हरण में भी है। पूरे पद में कहीं-कहीं हिज्जे का तनिक-सा अन्तर है। अन्तिम पंक्ति 'राजा सिवसिंह रूपनराएन,
कवि विद्यापति भान' की जगह वहाँ 'हिमगिरि कूमरी चरण हृदय धरि सुमति उमापति भाने' है। इसका अर्थ हुआ—देवी पार्वती (हिमगिरि कुँआरी) के चरणों का स्मरण करते हुए पवित्र मन से उमापति कहते हैं।
उमापति का काल विद्यापति से पहले का माना जाता है। वस्तुत: पारिजात हरण नाटक में हरिहरदेव की राजमहिषी महेश्वरीदेवी का उल्लेख मिलता है। नान्यदेव की छठी पीढ़ी के राजा हरिहरदेव का राज्यकाल सन् 1305-1324 माना जाता है। इसका आशय यह हुआ कि उमापति का समय उसी के आसपास का है (हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास/ दशरथ ओझा/राजपाल एण्ड सन्स/2008/
पृ. 50),
जबकि लाख तजबीज करने पर भी विद्यापति का समय सन् 1342-1439 ठहरता है। उक्त पद का संकलन करते हुए रामवृक्ष बेनीपुरी भी कहते हैं कि यह पद उमापति का है। पर जिस रूप में यह पद रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा संकलित विद्यापति पदावली में है, उस रूप में इसे विद्यापति रचित मानना ही उचित है। इसमें कोई संशय नहीं कि विद्यापति के रचना-विधान पर भाव के स्तर पर उमापति का जबर्दस्त प्रभाव था।
मानिनि आब उचित नहि मान।
एखनुक रंग एहन सन लागए,
जागल पए पँचबान।।
जूड़ि रयनि चकमक करु चाँदनि,
एहन समय नहि आन।
एहि अवसर पिय-मिलन जेहन सुख, जकरहि होए से जान।।
रभसि-रभसि अलि बिलसि-बिलसि कलि, करए मधुर मधु पान।।
अपन-अपन पहु सबहु जेमाओल,
भूखल तुअ जजमान।।
त्रिबलि तरंग सितासित संगम,
उरज सम्भु निरमान।
आरति मति मँगइछ परतिग्रह,
करु धनि सरबस दान।।
दीप-बाति सम थिर न रह मन, दिढ़ करु अपन गेयान।
संचित मदन बेदन अति दारुन,
विद्यापति कवि भान।।
यह पद भी नायिका के 'मान'
से सम्बद्ध है। नायक कहते हैं--हे मान ठाननेवाली मानिनि नायिके! अब इतना भी रूठना उचित नहीं है। छोड़ भी दो अब इन सब बातों को । देखो तो, प्रतीत हो रहा है जैसे कामदेव अपने पाँचो बाणों के साथ जग चुके हों। इस शीतल रात में फैली हुई चाँदनी कितनी आकर्षक लग रही है, ऐसा मनोरम समय और कोई नहीं हो सकता। इस सुन्दरतम बेला में जिसे पिया-मिलन का सुख मिलता है, केवल वही उस सुख को जान सकता है, दूसरा कोई उस आनन्द के अनुभव का अनुमान भी नहीं कर सकता। ऐसे सुख का जिसे अनुभव ही न हो, वह भला इस आनन्द को क्या जाने? देखो न! पुलक-पुलक कर, रभस-रभस कर भौंरे कैसे विलासमग्न हैं, कलियों का रसपान करते हुए कैसे मदमस्त हैं, मधुर मधुपान में व्यस्त हैं। इस मनोरम बेला में अपने प्रियतम को भोगसुख देने में हर कोई उदारतापूर्वक तत्पर है, कलियाँ भी; बस एक तुम्हारा यजमान भूखा है। उल्लेखनीय है कि यहाँ 'जिमना' से बने भूतकालिक क्रियापद 'जेमाओल' का अर्थ 'भोजन कराना' नहीं; नायक के प्रेम-निवेदन का मुग्ध स्वीकार है, प्रणय-उपक्रम की स्वच्छन्दता है, निर्बाध विलास हेतु नायिका का पूर्ण समर्पण है, निर्विरोध तृप्ति की छूट है और 'भूख' से बना भूतकालिक क्रियापद 'भूखल' का अर्थ क्षुधाकुलता नहीं, प्रेमपिपासा है। इसीलिए नायक कहते हैं कि सारे के सारे तृप्त हो रहे हैं, बस तुम्हारा ही प्रियतम भूखा है। नायक आगे कहते हैं—हे कामिनी, तुम्हारी आकर्षक त्रिबलि के श्वेत-श्याम (सितासित) संगम मोहक हैं, उरोजों की आकृति शिवलिंग-सी प्रतीत होती है...।
नाभि-प्रदेश की तीन दिशाओं—दाएँ, बाएँ, और नीचे से ऊर्ध्वमुख रोमावलि—तीन धारा-सी प्रतीत होती है, जो नाभि के निकट मिल जाती है। इस रोमावलि को त्रिबलि कहते हैं, और यहाँ कवि ने उसी मिलन को गंगा-यमुना-सरस्वती का श्वेत-श्याम संगम कहा है। गौरवर्णा नायिका के तन पर उग आई इस श्याम रोमाविलियों से 'सितासित संगम' का यह विलक्षण उपमान रोचक है। सम्भु का एक अर्थ '...से निर्मित' और 'निरमान' का अर्थ 'स्थगित' भी होता है। इसलिए 'उरज सम्भु निरमान' का अर्थ यहाँ नायिका के उरोजों के कारण उस संगम-धारा का ठहर जाना भी सार्थक प्रतीत होता है। दोनों ही स्थितियों में...
इस त्रिबलि-तरंग से उत्पन्न मोहकता मादक है। इस मादक और पवित्र क्षण में हे प्रिये! जब तुम्हारा शरीर ही पवित्र देवस्थल बना हुआ है, तुम्हारा प्रियतम व्याकुल होकर याचक मुद्रा में तुमसे प्रतिदान (परतिग्रह) माँग रहा है। हे मानिनि, ऐसे क्षण में तुम अपना सर्वस्व दान कर दो। मन तो चंचल होता है, दीप-शिखा (दीप-बाती) की तरह अनस्थिर होता है, काँपता रहता है। अपने ज्ञान-ध्यान, विवेक को दृढ़ करो। कवि विद्यापति समझाते हैं कि संचित मदन (कामेच्छा) की वेदना अत्यधिक कष्टकारी होती है।
विदग्ध विलास
सासु सुतलि छलि कोर अगोर। तहि अति ढीठ पीठ रहु चोर।।
कत कर-आखर कहल बुझाई। आजुक चातुरि कहल कि जाई।।
नहि कर आरति ए अबुझ नाह। अब नहि होएत बचन निरबाह।।
पीठ आलिंगन कत सुख पाब। पानि पियास दूध किए जाब।।
कत मुख मोरि अधर रस लेल। कत निसबद कए कुच कर देल।।
समुख न जाए सघन निसोआस। किए कारन भेल दसन विकास।।
जागलि सासु चलल तब कान। न पूरल आस विद्यापति भान।।
विलास के उग्रतम क्षण में जब किसी दुर्गम बाधा के प्रवेश से सुख-विलास खण्डित हो जाए, तत्क्षण किसी विधि उस बाधा को दूर कर पाने की सुविधा न दिखे, तो उसे विदग्ध-विलास कहते हैं; अर्थात् ऐसा विलास, जो किसी अस्थाई कारण से दग्ध हो गया हो, खण्डित हो गया हो।
प्रस्तुत पद में यह बाधा रात के समय नायिका के साथ उसकी सास की उपस्थिति से उत्पन्न हुई है। नायिका के साथ उसकी सास उसे अगोरकर (सुरक्षा करती हुई) सोई हुई है। उसी वक्त उसके कामातुर और ढीठ नायक चोरी-चुपके आ जाते हैं। नायिका कर-आखर द्वारा,
अर्थात्
हाथों के इशारे से उन्हें बार-बार समझाती है, बरजती है—हे मेरे नासमझ प्रियतम (अबुझ नाह)! इतने आतुर न होएँ! धीरज रखें! पर नायक मानते नहीं। वे लगातार काम-तृप्ति के उद्यमों में लग जाते हैं। उन उद्यमों की उनकी चतुराई विलक्षण है। नायक अपनी आतुरता में कुछ समझने को तैयार नहीं हैं। अपने करतबों से ऐसा सन्देश देते हैं, जैसे अब वचन-निर्वाह असम्भव है। वे पीठ की ओर से ही नायिका को आलिंगन करने लगते हैं। नायिका मन ही मन क्षुब्ध होती है—हे मेरे प्रियतम! क्या कर रहे हैं आप! ये पीठ के आलिंगन से आपको क्या सुख मिलेगा! पानी का प्यासा कहीं दूध से तृप्त हो! पर नायक कहाँ माननेवाले थे। वे लगातार अपने उद्यमों में व्यस्त रहते हैं। कई बार मुख को घुमा-घुमा कर अधर-रसपान भी किया, अर्थात् चुम्बन लिया। कई बार नि:शब्द रूप से उरोजों को भी हाथ लगाए। सामने सास की उपस्थिति के कारण नायिका कामोन्मत्त नि:श्वास तक नहीं छोड़ती, कहीं उस नि:श्वास से सास न जग जाएँ। पर होना तो कुछ और ही था। कोई भी चतुराई काम नहीं आई। न मालूम ऐसे क्षण में सुखपूर्ण हास के कारण दन्तपंक्तियाँ चमक उठीं। उस चमक से सास की नीन्द भंग हो गई। प्रियतम, अर्थात् कृष्ण (कान~कान्ह) को निराश होकर चले जाना पड़ा। विद्यापति कहते हैं कि दो कामातुर मन की आस पूरी न हो सकी।
आजुक लाज तोहे कि कहब माई। जल दए धोइ जदि तबहु न जाई।।
न्हाइ उठलि हमे कालिन्दी तीर। अंगहि लागल पातल चीर।।
तें बेकत भेल सकल सरीर। ताहि उपनीत समुख जदुबीर।।
बिपुल नितम्ब अति बेकत भेल। पलटि ताहि पर कुन्तल देल।
उरज उपर जब देयल दीठ। उर मोरि बइसलिहुँ हरि करि पीठ।।
हँसि मुख मोड़ए दीठ कन्हाई। तनु-तनु झाँपइते झाँपल न जाई।।
विद्यापति कह तोहें अगेआनि। पुनु काहे पलटि न पैसलि पानि।
यह पद एक दृष्टि से सद्य:स्नाता वर्णन लगता है, अन्तर बस इतना कि यहाँ स्नान के तत्काल बाद भीगे वस्त्रोंवाली नायिका के अंग-प्रत्यंग की चर्चा नायक नहीं, नायिका स्वयं करती है। दूसरी दृष्टि से नायिका का विदग्ध-विलास है; जिसमें नायिका मुग्ध-मुदित भी होती है, और लाज के मारे संकुचित भी। यहाँ एक सम्बोधन 'माई' है। ध्यातव्य है कि विद्यापति के पदों में अनेक स्थानों पर नायिका द्वारा यह सम्बोधन 'सखि' के सन्दर्भ में आया है। तो नायिका कहती है—हे सखि! आज के लाज की कथा क्या कहूँ! बड़ी ही शर्मनाक बात हो गई। ऐसा, कि पानी डालकर धोऊँ, तो भी धोया न जाए। यमुना किनारे मैं ज्यों ही नहाकर बाहर आई, कि पूरे तन में मेरे महीन वस्त्र चिपक गए। पूरे शरीर का एक-एक अंग व्यक्त (बेकत) हो उठा, अर्थात् पूरे शरीर का उभार स्पष्ट हो गया। उसी क्षण वहाँ कृष्ण (जदुबीर~यदुवीर) आ पहुँचे (उपनीत~उपस्थित हो गए; समुख~सम्मुख~ समक्ष)। मेरा विशाल, सुपुष्ट नितम्ब (कटि-प्रदेश) पूरी तरह स्पष्ट दिख रहा था। किसी तरह अपनी भीगी हुई केश-राशि पलटकर उस डाली, और उसे ढकने का प्रयास किया। फिर जब अपने उन्नत उरोजों पर नजर गई, तो मुझे लगा कि सम्भवत: वे उसे देख रहे हैं। फिर तो मैं और विवश हो गई। अबकी मैं कृष्ण की ओर पीठ करके बैठ गई, ताकि घुटनों की ओट में उसे छिपा सकूँ, और वे देख न सकें। पर कान्हा क्या कम ढीठ हैं! वे हँसते भी जा रहे थे, बार-बार मुँह घुमाकर निहारते भी जा रहे थे। अब मेरी विवशता देखो, अंग से कहीं अंग ढका जाता है! मेरा तो अंग-प्रत्यंग स्पष्ट दिख रहा था, ढके नहीं बनता था। विद्यापति कवि कहते हैं—हे सुन्दरी! तुम भी कितनी अज्ञानी हो! वापस लौटकर फिर पानी में क्यों नहीं चली गई!
वस्तुत: यह विदग्ध-विलास का भाव है। नायिका को लाज जो लगे, पर यह स्थिति मन ही मन तो भा ही रही थी!
वसन्त
नव बृन्दावन नव नव तरुगन,
नव-नव बिकसित फूल।
नवल बसंत नवल मलयानिल,
मातल नव अति कूल।।
बिहरए नवलकिशोर।
कालिन्दि-पुलिन कुंज वन सोभन,
नव-नव प्रेम-विभोर।।
नवल रसाल-मुकुल-मधु मातल,
नव कोकिल कुल गाब।
नवयुवती गन चित उमताबए,
नव रस कानन धाब।।
नव जुवराज नवल बर नागरि,
मिलए नव नव भाँति।
नित नित ऐसन नव नव खेलन,
विद्यापति मति माति।।
संयोग-वियोग, रति-अभिसार, स्तुति-प्रार्थना के पदों के अलावा विद्यापति का मनोरम कौशल प्रकृति-वर्णन में भी खूब दिखता है। जैविक सत्य भी है कि मानव-जीवन पद्धति पर प्रकृति-परिवर्तन के अद्भुत प्रभाव पड़ते हैं। काव्य-रसिकों के अलावा मनोवैज्ञानिकों, चिकित्साविदों, समाजशास्त्रियों ने भी प्रकृति और जनजीवन के नैसर्गिक अन्तस्सम्बन्ध का महत्त्व दिया है। ऋतु-परिवर्तन से मानवीय मनोभावों का अवश्यम्भावी परिवर्तन एक शाश्वत घटना है। शृंगार-रस की रचनाओं में उद्दीपन भाव हेतु प्राकृतिक सुषमा के अनूठे योगदान से हर कोई परिचित है। वैसे तो शृंगार-रस के लिए हर ऋतु का अपना महत्त्व है, पर वसन्त ऋतु के मदोन्माद की बात ही कुछ और है। मतलब-बेमतलब मन बौराया रहता है। इस पद में कवि ने प्रकृति और जनजीवन के उसी उल्लास का बखान किया है।
कवि देखते हैं कि बसन्त ऋतु के आगमन से सारा कुछ नया-नया-सा हो गया है। वृक्ष के पुराने पत्ते झड़ जाने के बाद उनमें नए-नए किसलय लग गए हैं। पूरा वृन्दावन,
सारे तरुवर नए लग रहे हैं। उनमें नए-नए फूल खिल उठे हैं। इस नए बसन्त और मलय पर्वत से आई नई हवा से सुवासित वातावरण में भौंरों का समूह (अलिकुल~अलिकूल) मदमस्त हो उठा है। यहाँ अलिकूल पदबन्ध का द्विअर्थी प्रयोग हुआ है। काव्य में कामिनियों के लिए फूलों और नायकों के लिए भौंरों के उपमान दिए जाते हैं। जिस तरह मधुरस-लोभी भौंरे फूलों पर मँडराते रहते हैं, उसी तरह रूपरसलोलुप नायक कामिनियों के इर्दर्गिद मँडराते फिरते हैं। यह बसन्त ऋतु की मादकता का ही परिणाम है कि सारे के सारे मदमस्त हो उठे हैं।
कवि कहते हैं कि बसन्त ऋतु के इस मादक वातावरण में, कुंज-सुशोभित (लताओं से ढके हुए पथ को कुंज कहा जाता है) यमुना-तट (कालिन्दि-पुलिन) के वन में प्रेम की नई-नई अनुभूतियों से विभोर (सुध-बुध खोकर) युवा कृष्ण (नवलकिशोर) विहार कर रहे हैं, उन्मुक्त विचरण कर रहे हैं। नवविकसित कलियों (मुकुल) के प्रथम प्रस्फुटन से प्राप्त मधु के नशे में मदमस्त कोकिल समूह गीत गा रहे हैं। उमताए (उन्मादित) चित की नवयुवतियाँ उस नए, रसपूर्ण कानन की ओर दौड़ पड़ी हैं, जहाँ वातावरण भी उल्लसित, सुवासित है, उमंग-मन कृष्ण पहले से विचर रहे हैं। ऐसे उल्लासमय वातावरण में नवयुवराज और नवयुवती नायिका नई-नई क्रीड़ाओं, कलाओं, भंगिमाओं में मिलें, यह सहज अनुमान किया जा सकता है। कवि विद्यापति कहते हैं कि ऐसे में नित-नित नई-नई क्रीड़ाओं का होता रहना सहज सम्भाव्य है।
अभिनव पल्लव बइसक देल। धवल कमल फुल पुरहर भेल।।
करु मकरन्द मन्दाकिनि पानि। अरुन असोग दीप दहु आनि।।
माइ हे आजि दिवस पुनमन्त। करिअ चुमाओन राय बसन्त।।
सँपुन सुधानिधि दधि भल भेल। भमि-भमि भमर हँकराय गेल।।
केसु कुसुम सिन्दुर सम भास। केतकि धुलि बिथरहु पटबास।।
भनइ विद्यापति कवि कण्ठहार। रस बुझ सिबसिंह सिब अवतार।।
विद्यापति पदावली में प्रकृति के मानवीकरण का यह विलक्षण नमूना है। यहाँ मिथिला में आए अभ्यागत की तरह कवि बसन्त का स्वागत करते हुए दिखते हैं। अभ्यागत-स्वागत में सारे प्राकृतिक अवदानों से यहाँ बसन्त का अभिनन्दन हो रहा है। नूतन किसलय के आसन पर उसे बिठाया जा रहा है। श्वेत-कमल के शुभ-घट (पुरहर~पुरोघट~शुभघट) उसके अनुष्ठान में रखा जा रहा है। मधुरस (मकरन्द) के गंगाजल (मन्दाकिनि पानि) से प्रक्षालन किया जा रहा है। अशोक के लाल-लाल टूसों से दीप जलाए जा रहे हैं। हे सखि! आज बड़ा ही पुण्यमय, बड़ा ही शुभंकर दिन है। बसन्तराज का चुमावन कीजिए, उनकी आरती उतारिए। सम्पूर्ण (सँपुन) चन्द्रमा दधिघट (दही से भरा पात्र) बना हुआ है। गुंजायमान भौंरे घूम-घूमकर चारो ओर निमन्त्रण दे आए हैं। पलास के फूल सिन्दूर-से दिख रहे हैं। केवड़े (केतकी) के पराग का सुवासित कण चारो ओर बिखेरा जा चुका है। आओ सखियो! बसन्तराज का स्वागत करो! कवि कण्ठहार विद्यापति कहते हैं कि जो कुछ कहा गया, उन सब का मर्म साक्षात शिव के अवतार राजा शिवसिंह जानते हैं।
बाजति द्रिगि द्रिगि धौद्रिम द्रिमिया।
नटति कलावति माति श्याम संग, कर करताल प्रबन्धक धुनिया।।
डम डम डफ डिमिक डिम मादल,
रुनुझुनु मंजिर बोल।
किंकिन रनरनि बलआ कनकनि,
निधुबन रास तुमुल उतरोल।।
बीन रवाब मुरज स्वरमण्डल, सा रि ग म प ध नि सा विधि भाव।
घटिता घटिता धुनि मृदंग गरजनि,
चंचल स्वरमण्डल करु राव।।
स्रम भर गलित ललित कबरीयुत,
मालति माल बिथारल मोति।
समय बसन्त रास-रस वर्णन,
विद्यापति छोभित होति।।
इस पद में कवि के संगीतशास्त्रीय कौशल का अद्भुत निदर्शन है। पूरे बसन्त ऋतु के ध्वन्यात्मक प्रभाव को कवि एक मनोहर रागिनी में परिवर्तित कर जीवन्त कर देते हैं। वाद्य-यन्त्रों की ध्वनियों को वातावरण में आरोपित कर एक मनोरम संगीत की उत्पत्ति की गई है। चतुर्दिक वातावरण में मनभावन संगीत की प्रतीति हो रही है। कवि कहते हैं—मृदंग की थाप से उत्पन्न बोल 'द्रिगि-द्रिगि धौद्रिम द्रिमिया' की ध्वनि गूँज रही है। प्रतीत होता है जैसे कलावती कामिनी मदमस्त होकर कृष्ण के साथ झूम-झूमकर नाच रही हो, और तालियों से करताल की ध्वनि निकाल रही हो। डफ (बाजा) के डम-डम, माँदर (बाजा) के डिमिक-डिम, नूपुर (मंजिर, घुँघरू) के रुनझुन, करधनी (किंकिन) के रनरन, कंगन (बलआ) के कनकन ध्वनि से पूरा वातावरण संगीतमय है। ये सारे आमोद-प्रमोद (निधुबन) रासलीला की अत्यन्त तीव्रता (तुमुल) से तरंगायित(उतरोल) हो रहे हैं। वीणा (बीन), रवाब (सारंगी सदृश एक बाजा),
पखावज (मुरज) के स्वरमण्डल से 'सा रि ग म प ध नि सा' के विधिवत भाव उत्पन्न हो रहे हैं। मृदंग के 'घटिता घटिता धुनि' गरजन से चंचल स्वर (राव) गुँजायमान है। नृत्य-श्रम से शिथिल और दोलायमान केशराशि में लिपटी मालतीमाला मोती बिखेर रही है। ऐसे बसन्त ऋतु का रास-रस बर्णन करते हुए कवि विद्यापति का मन भी चंचल हुआ जा रहा है।
विरह
माधव,
तोहें जनु जाह बिदेस।
हमरो रंग रभस लए जएबह,
लएबअ कओन सन्देस।।
बनहि गमन करु होइत दोसरि मति, बिसरि जाएब पति मोरा।।
हीरा मणि मानिक एको नहि माँगब,
फेरि माँगब पहु तोरा।।
जखन गमन करु नयन नीर भरु, देखहु न भेल पहु ओरा।
एकहि नगर बसी पहु भेल परबस,
कइसे पुरत मन मोरा।।
पहु सँग कामिनि बहुत सोहागिनि,
चाँद निकट जैइसे तारा।
भनइ विद्यापति सुनु बर जौबति, अपन हृदय धरु सारा।।
विद्यापति का यह पद नायिका के आसन्न (निकट आए) विरह का वर्णन है। विरह शब्द का कोशीय अर्थ वियोग, अभाव, बिछुड़न है; पर साहित्य में इसे प्रियतम के वियोग में अनुभूत अनुराग के रूप में देखा जाता है। प्रस्तुत पद में प्रियतम-वियोग से होनेवाली पीड़ा का वर्णन हुआ है। उन दिनों विदेश का अर्थ, आज जैसा नहीं था, परोक्ष होने का अर्थ विदेश लगा लिया जाता था। इस पद में नायिका, कृष्ण (माधव) से विदेश न जाने का निवेदन कर रही है। कह रही है—हे माधव! आप विदेश न जाएँ! क्योंकि आप विदेश जाएँगे तो अपने साथ मेरा आमोद-प्रमोद भी लिए चले जाएँगे, वापस सन्देश क्या लाएँगे। वन मध्य यात्रा करते हुए आपकी मति बदल जाएगी। हे स्वामी! आप मुझे भूल जाएँगे। स्वामी! मैं हीरा, मणि, माणिक्य कुछ भी नहीं माँगूँगी, बस बार-बार आपको ही माँगूँगी। ज्यों ही आप जाने की बात करते हैं, मेरी आँखों में आँसू इस तरह भर आते हैं कि आपकी ओर देखा तक नहीं जाता। एक ही नगर में रहकर यदि प्रियतम पर किसी और का अधिकार हो जाए, तो मेरी अभिलाषा कैसे पूरी होगी। कोई कामिनी अपने प्रियतम के साथ हो, तो वह बहुत सौभाग्यशालिनी (सोहागिनि) होती है, जैसे चन्द्रमा के निकट तारा। विद्यापति कवि कहते हैं कि हे सुकामिनी! ध्यान से सुनो! अपने हृदय को दृढ़ करो, और धैर्य (सारा) रखो।
सरसिज बिनु सर सर बिनु सरसिज,
की सरसिज बिनु सूरे।
जौबन बिनु तन, तन बिनु जौबन की जौबन पिअ दूरे।।
सखि हे मोर बड दैब विरोधी।
मदन बेदन बड़ पिआ मोर बोलछड़,
अबहु देह परबोधी।।
चौदिस भमर भम कुसुम-कुसुम रम, नीरसि माँजरि पीबे।
मन्द पवन बह, पिक कुहु-कुहु कह, सुनि विरहिनि कइसे जीबे।।
सिनेह अछल जत, हमे भेल न टूटत, बड़ बोल जत सब थीर।
अइसन के बोल दहु निज सिम तेजि कहु, उछल पयोनिधि नीर।।
भनइ विद्यापति अरेरे कमलमुखि,
गुनगाहक
पिया तोरा।
राजा सिवसिंह रूपनराएन,
सहजे एको नहि भोरा।।
इस पद में भी नायिका की विरह-दशा का वर्णन किया गया है। कुछ स्पष्ट उपमानों के माध्यम से उसे और अधिक प्रभावी बनाया गया है। अत्यन्त मोहक उपमानों के साथ कहा गया है कि सरोबर न हो तो कमल खिले कहाँ?
सरोबर हो, और उसमें कमल न हो तो उसकी शोभा कैसी? सरोबर भी हो, उसमें कमल भी हो, और सूर्य (सूरे) न उगे, तो वह खिले कैसे? ठीक उसी तरह शरीर न हो तो यौवन आए कहाँ? शरीर हो, पर उसमें यौवन न हो, तो शरीर की कैसी शोभा? फिर शरीर भी हो, उसमें यौवन भी हो, पर प्रियतम दूर हो, तो ऐसे यौवनमय शरीर का क्या अर्थ? इस विलक्षण सादृश्य के साथ नायिका कहती है—हे सखि! मेरे देवतागण प्रतिकूल और मुझ पर बड़े कुपित जान पड़ते हैं। अपनी इस उक्ति के समर्थन में आगे कहती हैं—मदन-वेदना जोरों की है, उस पर प्रीतम झूठे निकले। अब तुम्ही उन्हें समझाओ (देह परबोधी~देहु प्रबोधन~प्रबोधन दो)। भौंरे चारो ओर भ्रमणकर एक-एक फूल पर रमण कर रहे हैं; यहाँ तक कि रसविहीन मंजरी (फूल) को भी नहीं छोड़ते। मन्द-मन्द पवन बह रहे हैं, कोयल कूक रही है, तुम्ही बताओ, ऐसे उन्मादक दृश्य और ध्वनि के बीच कोई विरहिन कैसे धैर्य रखे, कैसे जीए? हम दोनों में जितना स्नेह था, मैं सोचती थी कि वह कभी नहीं टूटेगा, मैं तो समझती थी कि बड़े लोग अपनी बातों पर कायम रहते हैं। बड़ी-बड़ी बातें करनेवाले मेरे ऐसे प्रीतम से तुम कह दो कि समुद्र कभी अपनी मर्यादा नहीं तोड़ता। विद्यापति कहते हैं—ओ री कमलमुखी नायिके! तुम्हारे प्रीतम बड़े गुणग्राही हैं। रूपरसिक राजा शिवसिंह सहज ही अपना वचन भूल जाएँ, ऐसा हो नहीं सकता।
सखि हे हमर दुखक नहि ओर।
ई भर बादर माह भादर सून मन्दिर मोर।।
झम्पि घन गरजन्ति सन्तत भुवन भरि बरसन्तिया।।
कन्त पाहुन काम दारुन,
सघन खर सर हन्तिया।।
कुलिस कत सत पात मुदित,
मयूर नाचत मतिया।।
मत्त दादुर डाक डाहुक,
फाटि जाएत छातिया।।
तिमिर दिग भरि घोर यामिनि,
अथिर बिजुरिक पाँतिया।।
विद्यापति कह कइसे गमओब,
हरि बिना दिन-रातिया।।
इस पद में विरह-व्याकुल नायिका अपनी सखी से व्यथा बाँटती हुई कहती है—हे सखि! मेरे दुखों का कोई ओर-छोड़ नहीं है। देखो न!
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