भाषा, उपभाषा
भाषा
भाषा शब्द संस्कृत के 'भाष' धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है बोलना,
अत: जिह्वेन्द्रिय से
उतपन्न विकारों से प्राणी जो परस्पर विनिमय करते हैं, उन सबका समग्र रूप
भाषा कहलाता है। भाषा को परिभाषित करना यद्यपि अत्यन्त कठिन है, फिर भी
विभिन्न भाषा शास्त्रियों के अनुसार उसे इसप्रकार परिभाषित किया गया है।
"जिन ध्वनियों के चिन्हों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है,
उनकी समष्टि को भाषा
कहते हैं।"
- डा. बाबुराम सक्सेना
"भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से हम सोचते हैं तथा अपने विचारों को प्रकट करते हैं।
-डा० भोलानाथ तिवारी
'विचारों की अभिव्यक्ति के लिए श्रव्य ध्वनि प्रतीकों का प्रयोग ही सामान्य रूप से भाषा की परिभाषा है।'
- ए० एच० गार्डीनर
भाषा शास्त्रियों की
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि तत्वत: भाषा उच्चारण-अवयवों और
ध्वनि प्रतीकों की एक व्यवस्था है। यह मानवीय संस्कृति
की विकास यात्रा का कारण, वक्ता-श्रोता के बीच की कड़ी तथा सहज सम्बन्धों
की संवाहिका है।
उपभाषा
उपभाषा को 'विभाषा' या 'प्रान्तीय भाषा' भी कहते हैं। यह 'बोली' और 'भाषा' की मध्यवर्तिनी है। वस्तुत: भाषा का
साहित्यिक और परिनिष्ठित रूप ही उपभाषा की कोटि में आता है। डा० कपिल देव द्विवेदी
के अनुसार जो भाषाएँ प्रान्तीय स्तर पर शासन द्वारा स्वीकृत हो जाती है और
जिनमें प्रान्तीय शासन का कार्य प्रचलित होता है उनका स्तर उच्च हो जाता है और वे
उपभाषा की श्रेणी में आती है।
उपभाषा भौगोलिक पृष्ठभूमि के अनुसार परिवर्तित भी होती रहती है।
हिन्दी की उपभाषाओं का दक्खिनी हिन्दी, खड़ी बोली, उर्दू, रेढता-रेढती, हिन्दुस्तानी एवं हिन्दवी के रूप में
परिवर्तन भौगोलिक कारणों से हुआ है।
उपभाषा के दो रूप हैं। कथित भाषा और लिखित भाषा। कथित उपभाषा के
निन्नलिखित पाँच रूप हैं। - (1) अवधी (2) ब्रज (3) भोजपुरी (4) खड़ी बोली (5)
मैथिली।
अवधी
अवधी पूर्वी हिन्दी की मुख्य बोली है। यह अवध प्रदेश की बोली रही है।
इसके अन्तर्गत वर्तमान मैं फैजाबाद, गोंडा, बहराइच, बाराबंकी सुल्तानपुर हैं। इलाहाबाद, मिर्जापूर, जौनपुर, कानपुर के भी कुछ
भागों में अवधी भाषा का प्रयोग होता है।
साहित्य - अवधी का साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। हिन्दी के सूफी और रामकाव्य अवधी में ही प्राप्त होते हैं। तुलसी दास के 'रामचरितमानस' तथा जायसी के 'पद्मावत' की रचना इसी भाषा में हुई। मुल्ला दाऊद, मँझन, सबल सिंह, त्रिलोचन और आलम इसके प्रमुख मध्ययुगीन कवि रह चुके हैं।
विशेषता -
(i) अवधी में संज्ञा के तीन रूप पाये जाते हैं जैसे - लरिका, लरिकवा और, लरिकौना।
(ii) अवधी में क्रिया पदों के शब्दान्त में प्राय: 'ब' का प्रयोग होता है। जैसे - देखब, कहब, करब आदि।
(ii) हिन्दी क्रिया 'है' और 'हूँ' के स्थान पर 'अहै' एवं 'बाहैं' हो जाता है।
ब्रज भाषा
मध्यकाल से ही ब्रजभाषा एक प्रमुख साहित्यिक भाषा रही है। मथुरा इस भाषा का केन्द्र है। दक्षिण में यह आगरा, भतरपुर, धौलपुर तथा करौली तक व्याप्त है। उत्तर में गुड़गाँव का पूर्वी हिस्सा ब्रजभाषा युक्त है। साथ ही दोआब, बुलन्दशहर, अलीगढ़, एटा तथा गंगापार तथा बरेली एवं नैनीताल के तराई क्षेत्रों तक पहुँचती है, पर शुद्ध ब्रजभाषा का क्षेत्र केवल, मथुरा, आगरा एवं अलीगढ़ है।
साहित्य - साहित्य सृजन की दृष्टि से ब्रजभाषा सबसे समृद्ध है। कृष्णभक्ति की काव्यधारा की यह प्रमुख भाषा रही है। सूरदास, नन्ददास, केशव, सेनापति, देव, मतिराम, विहारी, घनानन्द, पद्माकर आदि कवियों ने इसकी साहित्य सम्पदा को समृद्धता प्रदान की है।
विशेषता-
(i)
ब्रजभाषा में प्रमुख
सर्वनाम 'मैं'
के स्थान पर 'हौं' का प्रयोग होता है।
जैसे - मैंया हौं न चरैहों गाय।
(ii) खड़ी बोली की सहायक क्रियाएँ - था, थे, थी ब्रजभाषा में - हो, हे, ही के रूप में मिलती हैं।
(ii) भविष्यकालिक प्रयोगों बज्री के 'गौं' अथवा 'इह' प्रसिद्ध है।
(iv) प्राय: 'न' जोड़कर बहुवचन बनाया जाता है। जैसे -घोड़ा - घोड़न।
भोजपुरी
भोजपुरी शहाबाद जिले (बिहार प्रान्त) के भोजपुर कस्बे में प्रमुख रूप से व्यवहत होने के कारण इसका नाम भोजपुरी पड़ा। भोजपुरी का क्षेत्र बिहार के चम्पारन, सारन, शहाबाद, छपरा, सीवान, पटना तथा गोपालगंज, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, बनारस, जौनपुर, गाजीपुर, बलिया तथा नेपाल की दक्षिण सीमा से छोटा नागपुर तक के विस्तृत भू-भाग पर फैली है। भोजपुरी की लिपि देवनागरी है।
साहित्य - भोजपुरी संगीतात्मक एवं कर्णप्रिय भाषा है। इसलिए इसमें लोकसंगीत की भरमार है। रामदरश मिश्र, रेणु, शिवप्रसाद सिंह तथा नागार्जुन के उपन्यासों में भोजपूरी शब्दों का सहज प्रयोग हुआ है। पूर्वांचल के लोकगीत- कजरी, बिरहा, फगुआ सोहर आदि इस भाषा की समृद्धि का धरोहर है।
विशेषता -
(i) 'ल' और 'ड' का प्रयोग 'र' के रूप में हो जाता है। पतला' का 'पातर', 'थोड़ा' का थोर'।
(ii) इसमें घोषीकरण की प्रवृत्ति है जैसे डाक्टर-डाक्डर।
(ii) इसमें संख्यावाची विशेषण- दू, ती, छ के स्थान पर- ठो, ठे, गो का प्रयोग होता है। जैसे - दूठो,
दूगो, तीनठे आदि।
खड़ी बोली
हिन्दी की बोलियों में खड़ी बोली की सीमा सबसे दीर्घ है। अपभ्रंश
साहित्य तम में इसके दर्शन होते हैं। साथ ही आदिकालीन काव्य एवं
मध्ययुगीन काव्य भी इसके संस्पर्श से वंचित नहीं है। खड़ी बोली के समानधर्मी अन्य
नाम हैं - कौरवी, सरहिन्दी, हिन्दुस्तानी, नगरी-हिन्दी आदि, वर्तमान में इसके लिए नई हिन्दी, हिन्दवी, रेख्ता, मानक हिन्दी,
सर्जनात्मक हिन्दी,
राष्ट्रभाषा हिन्दी
आदि नाम भी प्रयुक्त होते है। प्रारम्भ में यह बोली रामपुर, बिजनौर, मेरठ, मुरादाबाद, मुजफ्फरपुर, सहारनपुर, देहरादून आदि क्षेत्रों में ही प्रचलित थी
पर आज तो यह भारत
साहित्य - खड़ी बोली में गद्य तथा पद्य दोनों रूपों में विपुल मात्रा
में साहित्य सृजन हुआ द्विवेदी युग के साहित्यकारों की यह प्रिय भाषा रही है।
बाद में पंत, निराला, महादेवी वर्मा जी ने इस भाषा को चरन रूप प्रदान किया।
विशेषता -
(i) खड़ी बोली की आकारान्त इसकी विशेषता है जैसे -
खाना, जाना,
पढ़ना, लिखना आदि।
(ii) 'अन' प्रत्यय का प्रयोग खड़ी बोली की अन्य विशेषता है। अनदेखा, अनपढ़ आदि।
(iii) खड़ी बोली में 'न' की जगह 'ण' का प्रयोग होता है। गनेश-गणेश, गनपति- गणपति।
(iv) खड़ी बोली की आज्ञासूचक भाषिक दृष्टि से कर्कश एवं अप्रिय लगती है।
जाओ, पढ़ो,
खाओ, हटो आदि।
मैथिली
मिथिला क्षेत्र की बोली होने के कारण इसका नाम मैथिली पड़ा। यह पूर्वी
चम्पारन मुजफ्फरपुर, मुंगेर, भागलपुर, दरभंगा, पूर्णिया तथा उत्तरी संथाल परगना में बोली जाती है। इसके अलावा मालदह
और दिनाजपुर में तथा भागलपुर एवं तिरहुत सब डिवीजन की सीमा के
पास नेपाल की तराई में भी बोली जाती है। उतरी मैथिली, मैथिली का परिनिष्ठित रूप है जो उतरी
दरभंगा तथा आस-पास के ब्राह्मणों में विशेष रूप से
प्रयुक्त होती है। इसे तेरहुतिया भी कहते हैं।
साहित्य -बिहारी हिन्दी की बोलियों में केवल मैथिली ही साहित्यसम्पन्न है। 'मैथिल कोकिल' विद्यापति की रचनाएँ मैथिली भाषा में ही है। इसके अलावा उमापति, रमापति, महीपति तथा मनबोध झा इसके अन्य मुख्य रचनाकार है।
विशेषता -
(i) 'ट' वर्ग की अनुनासिक ध्वनि 'ण' का मैथिली में लोप
है।
(ii) मूर्धण्य 'ष' का मैथिली में उच्चारण नहीं प्राप्त होता परन्तु बंगला प्रभाव से तालव्य 'श' सुरक्षित है।
(iii) कर्ताकारक में मैथिली में कोई परसर्ग प्राप्त नहीं होता।
गद्य उपभाषा के रूप
व्यक्तिगत भावों को गद्यात्मक रूप में विभिन्न उपभाषाओं के अन्तर्गत
व्यक्त करने के प्राय: दो रूप परिलक्षित होते हैं -
(i) प्रामाणिक (ii)
आंचलिक।
प्रामाणिक - जब विभिन्न उपभाषाओं के अन्तर्गत प्रामाणिक शब्दों का
प्रयोग करके किसी विषय को व्यक्त किया जाता है तो उसे प्रामाणिक
गद्य उपभाषा के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। जैसे- तुम कहाँ जा रहें हो?
किन्तु जब किसी वाक्य को आंचलिक भाषा के रूप में व्यक्त करते है तो 'तूं कहाँ जात हो'? 'कोई कहाँ जात हँई? इत्यादि रूपों में व्यक्त करता है। चूंकि आंचलिक भाषाएँ लगभग 25-30 मील की दूरी पर परिवर्तित होती जाती हैं। विभिन्न भाषाओं जैसे - अवधी, ब्रज, भोजपुरी, खड़ी बोली एवं मैथिली भाषाओं में भी आंचलिक एवं प्रामाणिक शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
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