भाषा - भाषा की परिभाषा, राज्यभाषा, राष्ट्रभाषा, राजभाषा और इतिहास
- एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है, और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है। भाषा संस्कृति का वाहन है और उसका अंग भी। -रामविलास शर्मा
- भाषा वह साधन है, जिसके माध्यम से हम सोचते है और अपने विचारों को व्यक्त करते हैं। मनुष्य अपने
- भाषा मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह है जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है।
भाषा मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह है
जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि
स्वन एक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं। व्यक्त नाद की
वह समष्टि जिसकी सहायता से किसी एक समाज या देश के लोग अपने मनोगत भाव तथा विचार
एक दूसरे पर प्रकट करते हैं। मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का
वह समूह जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। बोली। जबान। वाणी
भाषा
इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं
जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या
देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या
समाजों की भाषा बिना अच्छी़ तरह नहीं आती।
भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें
से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं और उन शाखाकों के भी अनेक वर्ग
उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदों, उपभाषाओं अथाव
बोलियों को रखा है। जैसे हमारी हिंदी भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के
आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा है; और ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ
हैं। पास पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता है;
और उसी साम्य के
आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी
है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहीं, पर फिर भी बहुत कुछ होता है।
संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के
अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा
परिवर्तन होता रहता है। भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कुत और प्राकृतों का,
प्राकृतों से
अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है। सामान्यतः
भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है।
भाषा आभ्यंतर अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं
वह हमारे आभ्यंतर के निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है।
भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न
है। संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद
से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन
होता रहता है।
भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कृत और प्राकृतों का, प्राकृतों से
अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है।
प्रायः भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिये लिपियों की सहायता
लेनी पड़ती है। भाषा और लिपि, भाव व्यक्तीकरण के दो अभिन्न पहलू हैं। एक भाषा
कई लिपियों में लिखी जा सकती है और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है।
उदाहरणार्थ पंजाबी, गुरूमुखी तथा शाहमुखी दोनो में लिखी जाती है जबकि हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली इत्यादि सभी
देवनागरी में लिखी जाती है।
भाषा की परिभाषा
भाषा को प्राचीन काल से ही परिभाषित करने की कोशिश की जाती रही है।
इसकी कुछ मुख्य परिभाषाएं निम्न हैं। भाषा शब्द संस्कृत के भाष् धातु से बना है
जिसका अर्थ है बोलना या कहना अर्थात् भाषा वह है जिसे बोला जाय।
प्लेटो ने सोफिस्ट में विचार और भाषा के संबंध में लिखते हुए कहा है कि
विचार और भाषआ में थोड़ा ही अंतर है। विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत
है पर वही जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है तो उसे भाषा की संज्ञा देते
हैं।
स्वीट के अनुसार ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा
है।
वेंद्रीय कहते हैं कि भाषा एक तरह का चिह्न है। चिह्न से
आशय उन प्रतीकों से है जिनके द्वारा मानव अपना विचार दूसरों पर प्रकट करता है। ये
प्रतीक कई प्रकार के होते हैं जैसे नेत्रग्राह्य, श्रोत्र ग्राह्य और स्पर्श ग्राह्य।
वस्तुतः भाषा की दृष्टि से श्रोत्रग्राह्य प्रतीक ही सर्वश्रेष्ठ है।
ब्लाक तथा ट्रेगर भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतिकों का तंत्र है जिसके
द्वारा एक सामाजिक समूह सहयोग करता है।
स्त्रुत्वा : भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतीकों का तंत्र है जिसके
द्वारा एक सामाजिक समूह के सदस्य सहयोग एवं संपर्क करते हैं।
"भाषा यादृच्छिक वाचिक ध्वनि-संकेतों की वह पद्धति है, जिसके द्वारा मानव
परम्परा विचारों का आदान-प्रदान करता है।" - स्पष्ट ही इस कथन में भाषा के लिए चार बातों पर
ध्यान दिया गया है-
- भाषा एक पद्धति है, यानी एक सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित योजना या संघटन है, जिसमें कर्ता, कर्म, क्रिया, आदि व्यवस्थिति रूप में आ सकते हैं।
- भाषा संकेतात्कम है अर्थात् इसमे जो ध्वनियाँ उच्चारित होती हैं, उनका किसी वस्तु या कार्य से सम्बन्ध होता है। ये ध्वनियाँ संकेतात्मक या प्रतीकात्मक होती हैं।
- भाषा वाचिक ध्वनि-संकेत है, अर्थात् मनुष्य अपनी वागिन्द्रिय की सहायता से संकेतों का उच्चारण करता है, वे ही भाषा के अंतर्गत आते हैं।
- भाषा यादृच्छिक संकेत है। यादृच्छिक से तात्पर्य है - ऐच्छिक, अर्थात् किसी भी विशेष ध्वनि का किसी विशेष अर्थ से मौलिक अथवा दार्शनिक सम्बन्ध नहीं होता। प्रत्येक भाषा में किसी विशेष ध्वनि को किसी विशेष अर्थ का वाचक ‘मान लिया जाता’ है। फिर वह उसी अर्थ के लिए रूढ़ हो जाता है। कहने का अर्थ यह है कि वह परम्परानुसार उसी अर्थ का वाचक हो जाता है। दूसरी भाषा में उस अर्थ का वाचक कोई दूसरा शब्द होगा।
हम व्यवहार में यह देखते हैं कि भाषा का सम्बन्ध एक व्यक्ति से लेकर
सम्पूर्ण विश्व-सृष्टि तक है। व्यक्ति और समाज के बीच व्यवहार में आने वाली इस
परम्परा से अर्जित सम्पत्ति के अनेक रूप हैं। समाज सापेक्षता भाषा के लिए अनिवार्य
है, ठीक
वैसे ही जैसे व्यक्ति सापेक्षता। और भाषा संकेतात्मक होती है अर्थात् वह एक ‘प्रतीक-स्थिति'
है। इसकी
प्रतीकात्मक गतिविधि के चार प्रमुख संयोजक हैः दो व्यक्ति-एक वह जो संबोधित करता
है, दूसरा
वह जिसे संबोधित किया जाता है, तीसरी संकेतित वस्तु और चौथी-प्रतीकात्मक संवाहक
जो संकेतित वस्तु की ओर प्रतिनिधि भंगिमा के साथ संकेत करता है।
विकास की प्रक्रिया में भाषा का दायरा भी बढ़ता जाता है। यही नहीं एक
समाज में एक जैसी भाषा बोलने वाले व्यक्तियों का बोलने का ढंग, उनकी
उच्चापण-प्रक्रिया, शब्द-भंडार, वाक्य-विन्यास आदि अलग-अलग हो जाने से उनकी भाषा
में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। इसी को शैली कह सकते हैं।
बोली, विभाषा और भाषा
यों बोली, विभाषा और भाषा का मौलिक अन्तर बता पाना कठिन है, क्योंकि इसमें
मुख्यतया अन्तर व्यवहार-क्षेत्र के विस्तार पर निर्भर है। वैयक्तिक विविधता के
चलते एक समाज में चलने वाली एक ही भाषा के कई रूप दिखाई देते हैं। मुख्य रूप से
भाषा के इन रूपों को हम इस प्रकार देखते हैं-
- बोली,
- विभाषा, और
- भाषा (अर्थात् परिनिष्ठित या आदर्श भाषा)
बोली और भाषा में अन्तर होता है।
बोली
यह भाषा की छोटी इकाई है। इसका सम्बन्ध ग्राम या मण्डल अर्थात सीमित
क्षेत्र से होता है। इसमें प्रधानता व्यक्तिगत बोलचाल के माध्यम की रहती है और
देशज शब्दों तथा घरेलू शब्दावली का बाहुल्य होता है। यह मुख्य रूप से बोलचाल की
भाषा है, इसका
रूप (लहजा) कुछ-कुछ दूरी पर बदलते पाया जाता है तथा लिपिबद्ध न होने के कारण इसमें
साहित्यिक रचनाओं का अभाव रहता है। व्याकरणिक दृष्टि से भी इसमें विसंगतियॉं पायी
जाती है।
विभाषा
विभाषा का क्षेत्र बोली की अपेक्षा विस्तृत होता है यह एक
प्रान्त या उपप्रान्त में प्रचलित होती है। एक विभाषा में स्थानीय भेदों के आधार
पर कई बोलियाँ प्रचलित रहती हैं। विभाषा में साहित्यिक रचनाएें मिल सकती हैं।
भाषा
भाषा, अथवा कहें परिनिष्ठित भाषा या आदर्श भाषा, विभाषा की विकसित स्थिति हैं। इसे
राष्ट्र-भाषा या टकसाली-भाषा भी कहा जाता है। प्रायः देखा जाता है
कि विभिन्न विभाषाओं में से कोई एक विभाषा अपने गुण-गौरव, साहित्यिक अभिवृद्धि, जन-सामान्य में अधिक
प्रचलन आदि के आधार पर राजकार्य के लिए चुन ली जाती है और उसे राजभाषा के रूप में
या राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाता है। <br>
राज्यभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा
किसी प्रदेश की राज्य सरकार के द्वारा उस राज्य के अंतर्गत प्रशासनिक
कार्यों को सम्पन्न करने के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, उसे राज्यभाषा कहते
हैं। यह भाषा सम्पूर्ण प्रदेश के अधिकांश जन-समुदाय द्वारा बोलीऔर समझी जाती है।
प्रशासनिक दृष्टि से सम्पूर्ण राज्य में सर्वत्र इस भाषा को महत्त्व प्राप्त रहता
है।
भारतीय संविधान में राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए हिन्दी
के अतिरिक्त २१ अन्य भाषाएं राजभाषा स्वीकार की गई हैं। राज्यों की विधानसभाएं
बहुमत के आधार पर किसी एक भाषा को अथवा चाहें तो एक से अधिक भाषाओं को अपने राज्य
की राज्यभाषा घोषित कर सकती
राष्ट्रभाषा सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है। प्राय: वह
अधिकाधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा होती है। प्राय: राष्ट्रभाषा
ही किसी देश की राजभाषा होती है। <br>
हिन्दी भाषा का वर्गीकरण और इतिहास
भाषा की उत्पत्ति/उद्भव- प्राचीनकाल से भाषा की उत्पत्ति पर विचार होता रहा है। कुछ विद्वानों का मंतव्य है कि यह विषय भाषा-विज्ञान का है ही नहीं। इस तथ्य की पुष्टि में उनका कहना है कि विषय मात्र संभावनाओं पर आधारित है। भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन को भाषा-विज्ञान कहते हैं। यदि भाषा का विकास और उसके प्रारंभिक रूप का अध्ययन भाषा-विज्ञान का विषय है, तो भाषा-उत्पत्ति भी निश्चय ही भाषा-विज्ञान का विषय है। भाषा-उत्पत्ति का विषय अत्यंत विवादास्पद है। विभिन्न भाषा-वैज्ञानिकों ने भाषा-उत्पत्ति पर अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए हैं, किन्तु अधिकांश मत कल्पना पर आधारित हैं। इनमें कोई भी तर्क संगत, पूर्ण प्रामाणिक तथा वैज्ञानिक नहीं है। इसी कारण किसी भी मत को सर्वसम्मति से स्वीकृति नहीं मिल सकी है।
भारतीय आर्य भाषाएँ
भारतीय आर्य भाषा समूह को काल-क्रम की दृष्टि
से निम्न भागों में बांटा (वर्गीकृत किया) गया है:-
1. प्राचीन भारतीय आर्य भाषा (2000
ई.पू. से 500 ई.पू. तक)
- वैदिक संस्कृत (2000 ई.पू. से 800 ई.पू. तक)
- संस्कृत अथवा लौकिक संस्कृत (800 ई.पू. से 500 ई.पू. तक)
2. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा
(500
ई.पू. से 1000 ई. तक)
- पालि (500 ई.पू. से 1 ई. तक)
- प्राकृत (1 ई. से 500 ई. तक)
- अपभ्रंश (500 ई. से 1000 ई. तक)
3. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा(1000 ई. से अब तक)
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