प्रेमचन्द : ईदगाह
प्रस्तावना :-
'ईदगाह' प्रेम चन्द की प्रसिद्ध एवं चर्चित कहानी है। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने आर्थिक विषमता को दिखाया है, साथ ही प्राशासनिक व्यवस्था पर भी व्यंग किया है। प्रस्तुत कहानी में बाल मनोविज्ञान का चित्रण भी किया गया है। प्रस्तुत कहानी में एक गरीब, मातृ-पितहीन बालक का अपने दादी के प्रति प्रेम को दिखाया गया है। वह मेले में जाता है। वहाँ मिठाइयाँ झूले, खिलौने से आकर्षित न हो कर अपनी दादी के लिए चिमटा लाता है। जो उसके त्याग को दर्शाता है। प्रस्तुत कहानी में सहधर्मिता, सहयोगिता के साथ-साथ सामाजिक गुणों का भी चित्रण किया गया है।
उद्देश्य :-
(i) बालकों में धर्मनिरपेक्षता, सद्भाव,
सहधर्मिता, सहयोगिता एवं सामाजिक गुणों का विकास करना।
(ii) विराम, शुद्धता,
शीघ्रता से वाचन कर पायेगा।
(ii) शब्दबोध एवं अर्थबोध के साथ वाचन कर पायेगा।
(iv) पढ़ने-लिखने की क्षमता के विकास के साथ ही तत्कालीन समाज की समझ होगी।
ईदगाह
प्रेमचन्द
रमजान
के पूरे तीस रोजों के बाद आज ईद आयी है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के
कुरते में बटन नहीं है। पड़ोस के घर सूई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गये हैं। उनमें
तेल डालने के लिए तेली के घर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी पानी दे दें। ईहगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जायेगी। तीन कोस का
पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों
आदमियों से मिलना भेंटना। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह
भी दोपहर तक, किसी ने
वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह
जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। इन्हें गृहस्थी की चिन्ताओं से क्या प्रयोजन
। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर
रख लेते हैं। महमूद गिनता है उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास पन्द्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनत पैसों से अनगिनत
चीजें लायेंगे-खिलौने, मिठाइयाँ,
बिगुल, गेंद और
न जाने क्या क्या। और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पाँच साल का गरीबसूरत, दूबला-पतला
लड़का जिसका बाप गत वर्ष हैजे को भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर
गयी। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है पर उतना ही प्रसन्न हैं।हामिद के पाँव में जूते नहीं है, सिर
पर एक पुरानी-धुरानी टोपी है जिसका गोट काला पड़ गया है। अभागिन, अमीना कोठरी
में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन और उसके
घर में दाना नहीं। आज आबिद होता तो क्या इसी तरह ईद आती और चली जाती। इसी अंधकार और निराशा में डूबी जा
रही थी। किसने बुलाया इस निगोड़ी ईदको घर में उसका काम नहीं है, लेकिन हामिद।
उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अन्दर
प्रकाश है, बाहर आशा
विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आये, हामिद की
आन्नद भरी चितवन उसका विध्वंस
कर देगी।
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है - तुम डरना
नहीं अम्माँ, मैं सबसे
पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।
अमीना का दिल कचोट रहा था। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ, जा रहे
हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है?
उसे कैसे अकेले मेले में जाने दे। उस भीड़ भाड़ में बच्चा कहीं खोजाय तो क्या हो। नहीं अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्हीं
सी जान ! तीन कोस
चलेगा कैसे। पैर में छाले पड़ जायेंगे। जूते भी तो नहीं है। वह थोड़ी थोड़ी दूर पर उसे गोद ले लेगी, लेकिन यहाँ
सेवइयां कौन पकायेगा। पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। अब तो कुल दो आने ही बच
रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में पाँच अमीना के बटुवे में । यही तो बिसात है और ईद का त्योहार! अल्लाह ही बेड़ा पार लगा दे।
बच्चे को खुदा सलामत रखे ये दिन भी कट जायेंगे।
गाँव से मेला चला। और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सब के सब दौड़कर आगे निकल जाते फिर किसी पेड़ के
नीचे खड़े होकर साथवालों का इन्तजार करते। ये लोग क्यों इतना धीरे धीरे चल रहे हैं। हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गये हैं।
वह कभी थक सकता है। शहर का दामन आ गया।
बड़ी बड़ी इमारतें आने लगी, यह अदालत
है, यह कॉलेज है, यह क्लब
घर है। इतने बड़े कॉलेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे?
सब लड़के नहीं है जी। बड़े बड़े आदमी हैं, सच उनकी
बड़ी बड़ी मूंछे हैं। इतने बड़े हो गये अभी तक पढ़ने जाते हैं। नजाने कब तक
पढेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर।
आगे चलें, हलवाइयों
की दुकानें शुरु हुई। आज खूब सजी हुई थी। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता है। देखो न एक एक दुकानों
की कतार लगी हुई है।
आगे चलें। यह पुलिस लाइन है। यही सब कानिसटिबल कवायद करते हैं। रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं। अब बस्ती घनी होने लगी। ईदगाह जाने वालों की टोलियाँ नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुये। कोई इक्के टांगे पर सवार कोई, बस से,
सभी के दिलों में उमंग है। ग्रामीणों का यह छोटा सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर संतोष और धैर्य से मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजे अनोखी थी। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही
रह जाते और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज आने पर भी नहीं ताकते। हामिद तो मोटर के नीचे आते-आते बचा।
सहसा ईदगाह नजर आया। ऊपर से इमली के घने वृक्षों की छाया, नीचे पक्का
फर्श है, जिस पर
जाजिम विछा हुआ है और रोजेदारों
की पंक्तियाँ एक के पीछे एक नजाने कहाँ तक चली गयी हैं, पक्के जगह
के नीचे तक, जहाँ जाजिम
नहीं है। नये आने वाले आकर
पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। इन ग्रामीणों ने भी क्जू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गये।
नमाज खत्म हो गयी। लोग आपस में गले मिल रहे है। तब मिठाई और खिलौने की दुकानों पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिडोला
है। एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होंगे, कभी जमीन
पर गिरते हुए। यह चीं, लकड़ी के
हाथी, घोड़े,
ऊँट, छड़ों से
लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओं और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद, मोहसिन,
नूरे और सम्मी इन घोड़ों और ऊँटों पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन
ही पैसे तो उसके पास है। अपने कोष का तिहाई जरा सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।
सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। इधर दूकानों की कतारें लगी हुई हैं। तरह-तरह के खिलौने हैं-सिपाही, गुजरिया,
वकील, भिश्ती,
धोबिन और साधू। वाह कितने सुन्दर खिलौने हैं। जैसे अब बोलना चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता है। मोहसिन को भिश्ती पसन्द आया। नूरे को वकील से प्रेम है। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महंगे
खिलौने वह कैसे ले? खिलौना
कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर चूर हो जाय। जरा पानी पड़े तो सारा रंग धुल जाय। ऐसे खिलौने
लेकर वह क्या करेगा? वे किस
काम के?
खिलौनो के बाद मिठाईयों की दूकाने आती हैं। किसी ने रेवाड़ियाँ ली हैं, किसी ने गुलाब जामून, किसी ने सोहनहलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद उनकी विरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे है। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? आँखों से सबकी ओर देखता है।
दुकानदार उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा - यह तुम्हारे काम की नहीं है जी।
'क्यों बिकाऊ नहीं है। तो यहाँ क्यों लाद लाये हैं?'
'
‘तो बताते क्यों नहीं,
के
पैसे
का
है?'
'छै-पैसे लगेंगे। हामिद का दिल बैठ गया।
'ठीक-ठीक पाँच पैसे लगेंगे लेना हो तो लो,
नहीं
तो
चलते
बनो'।
ग्यारह बजे सारे गाँव में हलचल मच गयी। मेले वाले आ गये। अमीना हामिद की आवज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार
करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौकी।
'यह चिमटा कहाँ था?'
'मैनें
मोल
लिया
है।'
‘कै पैसे में।'
'तीन
पैसे
दिये?'
अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है। कि दोपहर हो गयी, कुछ खाया न पीया और ले आया क्या, यह चिमटा? सारे मेले में तुझे और कोई चीज नहीं मिली, जो यह चिमटा उठा लाया?
हामिद ने अपराधी भाव से कहा-दादी तुम्हारी अंगुलियां तो तवे से जल जाती थी,
इसलिए
मैंने
इसे
ले
लिया।
बुढ़िया का क्रोध तुरंत स्नेह में बदल गया।और स्नेह भी वह नहीं जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक उसमें बिखेर देती है। यह मूक स्नेह था,
खूब
ठोस, रस और कार से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग,
कितना
सदभाव
और
कितना
विवेक।
दूसरों
को
खिलौने
लेते
और
मिठाई
खाते
देखकर
इसका
मन
कितना
ललचाया
होगा।
इतना
जस्त
इसमें
हुआ
कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गद्गद् हो गया। दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती और आंसू की बड़ी बड़ी बूंदे गिरती जाती थीं। हामिद
इसका सहस्य क्या समझाता!
श शब्दार्थ :
रोजा = उपवास। विसात = औकाट। विपत्ति = संकट। सलामत = खुशहाल। चितवन =
दृष्टि । चटपट = जल्दी। विध्वंश = विनाश । दामन = आंचल। इन्तजार =
प्रतीक्षा । विपन्नता = गरीबी, बदहाली। धैर्य = धीरज। भिश्ती = पानी वाला, पानी भरने वाला। दुआएं = आशीर्वाद। पृथक =
अलग। फायदा = लाभ। घुड़कियाँ =धमकी। सहसा = अचानक। प्रगल्भ = परिपक्व । जस्त = नियंत्रण।
गद्गद् = खुश । सामग्री = वस्तु। कार = निश्चय।
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