माली आवत देखि के, कलियां करे पुकार ।
माली को आता हुआ देखकर कलियां पुकारने लगी, जो फूल खिल चुके थे उन्हें माली ने चुन लिया और जो खिलने वाली है उनकी कल बारी है । फूलों की तरह काल रूपी माली उन्हें ग्रस लेता है जो खिल चुके है अर्थात जिनकी आयु पूर्ण हो चुकी है, कली के रूप में हम है हमारी बारी कल की है तात्पर्य यह कि एक एक करके सभी को काल का ग्रास बनना है ।
झूठा सुख को सुख कहै , मानत है मन मोद ।
जगत – चबेना काल का , कछु मूठी कछु गोद ।।
उपरी आवरण को, भौतिक सुख को सांसारिक लोग सुख मानते है और प्रसन्न होते है किन्तु यह सम्पूर्ण संसार काल का चबेना है । यहां कुछ काल की गेंद में है और कुछ उसकी मुटठी में है । वह नित्य प्रतिदिन सबको क्रमानुसार चबाता जा रहा है ।
जरा कुत्ता जोबन ससा , काल आहेरी नित्त ।
गो बैरी बिच झोंपड़ा , कुशल कहां सो मित्त ।
मनुष्यों को सचेत करते हुए संत कबीर जी कहते है – हे प्राणी ! वृद्धावस्था कुत्ता और युवा वस्था खरगोश के समान है । यौवन रूपी शिकार पर वृद्धावस्था रूपी कुत्ता घात लगाये हुए है । एक तरफ वृद्धावस्था है तो दूसरी ओर काल । इस तरह दो शत्रुओं के बीच तुम्हारी झोंपडी है । यथार्थ सत्य से परिचित कराते हुए संत जी कहते है कि इनसे बचा नहीं जा सकता ।
मूसा डरपे काल सू, कठिन काल का जोर ।
स्वर्ग भूमि पाताल में, जहां जाव तहं गोर ।।
काल की शक्ति अपरम्पार है जिससे मूसा जैसे पीर पैगम्बर भी डरते थे और उसी डर से मुक्ति पाने के लिए अल्लाह और खुदा की बन्दगी करते थे । स्वर्ग , पृथ्वी अथवा पाताल में, जहां कहीं भी जाइये । सर्वत्र काल अपना विकराल पंजा फैलाये हुए है ।
मन गोरख मन गोविंद, मन ही औघड़ सोय ।
जो मन राखै जतन करि, आपै करता होय ।।
मन ही योगी गोरखनाथ है, मन ही भगवान है, मन ही औघड़ है अर्थात मन को एकाग्र करके कठिन साधना करने से गोरखनाथ जी महान योगी हुए, मन की शक्ति से मनुष्य की पूजा भगवान की तरह होती है । मन को वश में करके जो भी प्राणी साधना स्वाध्याय करता है वह स्वयं ही अपना कर्त्ता बन जाती है ।
कबीर माया बेसवा , दोनूं की इक जात ।
आवंत को आदर करै , जात न बुझै बात ।।
माया और वेश्या इन दोनों की एक जात है, एक कर्म है । ये दोनों पहले प्राणी को लुभाकर पूर्ण सम्मान देते है परन्तु जाते समय बात भी नहीं करते ।
कामी अमी न भावई, विष को लेवै सोध ।
कुबुधि न भाजै जीव की , भावै ज्यौं परमोध ।।
विषय भोगी कामी पुरुष को कितना भी उपदेश दो, सदाचार और ब्रह्ममर्य आदि की शिक्षा दो उसे अच्छा नहीं लगता । वह सदा काम रूपी विष को ढूंढता फिरता है । चित्त की चंचलता से उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है । जिसे कारण सद्गुणों को वह ग्रहण नहीं कर पाता है ।
कुमति कीच चेला भरा , गुरु ज्ञान जल होय ।
जनम जनम का मोरचा , पल में डारे धोय ।।
अज्ञान रूपी कीचड़ में शिष्य डूबा रहता है अर्थात शिष्य अज्ञान के अन्धकार में भटकता रहता है जिसे गुरु अपने ज्ञान रूपी जल से धोकर स्वच्छ कर देता है ।
जाका गुरु है आंधरा , चेला खरा निरंध ।
अनेधे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद ।।
यदि गुरु ही अज्ञानी है तो शिष्य ज्ञानी कदापि नहीं हो सकता अर्थात शिष्य महा अज्ञानी होगा जिस तरह अन्धे को मार्ग दिखाने वाला अन्धा मिल जाये वही गति होती है । ऐसे गुरु और शिष्य काल के चक्र में फंसकर अपना जीवन व्यर्थ गंवा देते है ।
साधु चलत से दीजिए , कीजै अति सनमान ।
कहैं कबीर कछु भेट धरुं , अपने बित्त अनुमान ।।
साधु जन जब प्रस्थान करने लगे तो प्रेम विह्वल होकर आंखों से आंसू निकल आये । जिस तरह उनका सम्मान करो और सामर्थ्य के अनुसार धन आदि भेंट करो । साधु को अपने द्वार से खाली हाथ विदा नहीं करना चाहिए
मास मास नहिं करि सकै , छठै मास अलबत्त ।
यामें ढील न कीजिए, कहैं कबीर अविगत्त ।।
कबीर दास जी कहते है कि हर महीने साधु संतों का दर्शन करना चाहिए । यदि महीने दर्शन करना सम्भव नहीं है तो छठें महीने अव्श्य दर्शन करें इसमें तनिक भी ढील मत करो ।
साधु साधु सबही बड़े, अपनी अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी , ते माथे के मौर ।।
अपने अपने स्थान पर सभी साधु बड़े है । साधुजनों में कोई छोटा अथवा बड़ा नहीं है क्योंकि साधु शब्द ही महानता का प्रतीक है अर्थात सभी साधु सम्मान के अधिकारी है किन्तु जो आत्मदर्शी साधु है वे सिर के मुकुट हैं ।
साधु सती और सूरमा , राखा रहै न ओट ।
माथा बांधि पताक सों , नेजा घालै चोट ।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी साधु , सती और शूरवीर के विषय बताते हैं कि ये तीनों परदे की ओट में नहीं रखे जा सकते । इनके मस्तक पर पुरुषार्थ की ध्वजा बंधी रहती है । कोई उन पर भाले से भी प्रहार करे फिर भी ये अपने मार्ग से विचलित नहीं होते ।
माला तिलक लगाय के, भक्ति न आई हाथ ।
दाढ़ी मूंछ मुंडाय के, चले चुनि का साथ ।।
माला पहन ली और मस्तक पर तिलक लगा लिया फिर भी भक्ति हाथ नहीं आई । दाढ़ी मुंडवा ली, मूंछ बनवा ली और दुनिया के साथ चल पड़े फिर भी कोई लाभ नहीं हुआ । तात्पर्य यह कि ऊपरी आडम्बर से भक्ति नहीं होती मात्र समाज को धोखा देना है और स्वयम अपने अप से छल करना है ।
मन मैला तन ऊजरा , बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौवा भला , तन मन एकहिं अंग ।।
जिस व्यक्ति का शरीर तो उजला है किन्तु मन मैला है अर्थात मन में पाप की गंदगी भरी हुई है वह बगुले के समान कपटी है उससे अच्छा तो कौवा ही है जिसका तन मन एक जैसा है । ऊपर से सज्जन दिखायी देने वाले और अन्दर से कपट स्वभाव रखने वाले व्यक्तियों से सदा सावधान रहना चाहिए ।
शीलवन्त सुर ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ।।
सद्गुरु की सेवा करने वाले शीलवान , ज्ञानवान और उदार ह्रदय वाले होते हैं और लज्जावान बहुत ही निश्छल स्वभाव और कोमल वाले होते है ।
कबीर गुरु सबको चहै , गुरु को चहै न कोय ।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ।।
कबीर जी कहते है कि सबको कल्याण करने के लिए गुरु सबको चाहते है किन्तु गुरु को अज्ञानी लोग नहीं चाहते क्योंकि जब तक मायारूपी शरीर से मोह है तह तक प्राणी सच्चा दास नहीं हो सकता ।
भक्ति कठिन अति दुर्लभ , भेश सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जानै सब कोय ।।
सच्ची भक्ति का मार्ग अत्यन्त कठिन है । भक्ति मार्ग पर चलने वाले को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है किन्तु भक्ति का वेष धारण करना बहुत ही आसान है । भक्ति साधना और वेष धारण करने में बहुत अन्तर है । भक्ति करने के लिए ध्यान एकाग्र होना आवश्यक है जबकि वेष बाहर का आडम्बर है ।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जो रुचै , शीश देय ले जाय ।।
कबीर जी कहते है कि प्रेम की फसल खेतों में नहीं उपजती और न ही बाजारों में बिकती है अर्थात यह व्यापार करने वाली वास्तु नहीं है । प्रेम नामक अमृत राजा रैंक, अमीर – गरीब जिस किसी को रुच कर लगे अपना शीश देकर बदले में ले ।
साधु सीप समुद्र के, सतगुरु स्वाती बून्द ।
तृषा गई एक बून्द से, क्या ले करो समुन्द ।।
साधु सन्त एवम ज्ञानी महात्मा को समुद्र की सीप के समान जानो और सद्गुरु को स्वाती नक्षत्र की अनमोल पानी की बूंद जानो जिसकी एक बूंद से ही सारी प्यास मिट गई फिर समुद्र के निकट जाने का क्या प्रयोजन । सद्गुरु के ज्ञान उपदेश से मन की सारी प्यास मिट जाती है ।
आठ पहर चौसंठ घड़ी , लगी रहे अनुराग ।
हिरदै पलक न बीसरें, तब सांचा बैराग ।।
आठ प्रहर और चौसंठ घड़ी सद्गुरु के प्रेम में मग्न रहो अर्थ यह कि उठते बैठते, सोते जागते हर समय उनका ध्यान करो । अपने मन रूपी मन्दिर से एक पल के लिए भी अलग न करो तभी सच्चा बैराग्य है ।
सुमिरण की सुधि यौ करो, जैसे कामी काम ।
एक पल बिसरै नहीं, निश दिन आठौ जाम ।।
सुमिरण करने का उपाय बहुत ही सरल है किन्तु मन को एकाग्र करके उसमें लगाना अत्यन्त कठिन है । जिस तरह कामी पुरुष का मन हर समय विषय वासनाओं में लगा रहता है उसी तरह सुमिरण करने के लिए ध्यान करो । एक पल भी व्यर्थ नष्ट मत करो । सुबह , शाम, रात आठों पहर सुमिरण करो ।
सुमिरण की सुधि यौ करो, ज्यौं गागर पनिहारि ।
हालै डीलै सुरति में, कहैं कबीर बिचारी ।।
संत कबीर जी सुमिरण करने की विधि बताते हुए कहते है कि सुमिरन इस प्रकार करो जैसे पनिहार न अपनी गागर का करती है । गागर को जल से भरकर अपने सिर पर रखकर चलती है । उसका समूचा शरीर हिलता डुलता है किन्तु वह पानी को छलकने नहीं देती अर्थात हर पल उसे गागर का ध्यान रहता है उसी प्रकार भक्तों को सदैव सुमिरण करना चाहिए ।
सुरति फंसी संसार में , ताते परिगो चूर ।
सुरति बांधि स्थिर करो, आठों पहर हजूर ।।
चंचल मन की वृत्ति संसार के विषय भोग रूपी मोह में फंसी हो तो सद्गुरु परमात्मा से दूरी हो जाती है । यदि संयम धारण करके मन को स्थिर कर आत्म स्वरुप में लगा दिया जाये तो वह आठों पहर उपस्थित रहेगा । मन को एकाग्र करके सद्गुरु के नाम का प्रतिक्षण सुमिरन करते रहना चाहिए । यही मोक्ष का उत्तम मार्ग है ।
माला फेरै कह भयो, हिरदा गांठि न खोय ।
गुरु चरनन चित रखिये, तो अमरापुर जोय ।।
माला फेरने से क्या होता है जब तक हृदय में बंधी गाठ को आप नहीं खोलेंगे । मन की गांठ खोलकर, हृदय को शुध्द करके पवित्र भाव से सदगुरू के श्री चरणों का ध्यान करो । सुमिरन करने से अमर पदवी प्राप्ति होगी ।
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