जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय ।
हरिजन आवत देखि के, मोहड़े सुख गयो ।
भाव भक्ति समुझयो नहीं , मूरख चूकि गयो ।।
हरी भक्तों को आता हुआ देखकर जिस मानव का मुख सूख गया अर्थात सेवा की भावना उत्पन्न ण हुई बल्कि विचलित हो गया । ऐसे व्यक्ति को महामूर्ख जानो । जिस ने हाथ आया सुअवसर खो दिया । सन्तो के दर्शन बार बार नहीं होते ।
कह आकाश को फेर है , कह धरती को तोल ।
कहा साधु की जाति है, कह पारस का मोल ।।
आकाश की गोलाई , धरती का भार , साधु सन्तो की जाति क्या है तथा पारसमणि का मोल क्या है? कबीर जी कहते है कि इनका अनुमान लगा पाना असम्भव है अतः ऐसी चीजों के चक्कर में न पड़कर सत्य ज्ञान का अनुसरण करिये जिससे परम कल्याण निहित है ।
दीपक सुन्दर देखि करि , जरि जरि मरे पतंग ।
बढ़ी लहर जो विषय की, जरत न मारै अंग ।।
प्रज्जवलित दीपक की सुन्दर लौ को देख कर कीट पतंग मोह पाश में बंधकर उसके ऊपर मंडराते है ओर जल जलकर मरते है । ठीक इस प्रकार विषय वासना के मोह में बंधकर कामी पुरुष अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य से भटक कर दारुण दुःख भोगते है ।
कबीर माया मोहिनी , सब जग छाला छानि ।
कोई एक साधू ऊबरा, तोड़ी कुल की कानि ।।
सन्त कबीर जी कहते है कि यह जग माया मोहिनी है जो लोभ रूपी कोल्हू में पीसती है । इससे बचना अत्यंत दुश्कर है । कोई विरला ज्ञानी सन्त ही बच पाता है जिसने अपने अभिमान को तोड़ दिया है ।।
कबीर गुरु के देश में , बसि जानै जो कोय ।
कागा ते हंसा बनै , जाति वरन कुल खोय ।।
कबीर जी कहते है कि जो सद्गुरु के देश में रहता है अर्थात सदैव सद्गुरु की सेवा में अपना जीवन व्यतीत करता है । उनके ज्ञान एवम् आदेशों का पालन करता है वह कौआ से हंस बन जाता है । अर्थात अज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है । समस्त दुर्गुणों से मुक्त होकर जग में यश सम्मान प्राप्त करता है
गुरु आज्ञा मानै नहीं , चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये , आये सिर पर काल ।।
जो मनुष्य गुरु की आज्ञा की अवहेलना करके अपनी इच्छा से कार्य करता है । अपनी मनमानी करता है ऐसे प्राणी का लोक-परलोक दोनों बिगड़ता है और काल रूपी दु:खो से निरन्तर घिरा रहेगा ।
गुरु आज्ञा लै आवही , गुरु आज्ञा लै जाय ।
कहै कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ।।
गुरु की आज्ञा लेकर आना और गुरु की आज्ञा से ही कहीं जाना चाहिए । कबीर दास जी कहते है किऐसे सेवक गुरु को अत्यन्त प्रिय होते है जिसे गुरु अपने ज्ञान रूपी अमृत रस का पान करा कर धन्य करते है ।
गुरु समरथ सिर पर खड़े , कहा कमी तोहि दास ।
रिद्धि सिद्धि सेवा करै , मुक्ति न छाडै पास ।।
जब समर्थ गुरु तुम्हारे सिर पर खड़े है अर्थात सतगुरु का आशिर्वाद युक्त स्नेहमयी हाथ तुम्हारे सिर पर है , तो ऐसे सेवक को किस वस्तु की कमी है । गुरु के श्री चरणों की जो भक्ति भाव से सेवा करता है उसके द्वार पर रिद्धि सिद्धिया हाथ जोड़े खड़ी रहती है ।
प्रीति पुरानी न होत है , जो उत्तम से लाग ।
सो बरसाजल में रहै , पथर न छोड़े आग ।।
यदि किसी सज्जन व्यक्ति से प्रेम हो तो चाले कितना भी समय व्यतीत हो जाये कभी पुरानी नहीं होती , ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पत्थर सैकड़ो वर्ष पानी में रहे फिर भी अपनी अग्नि उत्पन्न करने की क्षमता को नहीं त्यागता ।
प्रीती बहुत संसार में , नाना विधि की सोय ।
उत्तम प्रीती सो जानियो, सतगुरु से जो होय ।।
इस जगत में अनेक प्रकार की प्रीती है किन्तु ऐसी प्रीती जो स्वार्थ युक्त हो उसमें स्थायीपन नहीं होता अर्थात आज प्रीती हुई कल किसी बात पर तू-तू , मै-मै होकर विखंडित हो गयी । प्रीती सद्गुरु स्वामी से हो तो यही सर्वश्रेष्ठ प्रीती है । सद्गुरु की कृपा से, सद्गुरु से प्रीती करने पर सदा अच्छे गुणों का आगमन होता है ।
साधु संगत परिहरै, करै विषय को संग ।
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ।।
जो मनुष्य ज्ञानी सज्जनों की संगति त्यागकर कुसंगियो की संगति करता है वह सांसारिक सुखो की प्राप्ती के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है । वह ऐसे मूर्ख की श्रेणी में आता है जो बहते हुए गंगा जल को छोड़ कर कुआँ खुदवाता हो ।
कामी का गुरु कामिनी , लोभी का गुरु दाम ।
कबीर का गुरु सन्त है, संतन का गुरु राम ।।
कुमार्ग एवम् सुमार्ग के विषय में ज्ञान की शिक्षा प्रदान करते हुए महासन्त कबीर दास जी कहते है कि कामी व्यक्ति कुमार्गी होता है वह सदैव विषय वासना के सम्पत्ति बटोर ने में ही ध्यान लगाये रहता है । उसका गुरु, मित्र, भाई – बन्धु सब कुछ धन ही होता है और जो विषयों से दूर रहता है उसे सन्तो की कृपा प्राप्त होती है अर्थात वह स्वयं सन्तमय होता है और ऐसे प्राणियों के अन्तर में अविनाशी भगवान का निवास होता है । दूसरे अर्थो में भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं ।
परारब्ध पहिले बना , पीछे बना शरीर ।
कबीर अचम्भा है यही , मन नहिं बांधे धीर ।।
कबीर दास जी मानव को सचेत करते हुए कहते है कि प्रारब्ध की रचना पहले हुई उसके बाद शरीर बना । यही आश्चर्य होता है कि यह सब जानकर भी मन का धैर्य नहीं बंधता अर्थात कर्म फल से आशंकित रहता है ।
जहां काम तहां नहिं , जहां नाम नहिं काम ।
दोनों कबहू ना मिलै , रवि रजनी इक ठाम ।।
जहाँ विषय रूपी काम का वस् होता है उस स्थान पर सद्गुरु का नाम एवम् स्वरुप बोध रूपी ज्ञान नहीं ठहरता और जहाँ सद्गुरु का निवास होता है वहाँ काम के लिए स्थान नहीं होता जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश और रात्रि का अंधेरा दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकते उसी प्रकार ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते ।
काला मुंह करूं करम का, आदर लावू आग ।
लोभ बड़ाई छांड़ि के, रांचू के राग ।।
लोभ एवम मोह रूपी कर्म का मुंह काला करके आदर सम्मान को आग लगा दूं । निरर्थक मान सम्मान प्राप्त करने के चक्कर में उचित मार्ग न भूल जाऊ । सद्गुरु के ज्ञान का उपदेश ही परम कल्याण कारी है अतः यही राग अलापना सर्वथा हितकर है ।
कबीर कमाई आपनी , कबहुं न निष्फल जाय ।
सात समुद्र आड़ा पड़े , मिलै अगाड़ी आय ।।
कबीर साहेब कहते है कि कर्म की कमाई कभी निष्फल नहीं होती चाहे उसके सम्मुख सात समुद्र ही क्यों न आ जाये अर्थात कर्म के वश में होकर जीव सुख एवम् दुःख भोगता है अतःसत्कर्म करें ।
दिन गरीबी बंदगी , साधुन सों आधीन ।
ताके संग मै यौ रहूं, ज्यौं पानी संग मीन ।।
जिसमें विनम्रता प्रेम भाव , सेवा भाव तथा साधु संतो की शरण में रहने की श्रद्धा होती है उसके साथ मै इस प्रकार रहू जैसे पानी के साथ मछली रहती है ।
दया का लच्छन भक्ति है, भक्ति से होवै ध्यान ।
ध्यान से मिलता ज्ञान है, यह सिद्धान्त उरान ।।
दया का लक्षण भक्ति है और श्रद्धा पूर्वक भक्ति करने से परमात्मा का ध्यान होता है । जो ध्यान करता है उसी को ज्ञान मिलता है यही सिद्धान्त है जो इस सिद्धान्त का अनुसरण करता है उसके समस्त क्लेश मिट जाते है ।
दया धर्म का मूल है, पाप मूल संताप ।
जहा क्षमा वहां धर्म है, जहा दया वहा आप ।।
परमज्ञानी कबीर दास जी अपनी वाणी से मानव जीवन को ज्ञान का उपदेश करते हुए कहते है । कि दया, धर्म की जड़ है और पाप युक्त जड़ दूसरों को दु:खी करने वाली हिंसा के समान है । जहा क्षमा है वहा धर्म का वास होता है तथा जहा दया है उस स्थान पर स्वयं परमात्मा का निवास होता है अतः प्रत्येक प्राणी को दया धर्म का पालन करना चाहिए ।
तेरे अन्दर सांच जो, बाहर नाहिं जनाव ।
जानन हारा जानि है, अन्तर गति का भाव ।।
तुम्हारे अन्दर जो सत्य भावना निहित है उसका प्रदर्शन मत करो । जो अन्तर गति का रहस्य जानने वाले ज्ञानी का प्रदर्शन करना उचित नहीं है ।
सांचै कोई न पतीयई , झूठै जग पतियाय ।
पांच टका की धोपती , सात टकै बिक जाय ।।
बोलने पर कोई विश्वास नहीं करता , सरे संसार के लोग बनावटीपण लिये हुए झूठ पर आँखे बन्द करके विश्वास करते है जिस प्रकार पाँच तर्क वाली धोती को झूठ बोलकर दूकानदार सात टके में बेच लेता है ।
कामी कबहूँ न गुरु भजै , मिटै न सांसै सूल ।
और गुनह सब बख्शिहैं, कामी डाल न भूल ।।
कम के वशीभूत व्यक्ति जो सांसारिक माया में लिप्त रहता है वह कभी सद्गुरु का ध्यान नहीं करता क्योंकि हर घड़ी उसके मन में विकार भरा रहता है, उसके अन्दर संदेह रूपी शूल गड़ा रहता है जिस से उसका मनसदैव अशान्त रहता है । संत कबीर जी कहते हैं कि सभी अपराध क्षमा योग्य है किन्तु कामरूपी अपराध अक्षम्य है जिसके लिए कोई स्थान नहीं है ।
अपने अपने चोर को, सब कोय डारै मार ।
मेरा चोर मुझको मिलै सरबस डारु वार ।
संसार के लोग अपने अपने चोर को मार डालते है परन्तु मेरा जो मन रूपी चंचल चोर है यदि वह मुझे मिल जाये तो मैं उसे नहीं मारुगा बल्कि उस पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दूँगा अर्थात मित्र भाव से प्रेम रूपी अमृत पिलाकर अपने पास रखूँगा ।
धरती फाटै मेघ मिलै, कपडा फाटै डौर ।
तन फाटै को औषधि , मन फाटै नहिं ठौर ।।
धरती फट गयी है अर्थात दरारे पड़ गयी है तो मेघों द्वारा जल बरसाने पर दरारें बन्द हो जाती हैं और वस्त्र फट गया है तो सिलाई करने पर जुड़ जाता है । चोट लगने पर तन में दवा का लेप किया जाता है जिससे शरीर का घाव ठीक हो जाता है किन्तु मन के फटने पर कोई औषधि या कोई उपाय कारगर सिद्ध नहीं होता
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