पूर्व मध्य काल/भक्ति काल (1350-1700) महत्वपूर्ण तथ्य
- भक्ति काल को 'हिन्दी साहित्य का स्वर्ण काल' कहा जाता है।
- भक्ति काल के उदय के बारे में सबसे पहले जार्ज ग्रियर्सन ने मत व्यक्त किया। वे ही 'ईसायत की देन' मानते हैं।
- ताराचंद के अनुसार भक्ति काल का उदय 'अरबों की देन' है।
- रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार, 'देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उनके देव मंदिर गिराए जाते थे, देव मूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। ..... अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शरणागति में जाने के अलावा दूसरा मार्ग ही क्या था ?......
- भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला।'
- हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार, मैं तो जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।..... बौद्ध तत्ववाद जो निश्चित ही बौद्ध आचार्यों की चिंता की देन था, मध्ययुग के हिन्दी साहित्य के उस अंग पर अपना निश्चित पदचिह्न छोड़ गया है जिसे संत साहित्य नाम दिया गया है। ..... मैं जो कहना चाहता हूँ वह यह है कि बौद्ध धर्म क्रमशः लोक धर्म का रूप ग्रहण कर रहा था और उसका निश्चित चिह्न हम हिन्दी साहित्य में पाते हैं।
- समग्रतः भक्ति आंदोलन का उदय ग्रियर्सन व ताराचंद के लिए बाहय प्रभाव, शुक्ल के लिए बाहरी आक्रमण की प्रतिक्रिया तथा द्विवेदी के लिए भारतीय परंपरा का स्वतः स्फूर्त विकास था।
- भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण में हुई और उसके पुरस्कर्ता आलवार भक्त थे। बाद में वैष्णव आचार्यों-रामानुज, निम्बार्क, मध्व, विष्णु स्वामी-ने भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया। दार्शनिक विवेचन द्वारा पुष्टि पाकर दक्षिण भारत में भक्ति की बहुत उन्नति हुई और दक्षिण से चली हुई भक्ति की लहर 13 वीं सदी ई० में महाराष्ट्र पहुँची। तदन्तर यह उत्तर भारत पहुँची।
- उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन के सूत्रपात का श्रेय रामानन्द को है ('भक्ति द्राविड़ उपजी, लाए रामानन्द') । रामानंद ने उत्तर भारत में भक्ति को जन-जन तक पहुँचाकर इसे लोकप्रिय बनाया।
- भक्ति आंदोलन का स्वरूप देशव्यापी था। दक्षिण में आलवार-नायनार व वैष्णव आचार्यो, महाराष्ट्र में वारकरी संप्रदाय (ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुका राम), उत्तर भारत में रामानं, बल्लभ आचार्य, बंगाल में चैतन्य, असम में शंकरदेव (महापुरुषीय धर्म- एक शरण संप्रदाय), उड़ीसा में पंचसखा (बलरामदास, अनंतदास, यशोवंत दास, जगन्नाथ दास, अच्युतानंद) आदि इसी बात को प्रमाणित करते हैं।
- भक्ति काव्य की दो काव्य धाराएँ हैं- निर्गुण काव्य-धारा व सगुण काव्य-धारा।
- निर्गुण काव्य-धारा की दो शाखाएँ हैं- ज्ञानाश्रयी शाखा/संत काव्य व प्रेमाश्रयी शाखा/सूफी काव्य। संत काव्य के प्रतिनिधि कवि कबीर है व सूफी काव्य के प्रतिनिधि कवि जायसी हैं।
- सगुण काव्य-धारा की दो शाखाएँ हैं- कृष्णाश्रयी शाखा/कृष्ण भक्ति काव्य व रामाश्रयी शाखा/राम भक्ति काव्य। कृष्ण भक्ति काव्य के प्रतिनिधि कवि सूरदास हैं व राम भक्ति काव्य के प्रतिनिधि कवि तुलसी दास हैं।
- प्रबंधात्मक काव्यकृतियाँ : पद्यावत, रामचरितमानस
- मुक्तक काव्य कृतियाँ : गीतावली, कवितावली, कबीर के पद
- कबीर की रचनाओं में साधनात्मक रहस्यवाद मिलता है जबकि जायसी की रचनाओं में भावात्मक रहस्यवाद।
निर्गुण काव्य की विशेषताएँ :
(1) निर्गुण निराकार ईश्वर में विश्वास
(2) लौकिक प्रेम द्वारा अलौकिक/आध्यात्मिक प्रेम की अभिव्यक्ति
(3) धार्मिक रूढ़ियों व सामाजिक कुरीतियों का विरोध
(4) जाति प्रथा का विरोध व हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थन
(5) रहस्यवाद का प्रभाव
(6) लोक भाषा का प्रयोग।
सगुण काव्य की विशेषताएँ :
(1) अवतारवाद में विश्वास
(2) ईश्वर की लीलाओं का गायन
(3) भक्ति का विशिष्ट रूप (रागानुगा भक्ति-कृष्ण भक्त कवियों द्वारा, वैधी भक्ति-राम भक्त कवियों द्वारा)
(4) लोक भाषा का प्रयोग
- कबीर ने अपने आदर्श-राज्य (Utopia) को 'अमर देस', रैदास ने 'बेगमपुरा' (ऐसा शहर जहाँ कोई गम न हो) एवं तुलसी ने 'राम-राज कहा है।
- 'संत काव्य' का सामान्य अर्थ है संतों के द्वारा रचा गया काव्य। लेकिन जब हिन्दी में 'संत काव्य' कहा जाता है तो उसका अर्थ होता है निर्गुणोपासक ज्ञानमार्गी कवियों के द्वारा रचा गया काव्य।
- संत कवि : कबीर, नामदेव, रैदास, नानक, धर्मदास, रज्जब, मलूकदास, दादू, सुंदरदास, चरणदास, सहजोबाई आदि।
- सुंदरदास को छोड़कर सभी संत कवि कामगार तबके से आते है; जैसे-कबीर (जुलाहा), नामदेव (दर्जी), रैदास (चमार), दादू (बुनकर), सेना (नाई), सदना (कसाई)।
संत काव्य की विशेषताएँ-धार्मिक :
(1) निर्गुण ब्रह्म की संकल्पना
(2) गुरु की महत्ता
(3) योग व भक्ति का समन्वय
(4) पंचमकार
(5) अनुभूति की प्रामाणिकता व शास्त्र ज्ञान की अनावश्यकता
(6) आडम्बरवाद का विरोध
(7) संप्रदायवाद का विरोध;
सामाजिक :
(1) जातिवाद का विरोध
(2) समानता के प्रेम पर बल;
शिल्पगत :
(1) मुक्तक काव्य-रूप
(2) मिश्रित भाषा
(3) उलटबाँसी शैली (संधा/संध्याभाषा-हर प्रसाद शास्त्री)
(4) पौराणिक संदर्भो व हठयोग से संबंधित मिथकीय प्रयोग
(5) प्रतीकों का भरपूर प्रयोग।
- रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को 'सधुक्कड़ी भाषा' की संज्ञा दी है।
- श्यामसुंदर दास ने कई बोलियों के मिश्रण से बनी होने के कारण कबीर की भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' कहा है।
- बोली के ठेठ शब्दों के प्रयोग के कारण ही हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को 'वाणी का डिक्टेटर' कहा है।
- 'प्रेमाख्यानक काव्य' का अर्थ है जायसी आदि निर्गुणोपासक प्रेममार्गी सूफी कवियों के द्वारा रचित प्रेम-कथा काव्य।
- प्रेमाख्यानक काव्य को प्रेमाख्यान काव्य, प्रेमकथानक काव्य, प्रेम काव्य, प्रेममार्गी (सूफी) काव्य आदि नामों से भी पुकारा जाता है।
प्रेमाख्यानक काव्य की विशेषताएँ :
(1) विषय वस्तु/कथावस्तु का प्रयोग
(2) अवांतर/गौण प्रसंगों की भरमार व काव्येतर विषयों का समावेश
(3) विभिन्न तरह के पात्र
(4) प्रेम का आधिक्य
(5) काव्य-रूप - कथा काव्य
(6) द्वंद्वात्मक काव्य-शिल्प (लोक कथा व शिष्ट कथा का मेल)
(7) काव्य-भाषा-अवधी
(8) कथा रूपक या प्रतीक काव्य
(9) वियोग श्रृंगार/विरह श्रृंगार को अधिक महत्व ('पद्यावत' के एक अंश-नागमती का विरह वर्णन- को हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि कहा जाता है)
- यों तो सभी प्रेमाख्यानों में सामान्य मानव की प्रेम कथाएं है लेकिन सूफियों का तर्क है कि इश्क मजाजी (मानवीय प्रेम) इश्क हकीकी (दैविक प्रेम) की सीढ़ी है।
- मलिक मुहम्मद जायसी जायस के रहने वाले थे। ये सिंकदर लोदी एवं बाबर के समकालीन थे।
- जायसी के यश का आधार है- ''पद्मावत'।
- 'पद्मावत' प्रेम की पीर की व्यंजना करने वाला विशद प्रबंध काव्य है। यह चौपाई-दोहा में निबद्ध (7 चौपाई के बाद 1 दोहा) मसनवी शैली में लिखा गया है।
- 'पद्मावत' की कथा चितौड़ के शासक रतन सेन और सिंहलद्वीप की राजकन्या पदमिनी की प्रेम कहानी पर आधारित है। इसमें ( 'पद्मावत' में) रतनसेन की पहली पत्नी नागमती के वियोग का अनूठा वर्णन किया गया है।
- 'पद्मावत' के नागमती-वियोग खंड को हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि माना जाता है।
- जिन भक्त कवियों ने विष्णु के अवतार के रूप में कृष्ण की उपासना को अपना लक्ष्य बनाया वे 'कृष्णाश्रयी शाखा' के कवि कहलाए।
- मध्य युग में कृष्ण भक्ति का प्रचार ब्रज मण्डल में बड़े उत्साह और भावना के साथ हुआ। इस ब्रज मण्डल में कई कृष्ण-भक्ति संप्रदाय सक्रिय थे। इनमें बल्लभ, निम्बार्क, राधा वल्लभ, हरिदासी (सखी संप्रदाय) और चैतन्य (गौड़ीय) संप्रदाय विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन संप्रदायों से जुड़े ढ़ेर सारे कवि कृष्ण काव्य रच रहे थे।लेकिन जो समर्थ कवि कृष्ण काव्य को एक लोकप्रिय काव्य आंदोलन के रूप में प्रतिष्ठित किया वे सभी बल्लभ संप्रदाय से जुड़े थे।
- बल्लभ संप्रदाय का दार्शनिक सिद्धांत 'शुद्धाद्वैत' तथा साधना मार्ग 'पुष्टि मार्ग' कहलाता है। पुष्टि मार्ग का आधार-ग्रंथ 'भागवत' (श्रीमदभागवत) है।
- पुष्टि मार्ग में बल्लभाचार्य ने कवियों (सूरदास, कुंभनदास, परमानंद दास व कृष्णदास) को दीक्षित किया। उनके मरणोपरांत उनके पुत्र विटठलनाथ आचार्य की गद्दी पर बैठे और उन्होंने भी 4 कवियों (छीतस्वामी, गोविंदस्वामी, चतुर्भुजदास व नंददास) को दीक्षित किया। विटठलनाथ ने इन दीक्षित कवियों को मिलाकर
- 'अष्टछाप' की स्थापना 1565 ई० में की। सूरदास इनमें सर्वप्रमुख हैं और उन्हें 'अष्टछाप का जहाज' कहा जाता है।
- निम्बार्क संप्रदाय से जुड़े कवि थे- श्री भट्ट, हरि व्यास देव; राधा बल्लभ संप्रदाय से संबद्ध कवि हित हरिवंश थे; हरिदासी संप्रद्राय की स्थापना स्वामी हरिदास ने की और वे ही इस संप्रदाय के प्रथम और अंतिम कवि थे। चैतन्य संप्रदाय से संबद्ध कवि गदाधर भट्ट थे।
- छ कृष्ण भक्त कवि संप्रदाय निरपेक्ष भी थे; जैसे- मीरा, रसखान आदि।
- कृष्ण भक्ति काव्य धारा ऐसी काव्य धारा थी जिसमें सबसे अधिक कवि शामिल हुए।
कृष्ण भक्ति काव्य की विशेषताएँ :
(1) कृष्ण का ब्रह्म रूप में चित्रण
(2) बाल-लीला व व वात्सल्य वर्णन
(3) श्रृंगार चित्रण
(4) नारी मुक्ति
(5) सामान्यता पर बल
(6) आश्रयत्व का विरोध
(7) लोक संस्कृति पर बल
(8) लोक संग्रह
(9) काव्य-रूप : मुक्तक काव्य की प्रधानता
(10) काव्य-भाषा-ब्रजभाषा
(11) गेय पद परंपरा।
- माता पिता की जो ममता अपने संतान पर बरसती है उसे 'वात्सल्य' कहते हैं। सूर वात्सल्य चित्रण के लिए विश्व में अन्यतम कवि माने जाते हैं। इन्हीं के कारण, रसों के अतिरिक्त वात्सल्य को एक रस के रूप में मान्यता मिली।
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की राय है, 'यद्यपि तुलसी के समान सूर का काव्य क्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की भिन्न-भिन्न दशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्यभूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया उसका कोई कोना अछूता न छूटा। श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक और किसी कवि की नहीं। इन दोनों क्षेत्रों में तो इस महाकवि ने मानो औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं।'
- भक्ति आंदोलन में कृष्ण काव्यधारा ही एकमात्र ऐसी धारा है जिसमें नारी मुक्ति का स्वर मिलता है। इनमें सबसे प्रखर स्वर मीरा बाई का है। मीरा अपने समय के सामंती समाज के खिलाफ एक क्रांतिकारी स्वर है।
- जिन भक्त कवियों ने विष्णु के अवतार के रूप में राम की उपासना को अपना लक्ष्य बनाया वे 'रामाश्रयी शाखा' के कवि कहलाए।
- कुछ उल्लेखनीय राम भक्त कवि हैं- रामानंद, अग्रदास, ईश्वर दास, तुलसी दास, नाभादास, केशवदास, नरहरिदास आदि।
- राम भक्ति काव्य धारा के सबसे बड़े और प्रतिनिधि कवि है तुलसी दास।
- राम भक्त कवियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। कम संख्या होने का सबसे बड़ा कारण है तुलसीदास का बरगदमयी व्यक्तित्व।
राम भक्ति काव्य की विशेषताएँ :
(1) राम का लोक नायक रूप
(2) लोक मंगल की सिद्धि
(3) सामूहिकता पर बल
(4) समन्वयवाद
(5) मर्यादावाद
(6) मानवतावाद
(7) काव्य-रूप-प्रबंध व मुक्तक दोनों
(8) काव्य-भाषा-मुख्यतः अवधी
(9) दार्शनिक प्रतीकों की बहुलता।
- राम भक्ति काव्य धारा आगे चलकर रीति काल में मर्यादावाद की लीक छोड़कर रसिकोपासना की ओर बढ़ जाती है।
- 'तुलसी का सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।' -हजारी प्रसाद द्विवेदी
- 'भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय करने का अपार धैर्य लेकर आया हो।' -हजारी प्रसाद द्विवेदी
प्रसिद्ध पंक्तियाँ:-
संतन को कहा सीकरी सो काम ?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरिनाम।
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम। -कुंभनदास
नाहिन रहियो मन में ठौर
नंद नंदन अक्षत कैसे आनिअ उर और -सूरदास
हऊं तो चाकर राम के पटौ लिखौ दरबार,
अब का तुलसी होहिंगे नर के मनसबदार। -तुलसीदास
आँखड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि
जीभड़ियाँ झाला पड़याँ, राम पुकारि पुकारि। -कबीर
तीरथ बरत न करौ अंदेशा। तुम्हारे चरण कमल मतेसा।।
जह तह जाओ तुम्हारी पूजा। तुमसा देव और नहीं दूजा।। -जायसी
तलफत रहित मीन चातक ज्यों, जल बिनु तृषानु छीजे अँखियां हरि दर्शन की भूखी।
हे री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद न जाने कोई। -मीरा
एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास।
एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास। -तुलसीदास
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाई।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताई।। -कबीर
पाँड़े कौन कुमति तोंहि लागे, कसरे मुल्ला बाँग नेवाजा। -कबीर
बंदऊ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु वचन रविकर निकर।। -तुलसीदास
राम नांव ततसार है। -कबीर
कबीर सुमिरण सार है और सकल जंजाल। -कबीर
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोई।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई।। -कबीर
आयो घोष बड़ो व्यापारी।
लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आय उतारी। -सूरदास
मूक होई वाचाल, पंगु चढ़ई गिरिवर गहन।
जासु कृपा सो दयाल द्रवउ सकल कली मल दहन।। -तुलसीदास
सिया राममय सब जग जानी, करऊं प्रणाम जोरि जुग पानि। -तुलसीदास
जांति-पांति पूछै नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई। -रामानंद
साई के सब जीव है कीरी कुंजर दोय।
सब घाट साईयां सूनी सेज न कोय। -कबीर
मैं राम का कुत्ता मोतिया मेरा नाम। -कबीर
बड़े न हुजै गुनन बिन, बिरद बड़ाई पाय।
कहत धतूरे सो कनक, गहनो गढ़ो न जाय।।
(बिरद = नाम, सो = सदृश, समान) -कबीर
राम सो बड़ो है कौन, मोसो कौन छोटो ?
राम सो खरो है कौन, मोसो कौन खोटो। -तुलसीदास
प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। -रैदास
सुखिया सब संसार है खावे अरु सोवे,
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै। -कबीर
नारी नसावे तीन गुन, जो नर पासे होय।
भक्ति मुक्ति नित ध्यान में, पैठि सकै नहीं कोय।। -कबीर
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब है तारन के अधिकारी। -तुलसीदास
पांणी ही तैं हिम भया, हिम हवै गया बिलाई।
जो कुछ था सोई भया, अब कछु कहया न जाइ।। -कबीर
एक जोति थैं सब उपजा, कौन ब्राह्मण कौन सूदा। -कबीर
एक कहै तो है नहीं, दोइ कहै तो गारी।
है जैसा तैसा रहे कहे कबीर उचारि।। -कबीर
सतगुरु है रंगरेज मन की चुनरी रंग डारी -कबीर
संसकिरत (संस्कृत) है कूप जल भाषा बहता नीर -कबीर
अवधु मेरा मन मतवारा।
गुड़ करि ज्ञान, ध्यान करि महुआ, पीवै पीवनहारा।। -कबीर
पंडित मुल्ला जो कह दिया।
झाड़ि चले हम कुछ नहीं लिया।। -कबीर
पंडित वाद वदन्ते झूठा -कबीर
पठत-पठत किते दिन बीते गति एको नहीं जानि। -कबीर
मैं कहता हूँ आँखिन देखी/तू कहता है कागद लेखी। -कबीर
गंगा में नहाये कहो को नर तरिए।
मछिरी न तरि जाको पानी में घर है ।।-कबीर
कंकड़ पाथड़ जोड़ि के मस्जिद लिये बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।। -कबीर
जो तू बाभन बाभनि जाया तो आन बाट काहे न आया।
जो तू तुरक तुरकनि जाया तो भीतर खतना क्यों न कराया।। -कबीर
हिन्दु तुरक का कर्ता एके, ता गति लखि न जाय। -कबीर
हिन्दुअन की हिन्दुआइ देखी, तुरकन की तुरकाइ
अरे इन दोऊ कहीं राह न पाई। -कबीर
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान।। -कबीर
जात भी ओछी, करम भी ओछा, ओछा करब करम हमारा।
नीचे से फिर ऊंचा कीन्ह, कह रैदास खलास चमारा।। रैदास
झिलमिल झगरा झूलते बाकी रहु न काहु।
गोरख अटके कालपुर कौन कहावे साधु।। -कबीर
दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना -कबीर
शूरा सोइ (सती) सराहिए जो लड़े धनी के हेत।
पुर्जा-पुर्जा कटि पड़ै तौ ना छाड़े खेत।। -कबीर
आगा जो लागा नीर में कादो जरिया झारि।
उत्तर दक्षिण के पंडिता, मुए विचारि विचारि।। -कबीर
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे,
अरथ अमित अति आखर धोरे (तुलसी के अनुसार कविता की परिभाषा) -तुलसी
गोरख जगायो जोग भगति भगायो लोग। (कवितावली) -तुलसी
गुपुत रहहु, कोऊ लखय न पावे, परगट भये कछु हाथ न आवे।
गुपुत रहे तेई जाई पहूंचे, परगट नीचे गए विगुचे।। -उसमान
पहले प्रीत गुरु से कीजै, प्रेम बाट में तब पग दीजै। -उसमान
रवि ससि नखत दियहि ओहि जोती,
रतन पदारथ माणिक मोती।
जहँ तहँ विहसि सुभावहि हँसी।
तहँ जहँ छिटकी जोति परगसी।। -जायसी
बसहि पक्षी बोलहि बहुभाखा,
करहि हुलास देखिके शाखा। -जायसी
तन चितउर, मन राजा कीन्हा।
हिय सिंघल, बुधि पदमिनी चीन्हा।।
गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा।
बिनु गुरु जगत को निरगुण पावा।।
नागमती यह दुनिया धंधा।
बांचा सोई न एहि चित्त बंधा।।
राघव दूत सोई सैतान।
माया अलाउदी सुल्तान।।-जायसी
जहाँ न राति न दिवस है,
जहाँ न पौन न घरानि।
तेहि वन होई सुअरा बसा,
को रे मिलावे आनि।। -जायसी
मानुस प्रेम भएउँ बैकुंठी
नाहि त काह छार भरि मूठि।
(प्रेम ही मनुष्य के जीवन का चरम मूल्य है, जिसे पाकर मनुष्य बैकुंठी हो जाता है, अन्यथा वह एक मुट्ठी राख नहीं तो और क्या है ? -जायसी
छार उठाइ लीन्हि एक मूठी,
दीन्हि उड़ाइ पिरिथमी झूठी। -जायसी
सोलह सहस्त्र पीर तनु एकै, राधा जीव सब देह। -सूरदास
पुख नछत्र सिर ऊपर आवा।
हौं बिनु नौंह मंदिर को छावा।
बरिसै मघा झँकोरि झँकोरि।
मोर दुइ नैन चुवहिं जसि ओरी। -जायसी
पिउ सो कहहू संदेसड़ा हे भौंरा हे काग।
सो धनि बिरहें जरि मुई तेहिक धुँआ हम लाग।। -जायसी
जसोदा हरि पालने झुलावे/सोवत जानि मौन है रहि करि-करि सैन बतावे/इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमती मधुरै गावे। -सूरदास
सिखवत चलत जसोदा मैया
अरबराय करि पानि गहावत डगमगाय धरनी धरि पैंया। - सूरदास
मैया हौं न चरैहों गाय -सूरदास
मैया री मोहिं माखन भावे -सूरदास
मैया कबहि बढ़ेगी चोटी -सूरदास
मैया मोहि दाउ बहुत खिझायौ -सूरदास
जिस तरह के उन्मुक्त समाज की कल्पना अंग्रेज कवि शेली ने की है ठीक उसी तरह का उन्मुक्त समाज है गोपियों का।' -आचार्य शुक्ल
'गोपियों का वियोग-वर्णन, वर्णन के लिए ही है उसमें परिस्थितियों का अनुरोध नहीं है। राधा या गोपियों के विरह में वह तीव्रता और गंभीरता नहीं है जो समुद्र पार अशोक वन में बैठी सीता के विरह में है।' -आचार्य शुक्ल
अति मलीन वृषभानु कुमारी।/छूटे चिहुर वदन कुभिलाने, ज्यों नलिनी हिमकर की मारी। -सूरदास
ज्यों स्वतंत्र होई त्यों बिगड़हिं नारी
(जिमी स्वतंत्र भए बिगड़हिंनारी) -तुलसीदास
सास कहे ननद खिजाये राणा रहयो रिसाय
पहरा राखियो, चौकी बिठायो, तालो दियो जराय। -मीरा
संतन ठीग बैठि-बैठि लोक लाज खोई -मीरा
या लकुटि अरु कंवरिया पर
राज तिहु पुर को तजि डारो -रसखान
काग के भाग को का कहिये,
हरि हाथ सो ले गयो माखन रोटी -रसखान
मानुस हौं तो वही रसखान बसो संग गोकुल गांव के ग्वारन -रसखान
'जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गानेवाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी का। वास्तव में ये हिन्दी काव्यगगन के सूर्य और चंद्र है।' -आचार्य शुक्ल
रचि महेश निज मानस राखा
पाई सुसमय शिवासन भाखा -तुलसीदास
मंगल भवन अमंगल हारी
द्रवहु सुदशरथ अजिर बिहारी -तुलसीदास
सबहिं नचावत राम ग़ोसाई
मोहि नचावत तुलसी गोसाई -फादर कामिल बुल्के
'बुद्ध के बाद तुलसी भारत के सबसे बड़े समन्वयकारी है' -जार्ज ग्रियर्सन
'मानस (तुलसी) लोक से शास्त्र का, संस्कृत से भाषा (देश भाषा) का, सगुण से निर्गुण का, ज्ञान से भक्ति का, शैव से वैष्णव का, ब्राह्मण से शूद्र का, पंडित से मूर्ख का, गार्हस्थ से वैराग्य का समन्वय है।' -हजारी प्रसाद द्विवेदी
बहुरि वदन विधु अँचल ढाँकी, पिय तन चितै भौंह करि बांकी खंजन मंजु तिरीछे नैननि, निज पति कहेउं तिनहहिं सिय सैननि। (ग्रामीण स्त्रियों द्वारा राम से संबंध के प्रश्न पूछने पर सीता का आंगिक लक्षणों से जवाब) -तुलसीदास
हे खग हे मृग मधुकर श्रेणी क्या तूने देखी सीता मृगनयनी -तुलसीदास
पूजिये विप्र शील गुण हीना, शूद्र न गुण गन ज्ञान प्रवीना -तुलसीदास
छिति, जल, पावक, गगन, समीरा
पंचरचित यह अधम शरीरा। -तुलसीदास
कत विधि सृजी नारी जग माहीं, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं -तुलसीदास
अखिल विश्व यह मोर उपाया
सब पर मोहि बराबर माया। -तुलसीदास
काह कहौं छवि आजुकि भले बने हो नाथ।
तुलसी मस्तक तव नवै धरो धनुष शर हाथ।। -तुलसीदास
सब मम प्रिय सब मम उपजाये
सबते अधिक मनुज मोहिं भावे -तुलसीदास
मेरी न जात-पाँत, न चहौ काहू की जात-पाँत -तुलसीदास
सुन रे मानुष भाई,
सबार ऊपर मानुष सत्य
ताहार ऊपर किछु नाई। -चण्डी दास
बड़ा भाग मानुष तन पावा,
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा -तुलसीदास
'जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अन्तः करणों से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्ति युग कहते हैं। निश्चित ही वह हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग था।' -श्याम सुन्दर दास
'हिन्दी काव्य की सब प्रकार की रचना शैली के ऊपर गोस्वामी तुलसीदास ने अपना ऊँचा आसन प्रतिष्ठित किया है। यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं।' -रामचन्द्र शुक्ल
जनकसुता, जगजननि जानकी।
अतिसय प्रिय करुणानिधान की। -तुलसीदास
तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही। -तुलसीदास
अंसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम बेल बोई।
सावन माँ उमग्यो हियरा भणक सुण्या हरि आवण री। -मीरा
घायल की गति घायल जानै और न जानै कोई। -मीरा
मोर पंखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
ओढि पिताबंर लै लकुटी बन गोधन ग्वालन संग फिरौंगी।
भावतो सोई मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी। - रसखान
जब जब होइ धरम की हानि। बढ़हिं असुर महा अभिमानी।।
तब तब धरि प्रभु मनुज सरीरा। हरहिं सकल सज्जन भवपीरा।। -तुलसीदास
'समूचे भारतीय साहित्य में अपने ढंग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है।' -हजारी प्रसाद द्विवेदी
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अती सांकरी, ता में दो न समाहि।। -कबीर
मो सम कौन कुटिल खल कामी -सूरदास
भरोसो दृढ इन चरनन केरो -सूरदास
धुनि ग्रमे उत्पन्नो, दादू योगेंद्रा महामुनि -रज्जब
सब ते भले विमूढ़ जन, जिन्हें न व्यापै जगत गति -तुलसीदास
केसव कहि न जाइ का कहिए।
देखत तब रचना विचित्र अति, समुझि मनहि मन रहिए।
('विनय पत्रिका') -तुलसीदास
पुष्टिमार्ग का जहाज जात है सो जाको कछु लेना हो सो लेउ -विट्ठलदास
हरि है राजनीति पढ़ि आए -सूरदास
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।। -मलूकदास
हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास।
सब जग जलता देख, भया कबीर उदास।। -कबीर
विक्रम धँसा प्रेम का बारा, सपनावती कहँ गयऊ पतारा। -मंझन
कब घर में बैठे रहे, नाहिंन हाट बाजार
मधुमालती, मृगावती पोथी दोउ उचार। -बनारसी दास
मुझको क्या तू ढूँढे बंदे, मैं तो तेरे पास रे। -कबीर
रुकमिनि पुनि वैसहि मरि गई
कुलवंती सत सो सति भई -कुतबन
बलंदीप देखा अँगरेजा, तहाँ जाई जेहि कठिन करेजा -उसमान
जानत है वह सिरजनहारा, जो किछु है मन मरम हमारा।
हिंदु मग पर पाँव न राखेऊ, का जो बहुतै हिंदी भाखेऊ।।
('अनुराग बाँसुरी') -नूर मुहम्मद
यह सिर नवे न राम कू, नाहीं गिरियो टूट।
आन देव नहिं परसिये, यह तन जायो छूट।। -चरनदास
सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहत अस होय।
गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय।। -रहीम
मो मन गिरिधर छवि पै अटक्यो/ललित त्रिभंग चाल पै चलि कै, चिबुक चारु गड़ि ठटक्यो -कृष्णदास
कहा करौ बैकुंठहि जाय
जहाँ नहिं नंद, जहाँ न जसोदा, नहिं जहँ गोपी, ग्वाल न गाय -परमानंद दास
बसो मेरे नैनन में नंदलाल
मोहनि मूरत, साँवरि सूरत, नैना बने रसाल -मीरा
लोटा तुलसीदास को लाख टका को मोल -होलराय
साखी सबद दोहरा, कहि कहिनी उपखान।
भगति निरूपहिं निंदहि बेद पुरान।। -तुलसीदास
माता पिता जग जाइ तज्यो
विधिहू न लिख्यो कछु भाल भलाई -तुलसीदास
निर्गुण ब्रह्म को कियो समाधु
तब ही चले कबीरा साधु। -दादू
अपना मस्तक काटिकै बीर हुआ कबीर -दादू
सो जागी जाके मन में मुद्रा/रात-दिवस ना करई निद्रा -कबीर
काहे री नलिनी तू कुम्हलानी/तेरे ही नालि सरोवर पानी। -कबीर
कलि कुटिल जीव निस्तार हित वाल्मीकि तुलसी भयो -नाभादास
नैया बिच नदिया डूबति जाय -कबीर
भक्तिहिं ज्ञानहिं नहिं कछु भेदा -तुलसी
प्रभुजी मोरे अवगुन चित्त न धरो -सूर
अब लौ नसानो अब न नसैहों [अब तक का जीवन नाश (बर्बाद) किया। आगे न करूँगा।] -तुलसी
अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे -कबीर
संत हृदय नवनीत समाना -तुलसी
रामझरोखे बैठ के जग का मुजरा देख -कबीर
निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोई।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि-मन भ्रम होई।। -तुलसी
स्याम गौर किमि कहौं बखानी।
गिरा अनयन नयन बिनु बानी।। -तुलसी
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे मांहि।
ज्यों रहीम नटकुंडली, सिमिट कूदि चलि जांहि।। -रहीम
प्रेम प्रेम ते होय प्रेम ते पारहिं पइए -सूर
तब लग ही जीबो भला देबौ होय न धीम।
जन में रहिबो कुँचित गति उचित न होय रहीम।। -रहीम
सेस महेस गनेस दिनेस, सुरेसहुँ जाहि निरंतर गावैं।
जाहिं अनादि अनन्त अखंड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं।। -रसखान
बहु बीती थोरी रही, सोऊ बीती जाय।
हित ध्रुव बेगि विचारि कै बसि बृंदावन आय।। -ध्रुवदास
पूर्व-मध्यकालीन/भक्तिकालीन रचना एवं रचनाकार
(A) संत काव्य:-
बीजक (1. रमैनी 2. सबद 3. साखी; संकलन धर्मदास) कबीरदास
बानी रैदास
ग्रंथ साहिब में संकलित
(संकलन-गुरु अर्जुन देव) नानक देव
सुंदर विलाप सुंदर दास
रत्न खान, ज्ञानबोध मलूक दास
(B) सूफी काव्य:-
हंसावली - असाइत
चंदायन या लोरकहा - मुल्ला दाऊद
मधुमालती - मंझन
मृगावती - कुतबन
चित्रावती - उसमान
पद्मावत, अखरावट, आखिरी कलाम, कन्हावत - जायसी
माधवानल कामकंदला - आलम
ज्ञान दीप - शेख नबी
रस रतन - पुहकर
लखमसेन पद्मावत कथा - दामोदर कवि
रूप मंजरी - नंद दास
सत्यवती कथा - ईश्वर दास
इंद्रावती, अनुराग बाँसुरी - नूर मुहम्मद
(C) कृष्ण भक्ति काव्य:-
सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, भ्रमरगीत (सूरसागर से संकलित अंश) - सूरदास
फुटकल पद - कुंभन दास
परमानंद सागर - परममानंद दास
जुगलमान चरित्र - कृष्ण दास
फुटकल पद - गोविंद स्वामी
द्वादशयश, भक्ति प्रताप, हितजू को मंगल - चतुर्भुज दास
रास पंचाध्यायी, भंवर गीत (प्रबंध काव्य) - नंद दास
युगल शतक - श्री भट्ट
हित चौरासी - हित हरिवंश
हरिदास जी के पद - स्वामी हरिदास
भक्त नामावली, रसलावनी - ध्रुव दास
नरसी जी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद - मीराबाई
प्रेम वाटिका, सुजान रसखान, दानलीला - रसखान
सुदामा चरित - नरोत्तमदास
(D) राम भक्ति काव्य:-
राम आरती - रामानंद
रामाष्टयाम, राम भजन मंजरी - अग्र दास
भरत मिलाप, अंगद पैज - ईश्वर दास
रामचरित मानस (प्र०), गीतावली, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली, कृष्ण गीतावली,
पार्वती मंगल, जानकी मंगल, बरवै रामायण (प्र०), रामाज्ञा प्रश्नावली,
वैराग्य संदीपनी, राम लला नहछू - तुलसीदास
भक्त माल - नाभादास
रामचन्द्रिका (प्रबंध काव्य) - केशव दास
पौरुषेय रामायण - नरहरि दास
(E) विविध:-
पंचसहेली - छीहल
हरिचरित, भागवत दशम स्कंध भाषा लालच दास
रुक्मिणी मंगल, छप्पय नीति, कवित्त संग्रह महापात्र - - नरहरि बंदीजन
माधवानल कामकंदला - आलम
शत प्रश्नोत्तरी - मनोहर कवि
हनुमन्नाटक - बलभद्र मिश्र
कविप्रिया, रसिक प्रिया , वीर सिंह, देव चरित(प्र०),
विज्ञान गीता, रतनबावनी, जहाँगीर जस चंद्रिका - केशव दास
रहीम दोहावली या सतसई, बरवै नायिका भेद, श्रृंगार सोरठा,
मदनाष्टक, रास पंचाध्यायी, रहीम रत्नावली - रहीम (अब्दुर्रहीम खाने खाना)
काव्य कल्पद्रुम - सेनापति
रस रतन - पुहकर कवि
सुंदर श्रृंगार - सुंदर
पद्दिनी चरित्र - लालचंद
'अष्टछाप' के कवि:-
बल्लभाचार्य के शिष्य (1) सूरदास (2) कुंभन दास (3) परमानंद दास (4) कृष्ण दास
बिट्ठलनाथ के शिष्य (5) छीत स्वामी (6) गोविंद स्वामी (7) चतुर्भुज दास (8) नंद दास
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