कवि नागार्जुन-जनकवि के रूप मे

कवि नागार्जुन-जनकवि के रूप मे


“इस बात में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है कि तुलसीदास के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी कविता की पहुंच किसानों की चौपाल से लेकर काव्यरसिकों की गोष्ठी तक है।” 

नामवर जी यह टिप्पणी नागार्जुन की लोक-संपृक्तता की ओर संकेत करती है । लेकिन इसका प्रमाण तो उनकी कविताएं ही हैं । नागार्जुन की कविता समकालीन प्रगतिशील काव्य-धारा का अभिन्न अंग होते हुए भी पूरे कविता विधान की दृष्टि से अपना निजी वैशिष्ट्य रखती हैं। नागार्जुन की कविता आधुनिकता की प्रचलित अवधारणा और उसके प्रतिमानों को चुनौती देने के साथ ही अपनी जनोन्मुख संवेदना और सहज लोकधर्मिता के कारण तत्कालीन दौर में एक महत्वपूर्ण पहचान बनाती हैं। उनकी कविताओं में जो लोकोन्मुखता है उसका मुख्य प्रयोजन लोकबंधुत्व और लोक समर्पण की भावना को उभारकर मानव समाज को मनुष्य के रहने योग्य बनाना है । जब तुलसीदास ने कविता को गंगा के समान लोकोद्धारक शक्ति कहा, तो उसके पीछे यहीं मूल उद्देश्य था । नागार्जुन भी अपनी कविता से यहीं काम लेना चाहते थे ।

नागार्जुन ने लोक जीवन को बहुत करीब से देखा ही नहीं है, बल्कि स्वयं जनजीवन को जीया है । वे जीवन के बारे में अपनी राय नही देते है, वरन जीवन की जीती-जागती तस्वीर देते हैं । इसलिए उनकी कविताओं में लोकजीवन का वैविध्य है । लोक जीवन में रचे-बसे नागार्जुन के यहाँ जीवन के कोमल पक्ष से लेकर उसकी विडम्बना और विद्रूपता, ग्रामीण जीवन की सहजता से लेकर नगर जीवन की जटिलता, निर्धनों की फटेहाली से अभिजात्य जीवन की विलासिता और कुटिलता की बेबाक तस्वीर मिलती है। उनकी कविता के व्यापक सामाजिक फलक का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जो संवेदना औरों से अछूती रह जाती है वहां नागार्जुन का लोकह्रदय खूब रमा है। जेल के अमानवीय वातावरण में नेवले की क्रीड़ा, लालू साह का अपनी पत्नी की चिता में अपने को डालकर ‘सती’ हो जाना, यमुना किनारे बैठी मादा सुअर, पका हुआ कटहल और बस सर्विस का बंद हो जाना कुछ ऐसे दुर्लभ और अद्भुत चित्र हैं, जहाँ नागार्जुन की काव्य-प्रतिभा की खूब रमी है । ऐसा वहीं कवि कर सकता है जो लोक जीवन से गहरे स्तर पर जुड़ा है और जो मिट्टी की महक से चिर-परिचित हो । उनके रचना लोक में दृश्यों और घटनाओं की बहुलता हमें केवल विस्मित ही नहीं करती है बल्कि जीवन की वास्तविकता को परत-दर-परत उघाड़कर उसका साक्षात्कार भी कराती हैं । इसप्रकार नागार्जुन की कविताएं हमारे भौगोलिक, प्राकृतिक, जैविक और प्रतिपल घटित मानव व्यवहार का इतिहास हैं और जीवन्त साक्ष्य भी । पका हुआ कटहल का चित्र महज फोटोग्राफी नहीं है, यह जीवन का गतिशीलता का भी प्रमाण है ।

"अह् क्या खूब पका है कटहल
अह् कितना बड़ा है यह कटहल
डाल-डाल में पोर-पोर में कलियों का गुच्छा फूटा
सोया सहजन हंसा ठठाकर"

यहां कटहल देखने का मतलब केवल ‘देखना’ भर नही है, बल्कि इसमें हर इन्द्रिय की सक्रिय उपस्थिति है । नागार्जुन की लोकदृष्टि कटहल को देखकर मानव जीवन की घटनाओं और स्थितियों को भेदकर भीतर तक उतर जाती है ।

नागार्जुन के काव्य में सामान्तया ग्रामीण और जनपदीय परिवेश और उसकी विशिष्टताओं का चित्रण हुआ है, परन्तु दृष्टि की गहराई के कारण वे चित्र पूरे राष्ट्रीय परिवेश और संवेदना का प्रतिविम्ब बन जाते हैं । गाँव या जनपद का जीवन पूरे देश का जीवन बरकर उभर आता हैः-

"याद आता मुझे अपना वह ‘तरउनी’ ग्राम
याद आती लीचियाँ औ ‘आम’
याद आते मुझे मिथिला के रूचिर भूभाग
याद आते धान
याद आते कमल, कुमुदिनी और तालमखान"

यहां लीचियों और आम की रसभरी मिठास ‘तरउनी’ ग्राम से निकलकर पूरे देश को मिठास से भर देती है जबकि कमल, कुमुदिनी और तालमखान की महक पूरे देश में फैल जाती है।

नागार्जुन की कविता में अनुभवों की दुनिया सचमुच विराट है। भारतीय समाज में जितनी विविधता और व्यापकता है, वह नागार्जुन की रचनाशीलता में मौजूद है। समुद्र, जंगल, कस्बा, गाँव, नगर, उपनगर, कल-करखाने, श्मशान, नौटंकी, खेल तमाशे, शहरी मध्यवर्ग, निम्नवर्ग, मजदूर, निपट देहाती, चतुर बुद्धिजीवी, पत्रकार, राजनेता, अध्यापक, कलाकार, आदिवासी क्रांतिकारी, सर्वोदयी कांग्रेसी, विपक्ष, जवान और बूढ़े, शिशु और किशोर, वसंत, पावस, ग्रीष्म, शिशिर, होली-दीपावली, गणतंत्र दिवस, जन्म दिवस, यथार्थ बोध और भावुकता का महामिश्रण नागार्जुन की रचना संसार का अभिन्न अंग है।

ग्रामीण परिवेश में रचे-बसे नागार्जुन ग्रामीण जीवन की पूरी जीवंतता और सम्पूर्णता के साथ अभिव्यक्त करते हैं। नागार्जुन गाँव में रहे है जहाँ संध्या समय खेतों से थके-मादे किसान और मजदूर लौटते दिखाई देते है, जिनके पैरों की बिवाइयाँ फटी हुई हैं और उनके बच्चे गलियों की धूल में नंगे बदन खेल रहे है-

"देर तक टकराए
उस दिन इन आँखों से पैर
भूल नहीं पाऊँगा फ़टी बिवाइयाँ
खूब गई हैं दूधिया निगाहों में
धँस गई कुसुम कोमल मन में"

नागार्जुन की आँखें गाँव की झोपड़ी, अलाव के पास गप्पे मारते, अपने कटु-मधु अनुभवों को सुनाते और फसलों को लेकर विचारगोष्ठी करते बच्चे, जवान और बूढ़े सबसे टकराती हैं । गाँव की पगडंडियों पर सरपट दौड़ते, गायों-बछड़ों के पीछे भागते हलवाहे, चरवाहे और उनके बच्चे दिखाई देते हैं । खेतों में लहलहाती धान की बालियाँ, सरसों की पीली-पीली पंखुडि़याँ और आमों में लगते बौर ऐसे दिखाई देते हैं मानों यह सारी धरती चमकते मोतियों और तारों से पट गई है । एक ओर जहाँ

"दमक रहे हैं
बालों के गुच्छे कि
चमकाए धान के मृदु हरित नवांकुरों को
सीढ़ीनुमा खेतों मेंय्
वहीं दूसरी ओर
गेहूँ की फसलें तैयार हैं
बुला रहीं हैं
किसानों को
‘ले चलो हमें खलिहान में’

कवि इस अद्भुत सौंदर्य को देखकर आसक्त हो जाता है और उसका ‘कुसुम कोमल मन’ जी भरके ‘पकी-सुनहली फसलों की मुस्कान’ निरखता है । इस नैसर्गिक मुस्कान को निरखने के बाद कवि जब गाँव की गलियों में घूमता है तो उसे जीवनदायिनी मधुर संगीत सुनायी पड़ती है और ‘बहुत दिनों के बाद’ जब कवि ‘धान कूटती किशोरियों की कोकिल कंठी तान’ सुनता है तो अपना सुध-बुध खोकर रम जाता है । इस ‘कोकिल कंठी तान’ में रस है, जो प्राणदायी शक्ति है, वह आधुनिक सिनेमा कर्ण-अप्रिय कर्कश ध्वनि में कहाँ है । आचार्य रामचंद्र शुक्ल ऐेसे ही जीवन्त, प्राणदायी और नैसर्गिक संगीत से युक्त लोक को ‘जीवनोत्सव’ के रूप में देखा है ।

लोक जीवन के मधुर और क्रीड़ामय पक्ष के साथ-साथ उसकी विडम्बना ओर त्रासदी भी है, जिसका नागार्जन साक्षात्कार करते हैं। अकाल या भूख मानव जीवन की एक भयानक विडम्बना है क्योंकि क्षुधा-पूर्ति जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। आम जन-जीवन या किसानों एवं मजदूरों, जो अन्न उपजाता है, के जीवन के लिए त्रासदी है । इसके विपरीत जमींदारों, सामंतों और धनलोलुप महाजनों का विलासिता पूर्ण जीवन और गरीबों पर उनका अत्याचार एक अलग तरह की विडम्बना है जो प्रामाणित करती है कि धन की भूख ईंसान को किस प्रकार मानवीय संवेदना से रहित और अमानवीय बना देती है। नागार्जुन के पैनी नजर इन परस्पर विरोधी स्थितियों को आमने-सामने रखकर व्यंग्य के माध्यम से मानवता विरोधी स्थितियों पर प्रहार करते हैं । व्यंग्य परस्पर विरोधी भावों और स्थितियों को आमने-सामने खड़ा करने पर पैदा होता है जिसमें एक पक्ष, जो मानवता का पक्ष होता है, से प्रेम और सहानुभूति होती है और दूसरे पक्ष, जो मानवता विरोधी होता है, से घृणा होती है। व्यंग्य में संवेदना की धार उल्टी होती है । जन से प्रेम और सहानुभूति ही जन-विरोधी स्थितियों और भावों के प्रति घृणा और विक्षोभ में बदल जाती हैं । एक ओर अकाल और भूख के कारण मानव जीवन और उसके साथ रहने वाले जीवों की हालत ही त्रस्त और पस्त नही रहती है बल्कि चूल्हा भी कई दिनों तक नही जलने के कारण रोता हुआ दिखाई देता है और चक्की नही चलने के कारण उदास हो जाती है

"कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोयी उसके पास"

क्योंकि घर में अन्न के दाने नहीं थे, जिसे चूल्हे में पकाया जाता या चक्की से पीसा जाता । अकाल और भूख से इंसान का ही अस्तित्व संकट में नही है बल्कि ‘कानी कुतिया’ भी चुल्हे के पास सोती है और छिपकलयिों और चूहों की हालत भी शिकस्त हो जाती है । दूसरी ओर पूँजीपति जमींदार और धनलोलुप महाजन है जिसके यहाँ-

"वहाँ एक हरियाणवी गाय
फ्रिज वाली घास खाती है
और 45 लीटर दूध देती है रोज
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आए दिन / कोटपति, युवक या अधेड़ पूँजीपुत्र
छिप-छिपकर सेवन करता है
सिंगी और भांगुर मछलियाँ"
अकाल, भूख, महामारी, कुशासन, भ्रष्टाचार और अंत में पुलिस की गोली के दुष्चक्र की अनवरत त्रसदी का शिकार होने वाले गरीबों के प्रति गहरी संवेदना के कारण ही नागार्जुन राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक पाखंडों पर प्रहार करते हैं। उनकी ‘मंत्र’ कविता

ॐ श‌ब्द ही ब्रह्म है..
ॐ श‌ब्द्, और श‌ब्द, और श‌ब्द, और श‌ब्द
ॐ प्रण‌व‌, ॐ नाद, ॐ मुद्रायें
ॐ व‌क्तव्य‌, ॐ उद‌गार्, ॐ घोष‌णाएं
ॐ भाष‌ण‌...
ॐ प्रव‌च‌न‌...
ॐ हुंकार, ॐ फ‌टकार्, ॐ शीत्कार
ॐ फुस‌फुस‌, ॐ फुत्कार, ॐ चीत्कार
ॐ आस्फाल‌न‌, ॐ इंगित, ॐ इशारे
ॐ नारे, और नारे, और नारे, और नारे

ॐ स‌ब कुछ, स‌ब कुछ, स‌ब कुछ
ॐ कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं
ॐ प‌त्थ‌र प‌र की दूब, ख‌रगोश के सींग
ॐ न‌म‌क-तेल-ह‌ल्दी-जीरा-हींग
ॐ मूस की लेड़ी, क‌नेर के पात
ॐ डाय‌न की चीख‌, औघ‌ड़ की अट‌प‌ट बात
ॐ कोय‌ला-इस्पात-पेट्रोल‌
ॐ ह‌मी ह‌म ठोस‌, बाकी स‌ब फूटे ढोल‌

ॐ इद‌मान्नं, इमा आपः इद‌म‌ज्यं, इदं ह‌विः
ॐ य‌ज‌मान‌, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ क‌विः
ॐ क्रांतिः क्रांतिः स‌र्व‌ग्वंक्रांतिः
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः स‌र्व‌ग्यं शांतिः
ॐ भ्रांतिः भ्रांतिः भ्रांतिः स‌र्व‌ग्वं भ्रांतिः
ॐ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ
ॐ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ
ॐ घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ
ॐ निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ

ॐ द‌लों में एक द‌ल अप‌ना द‌ल, ॐ
ॐ अंगीक‌रण, शुद्धीक‌रण, राष्ट्रीक‌रण
ॐ मुष्टीक‌रण, तुष्टिक‌रण‌, पुष्टीक‌रण
ॐ ऎत‌राज़‌, आक्षेप, अनुशास‌न
ॐ ग‌द्दी प‌र आज‌न्म व‌ज्रास‌न
ॐ ट्रिब्यून‌ल‌, ॐ आश्वास‌न
ॐ गुट‌निरपेक्ष, स‌त्तासापेक्ष जोड़‌-तोड़‌
ॐ छ‌ल‌-छंद‌, ॐ मिथ्या, ॐ होड़‌म‌होड़
ॐ ब‌क‌वास‌, ॐ उद‌घाट‌न‌
ॐ मारण मोह‌न उच्चाट‌न‌

ॐ काली काली काली म‌हाकाली म‌हकाली
ॐ मार मार मार वार न जाय खाली
ॐ अप‌नी खुश‌हाली
ॐ दुश्म‌नों की पामाली
ॐ मार, मार, मार, मार, मार, मार, मार
ॐ अपोजीश‌न के मुंड ब‌ने तेरे ग‌ले का हार
ॐ ऎं ह्रीं क्लीं हूं आङ
ॐ ह‌म च‌बायेंगे तिल‌क और गाँधी की टाँग
ॐ बूढे की आँख, छोक‌री का काज‌ल
ॐ तुल‌सीद‌ल, बिल्व‌प‌त्र, च‌न्द‌न, रोली, अक्ष‌त, गंगाज‌ल
ॐ शेर के दांत, भालू के नाखून‌, म‌र्क‌ट का फोता
ॐ ह‌मेशा ह‌मेशा राज क‌रेगा मेरा पोता
ॐ छूः छूः फूः फूः फ‌ट फिट फुट
ॐ श‌त्रुओं की छाती अर लोहा कुट
ॐ भैरों, भैरों, भैरों, ॐ ब‌ज‌रंग‌ब‌ली
ॐ बंदूक का टोटा, पिस्तौल की न‌ली
ॐ डॉल‌र, ॐ रूब‌ल, ॐ पाउंड
ॐ साउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड

ॐ ॐ ॐ
ॐ ध‌रती, ध‌रती, ध‌रती, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌
ॐ अष्ट‌धातुओं के ईंटो के भ‌ट्टे
ॐ म‌हाम‌हिम, म‌हम‌हो उल्लू के प‌ट्ठे
ॐ दुर्गा, दुर्गा, दुर्गा, तारा, तारा, तारा
ॐ इसी पेट के अन्द‌र स‌मा जाय स‌र्व‌हारा
ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त, ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त‌

राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सत्ता के माफियाओं और मठाधीशों का पर्दाफाश करती है। ऐसा करके वे जनता को क्रांतिधर्मी चेतना से युक्त करना चाहते है और ऐसा करने में उन्हे कोई हिचक नही है । वे पूरी साफगोई के साथ घोषणा करने हैं कि

"जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ
जनकवि हूँ मैं साफ कहूँगा क्यों हकलाऊँ"

वे सच्चे अर्थों में जनकवि थे । उनकी लोकबद्धता का इससे बड़ा प्रमाण नही हो सकता है कि भारतीय समाज के सबसे कमजोर और निचले तबके के वर्गों-दलित, आदिवासी और औरत- पर होने वाले अत्याचार और उनके जीवन कष्टों को अपने काव्य में सबसे अधिक स्थान दिया है। बाबा नागार्जुन से पहले बाबा तुलसीदास ने दलितों, आदिवासियों और औरतों की पराधीनता और यातना को बड़े ही मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है। यहीं कारण है कि बाबा तुलसीदास जहाँ लोकवादी है, तो बाबा नागार्जुन जनवादी कवि है। ‘लोक’ और ‘जन’ केवल अलग-अलग शब्द मात्र है अर्थ के स्तर पर समान हैं। नागार्जुन ने जीवन और शास्त्र में से जीवन को चुना क्योंकि वे जीवन को ‘अलभ्य’ मानते हैं । इस अलभ्य जीवन के मुरीद होने के कारण वे 1975 के आन्दोलन में वे खुद जेल भी गए ।

नागार्जुन संस्कृत, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश सभी प्राचीन भाषाओं के जानकार थे और इसके साथ ही भारतीय संस्कृति और परंपरा में भी उनकी गहरी पैठ थी । उनकी रचनाशीलता इस विविधभाषी समृद्ध ज्ञान परंपरा का प्रतिबिम्ब है । लेकिन उनकी दृष्टि किसानों-मजूरो की है और उन्ही की सहज और निश्चल भाषा में जब वे राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक नकलीपन पर व्यंग्य करते हैं तो उसकी मार अत्यंत तीखी हो जाती है। लोक जीवन के बिम्बों को अपने समृद्ध ज्ञान के माध्यम से दोहे जैसे पारंपरिक छंदों का प्रयोग करते हुए जो कविता रचते हैं जो जन संवेदना की जोरदार अभिव्यक्ति बन जाती है। उनकी जीवनधर्मी भाषा उनकी लोकधर्मिता को रचनात्मक रूप प्रदान करती हैं। जब वे ‘बादल’ का चित्रण करते हैं तो वे सदियों से चले आ रहे प्रकृति और मनुष्य के बीच जीवन्त साहचर्य से गुजरते हैं ।

"महामेघ को झंझानिल से, गरज-गरज भीड़ते देखा है
बादल को घिरते देखा है"

बादल के प्रति उनका लगाव ठेठ किसानों और मजदूरों का लगाव है । इसलिए बादल और उससे होने वाली वर्षा नागार्जुन के भीतर रोमांटिक भावनाओं को प्रेरित नही करती है बल्कि उन्हें वहीं सुख और प्रसन्नता होती है जो किसानों को होती है ।

इसीलिए वे सच्चे अर्थो में जनता के प्रति प्रतिबद्ध रचनाकार थे । समसामयिक मुद्दों पर उनकी जो टिप्पणियां हैं, उसका संबंध गहरे सामाजिक राजनीतिक सरोकारों से है। इसी को लक्षित करते हुए आलोचक मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं- "वर्ष 1935-36 से 90 के दशक तक के भारतीय समाज में स्वाधीनता आंदोलन से लेकर आम जनता की बदहाली, तबाही और तंगी के बीच जनता के विद्रोह, प्रतिरोध और सत्ता में संघर्ष का इतिहास अगर आप एक जगह देखना चाहते हैं तो वह नागार्जुन की कविताओें में मौजूद है।"
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