भारतेन्दु हरिश्चन्द्र - जीवन परिचय

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र - जीवन परिचय, कृतियां एवं भाषा शैली

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (Bhartendu Harishchandra)

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र हिन्दी गद्य के ही नहीं अपितु आधुनिक काल के जनक कहे जाते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी भारतेन्दु जी ने साहित्य के विविध क्षेत्रों में मौलिक एवं युगान्तकारी परिवर्तन किए और हिन्दी साहित्य को नवीन दिशा प्रदान की। नवयुग के प्रवर्तक भारतेन्दु जी का हिन्दी साहित्याकाश में उदय ने निश्चय ही उस पूर्णचन्द्र की भांति हुआ जिसकी शान्त, शीतल, कान्तिमयी आभा से दिग्वधुएं आलोकित हो उठती है। निश्चय ही उनकी उपाधि 'भारतेन्दु' सार्थक एवं सटीक है।

जीवन-परिचय

भारतेन्दु बाबु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी में सन् 1450 ई. में हुआ। इनके पिता गोपालचन्द्र भी एक अच्छे कवि थे और 'गिरधरदास' उपनाम से ब्रजभाषा में काव्य रचना करते थे। पांच वर्ष की अवस्था में ही भारतेन्दु के सिर से मां की ममता का साया उठ गया और दस वर्ष का होते-होते पिता भी चल बसे, अतः आपकी प्रारम्भिक शिक्षा सुचारु रूप से न चल सकी। घर पर ही उन्होंने हिन्दी, उर्दू, बंगला एवं अंग्रेजी भाषाओं का अध्ययन किया और बनारस के क्वींस कॉलेज में प्रवेश लिया, परन्तु काव्य रचना की ओर विशेष रुचि होने के कारण अन्ततः आपने कॉलेज छोड़ दिया। भारतेन्दु जी का विवाह १३ वर्ष की अल्पायु में 'मन्नों देवी' के साथ हुआ था।

भारतेन्दु जी एक प्रतिष्ठित एवं धनाढ्य परिवार से सम्बन्धित थे, किन्तु उन्होंने अपनी सम्पत्ति उदारता, दानशीलता एवं परोपकारी वृत्ति के कारण मुक्तहस्त होकर लुटाई। साहित्य एवं समाज सेवा के प्रति आप पूर्ण रूप से समर्पित थे। जो भी व्यक्ति इनके पास सहायता माँगने जाता था, उसे खाली हाथ नहीं लौटना पड़ा। परिणाम यह हुआ कि भारतेन्दु जी ऋणग्रस्त हो गए और क्षय रोग से पीड़ित हो गए अन्ततः इसी रोग के चलते सन् 1885 ई. में आपका स्वर्गवास हो गया।

कृतियां

भारतेन्दु जी की प्रमुख कृतियों का विवरण निम्न प्रकार है :
  1. काव्य संग्रह - (१) प्रेम सरोवर, (२) प्रेम तरंग, (३) भक्त-सर्वस्व, (४) भारत-वीणा, (५) सतसई-शृंगार, (६) प्रेम-प्रलाप, (७) प्रेम फुलवारी, (८) वैजयन्ती आदि।
  2. कथा साहित्य - (१) मदालसोपाख्यान, (२) हमीर हठ, (३) सावित्री चरित्र, (४) कुछ आप बीती,कुछ जग बीती आदि।
  3. निबन्ध-संग्रह - (१) सुलोचना, (२) परिहास वंचक, (३) लीलावती, (४) दिल्ली दरबार दर्पण, (५) मदालसा।
  4. यात्रा वृत्तान्त - (१) सरयूपार की यात्रा, (२) लखनऊ की यात्रा।
  5. जीवनियां - (१) सूरदास की जीवनी, (२) जयदेव, (३) महात्मा मुहम्मद।
  6. नाटक -
    1. मौलिक: (१) सत्य हरिश्चन्द्र, (२) नील देवी, (३) श्री चन्द्रावली, (४) भारत दुर्दशा (५) अन्धेर नगरी (६) वैदिकी मिति (७) पण विषमाम्, (८) सती प्रताप, (९) प्रेम योगिनी।
    2. अनूदित: (१) विधा सुन्दर (२) धुन्ध, (३) नाव, (८) मुद्राराक्षस, (५) भारत जनः (६) पाखण्ड विडम्वन, (७) कर्पूर मंजरी, (८) धनंजय विजय

भाषागत विशेषताएं

भारतेन्दु जी ने कार्य में तो ब्रजभाषा का प्रयोग किया, किन्तु उनकी गद्य रचना परिष्क्रत खड़ी बोली हिन्दी में लिखी गई हैं। उनकी भाषा में अङ्ग्रेज़ी व उर्दू के प्रचलित शब्दों का प्रयोग हुआ है । साथ ही उसमें लोकोक्तियों एवं मुहावरों का भी प्रयोग किया गया है। उन्होंने भाषा को सरल, सहज एवं सुबोध बनाने पर विशेष ध्यान दिया जिससे वह जन सामान्य की समझ में आ सके। आलंकारिक शब्दों के प्रयोग ने आपकी भाषा को सुन्दर बनाने में विशेष योगदान दिया है।

शैलीगत विशेषताएं

भारतेन्दु जी की शैली विषय के अनुरूप बदलती रही है परिणामतः उनकी रचना में शैली के विविध रूप उपलब्ध होते हैं। यथा :
  1. वर्णनात्मक शैली - इस शैली का प्रयोग प्राय: इतिहास ग्रन्थों एवं निवन्धों में घटना, वस्तु एवं परिस्थिति का वर्णन करने के लिए उन्होंने किया है। 'दिल्ली-दरबार दर्पण' में इस शैली को देखा जा सकता है।
  2. विवरणात्मक शैली - भारतेन्दु जी ने 'सरयू पार की यात्रा' एवं 'लखनऊ की यात्रा' जैसे यात्रावृत्तों में इस शैली का उपयोग किया है। वस्तु एवं तथ्य का सूक्ष्म विवरण इस शैली में उन्होंने प्रस्तुत किया है।
  3. विचारात्मक शैली - 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती हैं' नामक निबन्ध भारतेन्दु जी ने विचारात्मक शैली में लिखा है। इस शैली में विचारों की गम्भीरता एवं विश्लेषण शक्ति विद्यमान रहती हैं। वाक्य विन्यास सुगठित एवं विचारों से युक्त रहता है।
  4. भावात्मक शैली - इस शैली का उपयोग भारतेन्दु जी ने जीवनी साहित्य एवं नाटकों में किया है। 'भारत दुर्दशा, जयदेव की जीवनी, सूरदास की जीवनी' आदि में इस शैली का प्रयोग दिखाई पड़ता है। यह लेखक का हृदय पक्ष अधिक मुखरित हुआ है।
  5. व्यंग्यात्मक शैली - भारतेन्दु जी ने अपने नाटकों में तथा निबन्धों के बीच-बीच में इस शैली का उपयोग किया है। 'हमारे हिन्दुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी हैं।' इस कथन में हिन्दुस्तानियों की दशा पर व्यंग्य किया गया है। कुशल नेतृत्व के अभाव में वे जहां के तहां उसी तरह खड़े हैं जैसे इंजन के अभाव में रेल।
  6. हास्यपूर्ण शैली - हास्यपूर्ण शैली का प्रयोग भारतेन्दु जी ने अपने नाटकों में किया है। विशेष रूप से 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, अन्धेर नगरी' में हास्य-व्यंग्य की प्रधानता है। निबन्धों में भी यत्र-तत्र इस शैली के दर्शन होते हैं। समाज की रूढ़ियों, अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों पर वे करारे व्यंग्य करते हैं।

हिन्दी साहित्य में स्थान

भारतेन्दु जी युग निर्माता साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित रहे हैं। वे हिन्दी गद्य के जनक के रूप में जाने जाते हैं। हिन्दी भाषा को गद्य की परिष्कृत भाषा बनाने में उनका योगदान अविस्मरणीय है। साहित्य की विविध विधाओं को प्रारम्भ करने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हिन्दी को विकसित कर एक लोकप्रिय भाषा बनाने में तथा विविध गद्य विधाओं का सूत्रपात कर उन्हें समृद्ध बनाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

भारतेन्दु हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक थे। उनका मत है कि अपनी भाषा की उन्नति ही सब प्रकार की उन्नति का मूल है :
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिनु निजभाषा ज्ञान के मिटे न हिय को सूल।।
सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा है :
भारतेन्दु कर गए भारती की बीणा निर्माण।
किया अमर स्पशों ने जिसका बहु विधि स्वर संधान।।
भारतेन्दु जी एक युग निर्माता साहित्यकार थे। उनकी प्रतिभा बहमुखी थी। उन्होंने हिन्दी साहित्य की जो आधारशिला तैयार की, उसी पर आज हिन्दी का भव्य भवन निर्मित हुआ है।

"भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काव्य में शृंगार एवं प्रेम का मधुर चित्रण है।" 

भारतेन्दु आधुनिक काल के सर्वाधिक सशक्त कवि है जिनके नाम पर हिन्दी कविता के एक कालखण्ड का नाम भारतेन्दु युग पड़ा है। मूलतः वे प्रेम और शृंगार के कवि हैं, यद्यपि उनकी कविता में भक्ति भावना एवं राष्ट्रीय भावना भी मिल जाती है। राधा-कृष्ण की लीलाओं के अन्तर्गत उन्होंने नायक-नायिका के सौन्दर्य का एवं उनकी काम-क्रीडाओं का मनोहारी चित्रण किया है। यहां उनके शृंगार वर्णन की कुछ विशेषताएं दी जा रही हैं।

वयः सन्धि का चित्रण

नायिका वयः सन्धि की अवस्था को प्राप्त कर चुकी है। शैशव अभी शरीर से गया नहीं है किन्तु यौवन ने पदार्पण कर दिया है। इस अवस्था ने मन को भी बदल दिया है। अब वह अपने प्रिय से आँखें मिलाने लगी है :
सिसुताई अजौ न गई तन तें तऊ जोवन जोति बटोरैं लगी।
सुनि के चरचा हरिचन्द्र की कान कछुक दै भौंह मरोरैं लगी।

श्रृंगार वर्णन

भारतेन्दु ने शृंगार वर्णन के अन्तर्गत नख-शिख वर्णन, नायिका भेद, प्रेम क्रीड़ा आदि का सुन्दर चित्र अंकित किया है। प्रिय के गले से लिपटी नायिका उसके अधरामृत का पान निधड़क होकर कर रही है:
निधरक पियत अधर रस उमगी तऊ न नेकु अघाई।
हरीचन्द रस सिन्यु तरंगन अवगाहत सुख पाई।।

रूप वर्णन

नायक एवं नायिका के रूप का वर्णन भारतेन्दु जी ने किया है। श्रीकृष्ण का रूप इतना आकर्षक है कि उसके सम्मोहन में सारा ब्रज बँधा हुआ है। एक सखी कहती है:
एक बेर नैन भरि देखे जाहि मोहे तीन
मच्यौ ब्रज गांव ठाँव-ठाँव में कहर है।
या में सन्देह कछु दैया हौं पुकारि कहौं,
भैया की सौं मैया री कन्हैया जादूगर है।

वियोग वर्णन

भारतेन्दु जी ने वियोग वर्णन के अन्तर्गत पूर्वराग, प्रवास, वियोग शृंगार आदि के मधुर चित्र अंकित किए हैं। नायिका के नेत्र कृष्ण को देखे बिना चैन नहीं पाते। वह कहती हैं-
यह संग में लागिए डोलैं सदा बिन देखें न धीरजु आनती है।
पिय प्यारे, तिहारे निहारे बिना अंखियाँ दुखिया नहिं मानती हैं।।

राष्ट्रीय भावना

भारतेन्दु जी के काव्य में भारतवासियों की पीड़ा एवं स्वातव्य चेतना भी दिखाई पडती है। भारत दुर्दशा का मार्मिक चित्रण उन्होंने अपने काव्य में किया है। अंग्रेज शासक किस प्रकार भारत का शोषण कर रहे हैं। इस पर दुःख व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं :
आबहु सब मिलि रोबहु भारत भाई।
हा-हा भारत दुर्दशा न देखी जाई।।
अंग्रेजों के शासन में हमारा धन विदेशों को जा रहा है-
अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेस चलि जात यहै अति ख्वारी।।

भक्ति भावना

भारतेन्दु जी राधा-कृष्ण के भक्त थे। वे कहते हैं कि मैं तो श्रीकृष्ण का सखा और राधा का सेवक हूं। वे राधा से प्रार्थना करते हुए कहते हैं :
श्री राधे मोहि अपुनो कब करिहौ।
हरीचन्द कब भव बूड़त ते भुज धरि धाइ उबरिहो।

कला पक्ष

भारतेन्दु जी के काव्य का कला पक्ष भी उच्चकोटि का है। उसमें रस, अलंकार एवं गेयता भी है। उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास उन्हें विशेष प्रिय है। यथा-
  • तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए। - अनुप्रास
  • झुके कूल सों जल परसत हित मनहु सुहाये। - उत्प्रेक्षा
  • के तरंग की डोर हिंडोरन करत कलौलें।सन्देह
भारतेन्दु ने ब्रजभाषा एवं खडी बोली का प्रयोग अपने काव्य में किया है। उन्होंने अनेक छन्दों में काव्य रचना की है। उनकी कविता में श्रृंगार रस की प्रधानता है। समग्र रूप से कहा जा सकता है कि भारतेन्दु की कावता प्रेम और शृंगार की कविता है। वे हिन्दी के सशक्त कवि माने जाते हैं।

भारतेन्द हरिश्चन्द्र की रचना 'यमुना छबि कविता के काव्य-सौन्दर्य ।

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र द्वारा वर्णित 'यमुना-छबि' नामक अंश चन्द्रावली नाटिका से लिया गया है। इसमें ललिता सखी द्वारा युमना के सौन्दर्य का वर्णन कुल "नौ" (9) छप्पयों में किया गया है। इन्हीं में से छ: छन्द 'काव्यांजलि' में संकलित किए गए हैं। 'यमुना छबि' में प्रकृति का आलम्बन रूप में चित्रण किया गया है। इस वर्णन में चित्रोपमता एवं आलंकारिकता का समावेश है तथा कवि ने विविध कल्पनाओं के माध्यम से जो चित्रण किया है, वह अत्यन्त हृदयस्पर्शी बन पड़ा है। इस कविता की विशेषताओं का निरूपण निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है:

प्रकृति का आलम्बन रूप में चित्रण

जब प्रकृति को आलम्बन बनाकर कविता लिखी जाती है तब वहां आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण होता है। यहां यमुना तट पर खड़े हुए तमाल के वृक्ष कैसे लग रहे हैं इसका चित्रण कवि ने किया है। यमुना की ओर झुके हुए ये तमाल के वृक्ष किनारे पर खड़े ऐसे प्रतीत हो रहे हैं मानो ये यमुना जल में अपना प्रतिबिम्ब देख रहे हों :
तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
झुके कूल सों जल परसन हित मनहें सुहाए।
कियों मुकुर में लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा।।

वर्णन में चित्रोपमता

भारतेन्दु जी के प्रकृति वर्णन में चित्रोपमता का गुण विद्यमान है। यमुना के किनारे खड़े वृक्ष तथा यमुना में पड़ते हुए चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब कैसा लग रहा है इसका चित्र सा पाठकों के समक्ष उपस्थित हो जाता है। इस चित्रोपमता से कविता में बिम्बात्मकता का समावेश भी हो गया हा ऐसा लगता है मानो चंचल लहरें चन्द्रमा को साथ में लेकर नृत्य कर रही हैं :
परत चन्द्र प्रतिबिम्ब कहूँ जल मधि चमकायो।
लोल लहर लहि नचत कबहूँ सोई मन भायो।
मनु हरि दरसन हेत चन्द्र जल बसत सुहायो।
के तरंग कर मुकुर लिए सोभित छबि छायो।

कला सौष्ठव

'यमुना छबि' का चित्रण करते समय कवि ने अपनी काव्य कला का उत्कृष्ट नमूना प्रस्तुत किया है। यहां अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, सन्देह एवं मानवीकरण अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया गया है। यथा-
  • "तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए" - अनुप्रास अलंकार
  • "किधी मुकर में लखत उझकि सब निज-निज सोभा" - मानवीकरण एवं सन्देह अलंकार
  • "मनु हरि दरसन हेत चन्द्र जल बसत सुहायो" - उत्प्रेक्षा अलंकार
भारतेन्दु जी ने इस कविता में कोमलकान्त मधुर पदावली से युक्त ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। उनकी भाषा भावों को व्यक्त करने में पूर्ण सफल हैं। इस कविता में प्रयुक्त छन्द छ: पंक्तियों वाला छप्पय छन्द है। जो मूलतः वीर रस में प्रयुक्त होता है किन्तु यहां प्रकृति चित्रण में कवि ने इसका प्रयोग किया है।

भारतेन्दु युग के महत्वपूर्ण तथ्य:-

  • भारतेन्दु युग का नामकरण हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाम पर किया गया है।
  • भारतेन्दु युग की प्रवृत्तियाँ थीं- (1) नवजागरण (2) सामाजिक चेतना (3) भक्ति भावना (4) श्रृंगारिकता (5) रीति निरूपण (6) समस्या-पूर्ति।
  • भारतेन्दु युग में भारतेन्दु को केन्द्र में रखते हुए अनेक साहित्यकारों का एक उज्ज्वल मंडल प्रस्तुत हुआ, जिसे 'भारतेन्दु मण्डल' के नाम से जाना गया। इसमें भारतेन्दु के समानधर्मा रचनाकार थे। इस मंडल के रचनाकारों ने भारतेन्दु से प्रेरणा ग्रहण की और साहित्य की श्रीवृद्धि का काम किया।
  • भारतेन्दु मंडल के प्रमुख रचनाकार हैं- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमघन', बाल कृष्ण भट्ट, अम्बिका दत्त व्यास, राधा चरण गोस्वामी, ठाकुर जगमोहन सिंह, लाला श्री निवास दास, सुधाकर द्विवेदी, राधा कृष्ण दास आदि।
  • भारतेन्दु मण्डल के रचनाकारों का मूल स्वर नवजागरण है।
  • नवजागरण की पहली अनुभूति हमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाओं में मिलती है।
  • भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिता गोपाल चन्द्र 'गिरिधर दास' अपने समय के प्रसिद्ध कवि थे।
  • भारतेन्दु युगीन नवजागरण में एक ओर राजभक्ति (ब्रिटिश शासन की प्रशंसा) है तो दूसरी ओर देशभक्ति (ब्रिटिश शोषण का विरोध) ।
  • सामाजिक चेतना के चित्रण में कुछ कवियों की दृष्टि सुधारवादी थी तो कुछ कवियों की यथास्थितिवादी।
  • भारतेन्दु युग में नारी शिक्षा, विधवाओं की दुर्दशा, छुआछूत आदि को लेकर सहानुभूतिपूर्ण कविताएं लिखी गयीं।
  • भारतेन्दु युगीन कवियों ने जनता की समस्याओं का व्यापक रूप से चित्रण किया।
  • भारतेन्दु युगीन भक्ति अन्य युगों की भाँति भक्ति-संप्रदाय निर्धारित भक्ति नहीं है। एक ही रचनाकार सगुण और निर्गुण दोनों तरह के पद रचते हैं।
  • इस युग की भक्ति रचना की विशेषता यह थी निर्गुण और सगुण भक्ति में सगुण भक्ति ही मुख्य साधना दिशा थी और सगुण भक्ति में भी कृष्ण भक्ति काव्य अधिक परिमाण में रचे गये।
  • भारतेन्दु युगीन कवियों ने श्रृंगार चित्रण में भक्ति कालीन कृष्ण काव्य परम्परा, रीतिकालीन नख-शिख, नायिका भेदी परम्परा तथा उर्दू कविता से सम्पर्क के फलस्वरूप प्रेम की वेदनात्मक व्यंजना को अपनाया।
  • भारतेन्दु युगीन कवि सेवक, सरदार, लछिराम आदि ने रीतिकालीन पद्धति को अपनाया।
  • रीति निरूपण के क्षेत्र में सेवक, सरदार, हनुमान, लछिराम वाली धारा सक्रिय रही।
  • रीति निरूपण की तरह समस्या पूर्ति भी रीतिकालीन काव्य-प्रवृत्ति थी जिसे भारतेन्दु युगीन कवियों ने नया रूप दिया तथा इसे सामंतोन्मुख के स्थान पर जनोन्मुख बनाया।
  • कविता को जनोन्मुख बनाने का सबसे अधिक श्रेय समस्या पूर्ति को ही है।
  • भारतेन्दु 'कविता वर्धिनी सभा' के जरिये समस्यापूर्तियों का आयोजन करते थे। इसकी देखा-देखी कानपुर के 'रसिक समाज', आजमगढ़ के 'कवि समाज' ने समस्या पूर्ति के सिलसिले को आगे बढ़ाया।
  • भारतेन्दु युग में प्रबंध काव्य कम लिखे गये और जो लिखे गये वे प्रसिद्ध नहीं प्राप्त कर सके। मुक्तक कविताएँ ज्यादा लोकप्रिय हुई।
  • भारतेन्दु ने उन मुक्तक काव्य-रूपों का पुनरुद्धार किया जिन्हें अमीर खुसरो के बाद लगभग भूला दिया गया था। ये हैं पहेलियाँ और मुकरियाँ।
  • भारतेन्दु युग में भाषा के क्षेत्र में द्वैत वर्तमान रहा-पद्य के लिए बज्रभाषा और गद्य के लिए खड़ी बोली। हिन्दी गद्य की प्रायः सभी विधाओं का सूत्रपात भारतेन्दु युग में हुआ।
  • समग्रत : भारतेन्दु युगीन काव्य में प्राचीन व नयी काव्य प्रवृत्तियों का मिश्रण मिलता है। इसमें यदि एक ओर खुसरो कालीन काव्य प्रवृत्ति पहेली व मुकरियां, भक्ति कालीन काव्य प्रवृत्ति भक्ति भावना, रीतिकालीन काव्य प्रवृत्तियाँ श्रृंगारिकता, रीति निरूपण, समस्यापूर्ति जैसी पुरानी काव्य प्रवृत्तियाँ मिलती है तो दूसरी ओर राज भक्ति, देश भक्ति, देशानुराग की भक्ति, समाज सुधार, अर्थनीति का खुलासा, भाषा प्रेम जैसी नयी काव्य प्रवृत्तियाँ भी मिलती हैं।

प्रसिद्ध पंक्तियाँ:-

रोवहु सब मिलि, आवहु 'भारत भाई' ।
हा! हा! भारत-दुर्दशा न देखी जाई।। -भारतेन्दु

कठिन सिपाही द्रोह अनल जा जल बल नासी।
जिन भय सिर न हिलाय सकत कहुँ भारतवासी।। -भारतेन्दु

यह जीय धरकत यह न होई कहूं कोउ सुनि लेई।
कछु दोष दै मारहिं और रोवन न दइहिं।। -प्रताप नारायण मिश्र

अमिय की कटोरिया सी चिरजीवी रहो विक्टोरिया रानी। -अंबिका दत्त व्यास

अँगरेज-राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।। -भारतेन्दु

भीतर-भीतर सब रस चूसै, हँसि-हँसि के तन-मन-धन मूसै।
जाहिर बातन में अति तेय, क्यों सखि सज्जन! नही अंगरेज।। -भारतेन्दु

सब गुरुजन को बुरा बतावैं, अपनी खिचड़ी अलग पकावै।
भीतर तत्व न, झूठी तेजी, क्यों सखि साजन नहिं अँगरेज़ी।। -भारतेन्दु

सर्वसु लिए जात अँगरेज़,
हम केवल लेक्चर के तेज। -प्रताप नारायण मिश्र

अभी देखिये क्या दशा देश की हो,
बदलता है रंग आसमां कैसे-कैसे -प्रताप नारायण मिश्र

हम आरत भारत वासिन पे अब दीनदयाल दया कीजिये। -प्रताप नारायण मिश्र

हिन्दू मुस्लिम जैन पारसी इसाई सब जात।
सुखि होय भरे प्रेमघन सकल 'भारती भ्रात'। -बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमघन'

कौन करेजो नहिं कसकत,
सुनि विपत्ति बाल विधवन की। -प्रताप नारायण मिश्र

हे धनियों !क्या दीन जनों की नहीं सुनते हो हाहाकार।
जिसका मरे पड़ोसी भूखा उसके भोजन को धिक्कार। -बाल मुकुन्द गुप्त

बहुत फैलाये धर्म, बढ़ाया छुआछूत का कर्म। -भारतेन्दु

सभी धर्म में वही सत्य, सिद्धांत न और विचारो। -भारतेन्दु

परदेशी की बुद्धि और वस्तुन की कर आस।
परवस है कबलौ कहौं रहिहों तुम वै दास।। -भारतेन्दु

तबहि लख्यौ जहँ रहयो एक दिन कंचन बरसत।
तहँ चौथाई जन रूखी रोटिहुँ को तरसत।। -प्रताप नारायण मिश्र

सखा पियारे कृष्ण के गुलाम राधा रानी के। -भारतेन्दु

साँझ सवेरे पंछी सब क्या कहते हैं कुछ तेरा है।
हम सब इक दिन उड़ जायेंगे यह दिन चार बसेरा है। -भारतेन्दु

समस्या : आँखियाँ दुखिया नहीं मानति है
समस्या पूर्ति : यह संग में लागिये डोले सदा
बिन देखे न धीरज आनति है
प्रिय प्यारे तिहारे बिना
आँखियाँ दुखिया नहीं मानति है। -भारतेन्दु की एक समस्यापूर्ति

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल।। -भारतेन्दु

अँगरेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन को हीन।। -भारतेन्दु

पढ़ि कमाय कीन्हों कहा, हरे देश कलेस।
जैसे कन्ता घर रहै, तैसे रहे विदेस।। -प्रताप नारायण मिश्र

चहहु जु साँचहु निज कल्याण, तौ सब मिलि भारत सन्तान।
जपो निरन्तर एक जबान, हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान।। -प्रताप नारायण मिश्र

भारतेन्दु ने गद्य की भाषा को परिमार्जित करके उसे बहुत ही चलता, मधुर और स्वच्छ रूप दिया। उनके भाषा संस्कार की महत्ता को सब लोगों ने मुक्त कंठ से स्वीकार किया और वे वर्तमान हिन्दी गद्य के प्रवर्तक माने गए। -रामचन्द्र शुक्ल

'भारतेन्दु ने हिन्दी साहित्य को एक नये मार्ग पर खड़ा किया।
वे साहित्य के नये युग के प्रवर्तक हुए।' -रामचन्द्र शुक्ल

इन मुसलमान जनन पर कोटिन हिंदू बारहि -भारतेन्दु
(रसखान आदि की भक्ति पर रीझकर)

आठ मास बीते जजमान
अब तो करो दच्छिना दान -प्रताप नारायण मिश्र

'साहित्य जन-समूह के हृदय का विकास है' । -बालकृष्ण भट्ट

'हिन्दी नयी चाल में ढली, सन् 1873 ई० में। -भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

भारतेन्दुयुगीन रचना एवं रचनाकार :-

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र   - प्रेम मालिका, प्रेम सरोवर, गीत गोविन्दानन्द, वर्षा-विनोद, विनय-प्रेम, पचासा, प्रेम-फुलवारी, वेणु-गीति, दशरथ विलाप, फूलों का गुच्छा (खड़ी बोली में)

बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमघन' - जीर्ण जनपद, आनन्द अरुणोदय, हार्दिक हर्षादर्श, मयंक महिमा, अलौकिक लीला, वर्षा-बिन्दु, लालित्य लहरी, बृजचन्द पंचक

प्रताप नारायण मिश्र  -  प्रेमपुष्पावली, मन की लहर, लोकोक्ति शतक, तृप्यन्ताम, श्रृंगार विलास, दंगल खंड, ब्रेडला स्वागत

जनमोहन सिंह   -  प्रेमसंपत्ति लता, श्यामलता, श्यामा-सरोजिनी, देवयानी, ऋतु संहार (अ०), मेघदूत (अ०)

अम्बिका दत्त व्यास  - पावस पचासा, सुकवि सतसई, हो हो होरी

राधा कृष्ण दास  - कंस वध (अपूर्ण), भारत बारहमासा, देशदशा

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अलंकारों की इन्द्रधनुषी छटा और भावपूर्ण वर्णन के कारण 'यमुना छबि' एक सुन्दर कविता बन पड़ी है जो भारतेन्दु की काव्य प्रतिभा की परिचायक है।

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