हिन्दी नाटक
प्राचीन हिन्दी नाटक:-
हिन्दी साहित्य में नाटक का विकास आधुनिक युग में ही हुआ है। इससे पूर्व हिन्दी के जो नाटक मिलते हैं, वे या तो नाटकीय काव्य हैं अथवा संस्कृत के अनुवाद मात्र या नाम के ही नाटक हैं, क्योंकि उनमें नाट्यकला के तत्वों का सर्वथा अभाव है, जैसे नेवाज का ‘शकुन्तला’, कवि देव का ‘देवमायाप्रपंच’, हृदयराम का
‘हनुमन्नाटक’ राजा जसवन्तसिंह का ‘प्रबोधचन्द्र चन्द्रोदय’ नाटक आदि। रीवां नरेश विश्वनाथ सिंह का ‘आनन्द रघुनन्दन’ नाटक हिन्दी का प्रथम मौलिक नाटक माना जाता है। जो लगभग 1700 ई. में लिखा गया था, किन्तु एक तो उसमें ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है, दूसरे वह रामलीला की पद्धति पर है। अतः वह भी आधुनिक नाट्यकला से सर्वथा दूर है। हिन्दी साहित्य के आदि और मध्य युग में गद्य अत्यन्त अविकसित स्थिति में था और अभिनयशालाओं का सर्वथा अभाव था। अस्तु, हिन्दी साहित्य के आदि और मध्य युग में नाट्यकला का विकास न हो सका, जबकि हिन्दी लेखकों के सम्मुख संस्कृत की नाट्यकला अत्यन्त विकसित और उन्नत अवस्था में विद्यमान थी। आधुनिक युग में हिन्दी नाटक का सम्पर्क अंग्रेजी से स्थापित हुआ। अंग्रेज लोग नाट्यकला और मनोरंजन में अत्यधिक रुचि रखते थे और साहित्य में नाटकों की रचना भी प्रभूत मात्रा में हो चुकी थी। इसके साथ ही इस युग में हिन्दी-गद्य भी स्थिर हो गया और उसमें अभिव्यंजना शक्ति का भी विकास हो गया। इसलिए हिन्दी-नाट्यकला को पनपने का समुचित अवसर इसी युग में आकर प्राप्त हुआ।आधुनिक हिन्दी नाटक:-
आधुनिक काल की अन्य गद्य-विधाओं के ही समान हिन्दी नाटक का भी आरम्भ पश्चिम के संपर्क का फल माना जाता है। भारत के कई भागों में अंग्रेजों ने अपने मनोरंजन के लिए नाट्यशालाओं का निर्माण किया जिनमें शेक्सपीयर तथा अन्य अंग्रेजी नाटककारों के नाटकों का अभिनय होता था। उधर सर विलियम जोन्स ने फोर्ट विलियम कॉलेज में संस्कृत के ‘अभिज्ञान शाकुन्तलं’ के हिन्दी अनुवाद के अभिनय की भी प्रेरणा दी। इस बीच ‘अभिज्ञान शाकुन्तलं’ के कई हिन्दी अनुवाद हुए जिनमें राजा लक्ष्मण सिंह का अनुवाद आज भी महत्वपूर्ण माना जाता है। सन् 1859 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिता बाबू गोपालचन्द्र ने ‘नहुष’ नाटक लिखा और उसको रंगमंच पर प्रस्तुत किया। इधर पारसी नाटक कम्पनियां नृत्य : संगीत प्रधान, नाटकों को बड़े धूम-धड़ाके से प्रस्तुत कर रही थी जिससे सुरुचि सम्पन्न तथा साहित्यिक गुणों के खोजी हिन्दी-साहित्यकार क्षुब्ध थे। इस सबसे प्रेरित होकर भारतेन्दु बाबू ने जनता की रुचि का परिष्कार करने के लिए स्वयं अनेक नाटक लिखे और अन्य लेखकों को नाट्य साहित्य की रचना के लिए प्रोत्साहित किया।
अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हिन्दी-नाट्यकला के विकास को चार कालों में बाँटा जा सकता है :
(१) भारतेन्दुयुगीन नाटक : 1850 से 1900 ई.
(२) द्विवेदी युगीन नाटक : 1901 से 1920 ई.
(३) प्रसाद युगीन नाटक : 1921 से 1936 ई.
(४) प्रसादोत्तर युगीन नाटक : 1937 से अब तक
भारतेन्दु-युगीन नाटक :-
हिन्दी में नाट्य साहित्य की परम्परा का प्रवर्त्तन भारतेन्दु द्वारा होता है। भारतेन्दु युग नवोत्थान का युग था। भारतेन्दु देश की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक दुर्दशा से आहत थे। अतः साहित्य के माध्यम से उन्होंने समाज को जाग्रत करने का संकल्प लिया। समाज को जगाने में नाटक सबसे प्रबल सिद्ध होता है। भारतेन्दु ने इस तथ्य को पहचाना और नैराश्य के अन्धकार में आशा का दीप जलाने के लिए प्रयत्नशील हुए। युग-प्रवर्त्तक भारतेन्दु ने अनूदित/मौलिक सब मिलाकर सत्रह नाटकों की रचना की, जिनकी सूची इस प्रकार है :
(1) विद्यासुन्दर (1868), (2) रत्नावली (1868), (3) पाखण्ड विखंडन (1872), (4) वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (1873),
(5) धनंजय विजय (1873), (6) प्रेम जोगिनी, (1874), (7) सत्यहरिश्चन्द्र (1875), (8) मुद्राराक्षस (1875),
(9) कर्पूर मंजरी (1876), (10) विषस्य विषमोषधम् (1876), (11) श्री चन्द्रावली (1875), (12) भारत-दुर्दशा (1876),
(13) भारत जननी (1877) (14) नीलदेवी (1880), (15) दुर्लभ-बन्धु (1880), (16) अन्धेर नगरी (1881), (17) सती प्रताप (1884)।
मौलिक नाटक:-
भारतेन्दु जी की मौलिक कृतियों में वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, प्रेमयोगिनी, विषस्य विषमोषधम्, चन्द्रावली, भारत दुर्दशा, नीलदेवी, अंधेर नगरी तथा सती प्रताप हैं। वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, प्रेम योगिनी और पाखण्ड विखंडन में धार्मिक रूढ़ियों और विडम्बनाओं से ग्रस्त समाज के पाखण्ड, आडम्बर, भ्रष्टाचार आदि का नाटकीय आख्यान हुआ है। ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ में ऊपर से सफेदपोश दिखने वाले धर्मात्माओं के साथ ही तत्कालीन देशी नरेशों और मंत्रियों के व्यभिचार की पोल खोली गयी है। अपने युग की धार्मिक स्थिति के प्रति जो तीव्र आक्रोश नाटककार में है, वही उसकी अपूर्ण नाटिका ‘प्रेमयोगिनी’ में प्रस्तुत हुआ है। ‘पाखण्ड विखंडन’ में हिन्दुओं के सन्त-महन्तों की हीन दशा का चित्रण हुआ है। इस प्रकार धार्मिक पाखण्डों का खण्डन करना ही इन नाटकों का मूल स्वर रहा है।
भारतेन्दु-युग में अंग्रेजों ने बहुत से राजाओं से उनका शासन छीन कर उनका राज्य अपने अधीन कर लिया था। अंग्रेजों की इस नीति की प्रशंसा पर गुलामी के भय के द्वन्द्व की परिकल्पना ‘विषस्य विषमौषध म्’ प्रहसन में साकार हो उठी है। देशोद्धार की भावना का संघर्ष भारतेन्दु जी के ‘भारत जननी’ और ‘भारत दुर्दशा’ में घोर निराशा के भाव के साथ प्रस्तुत होता है। ‘भारत दुर्दशा’ में भारत के प्राचीन उत्कर्ष और वर्तमान अधःपतन का वर्णन निम्नलिखित पंक्तियों में मिलता है :
रोअहु सब मिलि, आवहु भारत भाई।
हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।।
भारतेन्दु ने राजनीतिक संघर्ष की पृष्ठभूमि पर नौकरशाही की अच्छी आलोचना करते हुए ‘अंधेर नगरी’ प्रहसन लिखा है। ‘अन्धेर नगरी’ के चौपट राजा को फांसी दिलाकर नाटककार कामना करता है कि कभी इस अयोग्य राजा की तरह नौकरशाही भी समाप्त होगी और देश के कुशासन की समाप्ति होगी। अंग्रेजों के शासन से देश मुक्ति की कामना ही ‘नील देवी’ नाटक में ऐतिहासिक पृश्ठभूमि पर उभरती है। साथ ही तत्कालीन समाज में तीव्रता से उठ रहे ‘नारी स्वातंत्रय’ के पक्ष विपक्ष के द्वन्द्व को भी प्रस्तुत किया है।
‘‘चन्द्रावली’ और ‘सती प्रताप’ प्रेम की कोमल अभिव्यंजना से अभिभूत नाटक हैं। चन्द्रावली में ईश्वरोन्मुख प्रेम का वर्णन है। ‘सती प्रताप’ में भी पति-प्रेम का अनुकरणीय उज्जवल आदर्श है। इस प्रकार भारतेन्दु के नाटकों में भी प्रेम धारा तथा शृंगारिक मोहकता का वातावरण बना रहा है।
अनूदित और रूपान्तरित नाटक :-
भारतेन्दु ने अंग्रेजी, बंगला तथा संस्कृत के नाटकों के हिंदी अनुवाद भी किए, जिनमें रत्नावली नाटिका, पाखण्ड विखंडन, प्रबोध-चंद्रोदय, धनंजय-विजय, कर्पूर मंजरी, मुद्रा राक्षस तथा दुर्लभ बन्धु आदि हैं। अंग्रेजी से किए गए अनुवादों में भारतेन्दु की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने उसमें भारतीय वातावरण एवं पात्रों का समावेश किया है। सभी नाटकों में मानव-हृदय के भावों की अभिव्यक्ति के लिए गीतों की योजना की है। इन नाटकों का अनुवाद केवल हिन्दी का भण्डार भरने की दृष्टि से नहीं किया गया बल्कि हिन्दी नाटकों के तत्वों में अपेक्षित परिवर्तन के लिए दिशा-निर्देश करने के उद्देश्य से किया गया। रूपांतरित नाटकों में ‘विद्या सुन्दर’ और ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक आते हैं। ‘विद्यासुन्दर’ में प्रेम विवाह का समर्थन करते हुए भारतेन्दु मां-बाप के आशीर्वाद को अनिवार्य मानते हैं। ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ में सामाजिक विकृतियों से ऊपर उठ कर सत्य के आदर्शों से अनुप्राणित होने का आह्नान किया है।
नाट्य-शास्त्र के गम्भीर अध्ययन के उपरान्त भारतेन्दु ने ‘नाटक’ निबन्ध लिख कर नाटक का सैद्धान्तिक विवेचन भी किया है। सामाजिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं को लेकर-अनेक पौराणिक, ऐतिहासिक एवं मौलिक नाटकों की रचना ही नहीं की, अपितु उन्हें रंगमंच पर खेलकर भी दिखाया है। उनके नाटकों में जीवन और कला, सुन्दर और शिव, मनोरंजन और लोक-सेवा का सुन्दर समन्वय मिलता है। उनकी शैली सरलता, रोचकता एवं स्वभाविकता के गुणों से परिपूर्ण है। भारतेन्दु अद्वितीय प्रतिभा के धनी थे। सबसे बड़ी बात यह है कि वे अद्भुत नेतृत्व-शक्ति से युक्त थे। वे साहित्य के क्षेत्र में प्रेरणा के स्रोत थे। फलतः अपने युग के साहित्यकारों और नाटक तथा रंगमंच की गतिविधियों को प्रभावित करने में सफल रहे। इसके परिणामस्वरूप प्रतापनारायण मिश्र, राधाकृष्ण दास, लाला श्रीनिवास, देवकी नन्दन खत्री आदि बहुसंख्यक नाटककारों ने उनके प्रभाव में नाट्य रचना की। यह भी विचारणीय है कि भारतेन्दु मण्डल के नाटककारों ने पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, चरित्रप्रधान राजनैतिक आदि सभी कोटियों के नाटक लिखे। इस युग में लिखे गये नाटक परिमाण और वैविध्य की दृष्टि से विपुल हैं। यहाँ मुख्य धाराओं का परिचय प्रस्तुत हैः
(क) पौराणिक धारा : इसकी तीन उपधाराएं : (1) रामचरित सम्बन्धी, (2) कृष्णचरित सम्बन्धी तथा (3) अन्य पौराणिक आख्यानक सम्बन्धी हैं। रामचरित सम्बन्धी नाटकों में देवकीनन्दन खत्री-कृत ‘सीताहरण’ (1876) और ‘रामलीला’ (1879), शीतलाप्रसाद त्रिपाठी-कृत ‘रामचरित्र नाटक’ (1891) उल्लेखनीय हैं। कृष्ण चरित सम्बन्धी नाटकों में अम्बिकादत्त व्यास-कृत ‘ललिता’ (1884), हरिहरदत्त दूबे-कृत ‘महारास’ (1885) और ‘कल्पवृक्ष’ तथा सूर्यनारायण सिंह कृत ‘श्यामानुराग नाटिका’ (1899) उल्लेखनीय हैं। कृष्ण-परिवार के व्यक्तियों के चरित्र से सम्बन्धी नाटकों में चन्द्र शर्मा-कृत ‘उषाहरण’ (1887), कार्तिक प्रसाद खत्री-कृत उषाहरण (1892) और अयोध्यासिंह उपाध्याय-कृत ‘प्रद्युम्न-विजय’ (1893) तथा ‘रुक्मणी परिणय’ (1894) हैं। पौराणिक आख्यानकों से सम्बन्धी गजराजसिंह-कृत ‘द्रोपदी हरण’ (1882), श्री निवासदास-कृत ‘प्रींद चरित्र’ (1888), बालकृष्ण भट्ट-कृत ‘नल-दमयन्ती स्वयंवर’ (1895) और शालिग्राम लाल-कृत अभिमन्यु (1898) प्रसिद्ध हैं।
(ख) ऐतिहासिक धारा : ऐतिहासिक नाटक-धारा ‘नीलदेवी’ से प्रारम्भ होती है। ऐतिहासिक नाटकों में श्रीनिवासदास-कृत ‘संयोगिता स्वयंवर’ (1886), राधाचरण गोस्वामी-कृत ‘अमर सिंह राठौर’ (1895) और राधाकृष्ण दास-कृत ‘महाराणा प्रताप’ (1896) ने विशेष ख्याति प्राप्त की।
(ग) समस्या-प्रधान धारा : भारतेन्दु ने अपने सामाजिक नाटकों और प्रहसनों में नारी समस्या को जिस ढंग से उठाया था, वहीं उनके मण्डल के सभी नाटककारों पर छाया रहा। प्राचीन आदर्शों के अनुरूप उनमें पतिनिष्ठा की प्रतिष्ठा की गयी और नवीन भावनाओं के अनुरूप, बाल-विवाह-निषेध, पर्दा-प्रथा का विरोध और विधवा-विवाह तथा स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया गया। श्री राधाचरणदास-कृत ‘दुःखिनी बाला’ (1880), प्रतापनारायण मिश्र-कृत ‘कलाकौतुक’ (1886), बालकृष्ण भट्ट-कृत ‘जैसा काम वैसा परिणाम’ (1913), काशी नाथ खत्री-कृत ‘विधवा विवाह’ (1899) बाबू गोपालराम गहमरी-कृत ‘विद्या विनोद’ आदि नाटक नारी-समस्याओं को केन्द्र-बिन्दु मानकर लिखे गये। इन समस्या-प्रधान नाटकों का मूलस्वर समाज-सुधार है। इस युग में जो तीव्र संघर्ष सामाजिक स्तर पर सुधारवाद की भावना से हो रहा था, वैसा इस काल के नाटकों में नहीं दिखाई देता। इनमें नाटक के नाम पर समस्याओं का वर्णन मात्र हुआ है। पिफर भी इनमें सामाजिक जागरूकता मुख्य हुई है। इसमें संदेह नहीं कि ये अपने इसी स्वरूप में आगे के नाटकों के लिए कड़ी या आधार रहे।
(घ) प्रेम-प्रधान-धारा : रीतिकाल की शृंगारिक प्रवृत्ति भारतेन्दु : युग की कविताओं में ही नहीं नाटकों में भी देखने को मिल जाती है। प्रेम-प्रधान रोमानी नाटकों में श्रीनिवास दास-कृत ‘रणधीर प्रेममोहनी’ (1877), किशोरीलाल गोस्वामी-कृत ‘मयंक मंजरी’ (1891) और ‘प्रणयिनी परिणय’ (1890), खड्ग बहादुरमल्ल-कृत ‘रति कुसुमायुध’ (1885) शालिग्राम शुक्ल-कृत लावण्यवती’ सुदर्शन (1892) तथा गोकुलनाथ शर्मा-कृत ‘पुष्पवती’ (1899) उल्लेखनीय हैं। यद्यपि इन नाटकों में उपदेशों की भी सर्वत्र भरमार है जिनमें समय का सदुपयोग, वेश्या से घृणा, छोटे-बड़े के भेद की व्यर्थता, भाग्यवाद में विश्वास आदि विषयों पर भी उपदेश दिये गये हैं, पिफर भी इन नाटकों की विषय-वस्तु तथा अभिप्राय रोमांटिक हैं।
(च) राष्ट्रीय प्रहसन धारा : राष्ट्रीय और व्यंग्यात्मक नाटकों
की परम्परा ‘नीलदेवी’, ‘भारत
दुर्दशा’ आदि
द्वारा चलायी गयी थी। उसका मूल कारण सांस्कृतिक और राष्ट्रीय दृष्टि से उपस्थित
सक्रांति-काल ही था। प्राच्य और पाश्चात्य संस्कृति की टकराहट से नवजागरण का आलोक
विकीर्ण हो रहा था। भारतेन्दु युगीन नाटककारों ने इस जागरण को अभिव्यक्त करने के
लिए प्रहसनों को चुना। इस युग में राष्ट्रीय विचारधारा को उजागर करने वाले, खड्गबहादुर
मल्ल-कृत ‘भारत
आरत’ (1885), अम्बिका दास व्यास-कृत ‘भारत-सौभाग्य’ (1887),
गोपाल राम गहमरी-कृत ‘देश-दशा’ (1892), देवकीनन्दन
त्रिपाठी-कृत ‘भारत
हरण’ (1899) आदि नाटक विशेष उल्लेखनीय हैं। इन
नाटकों में देश की तत्कालीन दुर्दशा का चित्र खींचा गया है। आलोच्य युग के अनेक
सफल प्रहसनों में से बालकृष्ण भट्ट-कृत ‘जैसा काम वैसा परिणाम’ (1877)
और ‘प्रचार
बिडम्बना’ (1899), विजयानन्द त्रिपाठी-कृत ‘महा
अंधेर नगरी’ (1893), राधाचरण गोस्वामी-कृत ‘बूढ़े
मुंह मुहासे’ (1886), राधाकृष्ण दास-कृत ‘देशी
कुतिया विलायती बोल’
आदि प्रहसनों को विशेष प्रसिद्ध प्राप्त हुई। नवीन वैचारिक
आलोक के फलस्वरूप इन प्रहसनों में प्राचीन रूढियों, घिसी हुई परम्पराओं और अंध-विश्वासों पर
व्यंग्य किया गया है तथा समाज के महंतों और कुटिल जनों पर प्रहार किये गये हैं।
आलोच्य युग के नाटक साहित्य का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट होता
है कि इस युग के नाटक विषयवैविध्य में पूर्ण हैं। भारतेन्दु युग के नाम से अभिहित
इस संक्रांति काल में अनेक युग प्रश्नों यथा-कर, आलस्य, पारस्परिक फूट, मद्यपान, पाश्चात्य-सभ्यता
का अन्धानुकरण, धार्मिक
अंधविश्वास, पाखंड, छुआ-छूत, आर्थिक
शोषण, बाल
विवाह, विधवा-विवाह, वेश्या
गमन आदि को नाटकों का विषय बनाया गया। ऐसा नहीं है कि किसी एक नाटक में इनमें से
एक या दो बातों को लिया गया हो,
पर अवसर पाते ही सभी बातें एक ही नाटक में गुम्पिफत हुई हैं।
इससे कथानक में भले ही शिथिलता आ गई हो किंतु जनजीवन की विसंगति अवश्य स्पष्ट हो
जाती है। नाटकों में प्रधान रूप से समाज में व्याप्त अशांति और व्यग्रता का चित्रण
हुआ है। नाटककार अपने युग के प्रति बड़े सजग दिखाई पड़ते हैं। उन्होंने भारत का
अधःपतन अपनी आंखों से देखा था। चारों ओर रूढ़िग्रस्त, निष्क्रिय
और मानसिक दासता में जकड़ी हुई जनता, पाश्चात्य सभ्यता का दूषित प्रभाव, भ्रष्ट
राजनीति, हृदयविदारक
आर्थिक अवस्था आदि ने उनके हृदय में सुधारवादी और राष्ट्रीय विचारों का उद्रेक
किया। फलस्वरूप नाटकों में राष्ट्रीय जीवन को उन्नत बनाने के अनेक उपाय संकेतित
हुए हैं। इनकी वाणी में नवोदित भारत की आकांक्षाओं का स्वर प्रतिध्वनित होता है।
शास्त्रीय दृष्टि से भारतेन्दु-कालीन नाटक:-
संस्कृत-नाट्यशास्त्र की मर्यादा की रक्षा करते हुए लिखे गये।
साथ ही पाश्चात्य नाट्य शास्त्र का प्रभाव भी इन पर लक्षित होता है। पाश्चात्य
ट्रेजडी की पद्धति पर दुःखान्त नाटक लिखने की परम्परा भारतेन्दु के ‘नीलदेवी’ नाटक
से प्रारम्भ हुई। इस युग के नाटक एक ओर पारसी कम्पनियों की अश्लीलता और फूहड़पन की
प्रतिक्रिया थे, तो
दूसरी ओर पाश्चात्य और पूर्व की सभ्यता की टकराहट के परिणाम। इसलिए उनमें अविचारित
पुरानापन या अविचारित नयापन कहीं नहीं है। अभिनेयता की दृष्टि से ये नाटक अत्यधिक
सफल हैं। भारतेन्दु और उनके सहयोगी स्वयं नाटकों में भाग लेते थे और हिन्दी रंगमंच
को स्थापित करने के लिए उत्सुक थे। नाटकों के माध्यम से जनता को वे जागरण का और
आने वाले युग का सन्देश देना चाहते थे। इसी कारण भारतेन्दु-काल में विरचित ये नाटक
सुदृढ़ सामाजिक पृष्ठभूमि पर अवस्थित थे।
अनूदित प्रस्तुत संदर्भ में भारतेन्दु युगीन, नाटकों
पर विचार कर लेना भी समीचीन होगा। इस युग में संस्कृत, बंगला
तथा अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध नाटकों के हिन्दी में अनुवाद किए गए। अनुवाद की
परम्परा भी भारतेन्दु से ही प्रारम्भ हुई थी जिसकी चर्चा पीछे की जा चुकी है। उनके
अतिरिक्त भी अनेक लेखक संस्कृत,
बंगला और अंग्रेजी के नाटक अनूदित करने में संलग्न रहे।
संस्कृत
भवभूतिः
(१) उत्तर रामचरित-देवदत्त तिवारी (1871),
नन्दलाल,
विश्वनाथ दूबे (1891), लाला
सीताराम (1891)।
(२) मालती माधव : लाला शालिग्राम (1881),
लाला सीता राम (1898)।
(३) महावीर चरित : लाला सीताराम (1897)।
कालिदासः
(१) अभिज्ञान शकुन्तला : नन्दलाल विश्वनाथ दूबे (1888)।
(२) मालविकाग्निमित्र : लाला सीताराम (1898)।
कृष्णमित्र
प्रबोध चन्द्रोदय : शीतला प्रसाद (1879),
अयोध्याप्रसाद चौधरी (1885)।
शूद्रक
मृच्छकटिक : गदाधर भट्ट (1880), लाला
सीताराम (1899)।
हर्ष
रत्नावली : देवदत्त तिवारी (1872), बालमुकुन्द
सिंह (1798)।
भट्टनारायण
वेणीसंहार : ज्वालाप्रसाद सिंह (1897)।
बंगला :
माइकेल मधुसूदन दत्तः
(१) पद्मावती : बालकृष्ण भट्ट (1878)।
(२) शर्मिष्ठा : रामचरण शुक्ल (1880)।
(३) कृष्णमुरारी : रामकृष्ण वर्मा (1899)।
- द्वारिकानाथ गांगुली : वीरनारी-रामकृष्ण वर्मा (1899)।
- राजकिशोर दे : पद्मावती : रामकृष्ण वर्मा (1888)।
- मनमोहन वसुः सती : उदित नारायण लाल (1880)।
अंग्रेजी
(१) मरचेंट आफ वेनिस (वेनिस के व्यापारी) : आर्या (1888)।
(२) द कॉमेडी आफ एरर्स (भ्रमजालक) : मुन्शी इमदाद अली, भूल
भुलैया : लाल सीताराम (1885)।
(३) एज यू लाइक इट (मनभावन) : पुरोहित गोपीनाथ (1896)।
(४) रोमियो जूलियट (प्रेमलीला) : पुरोहित गोपीनाथ (1897)।
(५) मैकबैथ (साहसेन्द्र साहस) : मथुराप्रसाद उपाध्याय (1893)।
(6) जोजेफ एडीसनः केटो (कृतान्त) : बाबू तोता राम (1879)
भारतेन्दु-युगीन नाटककारों की अनूदित रचनाएं केवल उनकी अनुवाद
वृत्ति का ही दिग्दर्शन नहीं कराती, वरन् सामाजिक जीवन के उन्नयन के लक्ष्य
को भी प्रकट करती हैं। अनुवादक उन रचनाओं के माध्यम से वस्तुतः एक नाट्यादर्श
प्रस्तुत करना चाहते थे और उन नैतिक तत्वों के प्रति भी जागरूक थे जो नव-जागरण में
सहायक थे। इस प्रकार भारतेन्दु-युगीन इन नाटकों की विषय वस्तु में वैविध्य मिलता
है। रामायण और महाभारत के प्रसंगों को लेकर पौराणिक नाटक बहुतायत से लिखे गये। इसी
संदर्भ में ऐसे नाटकों की संख्या भी पर्याप्त कही जा सकती है जो नारी के सतीत्व और
पतिव्रता के आदर्श से सम्बन्धित है। सामाजिक नाटकों में भी विषयवस्तु का वैविध्य
और विस्तार मिलता है। इस काल में मुख्य रूप से अनमेल विवाह, विधवा
विवाह, बहु
विवाह, मद्यपान, वेश्या
गमन, नारी
स्वातंत्रय आदि समस्याओं पर विचार किया है। किन्तु युगीन सन्दर्भ के प्रति इस
प्रकार की जागरूकता के बावजूद अनुभूति की तीव्रता और नाट्य शिल्प की विशिष्टता के
अभाव में इस युग का नाट्य साहित्य कोई महत्वपूर्ण साहित्यिक देन नहीं दे सका। पिफर
भी नाट्य रचना और रंगमंच के लिए जैसा वातावरण इस युग में बन गया था, वैसा
हिन्दी साहित्य के किसी काल में सम्भव नहीं हुआ।
द्विवेदीयुगीन नाटक :-
भारतेन्दु के अनन्तर साहित्य का जो दूसरा उत्थान हुआ, उसके
प्रमुख प्रेरणा-केन्द्र महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। हिन्दी नाटकों के ऐतिहासिक
विकास-क्रम में पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान भारतेन्दु की तुलना में इतना
नगण्य है कि नाटक के क्षेत्र में द्विवेदी-युग को अलग से स्वीकार करना और महत्त्व
प्रदान करना औचित्यपूर्ण प्रतीत नहीं होता है। भारतेन्दु के अवसान के साथ नाटक के
विकासके लक्षण दिखाई देने लगते हैं। अपने युग की समस्याओं को नाट्यरूप प्रदान करने
का जो अदम्य साहस भारतेन्दु युग के लेखकों में दिखाई पड़ा था उसके दर्शन
द्विवेदी-युग में नहीं होते। इसके कई कारण थे। प्रथम तो हिन्दी के नाटककारों में
नाटक के सूक्ष्म नियमों एवं विधियों की योजना की क्षमता न थी। दूसरे, नाटकों
के इस उदयकाल की सामाजिक स्थिति विक्षोभ पैदा करने वाली थी। इस प्रवृति ने कुछ कर
बैठने की प्रेरणा तो दी किन्तु भावों और विचारों को घटनाओं के साथ कलात्मक ढंग से
नियोजित करने के लिए मानसिक सन्तुलन नहीं प्रदान किया। तीसरे, आर्य
समाज के आन्दोलन के लेखकों पर सुधारवादी जीवन दृष्टि और शास्त्रार्थ शैली का
प्रभाव पड़ा जो निश्चय ही नाटकों के कलात्मक विकास में बाधक हुआ। चौथे, पाश्चात्य
‘कॉमेडी’ के
अंधानुकरण के कारण भारतेन्दु के उपरान्त हिन्दी साहित्य में प्रहसनों की प्रवृत्ति
भी पनप उठी। प्रहसनों की वृिद्ध ने साहित्यिक एवं कलात्मक अभिनयपूर्ण नाटकों की
रचना में व्याघात उपस्थित किया। पांचवें, द्विवेदी-युग नैतिकता और सुधार का युग
था। नैतिकता और आदर्श के प्रतिस्थापन में उनकी दृष्टिकोण संस्कृत के नाटककारों की
भांति उदारवादी था अतएव भारतेन्दु-युग की नवीनता परवर्ती युग के स्वभाव के अनुकूल
न थी। अतः कठोर नीतिवादी अथवा आदर्शात्मक बुद्धिवाद के फलस्वरूप द्विवेदी-युग, भारतेन्दु-युग
की परम्परा को अग्रसर नहीं कर सका।
उपर्युक्त सभी कारणों के फलस्वरूप आलोच्य युग में मौलिक नाटकों
की संख्या अत्यल्प है अनुवाद-कार्य पर अधिक बल रहा है। मौलिक नाटकों में साहित्य
की दो धाराएं प्रमुख हैं :
(1) साहित्यिक नाटक (शौकिया रंगमंच),
(2) मनोरंजन प्रधान नाटक (व्यावसायिक पारसी रंगमंच)
साहित्यिक नाट्य धारा को विकसित करने के उद्देश्य से अनेक नाटक
मंडलियों की स्थापना की गई जेसे प्रयाग की ‘हिन्दी नाटक मण्डली’, कलकत्ते
की नागरी नाटक मंडल’
मुजफ्रफरनगर की ‘नवयुवक समिति’ आदि।
इनमें ‘हिन्दी
नाट्य-समिति’ सबसे
अधिक पुरानी थी। सन्
1893 ई. में यह ‘रामलीला
नाटक मंडली’ के
रूप में स्थापित हुई थी। इसके संस्थापकों में प्रमुख थे : पंडित माधव शुक्ल जो
स्वयं अच्छे अभिनेता और रंगकर्मी थे और जिन्होंने राष्ट्रीयता चेतना प्रचार-प्रसार
के लिए नाटकों को सशक्त माध्यम बनाया था। किन्तु हिन्दी रंगमंच समुचित साधन और
संरक्षण के अभाव में तथा जनता की सस्ती रुचि के कारण अपने उद्देश्य में सफल नहीं
हो पाया। फलतः नाटक का साहित्यिक रूप ही सामने आया। संख्या की दृष्टि में
आलोच्यकाल में लिखे गये नाटक कम नहीं हैं किन्तु मौलिक नाटकों के नाम पर ऐतिहासिक
पौराणिक प्रसंगों को ही नाटकों में या कथोपकथन में परिवर्तित कर दिया गया। अध्ययन
की सुविधा के लिए आलोच्य युग के नाटकों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा
सकता है : पौराणिक,
ऐतिहासिक,
सामाजिक उपादानों पर रचित नाटक, रोमांचकारी नाटक, प्रहसन
और अनूदित नाटक।
पौराणिक नाटक :-
हृदय की वृत्तियों की सत्त्व की ओर उन्मुख करने का प्रयास
भारतेन्दु-युग के नाटकों में बहुत पहले से होता आ रहा था। द्विवेदी-युग से इन
वृत्तियों के उत्कर्ष के लिए पौराणिक आख्यानों का निःसंकोच ग्रहण किया गया। आलोच्य
युग में पौराणिक नाटकों के तीन वर्ग देखने को मिलते हैं : कृष्णचरित-सम्बन्धी, रामचरित
सम्बन्धी तथा अन्य पौराणिक पात्रों एवं घटनाओं से सम्बन्धित। कृष्ण चरित सम्बन्धी
नाटकों में राधाचरण गोस्वामी कृत ‘श्रीदामा’ (1904), ब्रज
नन्दन सहाय-कृत ‘उद्धव’ (1909),
नारायण मिश्र-कृत ‘कंसवध’ (1910), शिव
नन्दन सहाय-कृत ‘सुदामा।’ (1907)
और बनवारी लाल-कृत ‘कृष्ण तथा कंसवध’ (1910)
को विशेष ख्याति प्राप्त है। रामचरित-सम्बन्धी नाटकों में
रामनारायण मिश्र-कृत ‘जनक
बड़ा’ (1906) गिरधर लाल-कृत ‘रामवन
यात्रा’ (1910) और गंगाप्रसाद-कृत ‘रामाभिषेक’ (1910),
नारायण सहाय-कृत ‘रामलीला’ (1911), और
राम गुलाम लाल-कृत ‘धनुषयज्ञ
लीला (1912), उल्लेखनीय हैं। अन्य पौराणिक घटनाओं से
सम्बन्धित नाटकों में महावीर सिंह का ‘नल दमयन्ती’ (1905),
सुदर्शनाचार्य का ‘अनार्थ नल चरित’ (1906),
बांके बिहारी लाल का ‘सावित्री नाटिका’ (1908),
बालकृष्ण भट्ट का ‘बेणुसंहार’ (1909),
लक्ष्मी प्रसाद का ‘उर्वशी’ (1907) और
हनुमंतसिंह का ‘सती
चरित’ (1910), शिवनन्दन मिश्र का ‘शकुन्तला’ (1911),
जयशंकर प्रसाद का ‘करुणालय (1912) बद्रीनाथ
भट्ट का ‘कुरुवन
दहन’ (1915), माधव शुक्ल का ‘महाभारत-पूर्वाद्धर्’ (1916),
हरिदास माणिक का ‘पाण्डव-प्रताप’ (1917)
तथा माखन लाल चतुर्वेदी का ‘कृष्णार्जुन-युद्ध (1918) महत्वपूर्ण
हैं।
इन नाटकों का विषय पौराणिक होते हुए भी पारसी रंगमंच के अनुरूप
मनोरंजन करने के लिए हास-परिहास,
शोखी और छेड़छाड़ के वातावरण का ही आधार ग्रहण किया गया है।
ऐतिहासिक नाटक :-
पौराणिक नाटकों के साथ ही इस काल में कुछ ऐतिहासिक नाटक भी
लिखे गए जिनमें : गंगाप्रसाद गुप्त का ‘वीर जय माल’ (1903),
शालिग्राम कृत ‘पुरु विक्रम’ (1905),
वृन्दावन लाल वर्मा का ‘सेनापति ऊदल’ (1909),
कृष्ण प्रकाश सिंह कृत ‘पन्ना’ (1915), बद्रीनाथ
भट्ट कृत ‘चन्द्रगुप्त’ (1915),
हरिदास माणिक-कृत ‘संयोगिता हरण’ (1915),
जयशंकर प्रसाद का ‘राज्यश्री’ (1915)
और परमेश्वरदास जैन का ‘वीर चूड़ावत सरदार’ (1918)
महत्त्वपूर्ण हैं। इन नाटकों में प्रसाद के ‘राज्यश्री’ नाटक
को छोड़कर और किसी भी नाटक में इतिहास-तत्त्व की रक्षा नहीं हो सकी।
सामाजिक-राजनैतिक समस्यापरक नाटक :-
द्विवेदी-युग में भारतेन्दु-युग की सामाजिक-राजनीतिक और
समस्यापरक नाटकों की प्रवृत्ति का अनुसरण भी होता रहा है। इस धारा के नाटकों में
प्रताप नारायण मिश्र-कृत ‘भारत
दुर्दशा’ (1903) भगवती प्रसाद-कृत ‘वृद्ध
विवाह’ (1905), जीवानन्द शर्मा-कृत ‘भारत
विजय’ (1906), रुद्रदत शर्मा-कृत ‘कंठी
जनेऊ का विवाह’ (1906), कृष्णानन्द जोशी-कृत ‘उन्नति
कहां से होगी’ (1915), मिश्र बन्धुओं का ‘नेत्रोन्मीलन' (1915)
आदि कई नाटक गिनाए जा सकते हैं। नाट्यकला की दृष्टि से विशेष
महत्व न रखते हुए भी ये नाटक,
समाज सुधार और नैतिकवादी जीवन दृष्टि से युक्त हैं।
व्यवसायिक दृष्टि से लिखे नाटक:-
इस युग में पारसी रंगमंच सक्रिय रहा जिसके लिए निरन्तर
रोमांचकारी, रोमानी
और धार्मिक नाटक लिखे जाते रहे। पारसी नाटक कम्पनियों के रूप में व्यवसायी रंगमंच
का प्रसार भारतेन्दु-युग में ही हो चुका था। इस काल में ‘ओरिजिनल
थियेट्रिकल कम्पनी’,
‘विक्टोरिया थियेट्रिकल कम्पनी’, ‘एल्प्रफेड थियेट्रिकल कम्पनी’, ‘शेक्सपीयर
थिटेट्रिकल कम्पनी’,
‘जुबिली कम्पनी’ आदि कई कम्पनियां 'गुलबकावली’, ‘कनकतारा’, ‘इन्दर
सभा’, ‘दिलफरोश’, ‘गुल
फरोश’, ‘यहूदी
की लड़की’, जैसे
रोमांचकारी नाटक खेलती थीं। रोमांचकारी रंगमंचीय नाटककारों में मोहम्मद मियाँ रादक’, हुसैन
मियाँ ‘जर्राफ’, मुन्शी
विनायक प्रसाद ‘तालिब’, सैयद
मेंहदी हसन ‘अहसान’, नारायण
प्रसाद बेताब’, आगा
मोहम्मद हश्र’ और
राधेश्याम ‘कथावाचक’ उल्लेखनीय
हैं। इनमें राधेश्याम कथावाचक और ‘बेताब’ ने सुरुचिपूर्ण धार्मिक-सामाजिक नाटक भी
लिखे, किन्तु
पारसी रंगमंच का सारा वातावरण दूषित ही रहा, जिसने द्विवेदी-युग में नाट्य लेखन की
धारा को कुंठित कर दिया।
प्रहसन :-
इस काल में अनेकानेक स्वतंत्र प्रहसन भी लिखे गये। अधिकांश
प्रहसन लेखकों पर पारसी रंगमंच का प्रभाव है, इसलिए वे अमर्यादित एवं उच्द्दष्ंखल
हैं। प्रहसनकारों में बदरीनाथ भट्ट एवं जी. पी. श्रीवास्तव के नाम सर्वाधिक
उल्लेखनीय हैं। भट्ट जी के ‘मिस
अमेरिका’, ‘चुंगी
की उम्मीदवारी’,
‘विवाह विज्ञापन’, ‘लबड़ध ोंधों’ आदि
शिष्ट-हास्यपूर्ण प्रहसन हैं। जी.पी.
श्रीवास्तव ने छोटे-बड़े अनेक प्रहसन लिखे हैं। इन प्रहसनों
में सौष्ठव और मर्यादा का अभाव है।
अनूदित नाटक :-
मौलिक नाटकों की कमी द्विवेदी-युग में अनूदित नाटकों द्वारा
पूरी की गई। सामाजिक तथा राजनीतिक अशान्ति के इस वातावरण में लेखकों को हिन्दी
नाटक-साहित्य की हीनता स्पष्ट दिखाई देती थी। अतः कुछ थोड़े उदात्तवादी परम्परा के
लोगों का ध्यान संस्कृत नाटकों की ओर गया, परन्तु अधिकांश का अध्ययन बंगला तथा
पाश्चात्य नाटकों की ओर ही अधिक था।
संस्कृत से लाला सीताराम ने ‘नागानन्द’, ‘मृच्छकटिक’, ‘महावीरचरित’, ‘उत्तररामचरित’, मालती
माधव’ और
‘मालविकाग्निमित्र’ और
सत्यनारायण कविरत्न ने ‘उत्तररामचरित’ का
अनुवाद किया। अंग्रेजी से शेक्सपीयर के नाटकों ‘हेमलेट’, ‘रिचर्ड’ द्वितीय’, ‘मैकवेथ’ आदि का हिन्दी में अनुवाद भी लाला
सीताराम ने किया। प्रफांस के प्रसिद्ध नाटककार ओलिवर’ के
नाटकों को लल्लीप्रसाद पांडेय और गंगाप्रसाद श्रीवास्तव ने अंग्रेजी के माध्यम से
अनूदित किया।
बंगला नाटकों का अनुवाद प्रस्तुत करने वालों में गोपालराम
गहमरी स्मरणीय हैं। उन्होंने ‘बनवीर’ ‘बभ्रुवाहन’, ‘देश
दशा’, ‘विद्याविनोद’, ‘चित्रागंदा’ आदि
बंगला नाटकों के अनुवाद किये। बंगला नाटकों के अन्य समर्थ अनुवादक रामचन्द्र वर्मा
तथा रूप नारायण पांडेय हैं। उन्होंने गिरीशचन्द्र घोष, द्विजेन्द्र
लाल राय, रवीन्द्रनाथ
ठाकुर, मनमोहन
गोस्वामी, ज्योतीन्द्रनाथ
ठाकुर तथा क्षीरोद प्रसाद के नाटकों का अनुवाद किया। पांडेय जी के अनुवाद बड़े सफल
हैं, उनमें
मूल नाटकों की आत्मा को अधिक सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया गया है।
इसी प्रकार भारतेन्दु-युग तथा प्रसाद-युग को जोड़ने वाले बीच
के लगभग 25-30
वर्षों में कोई उल्लेखनीय नाटक नहीं मिलता। भले ही
प्रसाद-युगीन नाटककारों की आरम्भिक नाट्य कृतियाँ द्विवेदी-युग की सीमा में आती
हैं परन्तु आगे चलकर उनकी नाट्य कृतियों में जो वैशिष्ट्य आता है, वह
उन्हें द्विवेदी-युग के लेखकों से पृथक्क् कर देता है। द्विवेदी-युग में हिन्दी
रंगमंच विशेष सक्रिय नहीं रहा। इस युग में बद्रीनाथ भट्ट ही अपवादस्वरूप एक ऐसे
नाटककार थे, जिन्होंने
नाटकीय क्षमता का परिचय दिया है किन्तु इनके नाटक भी पारसी कम्पनियों के प्रभाव से
अछूते नहीं हैं। उनमें उत्कृष्ट साहित्यिक तत्त्व का अभाव है।
प्रसाद-युगीन नाटक:-
प्रसाद का आगमन नाट्य रचना में व्याप्त गतिरोध को समाप्त करने
वाले युग-विधायक व्यक्ति के रूप में हुआ। उन्होंने एक प्रवर्त्तक के रूप में कविता, नाटक
तथा निबंध आदि सभी क्षेत्रों में युग का प्रतिनिधित्व किया। डॉ. गुलाबराय का कहना
है, ‘प्रसाद
जी स्वयं एक युग थे।’
उन्होंने हिन्दी नाटकों में मौलिक क्रांति की। उनके नाटकों को
पढ़कर लोग जितेन्द्र लाल के नाटकों को भूल गये। वर्तमान जगत के संघर्ष और कोलाहलमय
जीवन से ऊबा हुआ उनका हृदयस्थ कवि उन्हें स्वर्णिम आभा से दीप्त दूरस्थ अतीत की ओर
ले गया। उन्होंने अतीत के इतिवृत्त में भावना का मधु और दार्शनिकता का रसायन घोलकर
समाज को एक ऐसा पौष्टिक अवलेह दिया जो ह्रास की मनोवृत्ति को दूर कर उसमें एक नई
सांस्कृतिक चेतना का संचार कर सके। उनके नाटकों में द्विजेन्द्रलाल राय की सी
ऐतिहासिकता और रवि बाबू की-सी दार्शनिकतापूर्ण भावुकता के दर्शन होते हैं।
प्रसाद की आरम्भिक नाट्य कृतियां : सज्जन (1910),
‘कल्याणी परिणय (1912), प्रायश्चित
(1912), करुणालय (1913) और
राज्यश्री (1918), द्विवेदी-युग की सीमा के अंतर्गत आती
हैं। प्रसाद के इन नाटकों में उनका परम्परागत रूप तथा प्रयोग में भटकती हुई नाट्य
दृष्टि ही प्रमुखता से उभर कर सामने आती है। नाटक रचना का प्रारम्भिक काल होने के
कारण इन कृतियों में प्रसाद की नाट्य कला का स्वरूप स्थिर नहीं हो पाया है, वह
अपनी दिशा खोज रही है। यह दिशा उन्हें विशाख (1921), अजातशत्रु
(1922), कामना (1927), जनमेजय
का नागयज्ञ (1926) स्कन्दगुप्त (1928),
एक घूँट (1930), चन्द्रगुप्त (1931) और
ध्रुवस्वामिनी (1933) में प्राप्त हुई। इन नाटकों में प्रसाद
जी ने अपनी गवेषणा शक्ति और सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया।
‘सज्जन’
का कथानक महाभारत की एक घटना पर आधारित है। इस नाटक में प्रसाद
जी ने परम्परागत मान्यताओं को स्वीकार करते हुए भारतेन्दु-कालीन नाट्य-प्रणाली को
अपनाया है। ‘कल्याणी
: परिणय’ भी
प्रसाद का प्रारम्भिक प्रयास है,
जिसका अंतर्भाव उन्होंने बाद में ‘चन्द्रगुप्त’ के
चतुर्थ अंक के रूप में किया है। ‘करुणालय’ बंगला के ‘अमित्राक्षर
अरिल्ल छंद’ की
शैली पर लिखा गया गीति-नाट्य है। ‘प्रायश्चित’ हिन्दी
का प्रथम दुखांत मौलिक रूपक है। शिल्प-विधान की दृष्टि से प्रसाद ने इसमें
सर्वप्रथम पाश्चात्य नाट्य-शिल्प को अपनाने का प्रयास किया है। सही अर्थों में ‘राज्यश्री’ प्रसाद
का प्रथम उत्कृष्ट ऐतिहासिक नाटक है। ‘विशाख’ प्रसाद की पूर्ववर्ती और परवर्ती नाटकों
में एक विभेदक रेखा है। इनका कथानक साधारण होते हुए भी देश की तत्कालीन राजनैतिक
धार्मिक और सामाजिक समस्याओं की अभिव्यक्ति से ओतप्रोत है यद्यपि प्रसाद के
अधिकांश नाटक ऐतिहासिक ही हैं परन्तु इतिहास की पीठिका में वर्तमान की समस्याओं को
वाणी देने का विचार प्रसाद ने सर्वप्रथम इसी नाटक में व्यक्त किया है। भूमिका में
वे लिखते हैं मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकांड घटनाओं
का दिग्दर्शन कराने की है जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने में बहुत
प्रयास किया है। और वह वर्तमान स्थिति परतंत्र भारत के राजनैतिक सामाजिक परिवेश से
जुड़ी हुई थी। अपनी सत्ता को स्थानयी बनाये रखने के लिए ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीयों
में फूट डालने के लिए अपनाये गये साम्प्रदायिकता, प्रांतीयतावाद के हथकण्डे प्रसाद से
छिपे नहीं थे। अतः इतिहास की पीठिका पर उन्होंने वर्तमान के इन प्रश्नों को यथार्थ
की दृष्टि से उठाते हुए समन्वयवादी आदर्श समाधान प्रस्तुत किये। युगीन
साम्प्रदायिक प्रभावों को आत्मसात करते हुए प्रसाद ने अपने नाटकों में
ब्राह्मण-बौद्ध धार्मिक संघर्षों को रूपायित किया है। ‘जनमेजय
का नागयज्ञ’ नाटक
आर्यों और नागजति तथा आर्य-नाग-संघर्ष की पृष्ठभूमि में रचा गया है। ‘अजातशत्रु’ में
आर्य जनपदों का पारस्परिक संघर्ष परोक्ष रूप में युगीनसाम्प्रदायिक संघर्षों का ही
प्रतिरूप है। इस प्रकार अपनी इन प्रौढ़ कृतियों में प्रसाद ने जातीय, क्षेत्रीय
तथा वैयक्तिक भेदों को मिटाकर व्यापक राष्ट्रीयता का आह्नान किया है। इस दृष्टि से
‘स्कन्दगुप्त’ और
‘चन्द्रगुप्त’ विशेष
रूप से उल्लेखनीय हैं। ‘कामना’ और
‘एक
घूंट’ भिन्न
कोटि के नाटक हैं। इनकी कथावस्तु ऐतिहासिक नहीं है। कथ्य की दृष्टि से भी ये भिन्न
हैं। इनमें प्रसाद ने भौतिक विलासिता का विरोध किया है। ‘कामना’ में
विभिन्न भावों को पात्र रूप में प्रस्तुत किया गया है, इसलिए
उसे प्रतीक नाटक कहा जा सकता है। ‘एक घूट’ एकांकी है और उसमें प्रसाद ने यथार्थ और
आदर्श की स्थिति,
जीवन का लक्ष्य और स्त्री-पुरुष की प्रेम-भावना के सामंजस्य को
चित्रित किया है। ‘धु्रवस्वामिनी
प्रसाद की अन्तिम कृति है। अन्य नाटकों में प्रसाद विशेष रूप से राजनैतिक प्रश्नों
के यथार्थ से जूझते रहे हैं,
परन्तु ‘ध्रुवस्वामिनी’ में
सामाजिक जीवन की वर्तमान युगीन नारी समस्या पर बौद्धक विचार विमर्श कर यथार्थ
दृष्टि का परिचय दिया है। नारी-जीवन की इस सामाजिक समस्या के प्रति प्रसाद का
आकर्षण वर्तमान नारी-आन्दोलन का ही परिणाम है। आज के समाज में नारी की स्थिति, दासता
की श्रृंखला से उसकी मुक्ति,
विशिष्ट परिस्थितियों में पुर्नविवाह की समस्या को
बड़े साहस, संयम, तर्क
और विचार एवं धर्म की पीठिका पर स्थित करके इस नाटक में सुलझाया गया है।
स्पष्ट है कि प्रसाद जी ने हिन्दी नाटक की प्रवहमान् धारा को
एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा किया। वे एक सक्षम साहित्यकार थे। उनके हृदय में भारतीय
संस्कृति के प्रति अगाध ममता थी। उन्हें विश्वास था कि भारतीय संस्कृति ही मानवता
का पथ प्रशस्त कर सकती है। इसी कारण अपने नाटकों द्वारा प्रसाद जी ने भारतीय
संस्कृति के भव्य रूप की झांकी दिखाकर राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ-साथ अपने देश के
अधुनातन निर्माण की पीठिका भी प्रस्तुत की है। भारतेन्दु ने अपने नाटकों में जिस
प्राचीन भारतीय संस्कृति की स्मृति को भारत की सोई हुई जनता के हृदय में जगाया था, प्रसाद
ने नाटकों में उसी संस्कृति के उदात्त और मानवीय रूप पर अपनी भावी संस्कृति के
निर्माण की चेतना प्रदान की। पर यह समझना भी भूल होगी कि उन्होंने केवल भारतीय
संस्कृति के गौरव-गान के लिए ही नाटकों की रचना की। वस्तुतः उनका नाट्य साहित्य
ऐतिहासिक होते हुए भी सम-सामयिक जीवन के प्रति उदासीन नहीं है, वह
प्रत्यक्ष को लेकर मुखर है और उनमें लोक-संग्रह का प्रयत्न है, राष्ट्र
के उद्बोधन की आकांक्षा है।
प्रसाद से पूर्व साहित्यिक नाटकों का अभाव था। जिस समय
भारतेन्दु ने नाटक-रचना की शुरुआत की, उनके सामने पहले से निश्चित, प्रतिष्ठित
हिन्दी का कोई रंगमंच न था,
अतः उन्होंने संस्कृत, लोकनाटक एवं पारसी रंगमंच शैली की
विभिन्न रंगपरम्पराओं को सुधारवादी यथार्थ कथ्य के अनुरूप मोड़ देने का स्तुत्य
प्रयास किया। प्रसाद के युग तक नाटकों में पारसी रंगशिल्प का स्वरूप निर्धारित हो
चुका था, अतः
पारसी रंगमंच की अतिरंजना,
चमत्कार,
फूहड़ता,
शोखभाषा,
चुलबुले संवाद, शेरोशायरी के घटियापन की प्रतिक्रिया
में प्रसाद ने अपने ऐतिहासिक,
राष्ट्रीय नाटकों की रचना की। दार्शनिकता, सांस्कृतिक
बोध, उदात्त
कल्पना, काव्यमय
अलंकृति, दुरूह
भाषा का विन्यास उनकी उपलब्धि था। पिफर भी साहित्यिक और कलात्मक वैशिष्ट्य होते
हुए भी प्रसाद में नाट्य शिल्प के अनेक दोष दिखाई देते हैं। एक तथ्य यह है कि
प्रकारान्तर से उन्होंने अतिरंजना की रूढ़ि को किंचित परिवर्तन के साथ ग्रहण किया।
यह परिवर्तन प्रमुखतः शेक्सपीयर के जीवन-बोध, एवं रंगविधान के प्रभावस्वरूप ही आया
था। शेक्सपीयर का रोमानी बोध एवं नियतिवाद संभवतः भारतीय युगीन परिवेश के कारण भी
स्वतः उद्भूत होकर प्रसाद की चेतना पर छा गया था। इन्हीं कारणों से प्रसाद मूलतः
कवि, दार्शनिक
तथा संस्कृति के जागरूक समर्थक थे। जीवन दृष्टि के अनुरूप उन्होंने अपने नाटकों की
रचना स्वच्छन्दतावादी नाट्य-प्रणालियों को आधार बनाकर कल्पना, भावुकता, सौन्दर्य-प्रेम, अतीत
के प्रति अनुराग,
उच्चादर्शों के प्रति मोह तथा शैली शिल्प की स्वच्छन्दता आदि
को ग्रहण किया। किन्तु ऐसे साहित्यिक नाटकों के अनुरूप रंगमंच हिन्दी में नहीं था
इसलिए अन्य सभी दृष्टियों से सफल होते हुए भी प्रसाद के नाटक अभिनय की दृष्टि से
सफल नहीं हो सके। इधर हिन्दी रंगमंच के क्षेत्र में नए प्रयोग हो रहे हैं जिससे आज
के रंगकर्मी, प्रसाद
के नाटकों को चुनौती के रूप में स्वीकार करने लगे हैं। उनके नाटकों को इसीलिए
सर्वथा अभिनेय नहीं कहा जा सकता,
क्योंकि उनमें से कुछ छुटपुट रूप से उनके जीवन काल में ही खेले
गये थे। पिफर भी आकार की विपुलता, दृश्यों की भरमार, चरित्र-बाहुल्य
और विलक्षण दृश्य-योजना उनके नाटकों को रंगमंच के लिए अति कठिन बना देती है।
आधुनिक हिन्दी नाटक साहित्य के विकास में जयशंकर प्रसाद के बाद
हरिकृष्ण प्रेमी को गौरवपूर्ण स्थान दिया जाता है। प्रसाद-युग में ‘प्रेमी’ ने
‘स्वर्ण-विहान’ (1930),
‘रक्षाबन्धन’
(1934), ‘पाताल विजय’ (1936),
‘प्रतिशोध’
(1937), ‘शिवासाधना’ (1937)
आदि नाटक लिखे हैं। इनमें ‘स्वर्ण विहान’, गीतिनाट्य
है और शेष गद्य नाटक। प्रसाद ने जहाँ प्राचीन भारत का चित्रण करते हुए सत्य, प्रेम, अहिंसा
व त्याग का संदेश दिया,
वहाँ प्रेमी जी ने मुस्लिम-युगीन भारत को नाट्य-विषय के रूप
में ग्रहण करते हुए हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने का प्रयत्न किया। देश के
उत्थान और संगठन के लिए इनके नाटक राष्ट्रीय भावना का प्रचार करने वाले हैं।
प्रेमी जी प्रसाद की परम्परा के अनुयायी हैं। परन्तु उन्होंने प्रसाद जी की भांति
अपने नाटकों को साहित्यिक और पाठ्य ही न रखकर उनको रंगमंच के योग्य भी बनाया है।
साहित्यिकता और रंगमंचीयता का समन्वय है उनके नाटकों की विशेषता है। उन्होंने
संस्कृत नाट्य परम्परा का अनुसरण न करके पाश्चात्य नाट्यकला को अपनाया है। इन
नाटकों के कथानक संक्षिप्त एवं सुगठित, चरित्र सरल एवं स्पष्ट, संवाद
पात्रानुकूल एवं शैली सरल व स्वभाविक है।
उपर्युक्त प्रमुख नाट्य कृतियों के अतिरिक्त आलोच्य युग में
धार्मिक-पौराणिक और ऐतिहासिक नाटकों की रचना अत्यधिक हुई। इन नाटकों में कलात्मक
विकास विशेष रूप से नहीं हुआ,
किन्तु युग की नवीन प्रवृत्तियों से प्रभावित होकर कई
नाटककारों ने अपनी रचनाओं में नवीन दृष्टिकोण को अपनाया। धार्मिक नाट्यधाराके
अन्तर्गत कृष्ण चरित-राम चरित,
पौराणिक तथा अन्य सन्त महात्माओं के चरित्रों को लेकर रचनाएं
प्रस्तुत की गइंर्। इस धारा की उल्लेखनीय रचनाएं हैं : अम्बिकादत्त त्रिपाठी कृत ‘सीय-स्वयंवर’ (1918),
रामचरित उपाध्याय-कृत ‘देवी द्रौपदी’ (1921),
राम नरेश त्रिपाठीकृत ‘सुभद्रा’ (1924) तथा
‘जयन्त’ (1934),
गंगाप्रसाद अरोड़ा-कृत ‘सावित्री सत्यवान’ गौरीशंकर
प्रसाद-कृत- ‘अजामिल
चरित्र नाटक’ (1926), पूरिपूर्णानन्द वर्मा-कृत ‘वीर
अभिमन्यु नाटक’ (1927), वियोगी हरि-कृत (1925),
‘छद्मयोगिनी’
(1929) और ‘प्रबुद्ध यामुन’ अथवा
‘यामुनाचार्य
चरित्र’ (1929), जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी-कृत ‘तुलसीदास’ (1934)
लक्ष्मीनारायण गर्ग-कृत’ श्री कृष्णावतार’, किशोरी
दास वायपेयी-कृत ‘सुदामा’ (1934),
हरिऔध-कृत ‘प्रद्युम्न
विजय व्यायोग’ (1939), सेठ गोविन्ददास-कृत ‘कर्त्तव्य’ (1936)
आदि। राष्ट्रीय चेतना की प्रधानता होने के कारण धार्मिक नाटकों
में भी राष्ट्रीयता का चित्रण हुआ। नाटकों में अति-नाटकीय और अति-मानवता का
बहिष्कार किया गया है। प्राचीन रूढ़ियों और मान्यताओं को पूर्ण रूप से हटाने की
चेष्टा की गयी है। इस प्रकार की रचनाओं में नाटककारों ने प्रायः कथावस्तु प्राचीन
साहित्य से लेकर उसी पुराने ढांचे में नई बुद्धवादी धाराओं तथा विचारधाराओं के
अनुसार आधुनिक युग की समस्याओं को उनमें पिफट कर दिया है।
प्रसाद युग में इतिहास का आधारलेकर अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएं
प्रस्तुत की गई। इस समय के नाटककारों की दृष्टि इतिहास की ओर विशेष रूप से गई
क्योंकि यह युग पुनरुत्थान और नवजागरणवादी प्रवृत्तियों से अनुप्राणित था। फलतः जन
साधारण में अपने गौरवपूर्ण इतिहास तथा अपनी महान सांस्कृतिक चेतना का संदेश देना
इन नाटककारों ने अपना कर्त्तव्य समझा। इस काल की गौण ऐतिहासिक कृतियों में
गणेशदत्त इन्द्र-कृत ‘महाराणा
संग्रामसिंह’ (1911), भंवरलाल सोनी-कृत ‘वीर
कुमार छत्रसाल’ (1923), चन्द्रराज भण्डारी-कृत ‘सम्राट’ अशोक
(1923) ज्ञानचन्द्र शास्त्री-कृत ‘जयश्री’ (1924)
प्रेमचन्द-कृत ‘कर्बला’ (1928), जिनेश्वर
प्रसाद भायल-कृत ‘भारत
गौरव’ अर्थात्
‘सम्राट
चन्द्रगुप्त’ (1928) दशरथ ओझा-कृत ‘चित्तौड़
की देवी’ (1928) और प्रियदर्शी सम्राट अशोक (1935),
जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द-कृत ‘प्रताप प्रतिज्ञा’ (1929),
चतुरसेन शास्त्री-कृत ‘उपसर्ग’ (1929) और
‘अमर
राठौर’ (1933) उदयशंकर भट्ट-कृत ‘विक्रमादित्य’ (1929)
और ‘दाहर
अथवा सिंधपतन’ (1943), द्वारिका प्रसाद मौर्य : कृत ‘हैदर
अली या मैसूर-पतन’
(1934), धनीराम प्रेम-कृत ‘वीरांगना
पन्ना’ (1933) जगदीश शास्त्री-कृत ‘तक्षशिला’ (1937)
उमाशंकर शर्मा-कृत ‘महाराणा प्रताप’ आदि
को विशेष ख्याति प्राप्त हुई है। इन नाटककारों ने आदर्शवादी प्रवृत्ति के बावजूद
स्वभाविकता का बराबर ध्यान रखा और कल्पना और मनोविज्ञान की सहायता से प्राचीन काल
की घटनाओं और चरित्रों को स्वाभाविकता के साथ चित्रित करने की चेष्टा की। पुरानी
मान्यताओं तथा अतिलौकिक वर्णनों के स्थान पर वास्तविक कथा-वस्तु को प्रयोग में
लाया गया है। इन चरित्रों में संघर्ष का भी समावेश हुआ। सारांश यह है कि इन नाटकों
के कथानक महत् हैं,
चरित्र सभी दार्शनिक और आदर्शवादी हैं, शैली
कवित्वपूर्ण और अतिरंजित है और नाटकों का वातावरण संगीत और काव्यपूर्ण है। ये
नाट्य-कृतियां हिन्दी नाट्य-कला विकास का एक महत्त्वपूर्ण चरण पूरा करती हैं।
इस युग में पौराणिक और ऐतिहासिक नाटकों की परम्परा का
महत्त्वपूर्ण स्थान तो रहा ही है, इसके अतिरिक्त सामाजिक नाटकोंकी रचना भी
बहुतायत से हुई है। सामाजिक नाटकों में विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ कृत
‘अत्याचार
का परिणाम’ (1921) और ‘हिन्द विधवा नाटक’ (1935),
‘प्रेमचन्द-कृत ‘संग्राम’ (1922) ईश्वरी
प्रसाद शर्मा-कृत दुर्दशा (1922), सुदर्शन-कृत ‘अंजना’ (1923),
‘आनरेरी मैजिस्ट्रेट’ (1929), और
‘भयानक’ (1937),
गोविन्दवल्लभ पन्त-कृत ‘कंजूस की खोपड़ी’ (1923)
और ‘अंगूर
की बेटी’ (1929), बैजनाथ चावला-कृत ‘भारत
का आधुनिक समाज’
(1929), नर्मदेश्वरी प्रसाद ‘राम’-कृत
‘अछूतोद्वार’ (1926),
छविनाथ पांडेय-कृत ‘समाज’ (1929), केदारनाथ
बजाज-कृत ‘बिलखती
‘विधवा’ (1930),
जमनादास मेहरा-कृत ‘हिन्दू कन्या’ (1932),
महादेव प्रसाद शर्मा-कृत ‘समय का फेर’, बलदेव
प्रसाद मिश्र-कृत ‘विचित्र
विवाह’ (1932) और ‘समाज सेवक’ (1933)
रघुनाथ चौधरी-कृत ‘अछूत की लड़की या समाज की चिनगारी’ (1934),
महावीर बेनुवंश-कृत ‘परदा’ (1936), बेचन
शर्मा ‘उग्र’-कृत
‘चुम्बन’ (1937)
और डिक्टेटर’
(1937), रघुवीर स्वरूप भटनागर-कृत ‘समाज
की पुकार’ (1937), अमर विशारद-कृत ‘त्यागी
युवक’ (1937) चन्द्रिका प्रसाद सिंह-कृत ‘कन्या
विक्रय या लोभी पिता’
(1937) आदि उल्लेखनीय हैं। इन नाटकों में
सामाजिक विकृतियों : बाल विवाह,
विधवा-विवाह का विरोध, नारी स्वतंत्रता आदि का चित्रण करते हुए
उनके उन्मूलन का प्रयास दृष्टिगोचर होता है। इन नाटकों में समुन्नत समाज की
स्थापना का प्रयास किया गया है,
भले ही नाट्यकला की दृष्टि से ये नाटक उच्चकोटि के नहीं हैं।
आलोच्य युग में शृंगार-प्रधान नाटकों का प्रायः ह्रास हो गया
था। थोड़ी बहुत प्रतीकवादी परम्परा चल रही थी, किन्तु उसकी गति बहुत धीमी थी। प्रतीक
का महत्व वस्तुतः सांकेतिक अर्थ में है। इस अवधि में प्रसाद की ‘कामना’ के
पश्चात् सुमित्रानन्दन पन्त-कृत ज्योत्स्ना’ (1934) इस
शैली की उल्लेखनीय रचना है। इसमें पंत की रंगीन कल्पनामयी झांकी का मनोरम स्वरूप
व्यक्त होता है। इसके अतिरिक्त एक नाट्य-धारा व्यंग्य-विनोद प्रधान नाटकों को लेकर
थी। इसको प्रमुख रूप से समाज की त्रुटियों, रूढ़िगत विचारों अथवा किसी व्यक्ति
विशेष की विलक्षण प्रवृत्तियों पर चोट करने के लिए प्रस्तुत किया जाता है। इस
प्रकार से किसी भी समस्या पर किया हुआ प्रहार ऊपर से तो साधारण सा प्रतीत होता है।
किन्तु तनिक भी ध्यान देने पर उसके पीछे छिपा हुआ अर्थ-गाम्भीर्य स्पष्ट हो जाता
है। हास्य-व्यंग्य प्रधान नाटकों में जी.पी.
श्रीवास्तव का ‘दुमदार आदमी’ (1919)
गड़बड़ झाला (1919), नाक
में दम उपर्फ जवानी बनाम बुढ़ापा उपर्फ मियां का जूता मियां के सर (1926) भूलचूक
(1928), चोर के घर छिछोर (1933) चाल
बेढव (1934), साहित्य का सपूत (1934),
स्वामी चौखटानन्द (1936) आदि
प्रसिद्ध हैं। जनता में इन नाटकों का खूब प्रचार हुआ परन्तु रस और कला की दृष्टि
से ये निम्नकोटि की रचनाएं हैं। इस युग में कतिपय गीति-नाटकों की भी रचना हुई।
इसमें प्रमुख हैं : मैथिलीशरण गुप्त का ‘अनघ’ (1928) हरिकृष्ण
प्रेमी-कृत ‘स्वर्ण
विहान’ (1937) भगवतीचरण वर्मा-कृत ‘तारा’, उदयशंकर
भट्ट का मत्स्यगंधा (1937) और विश्वमित्र (1938) आदि
उल्लेखनीय है। ‘स्वर्ण
विहान’ में
जीवन की बहिरंग व्यवस्था की ओर अधिक ध्यान दिया गया है और अन्य में आन्तरिक
क्रिया-व्यापारों का चित्रण है। भाव प्रधान होने के कारण इन नाटकों में
कार्य-व्यापार तथा घटना चक्र की कमी मिलती है। भावातिरेक ही भाव-नाट्यों की
प्राणभूत विशेषता है।
इस प्रकार प्रसाद-युग हिन्दी नाटकों के क्षेत्र में नवीन
क्रांति लेकर आया। इस युग के नाटकों में राष्ट्रीय जागरण एवं सांस्कृतिक चेतना का
सजीव चित्रण हुआ है किन्तु रंगमंच से लोगों की दृष्टि हट गयी थी। जो नाटक इस युग
में रचे गये उनमें इतिहास तत्व प्रमुख था और रंगमंच से कट जाने के कारण वे मात्र
पाठ्य नाटक बनकर रह गए। कथ्य के स्तर पर वे देश की तत्कालीन समस्याओं की ओर अवश्य
लिखे गये किन्तु उनमें आदर्श का स्वर ही प्रमुख रहा। पिफर भी इतिहास के माध्यम से
अपने युग की यथार्थ समस्याओं को अंकित करने में वे पीछे नहीं रहे।
प्रसादोत्तर-युगीन नाटक:-
प्रसादोत्तर-युगीन नाटक अधिकाधिक यथार्थ की ओर उन्मुख दिखाई
पड़ते हैं। परन्तु भारत के सामने एक विशिष्ट उद्देश्य था राष्ट्र की स्वाधीनता की
प्राप्ति और विदेशी शासकों के अत्याचारों से मुक्ति प्राप्त करना, फलस्वरूप
व्यापक स्तर पर पुनरुत्थान एवं पुनर्जागरण की लहर फैल गई। इस समूचे काल में
पुनर्जागरण की शक्तियों का प्रभाव होने के कारण चेतना के स्तर पर भावुक, आवेशात्मक, आदर्शवादी, प्रवृत्तियों
से आक्रांत होना नाटककारों के लिए स्वाभाविक था। यही कारण है कि प्रसादोत्तर काल
तक किंचित परिवर्तनों के साथ सभी रचनाकारों की दृष्टि मूलतः आस्था, मर्यादा
एवं गौरव के उच्चादर्शों से मंडित रही। भारतेन्दु ने अपनी अद्भुत व्यंग्यशक्ति एवं
समाज-विश्लेषण की पैनी दृष्टि से सामाजिक यथार्थ का चित्रण किया परन्तु उनकी मूल
चेतना सुधारवादी आग्रहों का परिणाम होने के कारण आस्थामूलक थी। द्विवेदी युग में
भी दो दशकों के अनवरत साहित्यिक अनुशासन आदर्शवादी मर्यादा एवं नैतिकता के कठोर
बन्धन के कारण यथार्थ के स्वर मिद्धम पड़ गए। प्रसाद युगीन नाटकों की मूलधारा भी
राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक आदर्श चेतना से सम्बन्धित थी परन्तु खल पात्रों की
चारित्रिक दुर्बलताओं तथा सद् पात्रों की जीवन चरित्र-सृष्टि में यथार्थ चेतना को
नकारा नहीं जा सकता। 19वीं
शताब्दी में पश्चिमी नाट्य साहित्य में इब्सन् एवं शॉ द्वारा प्रवर्तित यथार्थवादी
नाट्यान्दोलन ने भारतीय नाट्य साहित्य की गतिविधियों को भी प्रेरित एवं प्रभावित
किया। लक्ष्मी नारायण मिश्र ने समस्या नाटकों का सूत्रपात करके बुद्धवादी यथार्थ
को प्रतिष्ठित करने का दावा किया है। परन्तु सिद्धांत एवं प्रयोग में पर्याप्त
अन्तर पाते हुए हम देखते हैं कि एक ओर वैचारिक धरातल पर प्रकृतवाद सुलभ जीवन के
क्रांतिव्यंजक सम्बन्ध उभरते हैं, वहीं दूसरी ओर समाधान खोजते हुए परम्परा
के प्रति भावुकता-सिक्त दृष्टि भी पाई जाती है। ‘भावात्मकता और बौद्धकता’ का
घपला होने के कारण उनके नाटकों का मूल स्वर यथार्थ से बिखर जाता है। स्वतंत्रता
प्राप्ति से पूर्व अन्य युगीन सामाजिक समस्याओं के साथ राष्ट्र की मुक्ति का प्रश्न
सभी नाटककारों की चेतना पर छाया हुआ था। स्वाधीन भारत से उन्हें अनेक प्रकार की
मीठी अपेक्षाएं थीं,
परन्तु विडम्बना यह है कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जीवन
समस्याओं से आक्रांत,
बोझिल और जटिल हो उठा। परिवेश के दबाव से ही यथार्थ बोध की
शुरुआत हुई।
लक्ष्मीनारायण मिश्र ने अपने नाटक का लेखन प्रसाद-युग में ही
प्रारम्भ किया था। उनके अशोक (1927), संन्यासी (1829),
‘मुक्ति का रहस्य’ (1932), राक्षस
का मन्दिर (1932), ‘राजयोग’ (1934), सिन्दूर
की होली (1934), ‘आधी रात’ (1934) आदि
नाटक इसी काल के हैं। किन्तु मिश्र जी के इन नाटकों में भारतेन्दु और प्रसाद की
नाट्यधारा से भिन्न प्रवृत्तियां दृष्टिगोचर होती हैं। जैसा कि पहले संकेत किया जा
चुका है कि भारतेन्दु और प्रसाद-युग के नाटकों का दृष्टिकोण मूलतः राष्ट्रीय और
सांस्कृतिक था। यद्यपि इस युग के नाटकों में आधुनिक यथार्थवादी धारा का
प्रादुर्भाव हो चुका था। तथापि प्राचीन सांस्कृतिक आदर्शों के द्वारा राष्ट्रीयता
का उद्घोष इस युग के नाटककारों का प्रमुख लक्ष्य था। अतः उसे हम सांस्कृतिक
पुनरुत्थान की दृष्टि कह सकते हैं, जिनमें प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों और
नयी यथार्थवादी चेतना में समन्वय और सन्तुलन परिलक्षित होता है। मिश्र जी नयी
चेतना के प्रयोग के अग्रदूत माने जाते हैं। डॉ. विजय बापट के मतानुसार नयी बौद्धक
चेतना का विनियोग सर्वप्रथम उन्हीं के तथाकथित समस्या नाटकों में मिलता है। इस
बौद्धक चेतना और वैज्ञानिक दृष्टि का प्रादुर्भाव बीसवीं शताब्दी में पश्चिमी
चिन्तकों के प्रभाव से हुआ था। डारविन द्वारा प्रतिपादित विकासवादी सिद्धान्त, प्रफायड
के मनोविश्लेषण सिद्धान्त और मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकतावादी सिद्धान्तों ने
यूरोप को ही नहीं,
भारतीय जीवन पद्धति को भी प्रभावित किया जिसके फलस्वरूप जीवन
में आस्था और श्रद्धा की बजाय तर्क को प्रोत्साहन मिला। पश्चिम में इस प्रकार की
बौद्धक चेतना ने समस्या नाटक को जन्म दिया। उन्हीं की प्रेरणा से मिश्र जी ने भी
हिन्दी नाटकों में भावुकता,
रसात्मकता और आनन्द के स्थान पर तर्क और बौद्धकता का समावेश
किया। साथ ही द्रष्टव्य है कि बुद्धवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए भी वे परम्परा-मोह
से मुक्त नहीं हो पाए। युगीन मूल्यगत अन्तर्विरोधी चेतना समान रूप से उनके
प्रत्येक नाटकों में देखी जा सकती है। इनके नाटकों का केन्द्रीय विषय स्त्री-पुरुष
सम्बन्ध एवं सेक्स है। राष्ट्रोद्धार, विश्व-प्रेम आदि के मूल में भी मिश्र जी
ने काम भावना
को ही रखा है, जो
परितृप्ति के अभाव में अपनी दमित वृत्ति को देश सेवा आदि के रूप में अभिव्यक्त
करती है और प्रायः इस प्रकार परितष्प्ति’ के साधन जुटा लेती है।
मिश्र जी के नाटकों के साथ हिन्दी-नाटक के विषय और शिल्प दोनों
में बदलाव आया है। मिश्र जी के सभी नाटक तीन अंकों के हैं। इनमें इब्सन की नाट्य
पद्धति का अनुसरण कर किसी भी अंक में बाह्यतः कोई दृष्य विभाजन नहीं रखा गया है
यद्यपि दृष्य-परिवर्तन की सूचना यत्र-तत्र अवश्य दे दी जाती है। प्रेम, विवाह
और सेक्स के क्षेत्र में विघटित जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति के लिए मिश्र जी ने
शिल्पगत नवीनता को अपनाया है। पात्र समस्या के सम्बन्ध में तर्कमूलक वाद-विवाद
करते हुए दिखाई देते हैं। कार्य-व्यापार के अभाव से इनके नाटकों में रुक्षता आ गई।
जिसके फलस्वरूप प्रभावान्विति खण्डित हो गई। रसात्मकता, प्रभावन्विति
के स्थान पर बौद्धक आक्रोश और उत्तेजना ही इनके नाटकों में प्रधान है। लेकिन
भावुकता के कारण इनके नाटकों का शिल्पगत गठन प्रभावित हुआ है। इस अन्तर्विरोध के
रहते हुए भी इनके नाटक अकलात्मक नहीं कहे जा सकते।
उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ उन नाटककारों में हैं जिन्होंने
प्रसादोत्तर काल में नाट्य परम्परा को निर्भीक और बुनियादी यथार्थ की मुद्रा
प्रदान की। काल-क्रम के अनुसार उनके प्रमुख नाटक हैं : ‘जय-पराजय’ (1937),
स्वर्ग की झलक’ (1938, ‘छठा
बेटा’ (1940), ‘कैद’ (1943-45), ‘उड़ान’ (1943-45),
‘भंवर’
(1943), ‘आदि मार्ग’ (1950),
‘पैतरे’
(1952), ‘अलग-अलग रास्ते’ (1944-53),
‘अंजो दीदी’
(1953-54), ‘आदर्श और यथार्थ’ (1954)
आदि। अश्क के प्रायः सभी नाटकों में विकसित नाट्य-कला के दर्शन
होते हैं। वस्तु-विन्यास की दृष्टि से इनके नाटक सुगठित, स्वाभाविक, सन्तुलित
एवं चुस्त बन पड़े हैं। उच्च मध्य वर्गीय समाज की रुढ़ियों, दुर्बलताओं, उनके
जीवन में व्याप्त ‘कृत्रिमता’, दिखावे
और ढोंग का पर्दाफाश करना उनके नाटकों का मूलभूत कथ्य है। यह कथ्य समाज के स्थूल
यथार्थ से सम्बन्धित है। कथ्य की स्थूलता और सतही प्रगतिशील यथार्थवादिता ही अश्क
के नाटकों की सीमा है,
तथापि स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्ति के सम्मोहन से हिन्दी नाटक को
मुक्त करने का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है। उनकी विशेषता इस बात में है कि
उन्होंने जीवन और समाज को एक आलोचक की दृष्टि से देखा है। इनके अनेक नाटक मंचित
तथा रेडियो पर प्रसारित हो चुके हैं। इनका योगदान हिन्दी नाटक और रंगमंच के लिए एक
विशेष उपलब्धि है।
आलोच्य-युग में कुछ पुराने खेमे के नाटककार यथा : सेठ
गोबिन्ददास, लक्ष्मी
नारायण मिश्र, हरिकृष्ण
प्रेमी, गोविन्द
वल्लभ पंत, उदयशंकर
भट्ट, जगन्नाथ
प्रसाद ‘मिलिन्द’ आदि
भी नाट्य साहित्य को समृद्ध करते रहे। सेठ गोविन्ददास के ‘कर्ण’ (1942),
शशि गुप्त (1942) आदि पौराणिक नाटकों और ‘हिंसा
और अहिंसा’ (1940), सन्तोष कहाँ (1941) आदि
सामाजिक नाटकों की रचना की। हरिकृष्ण प्रेमी के ‘छाया’ (1941) और
बन्धक (1940), सामाजिक नाटक हैं। दोनों नाटकों में
आर्थिक शोषण एवं विषमता का यथार्थ मुखरित है। ऐतिहासिक नाटकों में ‘आहुति’ (1940),
स्वप्नभंग (1940), विषपान (1945), साँपों
की सृष्टि, उद्धार
आदि उल्लेखनीय हैं। ‘अमृत-पुत्री’ (1978),
नवीनतम ऐतिहासिक नाटक हैं। गोबिन्द वल्लभ पंत ने आलोच्य युग
में ‘अन्तःपुर
का छिद्र (1940), ‘सिन्दूर बिन्दी’ (1946)
और ‘ययाति’ (1951)
नाटकों की रचना की। पन्त जी ने ‘कला के लिए कला’ की
भावना से प्रेरित होकर नाटकों की रचना अवश्य की है, किन्तु उनके नाटक उद्देश्य से रहित नहीं
हैं। उन्होंने जीवन की गहरी उलझनों एवं समस्याओं को बड़ी सूक्ष्मता से चित्रित
किया है। पंत ने यद्यपि प्रसाद-युग की परम्परा का निर्वाह किया है, किन्तु
उनके परवर्ती नाटकों में सामाजिक चेतना अधिकाधिक मुखर होती गई है। लक्ष्मीनारायण
मिश्र ने ‘गरुड़ध्वज’ (1945),
‘नारद की वीणा’, ‘वत्सराज’ (1950) ‘दशाश्वमेघ
(1950), ‘वितस्ता की लहरें’ (1953),
‘जगदगुरु’,
चक्रव्यूह (1953), कवि भारतेन्दु (1955),
‘मृत्यु×ज्य’ (1958)
चित्रकूट,
अपराजित,
धरती का हृदय आदि नाटकों की रचना की। सभी नाटकों में वर्तमान
युग के शिक्षित व्यक्तियों की समस्याओं, उनकी संशयात्मक मनः स्थिति, उनकी
कुंठाओं और मानसिक विकृतियों का स्वाभाविक और मनोविश्लेषणात्मक चित्रण किया गया
है। उदयशंकर भट्ट के नाटकों में ‘राधा’ (1961), ‘अन्तहीन-अन्त’ (1942)
‘मुक्तिपथ’
(1944) ‘शक विजय’ (1949), कालीदास
(1950) ‘मेघदूत’ (1950), विक्रमोर्वशी
(1950), ‘क्रांतिकारी’ (1953),
‘नया समाज’
(1955), पार्वती (1962),
मत्स्यगंधा (1976), आदि
हैं। भट्ट जी के ऐतिहासिक और पौराणिक नाटकों की मूल प्रेरणा राष्ट्रीयता है। इसमें
इतिहास और मिथक के बीच में यथार्थ और समस्या का अहसास भी दिखाई देता है। सामाजिक
नाटकों के माध्यम से भट्ट जी ने वर्तमान जीवन के व्यक्तिगत एवं समाजगत संघर्षों
एवं समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया है। जगन्नाथप्रसाद मिलिन्दका ‘समर्पण’ (1950)
और ‘गौतम
नन्द’ (1952) ख्याति प्राप्त रचनाएं हैं। इनके
अतिरिक्त कई अन्य साहित्यकारों ने भी नाटक के क्षेत्र में अवतरण किया, किन्तु
उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। इनमें बैकुण्ठनाथ दुग्गल, वृन्दावनलाल
वर्मा, सीताराम
चतुर्वेदी, चतुरसेन
शास्त्री, जगन्नाथ
प्रसाद मिलिन्द आदि उल्लेखनीय हैं।
इसी काल में स्वतंत्रता के बाद हिन्दी नाटक में परिवर्तन की एक
नई स्थिति दिखाई देती है। प्रसादोत्तर नाटक के पहले चरण में यथार्थवादी प्रवृत्ति
से अनुप्राणित हुआ और उसके साथ ही समस्यामूलक नाटक का आविर्भाव हुआ। किन्तु
स्वतंत्रता के बाद सामाजिक यथार्थ और समस्या के प्रति जागरूकता के साथ-साथ नाटक के
क्षेत्र में कथ्य और शिल्प के कई नए आयाम उभरे। इसके अतिरिक्त स्थूल यथार्थ के
प्रति नाटककार के दृष्टिकोण में भी अन्तर आया।
युगीन परिवेश के ऐतिहासिक संदर्भों में पाँचवें दशक तक जीवन के
समस्या संकुल होने पर भी आम जनता की स्थिति में सुधार और परिवर्तन आने की अभी
धुँधली सी आशा दिखाई दे रही थी परन्तु छठे दशक के बाद से मीठे मोहक सपने वालू की
भीत की भांति ढह गए,
परिवेश का दबाव बढ़ा, मोहासक्ति भंग हुई और आज परिवेशगत
यथार्थ अधिक नंगा होकर सामने आ रहा है। यथार्थ बोध का सही अभिप्राय मोहभंग की इस
प्रक्रिया से ही जोड़ा जा सकता है। जगदीश चन्द्र माथुर, लक्ष्मी
नारायण लाल आदि नाटककारों ने अपनी ऐतिहासिक एवं सामाजिक रचनाओं द्वारा कुछ सीमाओं
के साथ यथार्थ दृष्टि का परिचय दिया। ‘जगदीशचन्द्र माथुर’ के
चार नाटक प्रकाशित हुए हैं : ‘कोणार्क’ (1954),
‘पहला राजा’
(1969), शारदीया तथा ‘दशरथनन्दन’।
इन नाटकों में क्रमशः मार्क्स एवं प्रफायड के प्रभावसूत्रों को आत्मसात करते हुए
छायावादी रोमानी कथास्थितियों की सृष्टि करने में माथुर की दृष्टि यथार्थवादी एवं
आदर्शवादी, कल्पना
तथा स्वच्छन्दतावादी भावुकता को एक साथ ग्रहण करती है। परिणामतः उनके नाटकों में अन्तर्निहित
समस्याएं जीवन के यथार्थ को व्याख्यायित करते हुए भी यथार्थवादी कलाशिल्प में
प्रस्तुत नहीं हुई हैं। समस्याओं का विश्लेषण एवं विकास बौद्धक एवं तार्किक क्रिया
द्वारा प्रेरित नहीं है। कोणार्क में कलाकार एवं सत्ता के संघर्ष की समस्या धर्मपद
के तार्किक उपकथनों के माध्यम से विश्लेषित हुई हैं। परन्तु ‘शारदीया’ एवं
‘पहला-राजा’ की
समस्याएं प्रगतिशील एवं ”विकासशील
मूल्यों के संघर्ष की भूमि पर अवतरित होते हुए भी बौद्धक एवं तार्किक प्रक्रिया के
अभाव में यथार्थवादी कला की दृष्टि से हमारी चिन्तन शक्ति को उद्बुद्ध नहीं करती
क्योंकि माथुर का विशेष बल आन्तरिक अनुभूतियों एवं मानवीय संवेदना को जगाने पर है।
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