देवकीनन्दन खत्री: हिन्दी का 'शिराज़ी'
औपनिवेशिक शासन के जिस दौर में प्रशासनिक कार्यों के लिए हिंदी भाषा और उसकी लिपि ‘देवनागरी’ को स्थापित करने के अभियान की शुरुआत हुई तो उस समय हिन्दी का महिमा-मंडन और उर्दू के विरोध के बजाय हिंदी के पक्ष को रचनाशीलता के माध्यम से सशक्त करने वालों में बाबू देवकीनन्दन खत्री का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। मुस्लिम शासन के समय से फ़ारसी ही कई रियासतों की राजभाषा बनी हुई थी। अंग्रेज़ों ने भी सशक्त अरबी-फ़ारसी में लिखी उर्दू को ही संपर्क भाषा के रूप में बनाये रखा था। तत्कालीन समय में हिन्दुस्तान में साक्षरों की संख्या महज़ छः प्रतिशत ही थी और नौकरियों आदि के लिए उर्दू और फ़ारसी के ज्ञान की अनिवार्यता के चलते देश का युवा-वर्ग हिन्दी और नागरी लिपि से दूर होता जा रहा था। ऐसे समय में खत्री जी अपने पठनीय और रोचक उपन्यासों, विशेषकर “चन्द्रकान्ता” और “चन्द्रकान्ता संतति” के द्वारा तिलिस्म और ऐयारी का ऐसा जादू बिखेरा कि लाखों युवा और पाठक सम्मोहित होकर हिन्दी भाषा और उसकी लिपि ’देवनागरी’ सीखने के लिए विवश हो गए | चन्द्रकान्ता मूलत: एक प्रेम कथा है। इस अभूतपूर्व लोकप्रियता से प्रेरित होकर उन्होंने इसी कथा को आगे बढ़ाते हुए चौबीस भागों वाला दूसरा उपन्यास चन्द्रकान्ता सन्तति (1894 – 1904) लिखा जो चन्द्रकान्ता की अपेक्षा कई गुणा अधिक रोचक और लोकप्रिय भी हुआ। यही नहीं इन कालजयी रचनाओं का रसास्वादन करने के लिए कई गैर-हिन्दी भाषियों ने हिन्दी भाषा सीखी। 'अंग्रेजी ढंग का नावेल' लिखने की आतुरता के बजाय पुरागाथाओं, मिथकों, किंवदन्तियों, लोककथाओं, स्मृतियों और पुराणों आदि के माध्यम से कथा की पुरानी परम्परा के आधार पर उन्होंने जिन कथाकृतियों की रचना की, उनका सारा रचना तंत्र बिलकुल मौलिक और स्वतंत्र है। उनका महत्त्व इस आधार पर समझा जा सकता है कि हिन्दी भाषा और उसकी लिपि ’देवनागरी’ से सबसे अधिक संख्या में पाठकों को जोड़ने में बाबू देवकीनन्दन खत्री का योगदान अन्य किसी भी साहित्यकार से अधिक है | यही कारण है कि हिन्दी के सुप्रसिद्ध उपन्यास लेखक श्री वृंदावनलाल वर्मा ने उन्हें हिन्दी का 'शिराज़ी' कहा है। देवकीनन्दन खत्री द्वारा तैयार की गई इसी भूमि पर प्रेमचंद का औपन्यासिक भवन स्थापित होता है जिसे वे भाव और भाषा के संस्कार और परिमार्जन द्वारा स्थापित करते है|
खत्री जी ने कालजयी उपन्यासों “चन्द्रकान्ता” और “चन्द्रकान्ता संतति” के अलावा ‘कुसुम कुमारी’, ‘नरेंद्र मोहिनी’, ‘भूतनाथ’, ‘वीरेंद्र वीर’, ‘गोदना’ और ‘काजल की कोठारी’ की भी रचना की | उनकी अधिकांश रचनाओं में तिलिस्म और ऐयारी का सम्मोहन है। 'ऐयारी' को उपन्यास का विषय बनाए जाने को लेकर चन्द्रकान्ता उपन्यास में देवकीनन्दन खत्री ने स्पष्ट किया है कि " आज तक हिन्दी उपन्यास में बहुत से साहित्य लिखे गये हैं जिनमें कई तरह की बातें व राजनीति भी लिखी गयी है, राजदरबार के तरीके एवं सामान भी जाहिर किये गये हैं, मगर राजदरबारों में ऐयार (चालाक) भी नौकर हुआ करते थे जो कि हरफनमौला, यानी सूरत बदलना, बहुत-सी दवाओं का जानना, गाना-बजाना, दौड़ना, अस्त्र चलाना, जासूसों का काम देना, वगैरह बहुत-सी बातें जाना करते थे। जब राजाओं में लड़ाई होती थी तो ये लोग अपनी चालाकी से बिना खून बहाये व पलटनों की जानें गंवाये लड़ाई खत्म करा देते थे। इन लोगों की बड़ी कदर की जाती थी। इसी ऐयारी पेशे से आजकल बहुरूपिये दिखाई देते हैं। वे सब गुण तो इन लोगों में रहे नहीं, सिर्फ शक्ल बदलना रह गया है, और वह भी किसी काम का नहीं। इन ऐयारों का बयान हिन्दी किताबों में अभी तक मेरी नजरों से नहीं गुजरा। अगर हिन्दी पढ़ने वाले इस आनन्द को देख लें तो कई बातों का फायदा हो। सबसे ज्यादा फायदा तो यह किऐसी किताबों को पढ़ने वाला जल्दी किसी के धोखे में न पड़ेगा। इन सब बातों का ख्याल करके मैंने यह ‘चन्द्रकान्ता’ नामक उपन्यास लिखा|"
देवकीनन्दन खत्री जी की भाषा और शैली को लेकर आलोचकों के बीच काफी बहस हुई | उनकी भाषा-शैली को हिंदी भाषा की हत्या के रूप में भी देखा गया | उनका ध्यान कथाक्रम की तरफ अधिक रहा है, भावचित्रण की ओर कम । वे एक साथ अनेक समांतर घटनाक्रमों और पात्रों को लेकर चलते हैं। पात्रों और घटनाओं के इस अंतर्जाल में वे विभिन्न पात्रों के भावों को चित्रित करने का बहुत कम अवकाश पाते हैं। इसी कारण हिन्दी के विशाल पाठक समूह तैयार करने में खत्री जी के योगदानों की प्रशंसा करते हुए भी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इनकी रचनाओं को विशुद्ध साहित्य की श्रेणी में स्वीकार नहीं करते हैं। तिलिस्म और ऐयारी के अन्य रचनाकारों से या बहुचर्चित “हैरी पौटर” श्रृंखला की रचनाओं के विपरीत खत्री जी की रचनाओं में तिलिस्म और ऐयारी के चमत्कारों में भी किसी न किसी रूप में विज्ञान और तकनीकी कौशल का वर्णन अवश्य है | “चन्द्रकान्ता संतति” में तरह तरह के जिन यंत्रों की परिकल्पना की गई है, उन पर वैज्ञानिक अविष्कारों की छाया है और बहुत चीजें ऐसी भी है जो उनकी उर्वर कल्पना शक्ति का परिचायक है | उनकी रचनाओं में जब भी कोई पात्र किसी तिलिस्म को तोड़ता है तो उसे संचालित करने वाली मशीनों व कल-पुर्जों को भी देखता है। इस तरह तत्कालीन दौर में खत्री जी विज्ञान और फैंटेसी के अन्यतम रचनाकार थे | यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं होगा कि खत्री जी की रचनाशीलता तत्कालीन हिंदी भाषा और समाज की अनिवार्यता थी, जिसे खत्री जी अनन्य समर्पण के साथ निर्वाह किया |
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